Tuesday, August 3, 2010

काश, स्टेडियम खड़ा करने से पहले "नेशनल कैरक्टर" खड़ा किया होता!

देखा आखिर वही हुआ जिस बात का डर था. ३५००० करोड़ के कॉमनवेल्थ खेलों की कलई खेल शुरू होने से पहले ही खुलनी शुरू हो गयी है. खेलों के नाम पर खेला जा रहा धन का खेल अब धीरे धीरे खुल रहा है. जब धन की गंगा बह रही हो तो भारतियों से बिना गोता लगाये नहीं रहा जाता. स्थिति ये बन आई है कि बिना धांधली के यहाँ अब एक काम भी नहीं हो सकता. यही है देश का "नेशनल कैरक्टर" . ऊपर से लेकर नीचे तक सब खोखले हैं. जो दो चार हिम्मत रखने वाले हैं भी तो उनकी चलते नहीं, सो वे कुंठाग्रस्त हो चले हैं.


मुझे ध्यान में नहीं आता कि आज़ादी के बाद देश में कोई बड़ी और ऐतिहासिक ईमारत का निर्माण हुआ हो. निजी प्रयासों से तैयार दो उदाहरण तो हैं एक अक्षरधाम (दिल्ली और अहमदाबाद दोनों) और दूसरा आगरा में निर्माणाधीन दयाल बाग. इन दो इमारतों को अगर छोड़ दिया जाए तो बाकी सभी इमारतें अंग्रेजों, मुगलों, राजपूतों और अन्य शासकों की देन हैं. भारत सरकार या किसी अन्य राज्य सरकार के हिस्से में ऐसी कोई भी ऐतिहासिक उपलब्धि नहीं. जब देश आजाद हुआ तब ये मजबूरी थी कि धन इमारतें बनवाने की जगह देश के विकास में लगाना जरुरी था. उस समय शासनतंत्र में थोड़ी बहुत इमानदारी तो थी लेकिन पैसा कम था. आज पैसा बहुत है लेकिन शासनतंत्र का चरित्र विलुप्त हो गया है. शायद यही कारण है कि भारत सरकार न तो दूसरा हावड़ा ब्रिज जैसा कोई पुल बना पायी और न राष्ट्रपति भवन जैसी बिल्डिंग.

अब जब खेलों के नाम पर सरकारी खजानों का मुंह खोला गया तो स्थिति आपके सामने है. खेल शुरू हुए नहीं लेकिन धीरे धीरे पोल खुलनी शुरू हो गयी है. बिना बेईमानी के अब इस देश में कोई भी काम होना नामुमकिन सा प्रतीत होता है. उम्मीद थी कि उम्दा किस्म के स्टेडियम बनेंगे लेकिन जो बना उसकी हालत रोज अख़बार में पढ़ी जा सकती है.

अब शीला आंटी कह रही हैं कि मीडिया को इग्नोर करो. उसकी बातों पर ध्यान मत दो. ये जरूर मान सकते हैं कि मीडिया किसी भी कमी को बड़ी जोर-शोर से उठाता है लेकिन ये भी उतना ही सच है कि बिना आग के धुआं नहीं उठा करता. 

लॉर्ड मैकॉले की दी हुयी ये शिक्षा व्यवस्था ईमानदार नागरिक देने में पूरी तरह विफल है. ये शिक्षा वही है जो रामायण में तुलसीदास जी ने कही है. उन्होंने कलयुग में विद्या की चर्चा करते हुए यही लिखा है कि कलयुग में माता पिता बच्चों  को पेट भरने की शिक्षा प्रदान करेंगे. वही प्रत्यक्ष है. आज हर किसी को अपने पेट की ही चिंता है. इसका परिणाम भ्रष्टाचार के रूप में हमारे सामने है.

अब कॉमनवेल्थ खेलों में आम लोगों की जो रकम फूंकनी थी सो फूंक गयी. लेकिन सरकार आगे चलकर ओलम्पिक भी कराएगी. तो ओलम्पिक के लिए बड़े बड़े स्टेडियम खड़े करने पहले देश का नेशनल कैरक्टर खड़ा करने की जरुरत होगी. वरना यूँ ही पैसा बर्बाद होता रहेगा और यूँ ही सरकारी तंत्र में बैठे लोगों के घर भरते रहेंगे.

1 comment:

  1. hi sachin,
    i am really concerned regarding the state of affairs surrounding the preparation (or shall i say mis-preparation) of the commonwealth games. 35000 cr. is not a small amount, but what is more imp. is the image of India and the prestige we have on stake. They expect to host the 'best ever commonwealth games' but as they say, 'coming events cast their shadows before', i just hope everything goes well or else, we will be standing in front of the whole world with our heads hanging in shame.

    character is something the leadership in our country has always lacked. I dont have words to express my anxiety. Just keeping my fingers crossed.

    Great article once again Sachin.
    Keep the good work going.

    Sagar.

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