Monday, December 1, 2008

शर्म करो नेताओं


आतंकवाद और भारत का चोली दामन का साथ है। इसका दंश झेलते झेलते देशवासियों को अब आदत पड़ गई है मरने की और रोने की। लेकिन मुंबई की घटना ताबूत में आखिरी कील साबित हुई। लोगों का गुस्सा चर्म पर है। देश भर में नेताओं को गालियां पड़ रहीं हैं। होम मिनिस्टर की बलि चढा दी गई। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की कुर्सी भी छीन ली गई। बेचारे रामू को ताज घुमाने ले गए थे। बिग बी ने कहा की उन्होंने अपने जीवन में लोगों के बीच राजनीती के प्रति इतनी घृणा कभी नहीं देखी।

कहाँ हैं राज ठाकरे

एक तरह से यह बिल्कुल सही है। राजनीती अपने न्यूनतम स्तर पर है। नेताओं की आंखों में केवल कुर्सी के सपने हैं। पब्लिक के सरोकारों के लिए उनके पास सिर्फ़ झूठी बातें हैं। उनका एक मात्र उद्देश्य किसी तरह कुर्सी हासिल करके उसको भोगना है। इसके लिए चाहे दंगे कराने पड़ें या समाज को बाँटना पड़े। इसी तरह की गन्दी कोशिश पिछले दिनों राज ठाकरे कर रहे थे। पूरे देश में थू-थू हो रही थी लेकिन राज को केवल महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की कुर्सी की भूख सता रही थी। अब जरा राज ठाकरे देख लें की उनकी आमची मुंबई को बचाने के लिए उत्तर भारतीय कमांडोज ने अपनी जान की बाजी लगा दी। अब तो राज ठाकरे ने एक बार भी नहीं कहा की महाराष्ट्र को केवल मराठी मानूष बचायेंगे। राहुल राज को दिन दहाड़े बीच सड़क पर मौत देकर यह कहने वाले की - 'गोली का बदला गोली है' आरआर पाटिल कहाँ थे। क्यों नहीं आतंकवादियों का जवाब गोली से दिया। क्यो हाथ खड़े कर दिए और सेना की मदद मांगी।

अब तो जागो

अब समय आ गया है की नेताओं को थोडी सी शर्म करनी चाहिए और सस्ती और घटिया राजनीती से परहेज करके देश के बारे में दिल से सोचना चाहिए। वरना अगर जनता सड़क पर उतरी तो अंजाम बुरा होगा ।

4 comments:

  1. शर्म का समय भी निकल चुका है । अब और अवसर नहीं दिए जाने चाहिए ।
    घुघूती बासूती

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  2. जी हां, शर्म करने का समय निकल चुका है।

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  3. मुंबई में आतंकी हमले के बाद कारपोरेट मीडिया अपने आकाओं (कंपनियों और उसके चट्टुओं) के लिए मीडिया से अधिक आंदोलनकारी की भूमिका में आ गया है. इलेक्ट्रानिक मीडिया एक दो फाईवस्टार होटलों में हुए हमलों को जिस तरह से जंग पर उतारू है वह निश्चित रूप से परेशान करनेवाला है. इलेक्ट्रानिक मीडिया जो भूमिका निभा रहा है वह मीडिया से ज्यादा वफादार कुत्ते की भूमिका है जो अपने मालिक के लिए भौंकता है. अगर यह वफादार कुत्ता देश के आम नागरिकों के दुख-दर्द के प्रति इतना वफादार होता तो बात इतनी अखरती नहीं.

    इलेक्ट्रानिक मीडिया के कुछ अंग्रेजी चैनल इस समय भिन्नाए हुए हैं और वे एक आतंकी वारदात को रिपोर्ट करने, उसकी जानकारी देने से आगे के ाम को अंजाम दे रहे हैं. ऐसे चैनलों की भाषा और खबरनवीसी देखेंगे तो समझ आ जाएगा िक वे खबर देने से आगे का काम कर रहे हैं. क्यों? क्योंकि इस बार हमला उन अमीरी और अय्याशी के उन सुरक्षित गढ़ों पर हुआ है जो इस देश के चंद अमीरों की झूठी शान का दिखाने का अड्डा है. निश्चित रूप से इस घटना की निंदा होनी चाहिए और आगे से ऐसी घटनाएं न हों ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए. लेकिन सुरक्षित केवल ताज और ओबेराय ही क्यों हों? या फिर किसी शहर का एकाध हिस्सा बाकी हिस्सों से अधिक सुरक्षित क्यों हो? सुरक्षा तो पूरे देश की होती है. एकसमान होती है.

    फिर ये पूंजीपति और उनके पिट्ठू इलेक्ट्रानिक चैनल सिर्फ एक खित्ते पर हुए हमलों को देश पर हमला बता रहे हैं? यह देश पर हमला होता अगर वह खित्ता देश के बाकी लोगों के दुख दर्द के साथ जुड़ा होता. इलेक्ट्रानिक चैनलों की हिम्मत देखिए. वे राजनीतिक लोगों के चरित्र पर सवाल उठा रहे हैं. एक ऐसा माहौल बनाने में लगे हैं कि इस देश का राजनीति वर्ग बिल्कुल नाकारा है. राजनीतिज्ञों को सड़कों पर खड़ा करके गोली मार देना चाहिए. लेकिन इलेक्ट्रानिक चैनलों के ये पट्टाधारी रिपोर्टर आज अगर इस तरह से अभियान चला रहे हैं तो इसके लिए भी राजनीतिक वर्ग ही दोषी है. राजनीतिक लोग आम आदमी के वोटों से चुनकर वहां पहुंचते हैं लेकिन वहां पहुंचने के बाद वे हमेशा खास आदमियों के लिए काम करते हैं जिनका न राजनीतिक प्रणाली में कोई विश्वास है और न ही इस देश के लोकतंत्र में. लेकिन आश्चर्यजनक रूप से इसी गिटपिटाया जमात के लिए राजनीतिक और प्रशासनिक वर्ग हमेशा काम करता है.


    इलेक्ट्रानिक मीडिया द्वारा राजनीतिक बलि लेने का सिलसिला जारी है. शिवराज पाटिल, आरआर पाटिल के बाद अब निशाने पर भाजपा के मुख्तार अब्बास नकवी हैं. नकवी ने कहा कि लिपस्टिक लगाकर और पाउडर पोतकर जो लोग आतंक के खिलाफ नारा लगा रहे हैं उनके वश में कुछ है कि वे इसे रोक पायेंगे. क्या गलत कहा नकवी ने? एक झिंगूर देखकर घर के बाहर भाग जानेवाले लोग असल में हर प्रकार के आतंक के जन्मदाता होते हैं. आज अगर देश में नक्सलवाद की समस्या है तो उसके मूल में कौन लोग हैं? आज अगर देश में आतंकवाद की समस्या है तो उसके मूल में कौन है? कौन सा वह लालची वर्ग है जो अपनी लालच को पूरा करने के लिए समाज में विषमता पैदा कर रहा है? आप सबको भ्रम है कि वह राजनीतिक लोग हैं. साहब, अब समाजवाद का जमाना नहीं है जहां राजनीतिक व्यक्ति ही सर्वोपरि होता था. यह पूंजीवाद का युग है. और इस पूंजीवादी युग में पूंजीपति राजनीतिक लोगों को सिर्फ प्रयोग करता है. आज उस पर आतंकी हमला हुआ तो उसने अपने पालतू कुत्तों को राजनीतिक लोगों को काटने के लिए ही छोड़ दिया है.

    नतीजा आप सबके सामने आ रहा है. मुंबई के होटलों पर हुए आतंकी हमले हमें यह भी बताते हैं कि इस देश में पूंजीपति कितना ताकतवर हो चुका है. असल में सरकार नाम की मशीनरी उसकी बंधुआ मजदूर होकर रह गयी है और मीडिया का बड़ा वर्ग उसका पट्टेदार सेवक.आम आदमी न कल कहीं था और न आज कहीं है, और ऐसे ही रहा तो आनेवाले वक्त में कल कहीं होगा भी नहीं.visfot.com

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