Friday, February 17, 2012

‘ऐसे बेटे के होने से तो उसका न होना अच्छा...!’

भारतीय जनता पार्टी की स्थिति आज बड़ी अजीबो-गरीब है। उत्तर प्रदेश के चुनावों में उसके अपने ही नेता बार-बार उसके हारने के कयास लगा रहे हैं। सबसे पहले गोरखपुर में योगी ने कहा कि त्रिशंकु विधानसभा आएगी और भाजपा की जीत के आसार नहीं हैं, फिर मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर ने भी भाजपा को तीसरे पायदान पर बताया, और अब खबरें आ रही हैं कि आरएसएस के काशी प्रांत प्रचारक कह रहे हैं कि- भाजपा जीती तो अच्छा होगा, हारी तो बहुत ही अच्छा!

ये हालत उस पार्टी की है जो 1998 से लेकर 2004 तक दावा करती रही कि ‘वी आर पार्टी विद ए डिफरेंस’। तो आज पार्टी विद ए डिफरेंस में उसके नेताओं के बीच ‘डिफरेंसेज’ सबके सामने हैं। न वो सिंह सी दहाड़ें हैं, न जोश है, न उत्साह, न उम्मीदें, न उल्लास, ऐसा लगता है मानो भाजपा केवल फर्ज निभाने के लिए इलेक्शन लड़ रही है। ये वही भाजपा है जिसने 1998 के लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश की 85 में से 57 सीटें जीतकर अटल बिहारी वाजपेयी को दिल्ली के तख्त पर बैठाया था। तो फिर आज वही भाजपा वोटों की मोहताज क्यों बन गई है। ऐसा भी नहीं है कि सात साल का एनडीए का शासन खराब था। आज भी लोग गाहेबगाहे अटल जी के सात सालों के शासन को याद करते हैं। चाहे वो देश में सड़कों का जाल बिछाना हो, सूचना क्रांति हो, परमाणु परीक्षण हो, गांवों को सड़कों से जोड़ना हो या गैस सिलेंडर की भरपूर आपूर्ति हो, लोगों को अब भी वो सात साल याद हैं।

फिर क्या है कि 2004 में लोगों ने भाजपा को टाटा कहकर कांग्रेस का दामन थाम लिया, और यूपीए की लाख खामियों के बावजूद 2009 में भाजपा को फिर से नकार दिया। पार्टी ने लाख चिंतन बैठकें की, बार-बार अध्यक्ष बदले, लेकिन गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ को छोड़कर पार्टी किसी राज्य में मजबूती से नहीं खड़ी दिखती, कर्नाटक और उत्तराखंड में भी नहीं। दरअसल इस राष्ट्रीय पार्टी को आज बाहर से नहीं अंदर से खतरा है। आदर्शों और सिद्धांतों की बात करने वाली भाजपा में पद की चाह सिर चढ़कर बोल रही है। 2004 में वाजपेयी के ‘न टायर्ड, न रिटायर्ड’ कहकर आगे भी कंटीन्यू रखने की इच्छा जताने से आडवाणी खेमे में ठंडक पसर गई और इसका असर 2004 के चुनावों में साफ दिखा, जब पार्टी ने एक डिवाइडेड होम की तरह चुनाव लड़ा। उस समय फील गुड फैक्टर ऐसा सिर चढ़कर बोल रहा था कि जमीनी हकीकत न किसी ने जानने की कोशिश की और न किसी ने धरातल पर काम किया। हवाहवाई तरीकों से प्रचार हो रहा था, बढ़-बढ़ कर बातें बोली जा रही थीं, प्रचार के लिए टीवी और मोबाइल पर निर्भरता कुछ ज्यादा ही दिखी। पार्टी में जो एकजुटता दिखनी चाहिए थी, वो कहीं नजर नहीं आ रही थी। उसका परिणाम सामने आ ही गया।

भाजपा के सात साल के शासन के बारे में कहा जाता है कि पार्टी ने अपने लोगों को खाने का मौका नहीं दिया। फिर भी जिला स्तर की लीडरशिप इसलिए साथ दे रही थी, क्योंकि पार्टी से देश के लिए उम्मीदें थीं। लेकिन वे उम्मीदें तब कमजोर पड़ गईं, जब ‘पार्टी विद है डिफरेंस’ में भी पद को लेकर तू-तू-मैं-मैं साफ नजर आने लगे, जब खबरें आने लगें कि सेकेंड लाइन में कौन है और थर्ड लाइन में कौन, जब पुत्रों और पुत्रियों को प्रमोट किया जाने लगा, तो जिला स्तर की लीडरशिप को लगा कि इससे तो दूसरे दल भले हैं, कम से कम खाने का तो मौका मिलता है। आज अगर जिला स्तर पर नजर डाली जाए तो भाजपा के दिग्गज चेहरे उसका साथ छोड़ चुके हैं। ऐसे लोगों की भी निष्ठाएं डोल गईं जो पांच-पांच बार विधायक और सांसद रह चुके थे। राष्ट्रीय स्तर पर बैठे चंद चेहरे, जिला स्तर पर आकर संगठन को मजबूती देना मुनासिब नहीं समझते। या फिर ऐसा भी कहा जा सकता है वाजपेयी के बाद पैदा हुआ शून्य कोई भर नहीं पा रहा है।

ऐसा भी नहीं है कि आज आम लोग परेशान नहीं हैं और बदलाव नहीं चाहते। लोग परेशान हैं इसीलिए अन्ना हजारे की आवाज पर सड़कों पर उतर कर आए। आज लोग अपने राजनीतिक दलों में वही प्योरिटी चाहते हैं, जो अन्ना हजारे की बातों में है। लेकिन अफसोस यही है कि अन्ना की प्योरिटी के सामने संसद में बैठा एक भी दल नहीं ठहरता। जब भाजपा के नेता मंचों से सिद्धांतों और आदर्शों की बात करते थे, तो लोग उनसे उसी प्योरिटी की उम्मीद करते थे, जो अन्ना में है। भाजपा वह प्योरिटी देने में विफल रही, यही कारण है कि आज संघ की ओर से ऐसे बयान आ रहे हैं कि- ‘ऐसे बेटे के होने से तो उसका न होना अच्छा...!’

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