Tuesday, March 11, 2008

शहतूत

समय कितनी जल्दी बीत जाता है पता है नही चलता। अभी कुछ दिन पहले कैंट स्टेशन पर ख़बर के सिलसिले में गया तो वहां शहतूत का पेड़ नज़र आया। उस पर छोटे छोटे शहतूत लगे थे। एकाएक गाँव के दिन याद आ गए। स्कूल में पढ़ाई के दौरान, गर्मियों की छुट्टियों में गाँव चले जाया करते थे। वहां मैं, छोटा भाई रोमी और रोहित तीनों लोग जमकर मस्ती करते। मिटटी के खिलौने बनाते और बाग़ में जाकर शहतूत, खजूर, बेर और आम जो भी फल पेडों पर होते उनको दोपहरी भर तोड़ते। दोपहरी में घर से बाहर घूमने पर अम्मा की डांट भी पड़ती। लेकिन कोई फर्क नही पड़ता। एक समय वो था, जब समय ही समय था। गर्मियों की छुट्टियाँ ऐसी कटतीं थीं किउनका साल भर इंतजार रहता था। लेकिन अब स्थिति यह है कि कब होली आती है और कब दीवाली पता है नहीं चलता। छुट्टी जैसी कोई चीज़ कम से कम पत्रकार की जिंदगी में तो नहीं होती। सामाजिक जिम्मेदारियां या फिर औपचारिकतायें निभाने तक का वक्त नही रहा। नई नई तकनीकी ने जिंदगी को मशीन जैसा बना दिया है। जब मैंने ब्लॉग बनाया, तो मुकेश सर की इस पर नज़र पड़ गई। फट से उनके मुह से एक ही बात निकली किइस तरह की चीजों से लोगों में बची-कुछी सामाजिकता भी ख़त्म हो जायेगी। कहीं न कहीं वो सही कह रहे थे।
लेकिन कैंट स्टेशन पर लगे शहतूत के पेड़ ने वो दिन याद जरूर दिला दिए। मन हुआ किशहतूत तोड़ लूँ। फिर लगा कि अब बड़े हो गए हैं, यह सोचकर नहीं तोड़े और चल दिए ख़बर की तलाश में।

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