मुझे ले चल मेरे गांव रे मन मुझे ले चल मेरे गांव,
जहां बाग में कूके कोयल और पीपल की छांव,
मुझे ले चल मेरे गांव रे मन मुझे ले चल मेरे गांव।
जहां मातु के अनुशासन में रहती थीं सब बेटी,
सबको नाच नचा देती थी बुढ़िया लेटी-लेटी,
एक आंगन में ही रहते थे मिलकर सारे भाई,
प्रेम की डोरी इतनी मोटी कभी न पनपे खाई,
घर का मुखिया शान से देता था मूंछों पर ताव,
मुझे ले चल मेरे गांव...
लाज का घूंघट करके बहुएं जब घर से चलती थीं,
देख उन्हें बूढों की नजरें खुद-ब-खुद झुकती थीं,
सभी बुजुर्गों का गांव में बहुत अदब था होता,
ऊंचे बोल नहीं दादा से कह सकता था पोता,
शहर से मुझको जल्दी ले चल मन नहीं पाता ठाव,
मुझे ले चल मेरे गांव रे मन...
खाली वक्त में बैठ के बाबा जब रस्सी बटते थे
सूरज की किरणों से पहले लोग सभी उठते थे,
पेड़ों से छनकर आती थी कूह-कूह की बोली,
टेसू के फूलों को मलकर खेली जाती होली,
फिर मुझको उस रंग में ले चल पडू मैं तेरे पांव,
मुझे ले चल मेरे गांव...
घर की छत पर रखते थे मिट्टी के खेल खिलौने,
गिल्ली डंडा संग कंचे सावन के झूल झुलौने,
चार आने में मिल जाती थी मीठी मीठी गोली
दस पैसे में भर जाती थी खीलों से ये झोली
गुड की भेली मोटी मिलती एक रुपए की पाव
मुझे ले चल मेरे गांव...
हरियाली के बीच बसा था सहज सरल सा जीवन,
जल्दी सोना जल्दी उठना स्वस्थ खुशी का उपवन,
धुआं तो मेरे आंगन में भी चूल्हे से उठता था,
शहर की सडकों के जैसा कभी न दम घुटता था,
दिल्ली का प्रदूषण तो दिल पर देता है घाव
मुझे ले चल मेरे गांव...
gazab ki kavita ,gaon ka sunder chitran kiya hai
ReplyDeleteBahut Bahut Dhanyawad...
ReplyDeleteअब भी ऐसे गाँव कहीं हैं?तभी तो हिन्दी के मशहूर कवि कैलाश गौतम को लिखना पडा -गाँव गया था गाँव से भागा!
ReplyDeleteकाश इस सुन्दर सी कविता सरीखा गाँव कोई अब भी होता !
@Arvind: aapne sahi kaha, Gaon ab poori tarah badal chuke hain...
ReplyDeletevery nice sachin rathore
ReplyDeletevery nice poem mr. sachin rathore...
ReplyDeleteBahut sundar poem h sir..
ReplyDeleteKafi bareek chijo ko b point out kiya aapne...
bahut acha....
Bahut hi sunder kavita . Gaon ki yaad taajaa kara deti hai
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कविता वाह!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कविता वाह!
ReplyDeleteअपने गांव को कभी याद न करने वालो के अन्तरमन को खोलने की चाबी है यह कविता बहुत सुन्दर
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