Saturday, April 3, 2010

संस्मरण तिलक ब्रिज के...

बात उन दिनों की है जब अपन पत्रकारिता की पढाई पूरी करके नौकरी ढूँढने के अभियान पर थे. हमारे कॉलेज ने एडमिशन के समय जो वादे किये थे वो कोर्स ख़तम होते-होते धराशायी होते नज़र आये. अंततः अपनी क्लास का हर शख्स सड़क पर था, या फिर कुछ ने हायर एजुकेशन के लिए जाना उचित समझा. मुझे कुछ लोगों की ये राय सही लगी कि पत्रकारिता में सीखने के लिए ज्यादा कुछ नहीं है, पीजी करके भी वही नौकरी मिलेगी जो अब ग्राजुएशन करने के बाद मिल सकती है. तो क्यों दो साल बर्बाद करने. सो अपन निकल पड़े नौकरी की तलाश में. इस अभियान में मेरे साथ अनुज का साथ सबसे ज्यादा रहा. मैं चाचा के यहाँ फरीदाबाद में था ओर अनुज गाज़ियाबाद में. क्योंकि अधिकांश अख़बारों के दफ्तर आईटीओ पर थे इसलिए हम दोनों की मुलाकात अक्सर तिलक ब्रिज स्टेशन पर होती थी. वहीँ से फिर आगे प्रस्थान करते. लोकल यात्रियों के लिए तिलक ब्रिज, शिवाजी ब्रिज और आनंद विहार जैसे स्टेशन खासे अहमियत रखते हैं. देखने में भले छोटे-छोटे हों लेकिन हजारों की संख्या में लोग यहाँ अपनी मंजिल के लिए गाड़ी पकड़ते हैं.  हालाँकि अब आनंद विहार स्टेशन वो वाला आनंद विहार नहीं रहा, जहाँ से गुजरते वक़्त अनुज मुझे कोहनी मारा करता था.

स्टेशन की सीढियों का दृश्य देखने लायक होता था. कोई अपने क्लाइंट से फ़ोन पर उलझ रहा है, तो कोई बिजनेस डील में बिजी है, कोई कागजों में नुक्ताचीनी कर रहा है, तो कहीं एक कोने में बैठे प्रेमी युगल सपनों की दुनिया बुन रहे हैं. सभी को ट्रेन इंतज़ार है, लेकिन कोई चाहता है कि ट्रेन जल्द से जल्द आये और कोई चाहता है कि थोड़ी देर और लगाये. वैसे एनसीआर में चलने वाली ईएमयू में सफ़र का भी अनोखा और अलग ही अनुभव होता है. स्टेशन पर बने पुल के नीचे एक कचौड़ी वाले का ठेला होता था, शायद आज भी लगाता होगा. उसके यहाँ अक्सर अनुज और मैं दो दो कचौड़ी पेलते थे. उस समय हायजिन की चिंता कम और जेब की चिंता ज्यादा सताती थी.  हाँ, बरसात के दिनों में वहां भुट्टों की बहार रहती थी.

मेरा रेल से हमेशा लगाव रहा. यही कारण था कि मेरठ में पत्रकारिता के दौरान मैंने रेलवे बीट को सहर्ष स्वीकार किया जिसे कोई नहीं लेना चाहता था, क्योंकि स्टेशन शहर से बिलकुल बहार था. मुझे हमेशा लगता था कि रेल और रेल के आस-पास अनेक कहानियां बिखरी पड़ी हैं. 
तिलक ब्रिज की ही बात है, एक दिन अपने नॉर्मल रुटीन में स्टेशन पर मैं ट्रेन का इंतज़ार कर रहा था. बैठने की जगह कोई बची नहीं थी सो हाथ में बैग लिए प्लेटफ़ॉर्म पर टहल रहा था. तभी फ़ोन पर बात कर रहे एक लड़के की आवाज सुनकर मैं वहीँ ठिठक गया. उसकी दो-चार बातें सुनकर पूरी स्थिति साफ़ हो गयी. जनाब इश्क में थे और अपनी प्रेमिका से बतिया रहे थे. बातों से साफ़ था कि उनका इश्क आखिरी सांसें ले रहा है. लड़का बार-बार उस तरफ से आ रही पतली सी आवाज को समझाने की कोशिश कर रहा था. लेकिन लड़की को कोई और मिल गया था और वो इन भाई साहब को अब घास नहीं डाल रही थी. लेकिन लड़का सीरियस था. जब लड़की ने एक न सुनी तो उसने झल्लाकर फ़ोन काटा और उसको फ़ोन लगाया जो इस लव ट्राईएंगल का तीसरा कोण था. उसने इस लड़के को सहानुभूति दी, लेकिन ये जनाब जानना चाहते थे कि आखिर इनमें क्या कमी थी.

खैर लम्बी बातचीत के बाद फ़ोन काट दिया गया. लड़का अपना सर पकड़कर बेंच पर ही बैठा रहा. बेंच की दूसरी तरफ एक अधेड़ व्यक्ति बैठा था, जो शर्तिया हरियाणा से   ही था. वो भी मेरी तरह इस लड़के की बातें सुन रहा था. मैं  तो बात सुन कर चुप ही रहा, लेकिन उससे न रुका गया, फट से बोला- 'देख भैया तेरी भलाई इसी में है कि उसको भूल जा और अपनी जिंदगी पर ध्यान दे. ये प्यार-व्यार का चक्कर बुरा है'. उसकी बात सुनकर लड़का झेंप गया और थोड़ी सी मुस्कराहट के साथ वहां से अपना बैग उठाकर आगे की तरफ चला गया. उसके जाने के बाद वह व्यक्ति अपने पास बैठे संगी से फिर बोला 'पता नहीं का हवा चल पड़ी है आज कल. इसका ज्यादा दिमाग ख़राब हुआ तो कहीं आत्महत्या न कर ले'. ये सुनकर मेरा दिमाग चल गया. मुझे उसकी बात में दम लगा. और ट्रेन से बढ़कर आत्महत्या का कोई साधन है भी नहीं. साधन और कारण दोनों मौजूद हैं, कहीं जोश जोश में प्लेटफ़ॉर्म से छलांग न लगा दे.

सो प्लेटफ़ॉर्म पर एकांत की तरफ कदम बढा रहे उस लड़के का मैंने पीछा करना शुरू किया. सोचा कि अगर अभी इसने कोई हरकत की तो दो थप्पड़ में प्यार का भूत उतार दिया जायेगा. लेकिन उसकी चाल ढाल से लगा नहीं कि वो इतना बड़ा कदम उठाएगा. एक दो फास्ट ट्रेनें भी वहां से गुजरीं लेकिन लड़के ने कोई हरकत नहीं की. अपन को लगा कि मामला सेंसिबिल है. वैसे मैं तो थोड़ी देर बाद अपनी लोकल पकड़ कर फरीदाबाद की तरफ लपक लिया. आगे का पता नहीं उसने कुछ किया कि नहीं.

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