Sunday, April 5, 2009

आज कलम धन की जय बोल

जब तक है दमड़ी, चढें लोग ड्योढी
जब हो न दमड़ी, दिखावत हैं त्योरी।
हो व्यक्ति कैसा गर हो पास पैसा,
कहता ज़माना उसे हीरे जैसा।
परदा नहीं देखा धन जैसा कोई,
सभी ऐब ढकता बड़ी साफगोई।
घर में भरा हो जो पैसा तुम्हारे,
अड़ोसी-पड़ोसी भी पांव पखारें।
मंत्री तुम्हारे संत्री तुम्हारे,
महिमा परम है पैसे की वह रे।
बातें तुम्हारी लगें सबको प्यारी,
पैसे से होती सभी रिश्तेदारी।
सब सुख जगत के चलें आगे-पीछे,
साड़ी व्यवस्था धन से ही रीझे।
बीवी तुम्हारी, बच्चे तुम्हारे,
सुबह शाम मिलकर आरती अतारें।
चौड़ा सा बंगला लम्बी सी गाड़ी,
बीवी भी पहने इम्पोर्टेड साड़ी।
गाड़ी से आना गाड़ी से जाना,
हफ्ते में छ: दिन होटल में खाना।
पैसे से जम जाए कुछ धाक ऐसी,
बनते हैं सारे दुश्मन हितैषी।
कहते हैं साधू न संग ठीक धन का,
गुरु की शरण जा मिले चैन मन का।
पर हाय रे हाय ये जालिम ज़माना,
बिना धन के मुश्किल गुरु भी बनाना
कहाँ तक लिखूं मैं धन का ये गाना,
कुछ का तो धन बिन पचता न खाना।
धन से ही खाना व धन से नहाना,
ऐसा चला है ये दौर-ऐ-ज़माना।
लक्ष्मी को पूजो, लक्ष्मी को ध्याओ,
लक्ष्मी को खोजो, लक्ष्मी को पाओ।
मन में जगा लो धन की ही ज्वाला
पीना पड़े चाहे विष का ही प्याला।

क्योंकि-
धन ही है माता, पिता भी धन है,
धन ही है बन्धु, सखा भी धन है,
धन ही है विद्या, धन ही है ज्ञाना,
चले न धन बिन कोई विधाना।

3 comments:

  1. बहुत अच्‍छी रचना है ।

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  2. सही लिखा है आजकल धन ही सब कुछ हो गया है।बढिया रचना है।

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  3. every thing is very perfect, you have to decide weather you are living to earn money or you need money to live.

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