आतंकवाद: भारत के लिए एक बेहद कड़वी त्रासदी, एक कड़वा सच या यूँ कहिये कि भारतीय जीवनशैली में तेजी से उतरता एक महत्त्वपूर्ण अंग.
जिस तरह से आतंकवाद ने देश के अन्दर अपनी जडें फैलाई हैं उसको देख कर यही लगता है कि आतंक अब हमारी जीवनशैली में उतर चुका है. हमने आतंक को अब आत्मसात कर लिया है. शायद यही कारण है कि अब हम मरने से नहीं डरते, हम घर से यही सोच कर निकलते हैं कि- शाम हो न हो! शायद यही कारण है कि आज शहर में बम फटते हैं और अगले दिन हम फिर अपनी दिनचर्या पर लौट आते हैं, जैसे कुछ हुआ ही न हो. हिंसा का खौफ कुछ घंटों में ही हमारे दिमाग से काफूर हो जाता है. लेकिन खबरी चैनल चिल्ला-चिल्ला कर कहते हैं कि "देखिये ये आतंकियों की विफलता है. देश के लोगों ने आतंकियों के मंसूबों को विफल कर दिया. आतंक हमें डराने और हमें तोड़ने में असफल रहा". चैनलों को लोगों की मजबूरी में लोगों की बहादुरी नज़र आती है.
आतंकी हर बार नए-नए तरीके और ठिकाने तलाश कर हिंसा का तांडव रचते हैं. वे अपने काम को अंजाम देने के लिए पूरा दिमाग लगाते हैं, पूरी मेहनत करते हैं, लेकिन दिल्ली में बैठे लोग हर बार अपना रटा-रटाया बयान देते हैं. एक गणमान्य कहते हैं कि- "हम इस आतंकी हमले की निंदा करते हैं", दूसरे माननीय इस घटना को कायराना करार देते हैं, तीसरे महोदय को इसमें देश के सद्भाव को बिगाड़ने की बू आती है, चौथे महानुभाव इसे केंद्र की भूल बताते हैं, पांचवें ज्ञानेश्वर इसे इंटेलिजेंस की चूक बताते हैं. लेकिन देश के एक भी सत्ताधीश की इतनी हिम्मत नहीं होती कि वो आतंकवाद को खुलकर ललकार सकें. देशवासियों को ये विश्वास दिला सके कि आप सुरक्षित हैं. हर एक बयान में यही छिपा होता है कि हम सक्षम होते हुए भी लाचार हैं. हम आपको सुरक्षा मुहैया नहीं करा सकते.
पिछले कुछ समय से एक नया शिगूफा छेड़ा गया है. आतंक को रंग देने की कोशिश की जा रही है. एक पक्ष कहता है कि ये "हरा आतंकवाद" है, दूसरा पक्ष कहता है कि ये "भगवा आतंकवाद" है. मजेदार बात तो ये है कि संसद में आतंकवाद के रंग को लेकर तो हो-हल्ला होता है, लेकिन उससे निपटने के लिए कोई ठोस बहस नहीं होती. दोनों रंगों के पक्षधर अपने-अपने चश्मे से आतंक को देख कर सत्ता की डगर टटोल रहे हैं. जब सत्ताधीश मौतों में भी लड्डू खाने की चाह पाल कर बैठे हुए हैं, तो आतंक का मुकाबला होने से रहा. हद तो ये है कि एक महानुभाव महाज्ञानी नेता जी ने अब मुंबई हमले के शहीदों को लेकर भी रंगों का खेल खेलना शुरू कर दिया है. इस तरह की ओछी सोच रखने वाले लोग जब सत्ता के साथ संलग्न हैं तो आतंक कैसे मिटे.
बेहतर होता कि आतंक को आतंक ही रहने दिया जाता ओर इससे कड़ाई से निपटा जाता. रीढविहीन सत्ताधीश इसको रंगों के साथ जोड़कर बहुत बड़ी भूल कर रहे हैं. एक ऐसी भूल जिसका खामियाजा हमने कल भी भुगता, आज भी भुगत रहे हैं, और सालों-सालों तक भुगतते रहेंगे.
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