Friday, November 18, 2011

पैसा बटोरने वाले कॉलेजों से बेहतर तो तिहाड़ जेल निकली!

एक शो रूम में तिहाड़ के उत्पाद.  
अब इसे समय की विडंबना कहें या फिर बदलते समीकरण कि संभ्रांत कॉलेजों में पढ़ने वाले स्टूडेंट्स चेन स्नेचिंग और वाहन चोरी जैसी घटनाओं में पकड़े जा रहे हैं और तिहाड़ जेल में सजायाफ्ता कैदी पढ़-लिख कर प्लेसमेंट प्राप्त कर रहे हैं। खबर है कि तिहाड़ जेल के 100 कैदियों को विभिन्न कंपनियों ने अच्छे पैकेज पर लिया है। जो सबसे मोटा पैकेज दिया गया है वो है छह लाख प्रति वर्ष। कैंपस प्लेसमेंट में ऐसे कैदियों ने भाग लिया जो जेल में रहकर विभिन्न प्रोफेशनल कोर्स कर रहे थे और जिनकी सजा आने वाले एक साल में पूरी होने वाली है। तिहाड़ जेल इससे पहले भी अपनी विशेषताओं के चलते चर्चा में रही है। कैदियों पर जितने प्रयोग इस जेल में किए गए, वे देश की किसी भी जेल में नहीं हुए। कितने ही मामले ऐसे हैं जिनमें अपराधियों के लिए तिहाड़ जेल एक वरदान साबित हुई।

तिहाड़ की नमकीन.
तिहाड़ जेल का ट्रेड मार्क है टीजे.
यहां पर सवाल फिर वही उठता है कि सवा सौ करोड़ के देश में केवल एक जेल ऐसी है जिसमें कैदियों को सुधारने की दिशा में कदम उठाए जाते हैं। एक मानवाधिकार संगठन के वर्ष दो हजार के आंकड़ों को देखा जाए तो देश की सभी जेलों में कुल 211720 कैदी रखे जा सकते हैं, लेकिन उनमें 248115 कैदी कैद हैं। भारतीय जेलों की रिहायशी दर 117.19 प्रतिशत तक पहुंच गई हैं। तिहाड़ जेल भी इस समस्या से अछूती नहीं रही है। लेकिन फिर भी तिहाड़ जेल में कैदियों के लिए विशेष कार्यक्रम चलाए जाते रहे हैं। लेकिन अगर जिला स्तर पर जाकर देखें तो जेल वास्तव में नर्क का द्वार हैं। कैदियों के लिए विशेष कार्यक्रम तो दूर की बात है, वहां बुनियादी सुविधाएं तक नहीं हैं। वातावरण ऐसा है कि अगर यहां की जेलों में कोई छोटा अपराधी जाता है तो वहां से और बड़ा अपराधी बनकर निकलता है। मतलब अगर अन्ना हजारे की भाषा में कहें तो क्राईम का ग्रजुएट जाता है और डाॅक्टरेट करके निकलता है। जेलों का महाभ्रष्ट तंत्र कुछ इस प्रकार का है कि पैसे के दम पर वहां कानून की धज्जियां सरेआम उड़ाई जाती हैं।

उदाहरण के लिए मेरठ के जिला कारागार में कई बार जब छापे मारे गए तो वहां कैदियों के पास से मोबाइल मिले, पैने हथियार बरामद किए गए और न जाने क्या क्या! हर बार छापा पड़ता है और हर बार ऐसा होता है। कैदियों तक ये सामान पहुंचाते हैं उनसे मिलने आने वाले उनके परिजन, लेकिन उनको रखने की इजाजत आखिर कौन देता है। जेल प्रशासन देखकर भी चीजों को अनदेखा कर देता है। जेल के अंदर कैदियों की जरूरत का सामान बेचने के लिए दुकान भी होती है। लेकिन चीजों के दाम बाजार से पांच गुना लिए जाते हैं। खुद जेल में मौजूद जेल स्टाफ चंद पैसों के लिए कैदियों की उंगलियों पर खेलते हैं। ये तो बेहद छोटी किस्म की चीजों का उल्लेख किया। बड़ी-बड़ी कारस्तानियों को अंजाम दिया जा रहा है। इस सब की जानकारी जेल के जेलर समेत पूरे मेरठ प्रशासन को भी है। लेकिन फिर भी चीजें चल रही हैं। सिर्फ औपचारिकता के लिए कभी-कभी छापे मार दिए जाते हैं। उसके बाद स्थिति जस की तस। और ऐसा केवल मेरठ में नहीं है, देश की समस्त जेलों में अमूमन यही हाल है, कहीं थोड़ा कम तो कहीं थोड़ा ज्यादा।

जिला प्रशासन के पास इतना वक्त ही नहीं कि कैदियों के बारे में थोड़ा रचनात्मक ढंग से सोचकर जेल का एक सुधारगृह के रूप में तब्दील करे। यहां तक कि जो बाल सुधार गृह या बच्चा जेल हैं उनमें भी बच्चों को सुधारने की दिशा में कुछ रचनात्मक नहीं किया जा रहा। कुछ सामाजिक संगठन समय-समय पर जरूर वहां अपनी गतिविधियां आयोजित करते रहते हैं। ऐसा भी नहीं कि जिला प्रशासन के पास सोच नहीं है। लेकिन जेलों को अगर सुधार गृह बनाने की कोशिश की गई तो वहां से आने वाली कमाई पर ब्रेक लग जाएंगे। शायद ही कोई जेलर ऐसा चाहे। तिहाड़ की तरह भारतीय जेलों में तमाम प्रयोग किए जा सकते हैं। सवाल ही नहीं कि इंसान के अंदर सुधार न आए। कुछ अपराध न चाहते हुए भी परिस्थितिवश करने पड़ते हैं। लेकिन अगर जेल में भी नारकीय परिस्थिति मिले तो इंसान की मानसिक हालत और जड़ हो जाती है। तिहाड़ को माॅडल मानकर भारतीय जेलों में जेल इंडस्ट्री भी बनाई जा सकती है। कैदियों की अभिरुचि के मुताबिक उनको प्रशिक्षित किया जा सकता है या उनसे कोई भी रचनात्मक काम कराया जा सकता है। वरना जेलों में अपराधी जाते रहेंगे और वहां से घोर अपराधी बनकर बाहर आते रहेंगे।

1 comment:

  1. जेल भी अपने अपने धंधे के मास्टर लोग ही जाते हैं

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