Tuesday, October 11, 2011

अतिथि ‘कस्टमर’ भवः


भारतीय संस्कृति में अतिथि को देवता का दर्जा दिया गया है। अतिथि ही को क्या, हर उस चीज को जिसकी मर्यादा की रक्षा जरूरी थी उसे देवी-देवता का दर्जा दे दिया गया। चाहे वह वन देवता हो, ग्राम देवता या जल देवता, भाव यही था कि इंसान इन की अहमियत समझे। लेकिन इस भाव को समझे बगैर मशीन की तरह मंत्रों को याद कर लिया और लगे रटने। अतिथि देवो भवः के पीछे कहीं न कहीं पर्यटन की बेहद गहरी सोच छिपी थी और यही कारण है कि पर्यटन मंत्रालय इस मंत्र को जगह-जगह विज्ञापनों में इस्तेमाल भी करता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या सचमुच बेचारे अतिथि को ‘देव’ समझा जा रहा है। जहां तक पर्यटन का सवाल है तो पर्यटक स्थलों पर आने वाले सैलानियों को केवल ग्राहक की नजर से देखा जाता है। हालात इतने बुरे हैं कि अच्छे से अच्छा घूमने के शौकीन का मन मैला हो जाए। लेकिन ये सब अनुभव करने के लिए आपको कम बजट में एक आम सैलानी की तरह घूमने जाना होगा, अगर किसी वीआईपी तमगे के तले या फिर बोरे में नोट भरकर आप जाते हैं तो कोई दिक्कत नहीं।

रेलवे स्टेशन पर उतरते ही आॅटो और रिक्शे वालों के छल-कपट से लेकर अतिथि को सू-सू कराने वाले सुलभ शौचालयों तक और शुद्ध शाकाहारी भोजनालय से लेकर समर्पित धर्मशालाओं तक हर जगह सेवा भाव की जगह लूट भाव आ चुका है। किसी भी पर्यटक स्थल के रेलवे स्टेशन या बस स्टेशन पर पर्यटक के उतरते ही तमाम अतिथि सेवक उसको गिद्धों की तरह घेर लेते हैं। और अगर आप उस शहर में पहली बार घूमने गए हैं तो इन आॅटो और रिक्शे वालों का सहारा लेने के सिवा आपके पास कोई दूसरा चारा नहीं होता। ‘सर’ और ‘मैडम’ जैसे अति सम्मानित शब्दों के साथ वे एक झूठी मुस्कुराहट के साथ आपके पथप्रदर्शक बनने के लिए उत्सुक हैं। आपको होटल चाहिए या लाॅज, धर्मशाला चाहिए या मुसाफिरखाना इनकी हर जगह, हर रेंज में जान पहचान होती है। बस आपको अपना बजट बताना है बाकी अपना कमीशन तो ये होटल वाले से ले ही लेंगे।
स्टेशन के मुहाने पर इन अतिथि सेवकों से बात करते-करते अगर आपको प्यास लग आए तो ये आपकी गलती है। अब वहीं पास वाले खोखे से खरीदो पानी की बोतल जो प्रिंट रेट से 2-3 रुपए महंगी मिलेगी। अगर आप उस इज्जतदार खोखे वाले को टोकोगे तो दो बातें होंगी। या तो वो आपको यह कहकर झिड़क देगा कि- यहां तो इतने की ही मिलेगी, लेनी है लो, नहीं लेनी मत लो! या फिर कुटिलता से मुस्कुराकर कहेगा- दो-तीन रुपये ही तो कमाने हैं, वैसे भी धंधा एकदम मंदा चल रहा है। और आप उसे कानून पढ़ाने की कोशिश तो कतई न करें। यानि उसको एमआरपी का अर्थ समझाना मतलब भैंस के आगे बीन बजाना।

फिर जैसे-तैसे जब आप होटल पहुंचोगे तो वहां होटल वाला आपकी गर्दन का नाप लेकर उसी हिसाब से आपकी जेब ढीली करवा लेगा। अगर आप मिडिल क्लास से बिलांग करते हैं तो आपके मन में ये ख्याल जरूर आएगा- साला कहां तो हमारे यहां पूरे महीने का किराया 1200 रुपए होता है और कहां ये कमबख्त एक रात के 1200 मांग रहा है। पर मरता क्या न करता, तिस पर सफर की थकान, सो आप कलेजे पर पत्थर रखकर उसके हाथों में एडवांस थमा देंगे, क्योंकि होटल वाला आपको बताना नहीं भूलेगा कि पीक सीजन चल रहा है। इससे कम कहीं नहीं मिलने वाला।

फिर साहब आप थोड़ा कूल होकर जब शहर घूमने निकलेंगे तब? तब फिर दो बातें होंगी- अगर आप किसी धार्मिक नगरी में गए हैं तो पंडे आपके पीछे पड़ जाएंगे और अगर किसी हिल स्टेशन पर गए हैं तो गाइड, ट्रैवल एजेंट आपके पीछे पड़ेंगे। पंडित जी भी आपको ‘सर’ कहकर ही बुलाएंगे। हमारे संविधान में तो साफ-साफ लिखा गया है कि ‘सर’ और ‘लाॅर्ड’ जैसे टाइटल देश में नहीं दिए जाएंगे। लेकिन ‘सर’ नाम का टाइटल जितना भारत में पाॅपुलर है उतना शायद ही विश्व के किसी कोने में हो। सब के होठों पर मीठे-मीठे बोल और दिल में आपके पैसे ठंडे कराने की हसरत।

घूमने गए हैं तो खाए बिना तो काम चलेगा नहीं। अव्वल तो घर से खाना लेकर चलने का चलन खत्म हो चुका है अगर कोई लेकर चलता भी है तो कितना चलेगा। रेस्तरां में खाने जाइये तो साहब पता चलेगा कि कोई भी सब्जी हाफ प्लेट नहीं मिलेगी और जब छोटी सी कटोरी में फुल प्लेट लग कर आएगी तो आप समझ जाएंगे कि हाफ प्लेट क्यों नहीं मिलती। मेन्यू में सबसे सस्ती सब्जी खोजते-खोजते आपकी आंखें तरस जाएं और जब हारकर दाल की तरफ देखों तो दाल फ्राई भी 80 रुपए प्लेट। दाल मक्खनी की तरफ देखना भी गुनाह। जिस आलू को कोई नहीं पूछता वही आलू जीरा के नाम से 60 रुपए में बिक रहा है। सलाद चाहिए तो पैसे अलग से देने होंगे। बाकी बची रोटी तो साहब प्लेन रोटी 8 रुपए और बटर रोटी 10 रुपए। बटर और प्लेन में सिर्फ दो रुपए का अंतर इसलिए रखा गया है ताकि आप दो रुपए बचाने की कोशिश न करें और सीधे बटर रोटी ही आॅर्डर करें।

घूमते-घूमते यदि आपको लघुशंका लग आए तो फिर से दो बातें होंगी। अगर आप थोड़े से बेशर्म टाइप होंगे तो आपके लिए किसी भी पेड़ या दीवार का सहारा काफी है। लेकिन अगर आप थोड़े से शर्मदार हैं और खुद को सभ्य कैटेगरी में समझते हैं तो आप सुलभ शौचालय खोजेंगे। शौचालय के द्वार पर एक मेज होगी और उस मेज के पीछे एक काला सा व्यक्तित्व आपकी मजबूरी का फायदा उठाने के लिए बैठा होगा, जो आपको सू-सू कराने के एवज में कम से कम दो रुपए और अधिकतम पांच रुपए चार्ज करेगा।

इन सब हालातों से जूझते-जूझते जब आप घर वापस लौटोगे तो आपकी जेब जरूरत से ज्यादा ठंडी होगी। घर वाले जब इस उम्मीद से आपकी तरफ देखेंगे कि आप उनके लिए क्या लाए तो आपके पास सुनाने के लिए बातों के अलावा कुछ नहीं होगा। अंततः आपको घुमक्कड़ मन आपको आपकी घुमक्कड़ी के लिए घुड़केगा।

2 comments:

  1. चेहरा देखकर ही तिलक काढा जाता है।

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  2. पर्यटन के लिए निराश मत करो। इसी में आनन्‍द लो।

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