Friday, March 19, 2010

ये प्यास (क्यों) है बड़ी...

लो जी, दिल्ली में सड़क किनारे मिलने वाला पानी भी इस बार से महंगा हो गया है। आज ही एक रेहड़ी पर नज़र पड़ी तो देखा कि ५० पैसे वाला गिलास अब एक रूपए का हो गया है। वैसे पहले भी रेहड़ी वाले आठ आने का बहाना करके जबरदस्ती दो गिलास पाने पिला ही देते थे। इस दो गिलास पाने को पेट में एडजस्ट करने में लोगों को ज्यादा दिक्कत नहीं होती थी क्योंकि गिलास रेहड़ी वालों के गिलास का साइज़ छोटा ही है। लेकिन इस बार तो दो गिलास पानी के सीधे दो रूपए ठन्डे करने पड़ेंगे। अभी तो गर्मियों की शुरुआत है, दिल्ली के गर्मी में एक गिलास पानी से काम चलने वाला भी नहीं है।

इससे उन लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है जो बोतल का पाने पीते हैं, न ही उन लोगों को जो इस पाने को स्वस्थ्य के लिए अनहाईजिनिक मानते हैं। इसका असर तो फिर बेचारे कांग्रेस के आम आदमी पर ही पड़ेगा। कांग्रेस के लिए ये चिंतन का विषय हो सकता हाई क्योंकि "केवल" कांग्रेस को आम आदमी कि चिंता है।

तो भाई लोग प्याऊ परंपरा और नदियों के इस इस देश में पानी दिन-ब-दिन महंगा होता जा रहा है। दिल्ली के लोगों को पीने का पानी मयस्सर नहीं हो रहा। हो भी कहाँ से थोड़े बहुत हों तो सरकार सोचे भी, यहाँ तो इंसानों कि सुनामी आई हुई है। वैसे कुछ ठेले वालों ने देश की परम्पराओं का भी ख्याल रखा है। देश का एक बड़ा हिस्सा है जहाँ खाली पानी पीना और पिलाना दोष समझा जाता है। वहां पानी के साथ कुछ खाने को भी दिया जाता है, यानी जल+पान। सो पानी कि रेहड़ी वालों ने अपनी रेहड़ी पर कुछ-कुछ खाने का भी सामान रख छोड़ा है। परंपरा की परंपरा और कमाई की कमाई। तो गला ठंडा करने के लिए खुद ही अपनी जेब ठंडी करें। सरकार और सामाजिक संस्थाओं से कोई उम्मीद न रखें। क्योंकि पानी पिलाने का काम उनको काफी महंगा पड़ सकता है।

1 comment: