Friday, August 27, 2010

हे भगवान! कॉमनवेल्थ खेलों पर कृपा करो

लगता है मणिशंकर अय्यर की  (बद) दुआ सीधे दिल से निकली थी. बारिश तो सचमुच कॉमनवेल्थ खेलों पर पानी फेरने पर उतारू है. दिल्ली से लेकर देहरादून तक पानी ही पानी है. रक्षाबंधन की छुट्टी पर मैं नैनीताल घूमने चला गया. बारिश ने वो हाल किया कि कमरे से बहार नहीं निकलने दिया. बूँद रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी. रास्ते में पड़ी कोसी, सोत, गांगन और रामगंगा  सरीखी नदियाँ सब की सब तट की मर्यादाएं भंग करती दिखी. कितनी भी बारिश क्यों न हुयी हो मैंने रामगंगा के पुल के नीचे कभी इतना पानी नहीं देखा. पुल के नीचे पहले पिलर से लेकर आखिरी पिलर तक पानी भरा था. दिल्ली में यमुना लगातार कई दिनों से खतरे के निशान से ऊपर बह रही है. लगता है इन्द्र को भी पता चल गया है कि कॉमनवेल्थ खेलों में करोड़ों की धांधली की गयी है. धरतीवासी सारा का सारा पैसा अकेले ही डकार गए, इन्द्र को उनका शेयर नहीं भेजा. आखिर किसी भी महान यज्ञ में देवताओं का भाग निकाला जाता है. फिर ये कॉमनवेल्थ खेल तो एक विश्व यज्ञ है.  तो लो अब भुगतो और कराओ कॉमनवेल्थ खेल.

लगता है उस दिन मणिशंकर अय्यर की जुबान पर सरस्वती बैठी थी. जो कहा सो हो गया. काश उन्होंने उस दिन कुछ और कहा होता. खैर असली मज़ा तो अब अक्टूबर में आने वाला है. कल कुछ फार्मर्स, आई मीन किसान लोग अपना अधिकार मांगने दिल्ली आ गए थे और दिल्ली उनको जगह नहीं दे पाई. किसानों के घुसते ही पूरी दिल्ली घुटनों के बल रेंगने लगी. सोचो कॉमनवेल्थ खेलों में क्या होगा? सुना है जितने दिन खेल चलेंगे तब तक दिल्ली के तमाम संस्थान बंद रहेंगे. मसलन स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी, कुछ गैर जरूरी सरकारी संस्थान आदि इत्यादि. ताकि दिल्ली की सडकें खाली रहें. सड़कों पर जाम न लगे. विदेशियों के सामने सबकुछ ढक कर  रखना है. आखिर देश की इज्जत का सवाल है.

वैसे ३५ हजार करोड़ रूपए में एक नया शहर बसाया जा सकता था. जितनी रकम फूंक दी गयी है उतना तो कई राज्यों का साल का बजट होता है. खेलों के लिए सरकार खेल गाँव बनाती ही है तो फिर नया खेल गाँव बनाने की जगह देश के किसी छोटे से गाँव को ही खेलों के लिए क्यों नहीं चुनती. वहां पर इन्फ्रास्ट्रक्चर  खड़ा करके खेल कराये तो शायद देश के आम जन का भी भला हो. मुझे मेरठ में पत्रकारिता के दौरान वो खबर याद आती है जिसमें पता चला था कि जिन खिलाड़ियों से हम पदक की उम्मीद करते हैं उनकी एक वक़्त की डाईट के लिए सरकार की ओर से महज १७ रूपए ही पहुँचते हैं. खिलाड़ियों के खाने के लिए १७ रूपए और विदेशियों को दिखाने के लिए ३५ हज़ार करोड़, बढ़िया है. अब तक जो पदक ओलम्पिक में भारतीय खिलाड़ी लेकर आये हैं, वो केवल उनके निजी जूनून और उत्साह का नतीजा था. अभिनव बिंद्रा के पिता ने अगर उनको आर्थिक रूप से सहयोग न किया होता तो शायद ही वो रायफल शूटिंग जैसे महंगे खेल में स्वर्ण पदक ला पाते.
  
अगर ये खेल दिल्ली की जगह किसी छोटे शहर या किसी गाँव में कराये जाते तो बहुत से खिलाड़ियों का भला हो सकता था. दिल्ली तो सुरसा का मुंह है, जितना उड़ेलो उतना कम है.

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