tag:blogger.com,1999:blog-70790081576956115912024-02-19T16:49:08.196+05:30अपना समाजस्वागत है आपका॥ आइये मैं आपको दिखाता हूँ आपका समाज॥ बेहद सुंदर, बेहद वीभत्स॥सचिन http://www.blogger.com/profile/08484919973851372449noreply@blogger.comBlogger181125tag:blogger.com,1999:blog-7079008157695611591.post-24733421044491894062019-04-01T12:52:00.000+05:302019-04-01T12:52:26.242+05:30पता नहीं कितने दिन और मिलेगी कच्चे चूल्हे की रोटी?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhBF30dYxnnV13L0d8J5-y3XH3q7BulHyqH3MHP3pUIzleSTEvOSzGsLhaIQp9FydKyVJf9FvntOtCVzVsFXTX5tsFp8kFw_IeOJpCwTa3eKpmuhhxvQjPj_hga7OpoTA7j6S6-uFpjbd65/s1600/1.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="425" data-original-width="624" height="271" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhBF30dYxnnV13L0d8J5-y3XH3q7BulHyqH3MHP3pUIzleSTEvOSzGsLhaIQp9FydKyVJf9FvntOtCVzVsFXTX5tsFp8kFw_IeOJpCwTa3eKpmuhhxvQjPj_hga7OpoTA7j6S6-uFpjbd65/s400/1.jpg" width="400" /></a></div>
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यूं तो गार्गी हर साल ही गांव जाती रही है, लेकिन अब वह चार बरस की हो गई है और हर चीज पर सवाल करने लगी है। इस बार होली पर जब वह हमारे गांव गई तो चूल्हे पर रोटी बनते देख उसके जिज्ञासु मन से सवाल निकला कि ‘यहां लकड़ी से खाना क्यों बन रही है’? फिर उसकी नजर लकड़ी के बने पटले और पीढे़ पर पड़ी। फिर सवाल किया यहां सबकुछ लकड़ी का ही क्यों है? शहर में गैस स्टोव पर खाना बनते देखना और घर में अधिकांश वस्तुएं प्लास्टिक की होने के कारण गार्गी के मन में यह जिज्ञासाएं स्वभाविक ही थीं। लेकिन उसने सब लोगों को हंसने पर मजबूर कर दिया। हालांकि गांव में गैस सिलेंडर के दो-दो कनेक्शन हैं, लेकिन लकड़ी के ईंधन की उपलब्धता के कारण वह अभी भी सस्ता पड़ रहा है। गैस का इस्तेमाल अति आवश्यक होने पर ही किया जाता है। </div>
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<br />पर भाजपा नेता संबित पात्रा के वीडियो के कारण चूल्हे पर बनी रोटी को लेकर सोशल मीडिया पर जो हल्ला मच रहा है, उसे देखकर मन दूर तक निकल गया। यह बात सही है कि चुनावी मौसम में संबित पात्रा द्वारा वह वीडियो प्रचार के लिए ही डाला गया है और हंगामा भी इसीलिए मच रहा है, क्योंकि वे राजनीति से जुड़े हैं। लेकिन चूल्हे की रोटी को बहुत गलत ढंग से प्रदर्शित किया जा रहा है। इसमें हेय दृष्टि नजर आती है। गैस पर रोटी पकाना जरूर आधुनिकता की निशानी है और इंडक्शन चूल्हे पर पकाना अति-आधुनिकता की बात है, पर चूल्हे की रोटी की बात और स्वाद कुछ अलग ही होता है। यह स्वाद उन लोगों के लिए समझना कठिन है, जिन्होंने कभी कच्चे चूल्हे की बनी रोटी खाई ही नहीं। सरकार द्वारा गांव-गांव गैस कनेक्शन पहुंचाने की बात सही है। शत-प्रतिशत लोगों के घर में गैस कनेक्शन है, ऐसा दावा तो अभी नहीं किया गया है। और फिर गांवों में जिन घरों में गैस कनेक्शन पहुंच गया है, उन लोगों ने चूल्हे का प्रयोग बिल्कुल बंद कर दिया है, ऐसा भी नहीं है। गैस कनेक्शन ने उनकी सहूलियत जरूर बढ़ाई है। लेकिन कच्चा चूल्हा आज भी ग्रामीण घरों के आंगन की पहचान है।</div>
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<br />हालांकि, आर्थिक उन्नति के साथ परिवार सिकुड़ रहे हैं, धीरे-धीरे नई पीढ़ी चूल्हे से तौबा कर रही है, और हो सकता है कि अगले 20 से 30 वर्षों बाद मिट्टी के चूल्हे भारत के किसी मानव संग्राहलय में ही नजर आएं। ज्यों-ज्यों देश आर्थिक रूप से तरक्की करेगा, विकास की परिभाषा गांव देहात तक पहुंचेगी, हम अपनी पुरानी जीवन शैली को खोते चले जाएंगे। ऐसा होता ही है, कोई नई बात नहीं। पक्के घरों को आधुनिकता और संपन्नता की पहचान बनाया गया, और पंजाब, हरियाणा व पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांवों से कच्चे घर धीरे-धीरे गायब होने लगे। आज स्थिति ये है कि न केवल ठंडी छांव वाली झोंपड़ियां खत्म हुईं बल्कि छप्पर बनाने वाले लोग भी अब नहीं रहे। मटका, घड़ा, सुराही की जगह गांवों में भी फ्रिज, कूलर और एसी पहुंचने लगे हैं। यह जीवनशैली गांव और शहर का अंतर कम होने की पहचान है और देश की अर्थव्यवस्था के लिए लाभदायक भी। पर अजीब तब लगता है जब विकास के नाम पर गांवों का शहरीकरण किया जाए और शहरों में ‘ईको-विलेज’ और ‘नेचुरल लिविंग’ जैसे रिहायशी अपार्टमेंट तैयार किये जाएं। गांवों की झोंपड़ियां पिछड़ेपन की निशानी लगने लगें, लेकिन शहर में विशेष कारीगर बुलवाकर रिजाॅर्ट में ‘हट’ का निर्माण कराते फिरें। दिल्ली के आसपास कई ऐसे रिजाॅर्ट खुल गये हैं, जहां काफी खर्चा करके माॅडर्न लोग ग्रामीण परिवेश देखने के लिए जाते हैं और चूल्हे की रोटी खाते हैं।</div>
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<br />देश बहुत तेज रफ्तार से विकासशील मार्ग पर दौड़ते हुए विकसित मार्ग तक पहुंचने जा रहा है। आज हम विश्व की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हैं और जल्द शीर्ष तीन की श्रेणी में भी होंगे। देश की राजधानी दिल्ली व इसके जैसे अन्य मेट्रोपोलिटन शहर इतने ज्यादा विकसित हो गए हैं कि यहां के तमाम निवासी हर वीकएंड पर अपनी विकसित जिंदगी से दूर किसी गैर-विकसित स्थान की तरफ निकल लेते हैं। वर्ष 2020 को लेकर पूर्ण विकसित देश का सपना देखा गया था। 2020 न सही पर 2025 तक यह लक्ष्य हम अवश्य प्राप्त कर लेंगे, ऐसा अनुमान है। लेकिन तब तक शहर के साथ-साथ हमारे गांवों की तस्वीर पूरी तरह बदल चुकी होगी। घर के आंगन से गायब हो जाएगा कच्चा चूल्हा, साथ ही गायब हो जाएगा उस पर पकाने का कौशल। इसलिए कच्चे चूल्हे की रोटी जहां मिले खा लो, क्योंकि यह कितने दिन और मिलेगी, पता नहीं।<br /></div>
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सचिन http://www.blogger.com/profile/08484919973851372449noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-7079008157695611591.post-20196812043342758862017-01-17T15:23:00.000+05:302017-01-17T15:23:40.447+05:30बोल-बोल सकारात्मक बोल!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<div style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: justify;">
<a href="https://thumbs.dreamstime.com/x/hindi-alphabet-background-texture-high-resolution-37944103.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="200" src="https://thumbs.dreamstime.com/x/hindi-alphabet-background-texture-high-resolution-37944103.jpg" style="text-align: left;" width="200" /></a>आप जब सड़क पर निकलते हैं तो ऐसा हो ही नहीं सकता कि आपके कानों में अश्लील गालियां न सुनाई पड़ें, विशेषकर दिल्ली, एनसीआर और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में। आम बोलचाल की भाषा में गालियों की टेक लगाकर बात करना आम बात सी लगने लगी है। लोग सार्वजनिक स्थलों पर अश्लील गालियों से सनी वार्तालाप बेधड़क होकर करते हैं, बिना इस बात की परवाह किये कि उनके आसपास महिलाएं भी खड़ी हैं। </div>
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लेकिन पिछले रविवार जब मैं शेव कराने नाई की दुकान (आप सैलून या मेन्स पार्लर भी पढ़ सकते हैं) पर गया तो वहां एक व्यक्ति अपने बच्चे के साथ आया। उसने आकर नाई से कहा कि इसके ‘बाल बड़े’ कर दो। पहले मुझे सुनकर थोड़ा अजीब लगा कि लोग यहां बाल कटवाने आते हैं और ये आदमी कह रहा है कि बाल बड़े कर दो। बाद में समझ आया कि वह भी बाल कटवाने ही आया था, लेकिन ‘काटना’ एक नकारात्मक शब्द होने के कारण उसने बाल बड़े करना कहकर एक सकारात्मक शब्द प्रयोग किया। ऐसा नहीं था कि वह कोई बहुत बड़े बुद्धिजीवी या आध्यात्मिक वर्ग से था, बल्कि यह शब्द उसने अपने उस मूल स्थान की परंपरा से सीखा होगा जहां का वह निवासी था। हमारे क्षेत्र में भी बाल कटवाना नहीं कहा जाता था, बल्कि बाल बनवाना कहा जाता था। </div>
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अपने समाज में बातचीत के दौरान नकारात्मक शब्द न प्रयोग करने की परंपरा शायद बहुत पुरानी है। अपनी दैनिक बोलचाल की भाषा में हमें तमाम ऐसे शब्द मिल जाएंगे जिनका अर्थ बिल्कुल विपरीत होता है। उदाहरण के लिए कोई भी दुकानदार दुकान ‘बंद’ करना नहीं बोलता बल्कि कहता है कि वह दुकान बढ़ा रहा है। कुछ लोग जब घर से बाहर जाते हैं तो यह नहीं कहते कि मैं जा रहा हूं, बल्कि कहते हैं कि मैं अभी आ रहा हूं। उसी प्रकार महिलाएं चूड़ियों के टूटने के लिए अपने-अपने क्षेत्र के हिसाब से अलग-अलग शब्द प्रयोग करती हैं, हमारी तरफ ‘चूड़ी मौलना’ शब्द प्रचलित है। ऐसे ही गांवों में दीया बुझा दो कोई नहीं बोलता बल्कि कहते हैं ‘दीया बढ़ा’ दो। इस प्रकार के तमाम शब्द हैं, जो हमारी जिंदगी से सकारात्मक कारणों से जुड़े हुए हैं।</div>
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सकारात्मक बोलने की परंपरा गढ़ने वालों की सोच यही रही होगी कि गलती से भी मुख से गलत शब्द न निकले, नकारात्मक बोल न निकलें। गौर से देखें तो हंसी-मज़ाक के लिए भी मर्यादाएं नजर आती हैं। पर इसे आधुनिकता कहें, टीवी का प्रभाव कहें या फिल्मों का असर कि लोग बेधड़क नकारात्मक शब्दों का प्रयोग करते हैं। नकारात्मक शब्दों से तात्पर्य केवल अश्लील गालियों से नहीं है, बल्कि आम बोलचाल में अपनी दिक्कतों, परेशानियों में गलत शब्द मुख से निकलना आम हो गया है। हास्य के नाम पर कवि सम्मेलनों में और काॅमेडी के नाम पर टीवी शो में ऐसे-ऐसे चुटकुले खुले मंच पर सुना दिये जाते हैं कि आप असहज हो जाएं। बातचीत का वही तौर-तरीका धीरे-धीरे समाज में स्वीकार किया जाने लगा है। </div>
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संक्रमण के दौर से गुजर रही भाषा को देखकर लगता है कि नकारात्मकता ने जीवन में गहराई तक पांव पसार लिये हैं। यदि कभी अकेले में बैठकर मनन करें तो लगता कि कम बोलने, सार्थक बोलने और सकारात्मक बोलने की परंपरा कितनी सही थी।</div>
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सचिन http://www.blogger.com/profile/08484919973851372449noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-7079008157695611591.post-46115250109658352792017-01-16T12:24:00.000+05:302017-01-17T15:24:38.217+05:30ऑनलाइन मतदान की ओर कदम बढ़ाने का सही वक्त!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhhvHQJ4rY-7MSixlk4tIS7mmfdvylJikrKgLk4mnnNs9Gu3-OZmZt2YSpp2snnrrO2HcKNID42ZPaAf2PhqxP-SenQytohyphenhyphennBI0dIGvRNmMFWs0RZpLA00kpu7WJpTg4eXcKbV-MYtu3ic/s1600/EVM.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhhvHQJ4rY-7MSixlk4tIS7mmfdvylJikrKgLk4mnnNs9Gu3-OZmZt2YSpp2snnrrO2HcKNID42ZPaAf2PhqxP-SenQytohyphenhyphennBI0dIGvRNmMFWs0RZpLA00kpu7WJpTg4eXcKbV-MYtu3ic/s320/EVM.jpg" width="320" /></a>भारत में इलेक्ट्रिॉनिक वोटिंग मशीन की अपार सफलता के बाद अब चुनाव आयोग को ई-वोटिंग की ओर कदम बढ़ाना चाहिए। जिस प्रकार देश तेजी से डिजिटाइजेशन की ओर बढ़ रहा है, उसको देखते हुए यदि जल्द यह कदम उठाया जाता है, तो बहुत बड़े खर्च और प्रशासनिक उठापटक को टाला जा सकता है। साथ ही इससे उन लोगों को भी फायदा होगा जो नौकरी या अन्य कारणों से अपने शहर से दूर बस गए हैं, लेकिन वोट डालने के कारण उन्हें अपने शहर आना पड़ता है।</div>
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इसके लिए चुनाव आयोग ऑनलाइन वोट डालने के इच्छुक मतदाताओं से अपना एपिक नंबर आयोग की साइट पर रजिस्टर करवाये और ऐसे मतदाताओं के लिए अलग से एक ऑनलाइन वोटर लिस्ट तैयार करे। फिर ऐसे मतदाताओं के नाम कागजी वोटर लिस्ट से हटा दे। इस प्रकार चुनाव आयोग दो तरह की वोटर लिस्ट तैयार कर सकता है- एक ऑनलाइन मतदाताओं के लिए और दूसरी मतदान केंद्र पर जाने वाले मतदाताओं की। चुनाव के दिन ऑनलाइन मतदाता आयोग की वेबसाइट और मोबाइल एप पर वोट डाल सकते हैं और बाकी मतदाता मतदान केंद्र पर जाकर अपना मत डाल सकते हैं। ऑनलाइन मतदाताओं को मतदान केंद्र पर वोट डालने की अनुमति नहीं होगी। लेकिन ऑनलाइन वोट डालने के बाद मतदाता को मतदान रसीद अवश्य प्रदान की जाए, एसएमएस और ईमेल के माध्यम से भी। प्रयोग के तौर पर इसे छोटे राज्यों में आजमाया जा सकता है। </div>
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जिस तरह डीबीटी एक सफल प्रयोग बनकर उभरा है, ऑनलाइन वोटिंग भी निश्चित तौर पर सफल होगी। ऑनलाइन वोटिंग का विकल्प आने से मतदान प्रतिशत में भी इजाफा होना लाजमी है, साथ ही भारी प्रशासनिक खर्च भी धीरे-धीरे घटता चला जाएगा। आज के दौर में जब ऐसे-ऐसे काम घर बैठे ऑनलाइन संभव हो रहे हैं, जिनके बारे में सोच भी नहीं सकते थे, तो फिर ऑनलाइन मतदान करवाना कोई बड़ी बात नहीं है। कई अखबार, न्यूज वेबसाइट और सर्वे कंपनियां इस तरह की वोटिंग समय-समय पर कराती ही रहती हैं। हालांकि चुनावी मतदान में थोड़ा एहतियात बरतने की आवश्यकता है। वोटिंग सॉफ्टवेयर तैयार करने में तमाम पहलुओं पर कड़ाई से सोचना होगा, ताकि दिमागी खुजली वाले लोग इसकी सुरक्षा में सेंध न लगा सकें। </div>
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सचिन http://www.blogger.com/profile/08484919973851372449noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-7079008157695611591.post-16942763160084579832015-11-03T14:26:00.000+05:302015-11-03T14:26:10.786+05:30पंचायत चुनाव बनाम ग्राम स्वराज<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjpe6qGNvq4sj3Fmb48EAH6rSmUhFONtJPJWymOeOjidVrMGQd9YH4e2Yvv2MT8Sfy8T44aliBWgFMiCs_ydn8BlaoeLriPsf8W8ytdQmlGjftHmVBN7FiDeRz1YFCT-T9wQSaizKd5JUGy/s1600/UP-panchayat-election.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="239" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjpe6qGNvq4sj3Fmb48EAH6rSmUhFONtJPJWymOeOjidVrMGQd9YH4e2Yvv2MT8Sfy8T44aliBWgFMiCs_ydn8BlaoeLriPsf8W8ytdQmlGjftHmVBN7FiDeRz1YFCT-T9wQSaizKd5JUGy/s320/UP-panchayat-election.jpg" width="320" /></a></div>
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इन दिनों जब पूरे देश का ध्यान बिहार के विधानसभा चुनाव और उनके परिणामों पर केंद्रित हैं, ठीक उसी वक्त उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनावों का जोर है। अभी एक दिन के लिए अपने गांव जाना हुआ तो वहां की दीवारों पर चस्पा पोस्टरों को देखकर आभास हुआ कि देश में किसी भी चीज की कमी हो सकती है पर नेताओं की कमी कभी नहीं होगी। ऐसी-ऐसी चुनावी बिसात बिछाई जा रही हैं कि अमित शाह और लालू यादव भी मात खा जाएं। ऐसी गोटियां फेंकी जा रही हैं कि पूरी कांग्रेस पार्टी भी पानी मांगने लगे। पिलखुन के नीचे बैठकर ऐसी रणनीति तैयार हो रही हैं जिनको सुनकर बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ शर्म खा जाएं। छोटे-छोटे गांवों में इतनी बड़ी-बड़ी राजनीति खेली जा रही है कि दिल्ली भी लजा जाए। गांव के इस चुनावी माहौल को देखकर अरस्तु के वाक्य पर यकीन होने लगता है- ‘मनुष्य एक जन्मजात राजनीतिक जीव है’। भारत में तो राजनीति रग-रग में बसी है। किसी को छेड़ना भर मात्र है और वो अपने अंदर का पूरा राजनीतिक शास्त्र उड़ेल कर रख देगा। अपने यहां नाई की दुकान से लेकर रेल की बोगी तक, चाय के खोखे से लेकर गांव की चैपाल तक, मंदिर-मस्जिद से लेकर विश्वविद्यालयों तक राजनीतिक शास्त्रार्थ करने के लिए पुरोधा हर वक्त मुफ्त में तैयार मिलते हैं।</div>
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परंतु गांधी जी ने जिस ग्राम स्वराज का सपना देखा और दिखाया था वह आज के ग्राम पंचायत चुनाव से कतई मेल नहीं खाता। गांधी जी यदि आज की ग्रामीण राजनीति देख लेते तो शायद पंचायत चुनाव की जगह गांव की जिम्मेदारी एक दरोगा के हवाले करने की सिफारिश करते। उत्तर प्रदेश के अंदर ग्राम पंचायत चुनाव में जीतने के लिए हर वो हथकंडा अपनाया जाता है जिसका नैतिकता के दायरे से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं। पूरे चुनाव के दौरान मांस-मदिरा और सुरा-सुंदरी का प्रचलन अपने उत्कर्ष पर रहता है। इससे भी बात न बने तो बंदूक की गोली अंतिम उपाय के तौर पर काम आती है। यकीन न आए तो जिस दिन से चुनाव घोषित हुए हैं उस दिन से लेकर परिणाम घोषित होने के बीच कितनी चुनावी हत्याएं और हमले हुए इनके आंकड़े आरटीआई से निकलवाकर देखे जा सकते हैं। चुनाव आयोग ने विधानसभा और लोकसभा चुनावों के दौरान होने वाली हिंसा पर तो काबू पा लिया है, लेकिन पंचायत चुनाव के मौसम में पूरे उत्तर प्रदेश में रंजिशन गोलीबारी और हत्याओं के मामलों में अब भी बेतहाशा वृद्धि दर्ज की जाती है। </div>
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कई जगह पंचायत चुनाव ने ऐसी गहरी रंजिशों की नींव डाली हैं कि पीढि़यां उसका खामियाजा भुगत रही हैं। यूं तो सतत विकास के कारण भी गांव की सामाजिक समरसता प्रभावित हो चुकी है, लेकिन पंचायत चुनावों ने भी गांव के सामाजिक ताने-बाने को पूरी तरह तोड़-मरोड़ दिया है। किसी कवि कि कविता या हिंदी फिल्म में गांव की जो सुनहरी तस्वीर पेश की जाती है, गांव दरअसल ठीक उसके विपरीत हैं। उत्तर प्रदेश के ग्रामीण समाज का सटीक चित्रण श्रीलाल शुक्ला के उपन्यास ‘राग दरबारी’ में ही देखने को मिलता है। देश के आर्थिक विकास के साथ जब से पंचायतों को मोटा धन मिलना शुरू हुआ है, तब से उत्तर प्रदेश में सभी पंचायती प्रतिनिधित्व वाले पद सिर्फ भ्रष्टाचार के गढ़ बन कर रह गए हैं। ग्राम प्रधान बनते ही गांव की उन्नति हो न हो पर उस व्यक्ति की उन्नति निश्चित है जो उस पद पर शोभायमान है।</div>
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हो सकता है इसी पंचायती राज व्यवस्था के कुछ सकारात्मक पहलू भी हों या फिर कुछ गांवों ने इसी व्यवस्था के तहत विकास किया हो। लेकिन मेरा निजी अनुभव यही कहता है कि उत्तर प्रदेश के अंदर पंचायती राज व्यवस्था अधिकांश गांवों के अंदर राजनीतिक सड़ांध पैदा कर रही है। ऐसी सड़ांध जो ग्रामीण जीवन के लिए एक अभिशाप से कम नहीं। पंचायतों में महिलाओं को जबरदस्त आरक्षण देकर हम दिल्ली में दो-चार महिला सरपंचों को सम्मानित कर महिला सशक्तिकरण का ढोल भले ही पीटें, लेकिन 99.99 प्रतिशत मामलों में महिला सरपंच अपने पति के आधीन होकर ही चलती हैं। सिर्फ कागजों पर विश्व को दिखाने भर के लिए इस प्रकार का महिला सशक्तिकरण क्या सचमुच देश और समाज के हित में होगा। महात्मा गांधी ने जरूर ग्राम स्वराज की परिकल्पना देश के समक्ष रखी थी, लेकिन हम अपने दिल पर हाथ रख कर बता दें कि क्या वर्तमान पंचायती राज व्यवस्था सचमुच गांव के हित में है। जहां ग्राम प्रधान और स्कूल प्रधानाचार्य मिलकर बच्चों का भोजन डकारने की मानसिकता रखते हों भला ऐसा पंचायती राज समाज के किस काम का?</div>
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अन्ना हजारे के गांव रालेगण सिद्धि और उनके प्रभाव वाले आसपास के कुछ गांवों में पंचायत चुनाव नहीं होते, बल्कि आम राय से निर्विरोध तरीके से पदों पर नियुक्ति की जाती है। और फिर अन्ना के दिए गए सूत्रों के अनुसार गांव का विकास किया जाता है, जिसमें शराब बंदी, बालिका शिक्षा, पर्यावरण संरक्षण, जननी सुरक्षा, शाकाहार, अहिंसक जीवन जैसे मूल्यों को आधार बनाया गया है। उन्होंने अपने गांव में एक ऐसा स्कूल भी खोला है जिसमें दूसरे स्कूलों में फेल हुए बालक-बालिकाओं को पढ़ाया जाता है। साथ ही उत्तम भोजन भी प्रदान किया जाता है। कुछ ऐसे ही मापदंडों पर यदि देश के अधिकांश गांव आगे बढ़ते हैं तब कहीं गांव में सुधार की शुरुआत होगी अन्यथा खानापूर्ति के लिए पंचायती राज व्यवस्था हम अपने कंधों पर ढोते रहेंगे। अंतिम बात, राजनीति जब राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ही हो तो बेहतर है, लेकिन जब ये आपके गांव और घर में घुसने लगे तो बेहद घातक सिद्ध होती है।</div>
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सचिन http://www.blogger.com/profile/08484919973851372449noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7079008157695611591.post-4147947889622832282015-06-05T15:48:00.001+05:302018-02-23T09:54:23.612+05:30गोलगप्पों में मिलावट!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj_LVCgTDU2iIrzuydlH8-Jvn9B-kOvdsSS_pzZ7AMDXIaG41Pk31-wUUwk8raG2U3kPaezn48qbw5SZTzgqw7f9ipcQ39vWVq9bxr3pFBWScRKttG2j11CTyRUALd3R9s9VN2tC2cW6Ge5/s1600/gol-gappa-eating.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="265" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj_LVCgTDU2iIrzuydlH8-Jvn9B-kOvdsSS_pzZ7AMDXIaG41Pk31-wUUwk8raG2U3kPaezn48qbw5SZTzgqw7f9ipcQ39vWVq9bxr3pFBWScRKttG2j11CTyRUALd3R9s9VN2tC2cW6Ge5/s400/gol-gappa-eating.jpg" width="400" /></a></div>
गोलगप्पे में टट्टी की मिलावट वाली खबर ने तो दिल ही तोड़ दिया। सच्ची! भला ये भी कोई चीज हुई मिलावट करने के लिए। शुक्ला जी को तो जिस दिन से इस खबर का पता चला है सन्नाटे में आ गए हैं। अजीब सा मौन पसरा हुआ है उनके चेहरे पर। जीवन में उन्होंने कोई ऐब या शौक नहीं पाला, शुद्ध शाकाहारी एवं ऐबरहित। बस गोलगप्पा ही उनका सबसे बड़ा ऐब और कमजोरी था। थकते नहीं थे, गोलगप्पों का बखान करते हुए। दिल्ली के कोने-कोने के गोलगप्पों का रसपान कर चुके थे। कहां-कहां कितने प्रकार के पानी के साथ गोलगप्पे खिलाए जाते हैं, सबकी फेहरिस्त उन्हें जुबानी याद थी। इसमें भी लाजपतनगर के गोलगप्पों के तो वो दीवाने थे। वैसे भी चाट के नाम पर गोलगप्पे ही उनके स्वास्थ्य पर विपरीत असर नहीं डालते थे, सुपाच्य पानी के साथ वसारहित भोज। चाट की दुकान पर ये जो टिक्की होती है न, बहुत नामुराद चीज होती है। एक तो आलू और वो भी सर से पांव तक घी में तला हुआ। घी मिलावटी हुआ फिर तो गई सेहत पानी में। सो, शुक्ला जी ने चाट की दुकान पर केवल गोलगप्पे के साथ ही अपना नाता जोड़ा था। बाकी किसी भी चाट की ओर वह आंख उठाकर भी नहीं देखते थे। अब जब एक गोलगप्पा ही खाना है, तो भला चार-पांच की संख्या में क्या खाया जाए, 15-20 से कम में शुक्ला जी का काम नहीं चलता था। जी भर के खाने के बाद जो जलजीरे वाली डकार आती, अहो! क्या कहने उसके। सचमुच दिव्य अनुभूति। अलौकिक। शुक्ला जी का वश चलता तो गोलगप्पों को ‘राष्ट्रीय खाद्य पदार्थ’ घोषित करवा देते।</div>
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गोलगप्पों के बिना अपने समाज की परिकल्पना अधूरी है। न जाने कितनी ही फिल्मों में गोलगप्पों का सीन फिल्माकर उनके महत्व का बखान किया गया है। कंगना की ‘क्वीन’ फिल्म गोलगप्पे वाले सीन के बिना अधूरी है। रब ने बना दी जोड़ी में भी शाहरुख और अनुष्का गोलगप्पे खाते हुए कितने अच्छे लगे हैं। पर गोलगप्पे में भी मिलावट हो सकती है, ये तो शुक्ला जी ने कभी सोचा ही नहीं था। मिलावट का स्कोप ही कहां है। आखिर इनमें होता ही क्या है, पानी के सिवा। लेकिन अखबारों की कतरनें चिल्ला-चिल्ला कर कह रही हैं, गोलगप्पों में मिलावट है, और वह भी ऐसी चीज की कि पूछो मत। मन घिनिया गया है उनका। पहले शुक्ला जी गोलगप्पे खाने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते थे। आॅफिस से घर वापस लौटते वक्त दो-चार पत्तों पर हाथ साफ करना उनको दिन भर की थकान से आराम देता। पर जिस दिन से मिलावट वाली मनहूस खबर पढ़ी है, उस दिन से उनकी आंखें सिर्फ दूर से गोल-गोल गोलगप्पों को देखकर मन ही मन उनका स्वाद ले लेती हैं। उनके और गोलगगप्पों के बीच उनका दिमाग दीवार बनकर खड़ा हो जाता है। हालांकि, उनके दिल का एक कोना अब भी ये मानने को तैयार नहीं कि गोलगप्पे में टट्टी जैसी निकृष्ट चीज की मिलावट है।</div>
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आजकल अकेले में शुक्ला जी यही सोचकर अपने आपको समझाते हैं- ‘‘हो न हो ये झूठी खबर है, जो अखबारों के माध्यम से अपने समाज में फैलाई गई है। दिल्ली में सड़क किनारे चाट बेचने वालों पर कराया गया ये सर्वे हो न हो एक पेड सर्वे है। ये बड़े-बड़े रेस्तरां वाले छोटे दुकानदारों की रोजी खाना चाहते हैं। ठेले वालों ने सस्ते दाम में लजीज चाट परोसकर इन बड़े-बड़े रेस्तरां वालों के सामने खतरा पैदा कर दिया होगा। तभी ऐसा सर्वे कराने की नौबत आई होगी। ताकि सारी भीड़ सड़क पर खाना बंद कर दे और रेस्तरां चल निकलें। अरे हां! रेस्तरां के बिलों पर सर्विस टैक्स भी तो बढ़कर 14 परसेंट हो गया है, इससे तो उनके यहां भीड़ और कम हो जानी है। तभी ससुरों ने ये चाल चली है। अब भला जो मजा 10 रुपये के पांच खाने में है, वो 50 रुपये में पांच खाने में कैसे आ सकता है। उस पर 14 परसेंट सर्विस टैक्स भी दो। भाड़ में जाएं ये रेस्तरां वाले। वैसे तो मल विसर्जन के बिना दिन की शुरुआत हो ही नहीं सकती, जीवन का सबसे बड़ा सत्य है मल। पर गोलगप्पों में मिलावट ही दिखानी थी, तो किसी और चीज की भी दिखा सकते थे, टट्टी की मिलावट क्यों दिखाई। छिः छिः छिः। औक!’’</div>
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सचिन http://www.blogger.com/profile/08484919973851372449noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7079008157695611591.post-6338342191224205542015-05-23T12:28:00.000+05:302015-05-27T16:51:49.567+05:30परिधानों में भारत के प्रधानमंत्रीः गुलाब के फूल से लेकर सूट-बूट तक<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhoklZPt1SrQJ6kHH0oXRF4VvGgkaYlCrDVzoevf6D0eqdPha3LzumJh9q9FdXYw424pquqUmjkiBeoP6jQhkUPojgZKh3fWAGWMemvdUQMgT0HHgzXdmQnz-doPXXc4dQXFJE8syJoEiCT/s1600/modi.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="192" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhoklZPt1SrQJ6kHH0oXRF4VvGgkaYlCrDVzoevf6D0eqdPha3LzumJh9q9FdXYw424pquqUmjkiBeoP6jQhkUPojgZKh3fWAGWMemvdUQMgT0HHgzXdmQnz-doPXXc4dQXFJE8syJoEiCT/s320/modi.jpg" width="320" /></a></div>
राहुल गांधी द्वारा दिया गया ‘सूट-बूट की सरकार’ का जुमला मोदी सरकार के मंत्रियों को खिजाने का काम कर रहा है। इसके जवाब में सरकार को ‘सूझ-बूझ की सरकार’ बताया जा रहा है और यूपीए की सरकार को ‘झूठ-लूट की सरकार’। आजादी के बाद सभी भारतीय प्रधानमंत्रियों का अपना स्टाइल स्टेटमेंट रहा है। जब पद इतना शक्तिशाली हो तो हाकिम की साधारण चाल भी एक अंदाज बन जाती है। इसीलिए जवाहरलाल नेजरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक भारत के सभी प्रधानमंत्रियों का अंदाज पहले मीडिया और फिर जनता के बीच हमेशा चर्चा का विषय रहा। लेकिन पीएम मोदी को वह सूट भारी पड़ गया जिस पर उनका नाम लिखा हुआ था। हालांकि वह सूट उपहार में मिला हुआ था, पर किसी कलमकार ने खोजते-खोजते उसके तार होस्नी मुबारक के सूट से जोड़े और फिर उसी की कीमत से मोदी के सूट की कीमत का आंकलन कर लिया कि वह नामधारी सूट साढ़े दस लाख रुपये का है। लेकिन क्या प्रधानमंत्री का पहनावा ऐसी चीज है जिसकी चर्चा संसद में की जाए? सूट-बूट का तंज अगर राहुल बार-बार प्रयोग करेंगे तो इसके तार आखिरकार उनकी दादी और पर नाना की वार्डरोब तक पहुंच सकते हैं। अगर इंदिरा और नेहरू के कपड़ों की डिटेल निकलवाई गई तो वह पीएम मोदी की वार्डरोब से हल्की तो कतई नहीं निकलेगी। जो सबसे स्टाइलिश प्रधानमंत्री भारत को मिले उनमें नेहरू और इंदिरा गांधी का ही नाम आता है। इन दोनों ही प्रधानमंत्रियों ने अपना स्टाइल उस दौर में मेनटेन किया जब भारत के पास बहुत बड़ी आबादी का पेट भरने के लिए अनाज भी नहीं था। लिहाजा कपड़ों से हटकर काम पर ही नजर रखी जाए तो बेहतर होगा, क्योंकि बात अगर निकलेगी तो दूर तलक जाएगी। खैर ‘सूट-बूट’ के बहाने एक नजर डालें भारत के कुछ लोकप्रिय प्रधानमंत्रियों के ड्रेसिंग सेंस परः</div>
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgWgyccjFw1a0K-jsVh9mFA7jrRrkFRzGx3VfmmpVt89MSAJMSbnF3nQaPt8-sI_oWuj8k3y8sdGqLcSSJJ75IgZ4fVHWQKPwL-1SqAo4Hpi-IL_maJwzxXrOv_3dvcdQklYA68fqCdm3kb/s1600/nehru.gif" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="274" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgWgyccjFw1a0K-jsVh9mFA7jrRrkFRzGx3VfmmpVt89MSAJMSbnF3nQaPt8-sI_oWuj8k3y8sdGqLcSSJJ75IgZ4fVHWQKPwL-1SqAo4Hpi-IL_maJwzxXrOv_3dvcdQklYA68fqCdm3kb/s320/nehru.gif" width="320" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>जवाहरलाल नेहरू</b></div>
<div style="text-align: justify;">
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को देश का सबसे स्टाइलिश और वेल ड्रेस्ड नेता के रूप में जाना जाता है। उनके नाम पर ही कुर्ते पर पहने जाने वाली बंद गले की जैकेट का नाम ‘नेहरू जैकेट’ और ‘जवाहर कट’ पड़ गया। नेहरू अपने कपड़ों और स्टाइल को लेकर काफी सजग रहते थे। देश के गांव-गलियों में यह भी मशहूर है कि नेहरू अपने कपड़े लंदन से खरीदते थे, पेरिस में सिलवाते थे और ड्राइक्लीन के लिए भी पेरिस भेजते थे। उनकी शेरवानी और उस पर लगा गुलाब का फूल उनकी पहचान और स्टाइल बन गया था। राष्ट्र कवि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' ने गुलाब को संबोधित करते हुए ‘कुकरमुत्ता’ कविता लिखी थी। कहा जाता है कि ये कविता नेहरू की नीतियों पर निराला का परोक्ष रूप से हमला था। कविता की कुछ पंक्तियां कुछ इस प्रकार हैंः</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
अबे सुन बे गुलाब,</div>
<div style="text-align: center;">
भूल मत जो पाई खुशबू, रंगोआब,</div>
<div style="text-align: center;">
खून चूसा तूने खाद का अशिष्ट,</div>
<div style="text-align: center;">
डाल पर इतरा रहा है कैपिटलिस्ट....</div>
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<div style="text-align: justify;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEid4816j0ZJHYtydKtNu0V4K3Xs4rUrxX8-BP1Lx54JwJOCjMvsQtfPNIfMmmZAXakgzIGGz4nD-av1SjvWFfZjgLR4PVUr959bB_TXp2pjfbo4KufPg5svRq-gqyP-ajb1sRoOP5uJNJrc/s1600/indira-gandhi34_102911011042.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEid4816j0ZJHYtydKtNu0V4K3Xs4rUrxX8-BP1Lx54JwJOCjMvsQtfPNIfMmmZAXakgzIGGz4nD-av1SjvWFfZjgLR4PVUr959bB_TXp2pjfbo4KufPg5svRq-gqyP-ajb1sRoOP5uJNJrc/s320/indira-gandhi34_102911011042.jpg" width="213" /></a><b>इंदिरा गांधी</b> </div>
<div style="text-align: justify;">
भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बारे में तो कई लेखकों ने लिखा है कि Indira always dressed to kill.<span style="text-align: left;"> इंदिरा गांधी का ड्रेसिंग सेंस बेहद आकर्षक था। इंदिरा गांधी ने उस दौर में अपने बालों के साथ प्रयोग किया जब भारतीय महिलाओं की केवल चोटी और जूड़े में ही स्वीकार्यता था। इंदिरा ने उस समय अपने बाल कटवाकर भारतीय महिलाओं के सामने एक नई छवि पेश की जब बाॅलीवुड की नायिकाएं भी जूड़े और चोटी में ही दिखती थीं। इंदिरा के हेयर स्टाइल को देश की तमाम महिलाओं के बीच लोकप्रिय हुआ। इंदिरा गांधी की साडि़यां हों या फिर विदेश यात्राओं के दौरान उनका लांग कोट हमेशा लीग से हटकर और खास होते थे। इंदिरा अवसर के अनुसार ही अपनी साडि़यां पहनती थीं। देश के किसी दूर-दराज के गांव में कभी वे बेहद सादगी भरी खादी की साड़ी में नजर आतीं तो अपनी विदेश यात्राओं में सिल्क साड़ी और लांग कोट में दिखतीं। उनके दौर के कई पत्रकारों ने लिखा है कि इंदिरा की साडि़यां किसी भी पुरुष राष्ट्राध्यक्ष के सूट-बूट के सामने इक्कीस होती थीं। इंदिरा गांधी अपने ड्रेस और प्रेजेंटेशन को लेकर काफी सजग रहतीं थी। अपने जीवन के अंतिम दिन भी वह बीबीसी को इंटरव्यू देने के लिए तैयार होकर जा रही थीं। इस दौरान जब उन्होंने एक टी-सेट को देखा तो उसे बदलने की सलाह दी। इससे यही पता चलता है कि वह छोटी-छोटी चीजों में भी प्रेजेंटेशन पर पैनी नजर रखती थीं।</span></div>
<div style="text-align: justify;">
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj302wQyb7NH8xthU7IkXb4kFTpn4XUwey22_DLt535UAOfHtHwHa58ky7AmxKkBo0HRRF2zlxBnMxSLn2mmi8yLGctutJaF4kFXOj9BwQW7yqX92CfeuuwAxKSpHxECumACZlPQtA1M9z6/s1600/rajiv+gandhi.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="208" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj302wQyb7NH8xthU7IkXb4kFTpn4XUwey22_DLt535UAOfHtHwHa58ky7AmxKkBo0HRRF2zlxBnMxSLn2mmi8yLGctutJaF4kFXOj9BwQW7yqX92CfeuuwAxKSpHxECumACZlPQtA1M9z6/s320/rajiv+gandhi.jpg" width="320" /></a></div>
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<b>राजीव गांधी</b> </div>
<div style="text-align: justify;">
भारत के सबसे युवा और स्मार्ट प्रधानमंत्री का गौरव अभी तक राजीव गांधी को ही प्राप्त है। राजीव गांधी तीन-चार तरह के परिधानों में नजर आते थे। औपचारिक कार्यक्रमों में राजीव बंद गले का जोधपुरी सूट पहनते थे, जबकि साधारणतया वह कुर्ता-पयजामा में ही दिखतेे। उन्होंने शाॅल को क्राॅस करके एक हाथ के नीचे से निकालकर पहनने का नया अंदाज निकाला था। राजीव के अभिन्न मित्र रहे अमिताभ बच्चन आज भी राजीव गांधी के स्टाइल में शाॅल पहनना पसंद करते हैं। धूप में निकलते वक्त राजीव रे-बैन का चश्मा भी पहना करते थे। जबकि अमेठी दौरे पर वह बेहद इन्फाॅर्मल होकर वहीं के अंदाज में अपने गले में गमछा भी डाल लिया करते थे।</div>
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<br /></div>
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjE-5_pKU3y77v0VUedYKVcTyeU4oHdoHhgMhGyG5zDNg3kct71ZqtjO-W1mYuDqwnff3uo6zvpkgsSWkzQpatbWqEGgZWjvo1Aabm675vncpvtMP-SltD0w2L2qqWvZeHUXUF9yFhPVaqR/s1600/atal-bihari-vajpayee.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="188" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjE-5_pKU3y77v0VUedYKVcTyeU4oHdoHhgMhGyG5zDNg3kct71ZqtjO-W1mYuDqwnff3uo6zvpkgsSWkzQpatbWqEGgZWjvo1Aabm675vncpvtMP-SltD0w2L2qqWvZeHUXUF9yFhPVaqR/s320/atal-bihari-vajpayee.jpg" width="320" /></a><b>अटल बिहारी वाजपेयी</b> </div>
<div style="text-align: justify;">
भाजपा के पहले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की पहनावा काफी सादगी भरा था। <span style="text-align: left;">देश में वह अपनी चिर-परिचित कुर्ता धोती और जैकेट पहनते थे, तो विदेश यात्राओं पर वह बंद गले का जोधपुरी सूट पहना करते थे। हालांकि प्रधानमंत्री वाजपेयी कुर्ता-धोती के साथ जो जैकेट पहनते थे, वह जरूर अलग थी। वाजपेयी बंद गले की जगह गोल गले की जैकेट पहनना पसंद करते थे, जो उनके पहनावे की पहचान बन गई। साथ ही वाजपेयी के ज्यादातर कुर्तों की आस्तीनों में बटन भी लगे होते थे।</span></div>
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgydF1AgpVcIFCBSikRKvwdB2or80kmbzqEZ0Y3iwkYUVGE8svu_S_mfhzXo3AAXCb0YGl0FwBXHgWSXoakTfZcVypMzXvonstsIy7_CtW9vNuF3lWb8uRDCoPv7ZhURi5k67E2VDlWjo-a/s1600/advani.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgydF1AgpVcIFCBSikRKvwdB2or80kmbzqEZ0Y3iwkYUVGE8svu_S_mfhzXo3AAXCb0YGl0FwBXHgWSXoakTfZcVypMzXvonstsIy7_CtW9vNuF3lWb8uRDCoPv7ZhURi5k67E2VDlWjo-a/s200/advani.jpg" width="144" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>लालकृष्ण अडवाणी</b></div>
<div style="text-align: justify;">
भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण अडवाणी जब भारत के उप प्रधानमंत्री थे तब भारत यात्रा पर आए अफगानिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति हामिद करजई ने कई बार उनके द्वारा पहने जाने वाली जैकेट की तारीफ की थी। अमूमन सादगी पूर्ण अंदाज में रहने वाले भाजपा नेता लालकृष्ण अडवाणी की जैकेट में ऊपर की ओर तीन बटन लगे होते हैं। यही सिलाई उनकी जैकेट को बाकियों से अलग बनाती है। आखिरकार हुआ यह की हामिद करजई जब अगली बार भारत की यात्रा पर आए तो अडवाणी जी ने उन्हें चार जैकेट खासतौर से सिलवाकर उपहार में दी।</div>
</div>
सचिन http://www.blogger.com/profile/08484919973851372449noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7079008157695611591.post-24628440841530699392015-05-13T12:31:00.002+05:302015-05-28T10:50:12.861+05:30चुनाव जो इतिहास रच गया (भाग-4): टूट गया मुस्लिम वोट बैंक का तिलिस्म<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjklUT3G3bfrCqYWvH9aRVgru0EISOLBGllB6hIJqm2fVRevIzewXYuEloYVaLgOmoRVTb5XWPOhEUlJzKOdwOi8yT8ncGgO3DhyphenhyphenpwxugxrEMNG9GcM7-rRUSKzmvl2ReOx4ITJJQ6e-zV9/s1600/muslim_voter.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="266" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjklUT3G3bfrCqYWvH9aRVgru0EISOLBGllB6hIJqm2fVRevIzewXYuEloYVaLgOmoRVTb5XWPOhEUlJzKOdwOi8yT8ncGgO3DhyphenhyphenpwxugxrEMNG9GcM7-rRUSKzmvl2ReOx4ITJJQ6e-zV9/s400/muslim_voter.jpg" width="400" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<i style="background-color: white; color: #333333; font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 14.8500003814697px; line-height: 20.7900009155273px;">16वीं लोकसभा के लिए हुए आम चुनाव के जब 16 मई 2014 को परिणाम सामने आए तो वे अविस्मरणीय और हतप्रभ करने वाले थे। 16 मई की तिथि इतिहास में इस तरह दर्ज हो गई कि जब-जब बदलाव पर चर्चा होगी तो इस तिथि का जिक्र आएगा। आजाद भारत के इतिहास में पहली बार किसी गैर कांग्रेसी दल को बहुमत देकर भारतीय मतदाताओं ने अपने वोट की ताकत का अहसास करा दिया। मतदाताओं ने न केवल एक पूर्ण बहुमत वाली सरकार दी बल्कि इन परिणामों के माध्यम से देश के राजनीतिज्ञों को कई छिपे हुए संदेश भी दे दिए। जिस सुंदर राष्ट्र का सपना सड़क से लेकर संविधान तक आम लोगों को दिखाया जाता रहा, अब जनता उसे हकीकत में तब्दील होते देखना चाहती है। इसी उम्मीद के साथ देश के जनमानस ने नरेंद्र मोदी में अपनी आस्था दिखाई और उनके हाथ में एक मजबूत सरकार की बागडोर सौंप दी। उस ऐतिहासिक चुनाव परिणाम की पहली वर्षगांठ पर एक पुनरावलोकलनः</i></div>
<div style="text-align: center;">
<i style="background-color: white; color: #333333; font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 14.8500003814697px; line-height: 20.7900009155273px;">-------------------------------------------------------------------------------------------</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
देश की सबसे पुरानी कांग्रेस पार्टी ने 2014 की ऐतिहासिक करारी हार के कारणों को तलाशती रिपोर्ट तैयार करने के लिए अपने वरिष्ठ नेता एके एंटनी को जिम्मेदारी सौंपी। जैसा कि एंटनी की ईमानदार छवि है, उन्होंने उसी के अनुसार हार का एक ईमानदार विश्लेषण कांग्रेस आलाकमान के सामने रखा। उनकी रिपोर्ट में पार्टी की हार का जो प्रमुख कारण सामने आया वो था कांग्रेस द्वारा जरूरत से ज्यादा ‘माइनाॅरिटी पालिटिक्स’ का कार्ड खेलना। एंटनी पैनल को लगा कि कांग्रेस द्वारा बहुत ज्यादा ‘अल्पसंख्यकवाद’ को बढ़ावा देने के कारण देश के बहुसंख्यक समाज में कहीं न कहीं ये संदेश चला गया कि कांग्रेस हिंदू विरोधी है और इस कारण हिंदू वोट का भाजपा की तरफ जबरदस्त ध्रुवीकरण हुआ, जिसका कांग्रेस को भी अंदाजा नहीं था।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>‘फूट डालो राज करो’</b></div>
<div style="text-align: justify;">
दरअसल, अंग्रेजों ने जिस ‘फूट डालो राज करो’ की नीति पर चलकर भारत पर राज किया, आजादी के बाद वही नीति हमारे राजनीतिज्ञों की भी पथ प्रदर्शक बनी। पार्टियों ने जातियों में बंटे हिंदू समाज को जाति के आधार पर और ज्यादा बांटा और अल्पसंख्यकों को एक ठोस वोट बैंक की तरह प्रयोग किया। अमूमन सभी राजनीतिक पार्टियां इस नीति का अनुसरण करती दिखीं। योजनाएं बनाने से लेकर नीतियां गढ़ने तक जाति और धर्म व जाति आधारित राजनीति को दिमाग में रखा गया। देश की आने वाली पीढि़यां राजनीतिक विज्ञान की किताबों में ये पढ़कर अपना माथा पीटा करेंगी कि भारतीय राजनीति में सत्ता हथियाने के लिए ‘अजगर’ (अहीर, जाट, गुर्जर, राजपूत) और ‘मजगर’ (मुस्लिम, अहीर, जाट, गुर्जर, राजपूत) जैसे समीकरणों का सहारा लिया गया।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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<b>एकजुट होता समाज</b></div>
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भारत की अधिकांश राजनीतिक पार्टियां यही मानकर चल रही थीं, कि जातियों में बंटा हिंदू समाज कभी संगठित होकर वोट कर ही नहीं सकता। जबकि अल्पसंख्यक समाज एक तरफा वोट डाल सकता है। कांग्रेस से लेकर कई क्षेत्रीय पार्टियों ने इस फाॅर्मूले का फायदा उठायाः <b>‘कुछ हिंदू जातियां + एकमुश्त अल्पसंख्यक वोट = जीत’</b>। मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी ने इसी फाॅर्मूले के दम पर कई बार यूपी की सत्ता पर कब्जा किया। जबकि मायावती की बहुजन समाज पार्टी द्वारा दलितों को अपना ठोस वोट बैंक बना कर, बड़ी संख्या में मुस्लिमों को टिकट बांटना इसी रणनीति का हिस्सा है। जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एकजुट हिंदू समाज की बात करता है तो इसके पीछे भी कहीं न कहीं इस एकजुटता को सत्ता की चाभी में तब्दील करने की दूरगामी दृष्टि है, जिसकी एक बानगी 2014 के लोकसभा चुनाव में नजर आई। उत्तर प्रदेश में मोदीमय भाजपा के पक्ष में ऐसा जबरदस्त ध्रुवीकरण हुआ कि ऐसे-ऐसे लोग सांसद बनकर दिल्ली पहुंच गए जिनके सपने में भी जीत के आसार नहीं थे। ध्रुवीकरण का असर इतना गहरा था कि कि बसपा का परंपरागत दलित वोट भी उससे छिटक गया। </div>
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<b>फेल हुआ फाॅर्मूला</b></div>
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2014 लोकसभा चुनाव परिणामों की विशेषता यह भी रही कि इस बार जीत का ये परंपरागत फाॅर्मूला पार्टियों के काम नहीं आया। ‘जिधर हम हैं, उधर जीत है’ की बात कहकर ताल ठोकने वाले उत्तर प्रदेश के मुस्लिम समुदाय ने 2014 के चुनाव में हर कोण से सोच कर देखा लेकिन कहीं जीत बनती नहीं दिखी। पहली बार हुआ कि यूपी में मुस्लिम वोट भी सपा, कांग्रेस और बसपा के बीच जमकर बंटा। एमआईएम के अध्यक्ष ओवैसी ने एक इंटरव्यू में तंज कसते हुए कहा कि ‘मैं मोदी को इस चीज के लिए बधाई देना चाहता हूं कि उन्होंने मुस्लिम वोट बैंक के मिथक को तोड़ दिया’।</div>
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<b>सबका साथ</b></div>
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भाजपा पर भी हिंदूवादी साम्प्रदायिक राजनीति करने का आरोप लगता रहा है। भाजपा विरोधी पार्टियां साम्प्रदायिकता का हौवा दिखाकर लोगों को डाराने का भी काम करती आई हैं। अयोध्या के राम मंदिर मुद्दे को भाजपा ने जिस तरह से गर्माया उससे इन आरोपों में दम भी दिखाई दिया। लेकिन वही भाजपा जब सत्ता में आई तो सबको साथ लेकर चलने में ही उसे देश की भलाई लगी। भाजपा ने अयोध्या को अपने एजेंडे में रखकर काशी और मथुरा का मुद्दा छोड़ने में देर नहीं लगाई। पहली एनडीए सरकार में भाजपा के पास पूर्ण बहुमत नहीं था, इसलिए सबकी बात करना प्रधानमंत्री वाजपेयी की मजबूरी कहा जा सकता है, लेकिन वर्तमान सरकार में भाजपा के पास पूर्ण बहुमत है फिर भी प्रधानमंत्री मोदी ने ‘सबका साथ और सबके विकास’ की राह पर चलने का प्रण दोहराया। इसलिए मजबूरी न पहले थी न अब है, बल्कि यही भारत की मूल संस्कृति है जो इस देश को हमेशा ये संदेश देती आई हैः </div>
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<b>सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।</b></div>
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<b>सर्वे भद्रणिपश्यन्तु मा कश्चित् दुःख भाग भवेत्।।</b></div>
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<b>(End of Series)</b></div>
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सचिन http://www.blogger.com/profile/08484919973851372449noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7079008157695611591.post-26670203630494239672015-05-12T13:12:00.000+05:302015-05-12T13:52:22.056+05:30चुनाव जो इतिहास रच गया (भाग-3): परिणामों ने पलट दी राजनीति की तस्वीर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgHEOrbXyaaY9j8hyphenhyphen3PAyfB0oEU2qSUrbbZCpjhXH2YUkqXzDE5fUdVZM9yd7xjr45Vkt7mnj2IvL_o8KYmdfzLJWsC03378XnN1-0v0V3Sh_NxiYxf5liYafLbuhbXOz-xH-h-7d5SSQeP/s1600/results.gif" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="266" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgHEOrbXyaaY9j8hyphenhyphen3PAyfB0oEU2qSUrbbZCpjhXH2YUkqXzDE5fUdVZM9yd7xjr45Vkt7mnj2IvL_o8KYmdfzLJWsC03378XnN1-0v0V3Sh_NxiYxf5liYafLbuhbXOz-xH-h-7d5SSQeP/s400/results.gif" width="400" /></a></div>
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2014 के चुनाव उपरांत भाजपा की सरकार बनेगी ऐसा विश्वास तो पार्टी के भीतर था, लेकिन अकेले अपने दम पर बनेगी ये दिग्गज से दिग्गज भाजपाई भी नहीं सोच पा रहे थे। यही कारण था कि पार्टी आखिरी दम तक अपने सहयोगियों की संख्या बढ़ाने में लगी थी। गठबंधन के लिए बातचीत का दौर खुला हुआ था। लेकिन भारत के चुनावी इतिहास में सबसे लंबे चले चुनाव का जब 16 मई को परिणाम आया तो उसने भारतीय राजनीति की तस्वीर बदल कर रख दी। आजादी के 67 साल बाद पहली बार देश में किसी गैर कांग्रेसी दल को अकेले अपने दम पर पूर्ण बहुमत मिल गया। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस का दूर-दूर तक सूपड़ा साफ हो गया। कांग्रेस पार्टी किसी भी राज्य में दो अंकों में सीटें नहीं ला पाई और अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन करते हुए 44 सीटों पर सिमट गई। देश की जनता ने मिलीजुली सरकार की कमजोरियों और लाचारियों का एक झटके में इलाज कर दिया। क्षेत्रीय पार्टिंयों की ब्लैकमेलिंग पर एकाएक विराम लग गया। उठापटक के पुरोधाओं के चेहरे लटक गए और मजबूत राष्ट्र का सपना देखने वालों की आंखें छलक उठीं। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की ऐतिहासिक जीत की गवाह बनकर 16 मई की तारीख देश के स्वर्णिम इतिहास में दर्ज हो गई। 2014 के चुनाव परिणाम की सबसे मजेदार बात ये है कि इनके आंकड़े इतने एक-तरफा थे कि इनको याद रखना किसी के लिए भी बेहद आसान है।</div>
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<b>खिसियानी बिल्ली</b></div>
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भाजपा की ये ऐतिहासिक जीत न तो विपक्ष को हजम हो रही थी और न कुछ पत्रकार रूपी चुनाव विश्लेषकों को। जब कोई तर्क देते नहींे बना तो कहा गया कि भाजपा को सीटें भले ही 282 मिल गई हों, लेकिन उसका वोट शेयर महज 31.3 प्रतिशत है, जो उसे सबसे कम वोट पाकर बहुमत लाने वाली सरकार की श्रेणी में डालता है। पर अगर आंकड़ों को गहराई से विश्लेषण किया जाए तो भाजपा की स्थिति किसी भी दृष्टि से कमजोर नहीं लगती। भाजपा ने कुल लोकसभा सीटों में से केवल 428 पर ही अपने उम्मीदवार खड़े किए थे और इन सीटों का वोट शेयर 40 प्रतिशत बैठता है। भाजपा ने गुजरात में 60 प्रतिशत से ज्यादा वोट पाए। कुल 6 प्रदेशों और केंद्र शासित प्रदेशों में 50 प्रतिशत से ज्यादा वोट हासिल गए। जबकि कुल 9 प्रदेशों और केंद्र शासित प्रदेशों में 40 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिले और तीन राज्यों में 30 प्रतिशत से ज्यादा मत मिले।</div>
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<b>यूपी ने दिखाया दम</b></div>
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सभी पोल पंडितों को हैरानी में डालते हुए भाजपा ने दिल्ली, राजस्थान, गुजरात, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और गोवा में शत प्रतिशत सीटें जीतकर अनोखा इतिहास रचा। इसके अलावा मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश में भी ऐतिहासिक जीत दर्ज कराई। उत्तर प्रदेश में 80 में से 71 सीट जीतकर भाजपा ने ऐसा कीर्तिमान स्थापित किया जो खुद उसके लिए भी तोड़ना अब मुश्किल होगा। उत्तर प्रदेश में भाजपा की जबरदस्त जीत के पीछे एक ऐसा माहौल खड़ा था, जो अब शायद की कभी मिले। उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत में जो फाॅर्मूला काम किया उसे ऐसे लिखा जा सकता है- </div>
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<b><br /></b></div>
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<b><i>"केंद्र सरकार के खिलाफ लहर+राज्य सरकार के खिलाफ गुस्सा+नरेंद्र मोदी लहर+मुजफ्फरनगर दंगों का दंश = भाजपा की ऐतिहासिक जीत"</i></b></div>
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<b><br /></b></div>
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ये भाजपा के पक्ष में एक ऐसा ब्लेंड था जो आगे कभी नहीं मिलेगा और भाजपा का भविष्य में 71 सीटें जीत पाना बेहद मुश्किल है। </div>
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<b>अन्य राज्य</b></div>
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उधर मध्य प्रदेश में 29 में से 27 सीट जीतकर भाजपा ने अपना परचम लहरा दिया। जो दो सीटें कांग्रेस के खाते में गईं उनमें ज्योतिरादित्य सिंधिया की ग्वालियर सीट और कमलनाथ की छिंदवाड़ा सीट शामिल है। राजघराने से जुड़े सिंधिया की जीत तो समझ आती है, लेकिन जबरदस्त मोदी लहर के बीच कमलनाथ का अपनी सीट निकाल पाना काबिले तारीफ है। जबकि छत्तीसगढ़ में भाजपा ने 11 में से 10 सीटें जीतीं, जो एक दुर्ग सीट पार्टी हारी उसके पीछे भी कहा जा रहा है कि पार्टी के स्थानीय नेतृत्व ने इसे जानबूझकर हारा। जम्मू कश्मीर जैसे सेंसिटिव राज्य में भी पार्टी ने छह में से तीन सीट जीतकर सबको हैरत में डाल दिया। जम्मू कश्मीर से अब्दुल्ला परिवार का पूरी तरह सफाया हो गया। इधर बिहार में भाजपा ने भले ही 40 में से 22 सीटें जीती हों, पर उसका वोट शेयर महज 29.9 प्रतिशत ही रहा। आगामी विधानसभा चुनाव में पार्टी को इस तरफ ध्यान देना होगा। जबकि कर्नाटक में भाजपा ने 28 में से 17 सीटें जीतकर मजबूत वापसी की और 43.4 प्रतिशत मत प्राप्त किए।</div>
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<b>कहां हुई दुर्गति</b></div>
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जिन बड़े राज्यों में पार्टी की दुर्गति हुई उनमें दक्षिण और पूर्व के राज्य शामिल हैं। केरल में बिना खाता खोले पार्टी को 10.5 प्रतिशत मत मिले। तमिलनाडु में 5.5 प्रतिशत मत पाकर एक सीट जीती जबकि एक सीट सहयोगी पीएमके ने। जबकि जयललिता की अन्नाद्रमुक ने 37 सीटों पर जबरदस्त सीट दर्ज की। भ्रष्टाचार के चलते कानूनी चंगुल में फंसा करुणानिधि परिवार को सिफर पर धूल चाटनी पड़ी। उड़ीशा में 21 में से 20 सीटों में नवीन पटनायक की बीजद ने शानदार जीत दर्ज कराई, लेकिन एक सीट जीतकर भी भाजपा को राज्य में 21.9 प्रतिशत मत मिले जो पार्टी के लिए एक अच्छा संकेत हो सकता है। पश्चिम बंगाल में 42 में से 34 सीटें जीतकर ममता दीदी ने अपना दबदबा कायम रखा, जबकि भाजपा ने अपने वोट शेयर में दस प्रतिशत का इजाफा करते हुए 17 प्रतिशत मतों के साथ दो सीटें जीतीं। बंगाल में सीपीआईएम के वोट शेयर में जबरदस्त कमी आई, जो ये संकेत देता है कि वहां का वोटर विकल्प की तलाश में है। आंध्र प्रदेश में भाजपा टीडीपी के साथ गठबंधन में थी और दोनों ने मिलकर 25 में से 17 सीटें जीतीं, लेकिन दो सीटों पर सिमटी भाजपा के लिए आंध्र में स्थिति कुछ बहुत अच्छी नहीं है। जबकि हाल में अलग हुए तेलंगाना में भी पार्टी कोई विशेष उपलब्धि दर्ज नहीं करा पाई। </div>
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<b>भाजपा की कमजोर नस</b></div>
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भाजपा भले ही एक राष्ट्रीय पार्टी हो, लेकिन केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तलंगाना, पश्चिम बंगाल और उड़ीशा में उसकी स्थिति कमजोर है। पंजाब में अकाली दल के बिना पार्टी अभी तक कुछ खास नहीं कर पाई है। जबकि पर्वोत्तर राज्यों में अरुणाचल और आसाम में पार्टी अगली बार राज्य सरकार बनाने की स्थिति में लग रही है, किंतु मेघालय, मणिपुर, मिजोरम, नागालैंड, त्रिपुरा और सिक्किम में पार्टी बेहद कमजोर है। केंद्र शासित राज्यों की बात करें तो एक लक्षद्वीप ही है जहां भाजपा के लिए निकट भविष्य में कोई संभावना नजर नहीं आती।<br />
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(To be continued....)</div>
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सचिन http://www.blogger.com/profile/08484919973851372449noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7079008157695611591.post-68442979833574744652015-05-11T13:08:00.002+05:302015-05-28T10:50:49.263+05:30चुनाव जो इतिहास रच गया (भाग-2): मोदी ने ठोका हर विवाद पर छक्का<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjzqPWbFo-ka1fzvFMGGvRHbp6x_2eDitgUVdp0mc3BnjdDJv9w_7hQu9UlOb7vIiO3FWJojEABnbi5D0YvU5fSWctOYhN7F2NB5kXthktNqRSqCanHKEy504XCV6SrJk5R4sJufzMzETyp/s1600/modi.png" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjzqPWbFo-ka1fzvFMGGvRHbp6x_2eDitgUVdp0mc3BnjdDJv9w_7hQu9UlOb7vIiO3FWJojEABnbi5D0YvU5fSWctOYhN7F2NB5kXthktNqRSqCanHKEy504XCV6SrJk5R4sJufzMzETyp/s400/modi.png" width="400" /></a></div>
<i style="background-color: white; color: #333333; font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 14.8500003814697px; line-height: 20.7900009155273px;">16वीं लोकसभा के लिए हुए आम चुनाव के जब 16 मई 2014 को परिणाम सामने आए तो वे अविस्मरणीय और हतप्रभ करने वाले थे। 16 मई की तिथि इतिहास में इस तरह दर्ज हो गई कि जब-जब बदलाव पर चर्चा होगी तो इस तिथि का जिक्र आएगा। आजाद भारत के इतिहास में पहली बार किसी गैर कांग्रेसी दल को बहुमत देकर भारतीय मतदाताओं ने अपने वोट की ताकत का अहसास करा दिया। मतदाताओं ने न केवल एक पूर्ण बहुमत वाली सरकार दी बल्कि इन परिणामों के माध्यम से देश के राजनीतिज्ञों को कई छिपे हुए संदेश भी दे दिए। जिस सुंदर राष्ट्र का सपना सड़क से लेकर संविधान तक आम लोगों को दिखाया जाता रहा, अब जनता उसे हकीकत में तब्दील होते देखना चाहती है। इसी उम्मीद के साथ देश के जनमानस ने नरेंद्र मोदी में अपनी आस्था दिखाई और उनके हाथ में एक मजबूत सरकार की बागडोर सौंप दी। उस ऐतिहासिक चुनाव परिणाम की पहली वर्षगांठ पर एक पुनरावलोकलनः</i><br />
<div style="text-align: center;">
<i style="background-color: white; color: #333333; font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 14.8500003814697px; line-height: 20.7900009155273px;">----------------------------------------------------------------------------------------------------------------</i></div>
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भाजपा नेता नरेंद्र मोदी कभी अपने कड़वे बोलों के लिए चर्चित रहते थे। 2009 के चुनाव में राहुल गांधी को जर्सी बछड़ा और सोनिया को जर्सी गाय कहकर वो मीडिया के निशाने पर आ गए थे। लेकिन वही मोदी जब 2014 के चुनावी मैदान में उतरे तो उनकी भाषा इतनी ज्यादा संयत थी कि 440 रैलियों में लंबे-लंबे भाषण देने के बावजूद उनकी जुबान ऐसी नहीं फिसली जिससे कोई विवाद खड़ा हो। राहुल गांधी के चुनावी करियर को तो उन्होंने केवल ‘शहजादे’ कह-कह कर ही हाशिए पर पहुंचा दिया। कुछ रैलियों में उनके भाषण में फैक्चुअल मिस्टेक जरूर हुईं, लेकिन वे ऐसी नहीं थीं कि उन पर विवाद खड़ा हो। उन गलतियों से ‘आज तक’ चैनल को अपने ‘सो साॅरी’ सीरीज का एक एपिसोड बनाने भर का मसाला मिला। पूरे चुनावी माहौल में मोदी विकास का माॅडल प्रस्तुत करते और कांग्रेस की खामियां गिनाते नजर आए। कहीं भी उन्होंने निजी हमले या कमर से नीचे वार नहीं किए और ये बात उनके पक्ष में जाती गई। चुनावी युद्ध पर गिद्ध की तरह नजरें गड़ाए बैठी मीडिया इसी फिराक में थी कि कब भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार गलती करें और कब वो उस गलती का पोस्ट माॅर्टम करे, पर मोदी ने उस पद की पूरी गरिमा को बनाए रखा, जिसके वो उम्मीदवार थे।</div>
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<br /></div>
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<b>चाय वाला तंज</b></div>
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भारतीय राजनीति का पढ़ा-लिखा चेहरा समझे जाने वाले मणिशंकर अय्यर को न जाने क्या हुआ कि उन्होंने 18 जनवरी 2014 कोई हुई एआईसीसी की मीटिंग में नरेंद्र मोदी के खिलाफ जहर उगलते हुए कह दिया कि- 21वीं शताब्दी में मोदी इस देश के प्रधानमंत्री कभी नहीं बन सकते, हां अगर वो चाय बेचना चाहें तो उसके लिए जगह का इंतजाम कर दिया जाएगा। दून स्कूल से पढ़े-बढ़े मणिशंकर का ये तंज उनकी पार्टी के लिए इतना भारी पड़ेगा ये उन्होंने सोचा नहीं होगा। भाजपा कार्यकर्ता सचमुच चाय की केतली लेकर एआईसीसी की मीटिंग में पहुंच गए और मीडिया ने जबरदस्त कवरेज दी। इसके बाद मोदी ने हर रैली में अपनी पहचान बतानी शुरू कर दी। मोदी ने ‘चाय वाले’ की छवि को पूरे चुनाव प्रचार में इतना ज्यादा भुनाया कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भी मोदी की काबिलियत के कायल हो गए। इतना ही नहीं उन्होंने अपने नामांकन में चाय वालों को अपना अनुमोदक भी बनाया। मोदी ने हर मंच से अपनी पुरजोर आवाज में बार-बार लोगों को बताया- ‘मैंने चाय बेची है, देश नहीं बेचा’। इस स्ट्रैटेजी को अपनाकर भाजपा ने मोदी के पक्ष में माहौल बनाने में असरदार मदद की।</div>
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<br /></div>
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<b>बड़ौदा की सेल्फी </b></div>
<div style="text-align: justify;">
अपनी संसदीय सीट बड़ौदा में वोट डालने के बाद मोदी ने जब कमल के फूल के निशान के साथ मीडिया के सामने सेल्फी खींची तो उन्हें अच्छी तरह पता होगा कि ये आचार संहिता का उल्लंघन है, बात बढ़ सकती है। लेकिन यही मोदी चाहते थे। दरअसल 2014 के चुनाव में नरेंद्र मोदी की मीडिया में अधिकतम दिखने और चर्चित रहने की रणनीति साफ नजर आई। चाहे इसके लिए कोई छोटा-मोटा उल्लंखन ही क्यों न करना पड़े। सेल्फी लेने की पीछे उनकी यही मंशा थी। जैसे ही सेल्फी टीवी स्क्रीन पर दिखनी शुरू हुई, हंगामा खड़ा हो गया। चैनल और विपक्षी पार्टियां उल्लंघन-उल्लंघन चिल्लाने लगे। अपने चुनाव चिन्ह के साथ फोटो खिंचाना चुनाव आयोग की आचार संहिता का उल्लंघन जरूर था पर ये इतना बड़ा अपराध कतई नहीं था कि मतदाता को नागवार गुजरे। इसलिए इस विवाद का भाजपा के अभियान पर कोई नकारात्मक असर नहीं पड़ा, पर मीडिया में हुई चर्चा के कारण मोदी ने कम से कम दो दिन तक सभी चैनलों का एयर टाइम अपने पक्ष में मोड़ लिया।</div>
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<br /></div>
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<b>वाराणसी रैली पर प्रतिबंध</b></div>
<div style="text-align: justify;">
वाराणसी के जिलाधिकारी और रिटर्निंग आॅफिसर प्रांजल यादव द्वारा सुरक्षा का हवाला देकर शहर के बेनियाबाग इलाके में नरेंद्र मोदी की प्रस्तावित रैली को इजाजत न देकर चुनावी माहौल में जबरदस्त उबाल ला दिया। भाजपा ने रैली की पूरी तैयारी कर ली थी, गुजरात की बहुत बड़ी टीम वाराणसी में डेरा डाले थी, कार्यकर्ताओं का जोश आसमान पर था, ऐसे में रैली की इजाजत न मिलने की खबर फैलते ही, मायूसी के साथ-साथ भावनात्मक उबाल भी देखने को मिला। जिलाधिकारी ने भले ही सुरक्षा और कानून व्यवस्था की बात कहकर रैली पर प्रतिबंध लगाया था, लेकिन आम लोग इस निर्णय के पीछे डीएम प्रांजल यादव और यूपी के मुखिया अखिलेश यादव के बीच यादव कनेक्शन की नजर से देखने लगे। खबरिया चैनलों पर इस प्रतिबंध का अलग-अलग एंगल से पोस्ट माॅर्टम होने लगा। एक बार फिर माहौल मोदी के पक्ष में जाता दिखा। मौका भांपकर भाजपा के रणनीतिज्ञों ने गर्म लोहे पर चोट की। नरेंद्र मोदी 8 मई को वाराणसी पहुंचे, पर रैली नहीं की, न माइक संभाला और न कोई बयान दिया। मोदी ने बस इतना किया कि वो बीएचयू गेट से अपनी गाड़ी में सवार होकर वाराणसी की सड़कों से गुजरते हुए भाजपा कार्यालय तक पहुंचे। पर ये कदम इतना छोटा नहीं था, जितना पढ़ने में लग रहा है। इस छोटे से सफर को तय करने में मोदी के काफिले को कई घंटे लगे। भारी संख्या में पार्टी कार्यकर्ता और आम लोग उन्हें देखने के लिए सड़कों और घरों की छत पर निकल आए। मोदी खुद को एक ऐसी उम्मीदवार के तौर पर पेश करने में सफल रहे जिससे उसका बोलने का अधिकार छीना जा रहा है। मीडिया पल-पल की लाइव कवरेज दिखाता रहा और ये सब फिर एक बार नरेंद्र मोदी के पक्ष में चला गया।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>दूरदर्शन का इंटरव्यू </b></div>
<div style="text-align: justify;">
बिना बात के विवाद कैसे खड़ा किया जाता है ये मोदी के आखिरी मास्टर स्ट्रोक में देखा जा सकता है। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी ने एक खास पैटर्न में सभी टीवी चैनलों को इंटरव्यू दिए। इंडिया टीवी की ’आपकी अदालत’ में रजत शर्मा को दिया गया इंटरव्यू तो लोगों में जबरदस्त हिट हुआ। चैनल ने इस इंटरव्यू को बार-बार दिखाकर खूब टीआरपी भी बटोरी। अंत में दूरदर्शन की बारी आई। वैसे तो चुनाव के दौरान दूरदर्शन चुनाव आयोग की आचार संहिता का सख्ती से पालन करता है, लेकिन फिर भी वह उस समय की यूपीए सरकार के सूचना प्रसारण मंत्रालय के अधीन था। किसी भी इंटरव्यू के बाद उसमें एडिटिंग होना एक स्वभाविक प्रक्रिया है। सभी चैनलों में ऐसा होता है, ये हर चैनल का विशेषाधिकार है। लेकिन डीडी न्यूज को नरेंद्र मोदी के इंटरव्यू में काट-छांट बहुत भारी पड़ गई। डीडी-न्यूज द्वारा गुजरात जाकर मुख्यमंत्री आवास पर लिए गए इस इंटरव्यू के प्रसारित होते ही भाजपा ने दूरदर्शन पर हल्ला बोल दिया। भाजपा ने आरोप लगाया कि चैनल ने यूपीए सरकार के दबाव में इंटरव्यू का सबसे महत्वपूर्ण भाग काट दिया है। ये आरोप कुछ हद तक ठीक भी था, क्योंकि मोदी का इटरव्यू प्रसारित करने से पहले दूरदर्शन के आला अधिकारियों से लेकर कांग्रेस के कुछ नेताओं द्वारा उसे देखा गया था। पर चैनल की समय सीमा में बांधने के लिए इंटरव्यू को काटना भी जरूरी था। कहीं न कहीं से तो इंटरव्यू को काटा ही जाना था। पर भाजपा दूरदर्शन को कोई मौका नहीं देना चाहती थी। पार्टी ने बेहद आक्रामक होकर दूरदर्शन पर आरोप लगाए। ये गुस्सा इसलिए भी था क्योंकि पूरे यूपीए काल में डीडी न्यूज ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का बायकाॅट करके रखा। गुजरात सरकार तो दूर वहां के विकास से जुड़ी खबरें भी बमुश्किल दिखाई गईं। पर मोदी ने एक ही मास्टर स्ट्रोक से दूरदर्शन से बदला भी ले लिया और अपना चुनावी मकसद भी पूरा कर लिया। ये मुद्दा कई दिनों तक मीडिया में छाया रहा, और मोदी को कवरेज मिलने का सिलसिला जारी रहा।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
भाजपा की इस तरह की रणनीति का परिणाम ये निकला कि चुनाव प्रचार के दौरान चैनलों का अधिकांश एयर टाइम हो या अखबारों के फ्रंट पेज हर ओर मोदी ही मोदी छाए रहे। कोई दूसरा चेहरा चाहे वह अपनी पार्टी का हो या विपक्षी पार्टियों का, उनके आसपास भी नहीं भटका।</div>
<div style="text-align: right;">
(To be continued...)</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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सचिन http://www.blogger.com/profile/08484919973851372449noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7079008157695611591.post-86945280806434113532015-05-10T13:55:00.000+05:302015-05-28T10:51:19.991+05:30चुनाव जो इतिहास रच गया (भाग-1): चारों ओर नमो-नमो का शोर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhwth94pckz2J834hyiFtK8tLr_c7H6CNoSs6SKOOpcFaYOW_oZUVrh5BCju71Mjqgk3ylJIoxN4M2itg3DvKLmm3BqZ4mI8IWEXzixL-UXFtaqT-L9-g2YH8Hle2MeE5OJy6Cxeg5qQM-d/s1600/modisarkaar_poster_rajnath.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhwth94pckz2J834hyiFtK8tLr_c7H6CNoSs6SKOOpcFaYOW_oZUVrh5BCju71Mjqgk3ylJIoxN4M2itg3DvKLmm3BqZ4mI8IWEXzixL-UXFtaqT-L9-g2YH8Hle2MeE5OJy6Cxeg5qQM-d/s320/modisarkaar_poster_rajnath.jpg" width="256" /></a></div>
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<i>16वीं लोकसभा के लिए हुए आम चुनाव के जब 16 मई 2014 को परिणाम सामने आए तो वे अविस्मरणीय और हतप्रभ करने वाले थे। 16 मई की तिथि इतिहास में इस तरह दर्ज हो गई कि जब-जब बदलाव पर चर्चा होगी तो इस तिथि का जिक्र आएगा। आजाद भारत के इतिहास में पहली बार किसी गैर कांग्रेसी दल को बहुमत देकर भारतीय मतदाताओं ने अपने वोट की ताकत का अहसास करा दिया। मतदाताओं ने न केवल एक पूर्ण बहुमत वाली सरकार दी बल्कि इन परिणामों के माध्यम से देश के राजनीतिज्ञों को कई छिपे हुए संदेश भी दे दिए। जिस सुंदर राष्ट्र का सपना सड़क से लेकर संविधान तक आम लोगों को दिखाया जाता रहा, अब जनता उसे हकीकत में तब्दील होते देखना चाहती है। इसी उम्मीद के साथ देश के जनमानस ने नरेंद्र मोदी में अपनी आस्था दिखाई और उनके हाथ में एक मजबूत सरकार की बागडोर सौंप दी। उस ऐतिहासिक चुनाव परिणाम की पहली वर्षगांठ पर एक पुनरावलोकलनः</i></div>
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<b>ज</b>ब भारतीय जनता पार्टी ने अपने वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी की नाराजगी मोल लेकर 10 जून 2013 को नरेंद्र मोदी को 2014-लोकसभा चुनाव के लिए अपना प्रचार प्रमुख चुना था तब शायद किसी को ये अंदाजा नहीं रहा होगा कि मोदी पार्टी के लिए ऐसा प्रचार करेंगे जो न किसी ने कभी देखा होगा और न सुना। मोदी ने देश का ऐसा तूफानी दौरा किया कि 32,87,590 वर्ग किलोमीटर में फैला ये विशाल राष्ट्र उनके हौसले के सामने एक छोटा सा गांव नजर आया। चुनाव प्रचार के दौरान मोदी तीन लाख किलोमीटर से ज्यादा यात्रा कर कुल 440 रैली और 5827 अन्य कार्यक्रमों के सूत्रधार बने। भारत के चुनावी इतिहास में देश की जनता ने ऐसा जोशीला प्रचार कभी नहीं देखा था। चैनल से लेकर अखबारों तक, रेडियो से लेकर लाउडस्पीकरों तक, गली मोहल्लों से लेकर रैलियों तक, हर मोर्चे पर मोदी विपक्षी पार्टियों पर भारी और बहुत भारी पड़ते दिखे। चुनाव शुरू होने से पहले पोल पंडित ये तो कह रहे थे कि एनडीए की सरकार बनेगी, लेकिन कोई खुलकर ये कहने को तैयार नहीं था कि भाजपा को पूर्ण बहुमत मिलेगा। लेकिन नौ चरणों का मतदान खत्म होते-होते कई सर्वे यह कहने को मजबूर हो गए कि भाजपा पूर्ण बहुमत से आ रही है।</div>
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<b>चैनल बोले नमो-नमो</b></div>
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विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है जहां धार्मिक विविधता सबसे ज्यादा है और शायद इसीलिए साम्प्रदायिक दंगे भारत में एक हकीकत हैं। ये दंगे न अंग्रेज रोक पाए और आजादी के बाद न कोई भारतीय सरकार रोक पाई। लेकिन भारतीय न्यूज चैनलों ने जितना पोस्ट माॅर्टम 2002 के गुजरात दंगों का किया और जितनी कीचड़ वहां के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर उछाली गई वैसा सुलूक भारतीय इतिहास में न तो किसी सरकार और न ही किसी नेता के साथ किया गया। यूपीए के दस साल के शासन में भारतीय न्यूज चैनल तकरीबन हर रोज गुजरात दंगों का जिक्र कर मोदी को नीचा दिखाने का कोई न कोई प्रयास करते दिखते थे। बात साम्प्रदायिकता की हो रही हो, तो उसे जबरदस्ती मोड़कर गुजरात ले जाया जाता था। पर 2014 के लोकसभा चुनाव आते-आते उसी मीडिया के सुर बदलने लगे। 2002 के दंगों को लेकर पिछले 12 सालों से हाथ-पांव धोकर नरेंद्र मोदी के पीछे पड़ी भारत की सबसे तेज मीडिया, मोदी रंग में रंगती चली गई। यकायक मीडिया ने मोदी के खिलाफ जहर उगलना बंद कर दिया और ‘तटस्थ’ खबरें दिखाने लगी। ब्रांड मोदी ने मीडिया को टीआरपी भी खूब दिलाई। बताने वाले ये भी कहते हैं कि कुछ बड़े उद्योगपतियों के माध्यम से कुछ बड़े मीडिया घरानों में पैसा लगवाया गया और विचारधारा विशेष के लिए काम कर रहे कुछ जहरीले पत्रकारों की छुट्टी का रास्ता साफ हुआ। दिल्ली के प्रेस क्लब में हल्के-हल्के सुरूर में कुछ खबरनवीस दिन के उजाले में ये कहते हुए दिख जाएंगे कि सभी सिद्धांतवादी, सत्यवादी और सुपर फास्ट न्यूज चैनलों ने मोदी को व्यापक कवरेज देने के एवज में भाजपा से ‘ठीकठाक’ दोहन भी किया। वह भी कुछ इस तरह कि पेड न्यूज का हंटर भी उनकी कमर पर न पड़े।</div>
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<b>नारे जो जमकर चले</b></div>
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भाजपा के विजय अभियान में <b>‘अबकी बार मोदी सरकार’ </b>ऐसा नारा रहा जो बच्चे-बच्चे की जुबान पर चढ़ गया। इस नारे को भ्रष्टाचार, अत्याचार, दुराचार, आम का अचार और न जाने किस-किस चीज के साथ जोड़कर लगाकर चलाया गया। ये नारा जमकर चला और ऐसा चला कि 16 मई को आए परिणामों में सच्चाई में तब्दील हो गया।</div>
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इसके अलावा जब मोदी समर्थकों ने वाराणसी में उनकी एक रैली में <b>‘हर-हर मोदी, घर-घर मोदी’</b> का नारा लगाया तो ये भी लोगों ने हाथों-हाथ लिया। भगवान शिव के ‘हर-हर महादेव’ के जयकारे से उधार लेकर बनाया गया ये नारा उस समय विवादों में घिर गया जब द्वारिका पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद ने इस पर आपत्ति दर्ज कराई। वैसे स्वामी स्वरूपानंद जी का कांग्रेस प्रेम और संघ से टकराहट जगजाहिर है, फिर भी खुद नरेंद्र मोदी को सामने आकर ये नारा न लगाने की अपील करनी पड़ी। </div>
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इसके अलावा भाजपा के विज्ञापन <b>‘अच्छे दिन आने वाले हैं'</b> की संगीतमय धुन इतनी सहज, कर्णप्रिय और उम्मीद जगाने वाली थी कि लोगों ने इसे हाथों हाथ लिया। पर पीएम बनने के बाद नरेंद्र मोदी को सबसे ज्यादा ताने, उलाहने ‘अच्छे दिन’ को लेकर ही सुनने पड़ रहे हैं।</div>
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हर वक्त कुछ नया करने की फिराक में रहने वाले नरेंद्र मोदी ने भाजपा का एंथम भी लांच किया। इस इलेक्शन एंथम में उन्होंने खुद अभिनय किया और अपनी आवाज भी दी। <b>‘मैं देश नहीं झुकने दूंगा’</b> के शब्द लोगों के बीच उतने चर्चित तो नहीं हो पाए, फिर भी नरेंद्र मोदी ने खुद इस गीत में अपनी आवाज देकर लोगों तक अपना संदेश पहुंचा दिया।</div>
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<b>कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी</b></div>
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‘कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना’ किसे कहते हैं ये 2014 के भाजपा के प्रचार अभियान में देखा जा सकता है। चुनाव आते-आते ये बात लगभग साफ हो चुकी थी कि देश में जबरदस्त कांग्रेस विरोधी माहौल है और सत्ता बदलनी तय है। लेकिन मोदी इस माहौल को पूर्ण बहुमत में तब्दील करना चाहते थे। पर भाजपा के चुनावी इतिहास को देखते हुए पूर्ण बहुमत एक सपने जैसा ही था। इसलिए मोदी ने चाय पे चर्चा करने से लेकर थ्री-डी रैली तक, सेल्फी से लेकर सोशल मीडिया तक, हाई प्रोफाइल मंच से लेकर एलसीडी स्क्रीन तक हर वो माध्यम अपनाया जो जन-जन तक उनकी आवाज को पहुंचाए और तब तक पहुंचाए जब तक लोगों को ये विश्वास न हो जाए कि अगला पीएम बनने लायक अगर देश में कोई है तो वो हैं नरेंद्र मोदी। मोदी के इस हाई-टेक प्रचार अभियान के सामने सारे विपक्षी दल बेहद बौने नजर आए। हालांकि इस हाई टेक प्रचार में हुए खर्च पर उंगलियां उठती रहीं हैं।</div>
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<b>रंग लाया ‘एक बूथ-एक बोलेरो’</b></div>
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मोदी की रैलियों में जबरदस्त भीड़ जुटाने के लिए ‘एक बूथ-एक बोलेरो’ का फाॅर्मूला खूब रंग लाया। मोदी ने देश भर में तकरीबन 440 रैलियों को संबोधित किया। इसके लिए भाजपा और संघ कार्यकर्ताओं को हर बूथ से कम से कम आठ लोगों को लाने की जिम्मेदारी दी गई थी। इसी फाॅर्मूले के दम पर मोदी की रैलियों में जनसैलाब देखने को मिला। मोदी खुद भी पूरी तैयारी के साथ हर रैली में पहुंचते थे। वे अपने हर भाषण में स्थानीय लोगों के साथ रिश्ता जोड़ने का प्रयास करते थे, स्थानीय समस्याओं पर चर्चा करते थे, जो लोगों के मन पर असर डालता था। भाषण में उस क्षेत्र के महापुरुषों का जिक्र करना भी मोदी नहीं भूलते थे। इससे लोगों में यह संदेश जाता था कि बंदे को हमारी समस्याओं के बारे में पता है। हर क्षेत्र की रैली में मोदी इसी तरह जनभावनाओं को समझकर अपने भाषण का मसौदा तैयार करके माइक संभालते थे।</div>
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<b>एनआरआई योगदान</b></div>
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प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी जिस अप्रवासी भारतीय समुदाय की प्रशंसा करते नहीं थकते, उस समुदाय का भी चुनाव मोदी के प्रचार में कुछ कम योगदान नहीं रहा। विदेशों में बैठे भाजपा के सिम्पैथाइजर्स की एक बड़ी फौज कामधाम छोड़कर भारत पहुंची हुई थी और चुनाव प्रचार में सहयोग कर रही थी। कुछ लोगों ने वाॅल्यूंटीयर्स के समूह बनाकर इंटरनेट पर सोशल मीडिया और वेबसाइट्स पर भाजपा के समर्थन में माहौल बना रखा था। सोशल मीडिया पर भाजपा समर्थक अपने विरोधियों पर बहुत भारी पड़े। एनआरआई समुदाय ने भाजपा को चुनाव लड़ने के लिए चंदा भी जमकर दिया। यही सब कारण हैं कि पीएम मोदी अप्रवासी भारतीयों के साथ एक भावनात्मक जुड़ाव रखते हैं और पीएम बनने के बाद उन्होंने अप्रवासी भारतीयों को नागरिकता और वीजा संबंधी बहुत सी सहूलियतें और रियायतें भी दी हैं। अप्रवासी भारतीयों में अपने देश के लिए कुछ करने की एक जबरदस्त भूख है। मोदी को अमेरिका द्वारा वीजा देने से इंकार करना अप्रवासी भारतीयों के बीच नाक का सवाल बन गया था। यही कारण है कि पीएम बनने के बाद मोदी के पहले अमरीकी दौरे पर अप्रवासी भारतीयों ने उनका एक हीरो की तरह स्वागत किया और मैडिसन स्क्वायर में एक अभूतपूर्व कार्यक्रम का आयोजन किया।<br />
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(To be continued...)</div>
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सचिन http://www.blogger.com/profile/08484919973851372449noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7079008157695611591.post-7500547819404199102015-04-23T16:26:00.000+05:302015-04-23T16:26:52.028+05:30मत जइयो केदार!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi-5JyD9ajyt1zAWLTHbGWIdSbFY4XqkVjRb-w06P-wfHpYqmSDEeluLFgQAL5Ci-FQL8Nm1QrjMJTUnRAnInv3y01dTZBcxC432-t5me3tcrGm8BQ2VPhNYqrVcf-Rieotc_ZIZS03Tw9P/s1600/kedar.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi-5JyD9ajyt1zAWLTHbGWIdSbFY4XqkVjRb-w06P-wfHpYqmSDEeluLFgQAL5Ci-FQL8Nm1QrjMJTUnRAnInv3y01dTZBcxC432-t5me3tcrGm8BQ2VPhNYqrVcf-Rieotc_ZIZS03Tw9P/s1600/kedar.jpg" height="297" width="400" /></a></div>
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2013 की विनाशकारी घटना के बाद से उत्तराखंड सरकार फिर से वहां पर्यटन बहाल करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रही है। केदार घाटी की घटना के बाद पर्यटकों में इतनी दहशत है कि बाकी के तीन धामों में भी पर्यटन को भारी धक्का लगा है। पर्यटकों का विश्वास जीतने के लिए सरकार बुजुर्गों को मुफ्त यात्रा कराने से लेकर सेलिब्रिटीज को बुलाने तक हर हथकंडा अपनाया जा रहा है। पर सवाल ये उठता है कि क्या ऐसे सेंसिटिव जोन में अत्यधिक पर्यटन को बढ़ावा देना उचित है।</div>
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केदार घाटी में बेतरतीब ढंग से धनोपार्जन की भावना से पर्यटन को बढ़ावा देने का बहुत बुरा खामियाजा हम 2013 में भुगत चुके हैं। उस दिल दहलाने वाले हादसे के बाद उत्तराखंड सरकार को यात्री खोजे नहीं मिल रहे हैं। 2014 में यात्रा शुरू तो कर दी गई लेकिन खराब मौसम ने फिर उसमें टांग अड़ाई। लेकिन इंसान प्रकृति से आखिरी दम तक लड़ने को आतुर है। हजारों की तादाद में जानें गंवाने के बावजूद हम फिर उसी राह पर चलने को आतुर हैं, जिस पर हमने अपनों को हमेशा के लिए खो दिया।</div>
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एक तरह तो हम तीर्थस्थलों का उनके आध्यात्मि महत्व के लिए महिमा मंडन करते हैं और दूसरी तरफ उन्हें पर्यटन की दृष्टि से दुकान में तब्दील करने की वकालत करते हैं। ये दोहरे मापदंड़ वाला दृष्टिकोण प्रकृति, पर्यावरण और पर्यटन के साथ-साथ तीर्थस्थल के लिए भी हानिकारक सिद्ध होगा। हिमालय के तीर्थस्थल श्रद्धालुओं और साधकों के लिए थे, हमने पर्यटन के नाम पर उन्हें अइयाशी के टूरिस्ट स्पाॅट में बदल दिया।</div>
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ये बात ठीक है कि तीर्थस्थलों पर जाने वाले श्रद्धालुओं के कारण स्थानीय लोगों को रोजगार मिलता है और राज्य की जीडीपी में बढ़त होती है। लेकिन अगर हमारी पूरी मानसिकता श्रद्धालुओं की जेबें झाड़ना ही बन जाए तो स्थिति वही होगी जो 2013 में बनी। नाजुक पहाड़ों पर अंधाधुंध डीजल गाडि़यों को प्रवेश, मानकों को ताक पर रखकर किया गया निर्माण कार्य आपको थोड़े समय के लिए धन जरूर दिला सकता है पर अंत में ये घातक ही सिद्ध होगा। इसलिए केदारनाथ धाम को साधकों हेतु एक साधनास्थली ही रहने दिया जाए। वहां जबरदस्ती कृत्रिम भीड़ खींचने का प्रयास न किया जाए। </div>
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क्योंकि अब केदार आराम चाहता है। कृपा करके उसे कुछ समय के लिए अकेला छोड़ दो।</div>
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सचिन http://www.blogger.com/profile/08484919973851372449noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7079008157695611591.post-73751768872219756692015-04-01T16:00:00.000+05:302015-04-03T11:24:40.535+05:30बिहार चुनावः भाजपा सरकार या जनता परिवार<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiNTYdjok4AnJSL4dASK79rHYvdAx5NOTxRoU2jviHkGKu8dVeSVxRuvGMg3luKhpL03JiKO2VPglebB81DKLMStndClf2-szGlG4PxGT8dhCvrSbKq0ZhsDHAtpGK2imXBWI45ukbFga5V/s1600/bihar.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiNTYdjok4AnJSL4dASK79rHYvdAx5NOTxRoU2jviHkGKu8dVeSVxRuvGMg3luKhpL03JiKO2VPglebB81DKLMStndClf2-szGlG4PxGT8dhCvrSbKq0ZhsDHAtpGK2imXBWI45ukbFga5V/s1600/bihar.jpg" height="281" width="400" /></a></div>
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2014 के लोकसभा चुनाव से लेकर अक्टूबर 2015 में जब बिहार का चुनाव होगा तब तक पाटलिपुत्र की राजनैतिक परिस्थितियों में बहुत परिवर्तन आ चुका होगा। लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न चुनाव के दौरान भी वही होगा और आज भी वही है कि सत्ता का स्वाद कौन चखेगा। क्या अपने करिश्माई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा बिहार में पूर्ण बहुमत हासिल करेगी, या फिर लालू-नीतीश की गलबहियां कोई रंग खिलाएंगी या कांग्रेस किंग मेकर बनकर उभरेगी, क्या आम आदमी पार्टी के मुखिया केजरीवाल (अपने स्टैंड, कि दिल्ली के बाहर अभी नहीं जाएंगे से यू टर्न लेकर) पार्टी के लिए बिहार के पानी में गहराई नापेंगे या फिर जीतन राम मांझी अपने राजनीतिक कौशल से नीतीश से अपने अपमान का बदला लेंगे? सवाल बहुत सारे हैं, मगर जवाब अभी किसी के पास नहीं। लेकिन अगर पिछले एक साल के दौरान हुए लोकसभा और विधानसभा चुनावों के आंकड़ों का जायजा लिया जाए तो अंदाजा जरूर लगाया जा सकता है कि बिहार का चुनाव किस करवट जा सकता है।</div>
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<b>लोकसभा चुनाव 2014</b></div>
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2014 के लोकसभा चुनाव के परिणामों का विश्लेषण करें तो बिहार में भाजपा ने 40 में से कुल 30 सीटों पर चुनाव लड़ा और 30 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 22 सीटों पर विजय दर्ज कराई। जबकि उसके सहयोग से रामविलास पासवान की लोकजनशक्ति पार्टी ने सात सीटों पर चुनाव लड़कर 6.5 प्रतिशत वोट शेयर के साथ छह सीटों पर जीत दर्ज कराई। भाजपा की दूसरी सहयोगी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी ने तीन सीटों पर चुनाव लड़ा और 3.1 प्रतिशत वोट पाकर तीनों सीटें जीत लीं।</div>
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वहीं बिहार के दूसरे धड़े पर नजर डालें तो लालू यादव की राजद ने 20.5 प्रतिशत वोट शेयर के साथ चार सीटें जीतीं। जबकि नीतीश की जनता दल यूनाइटेड ने 16 प्रतिशत वोट शेयर के साथ दो सीटों पर जीत दर्ज की। उधर सोनिया गांधी की कांग्रेस ने 8.6 प्रतिशत वोट पाकर दो सीटें जीतीं।</div>
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<b>विधानसभा पर लोकसभा का असर</b></div>
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अब लोकसभा के इन परिणामों को विधानसभा वार परिवर्तित किया जाए तो भाजपा कुल 121 विधानसभा सीटों पर आगे थी और 49 सीटों पर दूसरे स्थान पर रही, उसकी सहयोगी लोकजनशक्ति पार्टी 34 विधानसभा सीटों पर आगे थी और 7 सीटों पर दूसरे स्थान पर रही और उसकी दूसरी सहयोगी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी 17 विधानसभा सीटों पर आगे रही और 1 सीट पर दूसरे स्थान पर। इनको जोड़ा जाए तो एनडीए कुल 172 सीटों पर आगे रहा और 57 सीटों पर दूसरे स्थान पर। बिहार विधानसभा में 243 सीटें हैं और सरकार बनाने के लिए 122 सीटों की जरूरत है, अगर लोकसभा चुनाव परिणामों को हूबहू विधानसभा पर लागू कर दिया जाए तो एनडीए बहुत आराम से सरकार बनाता नजर आ रहा है। लेकिन फिर वही बात है कि 2014 से लेकर 2015 तक पटना की गंगा में बहुत पानी बह चुका होगा।</div>
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यही लोकसभा परिणाम अगर भाजपा की विरोधी पार्टियों पर लागू किए जाएं तो राष्ट्रीय जनता दल 32 सीटों पर आगे रही और 110 सीटों पर दूसरे स्थान पर, जबकि जनता दल यूनाइटेड 18 सीटों पर आगे रही और 27 सीटों पर दूसरे स्थान पर और कांग्रेस 14 सीटों पर आगे रही और 44 सीटों पर दूसरे स्थान पर। इन तीनों को अगर जोड़ा जाए तो ये तीनों विरोधी दल 66 सीटों पर आगे रही और 181 सीटों पर दूसरे स्थान पर। इन आंकड़ों के अनुसार तो विरोधी दलों की सरकार बनना मुश्किल लगती है, लेकिन इस बार परिवर्तन ये आ गया है कि लालू और नीतीश एक हो गए हैं, लिहाजा उनका गठबंधन भाजपा के सामने कितनी बड़ी चुनौती पेश कर पाता है ये कहना मुश्किल है।</div>
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<br /></div>
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<b>भाजपा और जनता परिवार की मुश्किलें</b></div>
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बिहार की राजनीति को सतही तौर पर देखा जाए तो मोटे तौर पर माहौल भाजपा के पक्ष में नजर आता है। लेकिन भाजपा की अच्छे बहुमत वाली जीत इसी बात पर निर्भर करेगी कि दिल्ली के विध्वंस के बाद पार्टी कितनी एकजुटता के साथ चुनाव लड़ती है। जनता परिवार तो भाजपा को चुनौती देने की कोशिश कर ही रहा है, लेकिन उसके सामने पहली चुनौती होगी लोजप और रालोप के साथ सीटों का बंटवारा। महाराष्ट्र जैसे अनुभव से बचने के लिए पार्टी की पहली कोशिश यही होनी चाहिए कि वह अपने दम पर बहुमत प्राप्त करे और बाद में दोनों सहयोगियों को भी सरकार में स्थान दे। पार्टी के लिए दूसरी चुनौती होगी कि वह अपना सीएम उम्मीदवार चुनाव से पहले घोषित करे या बाद में। हालांकि सुशील मोदी उर्फ सुमो अपनी जबरदस्त दावेदारी पेश करते रहे हैं, फिर भी यह निर्णय बेहद अहम है। भाजपा के सामने तीसरी चुनौती होगी टिकट बंटवारे के बाद बागियों से निपटना। ये बात भी ध्यान देने की है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में मतदाताओं ने वोट डालते वक्त जाति की दीवारों को भी दरकिनार करके भाजपा के पक्ष में वोट दिया। लेकिन विधानसभा चुनावों में वैसा हो पाना बहुत मुश्किल है।</div>
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<br /></div>
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वहीं दूसरी ओर जनता परिवार के लिए उम्मीदें संजोए बैठे नीतीश कुमार की राह बिल्कुल आसान नहीं है। नीतीश द्वारा सालों पुराना गठबंधन तोड़ने के फैसले के बाद उन पर पीठ में छुरा भोंकने का बड़ा आरोप भाजपा लगाती रही है। चुनाव की घोषणा होते ही उनकी पार्टी पर टूटने का खतरा मंडरा रहा है। दूसरे, लालू का साथ कितना भरोसेमंद और कितना लंबा चलेगा यह कहना मुश्किल है। ऊपरी तौर पर जनता परिवार सत्ता के लिए इक्ट्ठे हुए मौका परस्त लोगों का समूह ही नजर आता है। उनमें लोगों के लिए गंभीरता कम और कुर्सी के लिए आतुरता ज्यादा नजर आती है, जहां साफ छवि वाले नीतीश कुमार फिर से बिहार की रण जीतने की खातिर भ्रष्टाचार में आरोपी लालू का भी साथ लेने को तैयार हैं और जेल काट रहे ओमप्रकाश चैटाला को भी। भाजपा अगर ये सब चीजें अगर बिहार के लोगों को समझाने में सफल रही तो जनता परिवार के सपने टूट सकते हैं।</div>
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<b>‘आप’ और ‘हम’ का असर </b></div>
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बिहार विधानसभा चुनाव में इस बार केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) और जीतन राम मांझी की हिंदुस्तान आवाम मोर्चा (हम) भी अपना दम आजमा सकते हैं। दिल्ली में बुरी तरह अंदरूनी कलह से जूझ रहे केजरीवाल ने यूं तो शपथ लेते वक्त दिल्ली के बाहर जाने की अनिच्छा प्रकट की थी, लेकिन बाद में खबरें आईं कि आप दिल्ली के बाहर भी चुनावी भाग्य आजमाएगी। दिल्ली में चमत्कार करने वाली आप बिहार में शायद ही कोई जादू कर पाए। पार्टी की वर्तमान अंदरूनी हालात देखकर तो लगता है कि पार्टी चुनाव लड़ने से भी इंकार कर सकती है। जबकि जीतन राम मांझी की ‘हम’ का एकमात्र उद्देश्य नीतीश कुमार से अपने अपमान का बदला लेना होगा। महादलितों के वोट विधानसभा सीटों में अहम किरदार अदा करते हैं, मांझी इस वोट को काट पाएंगे या नहीं चुनाव में ही पता चलेगा। भाजपा भी मांझी को अपने पक्ष में लेने का प्रयास कर सकती है।<br />
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<b>अन्य राज्यों पर लोकसभा चुनाव का असर</b><br />
लोकसभा चुनाव के बाद कुल पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो चुके हैं, जिनमें से भाजपा ने हरियाणा और झारखंड में पूर्ण बहुमत प्राप्त किया। जबकि महाराष्ट्र और जम्मू कश्मीर में मिली जुली सरकार बनाने में सफलता मिली। लेकिन दिल्ली के विस्मयकारी परिणाम ऐसे रहे कि पार्टी को अभूतपूर्व हार का सामना करना पड़ा। नीचे चित्रों में दिया गया विश्लेषण ये बताने का प्रयास करता है कि लोकसभा चुनाव के अनुसार इन राज्यों की विधानसभाओं में कितनी सीटें अनुमानित की गई थीं और वास्तविक परिणाम क्या रहे। वैसे तो हर राज्य की परिस्थितियां अलग-अलग होती हैं फिर भी बिहार के बारे में एक मोटा अंदाजा लगाया जा सकता है।<br />
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<b>हरियाणा</b></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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<b>झारखण्ड </b></div>
</div>
<div style="text-align: justify;">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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<b>महाराष्ट्र </b><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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<b>जम्मू कश्मीर </b><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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<b>दिल्ली </b><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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<b><br /></b>
<b>बिहार</b><br />
<b><br /></b>
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<b><br /></b></div>
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सचिन http://www.blogger.com/profile/08484919973851372449noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7079008157695611591.post-19903909412660885982015-03-04T13:56:00.001+05:302015-03-04T13:56:10.611+05:30प्रधानमंत्री का यूं कैंटीन में जाकर खबर बन जाना<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh5ySk4dkKnsQfcF6M_sFVyb7vXUr-6BXyZmw2tf8KJR-jC5Zl6npFPaUlL4bNfcLaeyJnICWVbKNtQ3KoGsGTHL8zQnMQafbGiZ9PaSzGkXHpkqXruAX-pemiGhiW42L1Gu81oavXScAhM/s1600/canteen+modi.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh5ySk4dkKnsQfcF6M_sFVyb7vXUr-6BXyZmw2tf8KJR-jC5Zl6npFPaUlL4bNfcLaeyJnICWVbKNtQ3KoGsGTHL8zQnMQafbGiZ9PaSzGkXHpkqXruAX-pemiGhiW42L1Gu81oavXScAhM/s1600/canteen+modi.jpg" height="218" width="320" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
प्रधानमंत्री मोदी ने संसद की कैंटीन में खाना खाया और ये राष्ट्रीय खबर बन गई। इस खबर से दो बातें मुखर होकर सामने आईं, पहली ये कि सांसदों के लिए बनी इस कैंटीन में प्रधानमंत्री, जो खुद भी एक सांसद होते हैं, कभी भोजन नहीं करते थे। ये पहली बार था कि देश के प्रधानमंत्री ने कैंटीन में जाकर भोजन किया। ये अच्छी पहल है, स्वागतयोग्य है। दूसरी बात ये सामने आई कि संसद की कैंटीन कितनी सस्ती है कि यहां सिर्फ 29 रुपये में शाकाहारी थाली मिल जाती है। </div>
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<b>जनप्रतिनिधि खास क्यों?</b></div>
<div style="text-align: justify;">
जब ये खबर लोगों ने टीवी पर देखी तो एक तरफ उनको खुशी हुई कि प्रधानमंत्री ने एक सहज-सरल सा कदम उठाया, दूसरी तरफ ये कुंठा मन में आई कि आम लोगों को पूरी कोशिश करने के बावजूद अच्छा खाना 100 रुपये से कम में नसीब नहीं होता, वहीं उनके प्रतिनिधि सांसद आसानी से इतना सस्ता खाना खाते हैं। देश के वित्त मंत्री बार-बार सब्सिडी हटाकर आत्मनिर्भर बनने की सलाह देते आए हैं। पेट्रोल, डीजल, सिलेंडर, खाद, बीज, राशन तमाम चीजों पर सब्सिडी कम या खत्म करने की पैरोकारी हो रही है। इसमें कुछ गलत भी नहीं है। देश के जन अगर आत्मनिर्भर बनते हैं, तो ये एक सुखद सफलता होगी। पर आत्मनिर्भर बनने की अपेक्षा केवल जनता से ही क्यों की जाए। जनप्रतिनिधि इस दायरे में क्यों न आएं? क्या वे ताउम्र सब्सिडी का लाभ उठाकर सरकार पर बोझ बने रहेंगे?</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>शुरुआत अपने घर से</b></div>
<div style="text-align: justify;">
ये जगजाहिर है कि देश के बजट का बहुत बड़ा हिस्सा सरकारी खर्चों में चला जाता है। अगर सरकार अपनी नीतियों में सरकारी खर्च को कम करती नजर आए तो कहना ही क्या? हो सकता है कि कुछ कदम उठाए भी गए हों, पर वे न तो कहीं नजर आए न उनकी चर्चा हुई। सब्सिडी की बैसाखियों को हटाकर देश को आत्मनिर्भरता की ओर ले जाने का नारा बुलंद कर रही वर्तमान एनडीए सरकार अगर सब्सिडी हटाने की शुरुआत संसद से ही शुरू करती तो संदेश बहुत सकारात्मक जाता। अभी भी देर नहीं हुई, ये कदम उठाया जा सकता है। मीडिया के माध्यम से संसद के बारे में ये जानकारी तो आम लोगों तक पहुंच ही जाती है कि संसद की कार्यवाही का खर्च काफी ज्यादा होता है, जिसका भार आम जनता की जेब पर पड़ता है। और ये भी कि संसद का काफी वक्त हंगामे की भेंट चढ़ जाता है। ऐसे में आम लोगों के मन में ये प्रश्न उठना लाजमी है कि वे अपनी जेब से कुछ खास लोगों का खर्च क्यों उठाएं। क्या सांसद अपने भोजन का खर्च स्वयं नहीं उठा सकते। एक दौर था जब सांसद की पगार बहुत कम हुआ करती थी। लेकिन आज सांसद अपने अन्य भत्तों से अलग 50 हजार रुपये प्रति माह पगार के रूप में उठाते हैं। अगर भत्तों को मिला लिया जाए तो एक सांसद पर सरकार प्रति माह एक लाख 40 हजार रुपये खर्च उठाती है। ये रकम किसी भी दृष्टि से कम नहीं है। क्या इतनी रकम प्रति माह लेने वाले व्यक्ति को अपनी रोटी के लिए सरकार से सब्सिडी लेने की आवश्यकता है? फिर भी पता नहीं क्यों सरकार सांसदों के भोजन पर इतनी भारी सब्सिडी प्रदान करती है। इस अनावश्यक बोझ से सरकार को तुरंत फारिग होना चाहिए।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>किसको दें सब्सिडी</b></div>
<div style="text-align: justify;">
सच्चे मायनों में संसद भवन के अंदर अगर सब्सिडी प्रदान करनी है तो उन स्टूडेंट्स को प्रदान की जाए जो यहां एजूकेशनल टूर पर आते हैं, संसद के फोर्थ ग्रेड कर्मचारियों को प्रदान की जाए। सांसद आर्थिक दृष्टि से पूरी तरह मजबूत हैं, उनको कम से कम रोटी पर सब्सिडी देने की कोई आवश्यकता नजर नहीं आती। उसी तरह देश में कदम-कदम पर ठोके गए टोल बूथों पर जहां आम आदमी जद्दोजहद में फंसा रहता है, ये गणमान्य लोग अपने पूरे काफिले के साथ सर्रर्र से सरक जाते हैं। आखिर सांसद, विधयक और ब्यूरोक्रेट टोल टैक्स की जद में क्यों न आएं? इनकी तनख्वाह भारत के किसी भी मिडिल क्लास परिवार से कहां कम है? इसी तरह का भेद जगह-जगह आम लोगों को असमानता का अहसास कराता है। इस बारे में अगर सरकार ध्यान दे तो सरकारी खर्च और असमानता दोनों घट सकते हैं।</div>
</div>
सचिन http://www.blogger.com/profile/08484919973851372449noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7079008157695611591.post-30814578540120286092015-02-10T16:21:00.001+05:302015-02-10T16:21:54.101+05:30जनता का संदेश - जमीनी बन जाओ सब!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi3u68aq38pJYl-OEEuz9K4FpzgDEpztf3DM2y0jyZwNNSSzx6oh6bOD64-Q84bus9ehgN_ZxTOdt0CLd0J51Q85gil7pM-WuNez4YcmKxKeDWUwZga7MU3zC4X9R-eqgDlGZI7yjE0tXEp/s1600/Untitled+1.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi3u68aq38pJYl-OEEuz9K4FpzgDEpztf3DM2y0jyZwNNSSzx6oh6bOD64-Q84bus9ehgN_ZxTOdt0CLd0J51Q85gil7pM-WuNez4YcmKxKeDWUwZga7MU3zC4X9R-eqgDlGZI7yjE0tXEp/s1600/Untitled+1.png" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
कई महान संतों की भविष्यवाणी है कि 21वीं सदी भारत की होगी। जिस तरह के बदलाव देश में दिख रहे हैं उसको देखते हुए ये लगने भी लगा है। दिल्ली में भाजपा की कड़ी शिकस्त और आप की शानदार जीत उसी श्रृंखला की एक कड़ी है जो नए भारत को गढ़ने जा रही है। दिल्ली की हार में भाजपा के लिए सबक ही सबक छिपे हैं। अपने नौ महीने के कार्यकाल में पहली बार भाजपा ने हार का मजा चखा है। भले ही पार्टी इस बात को न माने लेकिन लगातार मिल रही सफलताओं से भाजपा के अंदर अहंकार बढ़ रहा था। पार्टी के आला नेताओं का आम आदमी से जुड़ाव घट रहा था। ये परिणाम भाजपा के लिए खतरे की घंटी है कि अभी भी वक्त है जमीन पर उतरें वरना कुछ भी संभव है। जनता की अपेक्षाएं लगातार बढ़ रही हैं, वो अब सरकार को नौ महीने भी नहीं देना चाहती है। इसलिए शासन को काम में स्पीड दिखानी ही होगी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>भितराघात</b></div>
<div style="text-align: justify;">
माने या न माने पर भाजपा इस बार सबसे बड़े भितराघात से जूझ रही है। किरण बेदी के आ जाने से दिल्ली भाजपा के नेताओं ने जमीन पर काम करने से तकरीबन इंकार कर दिया था। अपने ही नेताओं ने पार्टी के खिलाफ प्रदर्शन किया। ऐसा लग रहा था मानो इस बार पार्टी कार्यकर्ताओं ने अपनी नेशनल लीडरशिप को सबक सिखाने का मन बना लिया था। अपने पिछले ब्लाॅग में मैंने खुद किरण बेदी को मुख्यमंत्री के तौर पर उतारने की वकालत की थी। लेकिन किरण बेदी को सीएम उम्मीदवार बनाना दिल्ली भाजपा को इतना बुरा लगेगा ये कभी नहीं सोचा था। मुझको लगा था कि थोड़े विरोध के बाद प्रदेश कार्यकारिणी किरण को अपना लेगी, पर ऐसा नहीं हुआ। पार्टी में एक धड़ा ऐसा था जिसने हर्षवर्धन के उठने के डर से किरण को लाने का समर्थन कर दिया, तो दूसरा धड़ा किरण के विरोध में काहिली पर उतर आया। हारकर मोदी कैबिनेट के मंत्रियों को जिम्मेदारी बांटी गई, पर उसका कोई परिणाम नहीं मिला। एक राष्ट्रीय पार्टी ने अपना पूरा धनबल, जनबल और अनुभवबल झोंक दिया, पर परिणाम ढाक के तीन पात की तरह विधानसभा की तीन सीट में मिला।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>किरण का स्टाइल</b></div>
<div style="text-align: justify;">
उधर किरण बेदी का स्टाइल भी कुछ ठीक नहीं रहा। वो पहले दिन से खुद को सीएम उम्मीदवार के बजाय दिल्ली की सीएम की तरह कार्यकर्ताओं और लोगों से बात करती रहीं। टीवी डिबेट में भी वो अपना पक्ष ठीक से नहीं रखती पाई गईं। उनके इंटरव्यू सोशल मीडिया पर मजाक का पात्र बन गए। उनकी तुलना राहुल गांधी से की जाने लगी। ये बात तो समझ आती है कि राजनीतिज्ञ न होने के कारण उनके पास भाषण शैली नहीं है, पर तर्कों के स्तर पर भी खालीपन दिखा। अंततः पार्टी तो हारी ही खुद बेदी भी सबसे सुरक्षित सीट से हार गईं।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>कमजोर पड़ी साइबर सेना</b></div>
<div style="text-align: justify;">
दिल्ली चुनाव में भाजपा की साइबर सेना भी कमजोर नजर आई। लोकसभा चुनाव में सोशल मीडिया पर मोदी और भाजपा के पक्ष में जबरदस्त जंग लड़ी जा रही थी। इस बार साइबर वीरों ने आप के आरोपों पर माकूल जवाब नहीं दिया। इसका मुख्य कारण है कि लोकसभा की जीत और फिर उसके बाद कुछ राज्यों में लगातार मिली सफलता के बाद भाजपा समर्थक कंफर्ट जोन में चले गए थे। दूसरे उन पर सोशल मीडिया पर ‘मोदी के अंध भक्त’ होने का आरोप भी बेड़ी तेजी से लगाया गया। तीसरे केंद्र सरकार बनने के बाद अधिकांश कार्यकर्ता खुद को कटा सा महसूस कर रहे हैं। यहां मैं उन लोगों की भी बात कर रहा हूं जो सक्रिय रूप से पार्टी में काम नहीं करते हैं। बल्कि भाजपा के सिम्पैथाइजर होने के नाते सोशल मीडिया पर पार्टी का पक्ष मजबूती के साथ रखते हैं, बहस करते हैं, विरोधियों को माकूल जवाब देते हैं। इसके लिए इन लोगों को पार्टी से कुछ मान्यता तो नहीं मिलती पर भक्त होने का आरोप जरूर झेलना पड़ता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>नौ लखा सूट</b></div>
<div style="text-align: justify;">
जब हार के कारणों की बात चल ही रही है तो प्रधानमंत्री द्वारा ओबामा से मुलाकात के दौरान पहना गया नामांकित सूट की चर्चा नहीं छूट सकती। मीडिया ने इस सूट की कीमत नौ लाख रुपये आंकी है, जबकि कुछ लोगों का मानना है कि सूट की कीमत तकरीबन तीन लाख होगी। भले ही यह तर्क दिया जा रहा हो कि वह सूट जेड ब्लू कंपनी ने उपहार में दिया था। लेकिन ये प्रश्न तो उठता है कि जिस देश में हजारों गरीब नागरिक हर साल ठंड से मर जाते हों, क्या उस देश के प्रधानमंत्री इतने महंगे वस्त्र पहने चाहिए? प्रधानमंत्री मोदी के बारे में ये मशहूर होता जा रहा है कि वह एक जोड़ी कपड़ा एक ही बार पहनते हैं। हालांकि जिस विचारधारा से मोदी आते हैं वहां सादगी पर सबसे ज्यादा बल दिया जाता है। वह उस आरएसएस से जुड़े रहे हैं जहां एक धोती को दो दिन पहनने की तरकीब सिखाई जाती है। लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने खुद को चाय वाले से जोड़कर जो आम लोगों के दिलों में जगह बनाई थी, नौ लाख का सूट पहनने के बाद वह जगह जाती रही। ये बात समझनी जरूरी है कि भारत का संपन्न वर्ग बहुत छोटा है। अधिकांश संख्या मध्यम वर्ग और गरीबों की है और वह सादगी को ही पसंद करते हैं। भले ही प्रधानमंत्री मोदी अपने बहुत से निजी उपहारों को हर साल नीलाम कर धन को सामाजिक कार्यों के लिए दान दे देते हैं, फिर भी लोग फाइव स्टार कल्चर को नापसंद करते हैं। गांधी जी ने तो ये बात बहुत पहले ही समझ ली थी, इसीलिए उन्होंने सूट उतारकर धोती बांध ली थी और जन-जन के नेता बन गए। वही काम आज केजरीवाल कर रहे हैं, छोटी पैंट, सैंडल पर मोजे, छेद वाली जर्सी और मफलर पहनकर वो सीधे आम आदमी से जुड़ गए।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>कड़वे बोल</b></div>
<div style="text-align: justify;">
भाजपा के लिए कुछ अनुषांगिक संगठनों के कड़वे बोल भी भारी पड़े। घर वापसी, चार-पांच बच्चे, योगी, साध्वी सबने मिलकर बयानों की झड़ी लगा दी। खुद प्रधानमंत्री को भी माफी मांगनी पड़ी। उनके कड़वे बोलों से हिंदू वोट बैंक पर तो कोई असर नहीं पड़ा पर मुस्लिम वोट बैंक लामबंद हो गया। इस बार दिल्ली में आप के पक्ष में मुस्लिम, निम्न वर्ग, मध्यम वर्ग, दलित, सरकारी कर्मचारी सबने मिलकर भाजपा को हराने का काम किया।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>गणित नहीं अब भावना चलेगी</b></div>
<div style="text-align: justify;">
इस परिणाम में एक बात गौर करने वाली है कि भाजपा को 2013 में 26 लाख से ज्यादा वोट मिले और 2015 में 28 लाख से ज्यादा वोट मिले हैं। वोट शेयर 2013 में 33 फीसदी था और 2015 में ये 32 फीसदी है। इसका अर्थ ये हुआ कि पार्टी का वोट बैंक अपनी जगह इंटैक्ट है। पर कांग्रेस और बसपा को पूरा वोट बैंक आम आदमी पार्टी की तरफ शिफ्ट हो जाने से उनका वोट शेयर बढ़कर 54 फीसदी तक पहुंच गया और इतनी भारी जीत मिली। इन परिणामों में एक सीख ये भी है कि गणित लगाकर चुनाव लड़ने का जमाना गया, अब भावना का महत्व है। पार्टियां किस भावना और नीयत से चुनाव लड़ रही हैं इसका महत्व आने वाले समय में बढ़ेगा। मंच पर खड़े होकर बनावटी बातों से काम नहीं चलने वाला अब लोगों को विश्वास में लेना जरूरी होगा।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>तुलना हो सकेगी</b></div>
<div style="text-align: justify;">
दिल्ली चुनाव से केंद्र में बैठी मोदी सरकार के लिए सबसे बड़ा फायदा ये होगा कि अब उनकी किसी से तुलना हो सकेगी। अब तक तो मोदी की पाॅलिसियों और उनके स्टाइल की किसी से तुलना नहीं हो पा रही थी। प्रधानमंत्री मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद कई नए प्रयोग किए, कई तरह की नई पहल कीं, एक नए किस्म की व्यवस्था की शुरुआत की। इधर केजरीवाल भी नए-नए प्रयोग करने के लिए जाने जाते हैं। अब मीडिया और जनता दोनों नेताओं का तुलनात्मक अध्ययन कर सकेंगे और देश में आगे की राजनीति की दिशा तय होगी।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>परिपक्व होता लोकतंत्र </b></div>
<div style="text-align: justify;">
जनता द्वारा 2014 में सातों सांसद भाजपा की गोद में डालना और फिर नौ महीने बाद सारे विधायक आप की गोद में डालना भारत के परिपक्व होते लोकतंत्र की निशानी है। ऐसा उदाहरण कम ही देश में देखने को मिलेगा। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत की जनता कितनी जागरुक और परिपक्व है कि अपने लिए सही प्रधानमंत्री और सही मुख्यमंत्री के बीच चुनाव करना उसे अच्छी तरह आता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>जमीनी बन जाओ</b></div>
<div style="text-align: justify;">
इस पूरे चुनावी प्रकरण में जनता ने अपने राजनेताओं को जो संदेश दिया है वो साफ है कि ‘हे भारत वर्ष के राजनीतिज्ञों जमीनी बन जाओ’। जनता से कट कर अब राजनीति नहीं चलने वाली। जो लोग जनता के वोट से चुनाव जीतकर कैपिटलिस्ट और काॅरपोरेट हाउस की गोद में बैठ जाते हैं वे लोग अब आम लोगों की अवहेलना नहीं कर सकते। काॅरपोरेट भक्त नेताओं को भारतीय रेल से सबक लेना चाहिए। भारती की अधिकांश ट्रेनों में फस्र्ट एसी की बोगी एक ही होती है, ज्यादा डिब्बे स्लीपर और जनरल के ही होते हैं। रेलगाड़ी पूरे भारतीय समाज की तस्वीर है। नेताओं को स्लीपर और जनरल बोगी में सफर करने वाली जनता का ध्यान रखना होगा। फस्र्ट एसी में सफर करने वालों की संख्या उंगलियों पर गिनने लायक है, वो आपको धन तो मुहैया करा सकती है पर चुनाव नहीं जुटा सकती।</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>आप के लिए कठिन डगर</b></div>
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जितनी बड़ी जीत आप ने हासिल की है, उसको अब उतना ही डरना जरूरी है। आने वाला समय आप और केजरीवाल के लिए बहुत कठिन साबित होने वाला है। पार्टी ने जिस तरह के वादे अपने मैनिफेस्टो में किए हैं उनको पूरा करना बहुत बड़ी चुनौती है। वादों को पूरा करने में अगर-मगर किया या फिर नियम व शर्तें लगाईं तो जनता आप नेताओं की सड़क पर खबर लेगी। केजरीवाल ने पिछली बार बहुमत न होने की मजबूरी जताई थी, इस बार आप की आप है, इसलिए अब अगर कोई ड्रामेबाजी, धरनेबाजी या बहानेबाजी की गई तो मीडिया और जनता दोनों उनको नहीं छोड़ने वाली। और अगर केजरीवाल एक जनोन्मुख, विकासोन्मुख आदर्श शासन देने में सफल होते हैं तो समाज की इससे बड़ी भलाई नहीं हो सकती।</div>
<div style="text-align: justify;">
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</div>
सचिन http://www.blogger.com/profile/08484919973851372449noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7079008157695611591.post-50389452882645111422014-12-27T14:48:00.000+05:302014-12-27T14:48:47.771+05:30चुनावों का देश बनता जा रहा भारत<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjeWJcLiFe8ZBPtx9Bqvsd8x5bBJSUbSghFn4p78zPJRYvLA0GHT9SyrNL1vVVXUK-68iiWdngTJ5DG9T9nOFDQ8wNLNwADOk7cJS_EHdFlJUbAava-Wutxpuhf528TAnbVkjCRw4CRlvb6/s1600/elections+3.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjeWJcLiFe8ZBPtx9Bqvsd8x5bBJSUbSghFn4p78zPJRYvLA0GHT9SyrNL1vVVXUK-68iiWdngTJ5DG9T9nOFDQ8wNLNwADOk7cJS_EHdFlJUbAava-Wutxpuhf528TAnbVkjCRw4CRlvb6/s1600/elections+3.jpg" height="215" width="320" /></a></div>
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लोकतंत्र और चुनाव एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं या कहें कि इनका चोली-दामन का साथ है। लेकिन देश में बार-बार चुनावी बुखार चढ़ना भी उचित नहीं हैं। भारत में किसी न किसी बहाने से चुनाव इतनी बार आते हैं कि इसे चुनावों का देश कहना गलत नहीं होगा। लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव एक साथ न होने की वजह से हर साल भारत में चुनावी मेला लगता है। बार-बार टीवी पर लोग भाषण, रैलियां, घोषणाएं, वादे, आरोप, प्रत्यारोप और राजनीतिक छीछालेदर देखते हैं। </div>
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2014 को ही लें, मार्च, अप्रैल, मई में आम चुनाव हुए। इसके साथ में आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, उड़ीशा, अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम में भी चुनाव हुए। पूरा देश तकरीबन चार महीनों तक चुनावी बुखार की गिरफ्त मेें रहा। कुछ महीने भी नहीं बीते थे कि हरियाणा और महाराष्ट्र में चुनाव आ गए, फिर एक बार सियासी पारा चढ़ गया। अंत में साल जाते-जाते जम्मू-कश्मीर और झारखंड के विधानसभा चुनाव देश को राजनीतिक सरगर्मियों में ले गया।</div>
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj9f156T0leKww7Gen5AYEZDBHUPSc9f7_-5NWQu2WH4j-Pd8BgfIQYKCr7NxP1zrSROJRKh-PsieNMaX2n0AFKSV7H1sxPnbWEZyR7-esGGWvH05veDZ67OkX-aQs-BRiV1gHr8Nj2_qa4/s1600/elections+2.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj9f156T0leKww7Gen5AYEZDBHUPSc9f7_-5NWQu2WH4j-Pd8BgfIQYKCr7NxP1zrSROJRKh-PsieNMaX2n0AFKSV7H1sxPnbWEZyR7-esGGWvH05veDZ67OkX-aQs-BRiV1gHr8Nj2_qa4/s1600/elections+2.jpg" height="213" width="320" /></a></div>
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अब आने वाले 2015 में अगर किसी राज्य में सरकार नहीं गिराई गई (या नहीं गिरी) तो दो बड़े चुनाव सूची में हैं- दिल्ली और बिहार। दिल्ली में चुनाव फरवरी और मार्च में होने की उम्मीद है, तो बिहार विधानसभा का कार्यकाल नवंबर में पूरा हो रहा है। इसके बाद फिर देश को 2016 में आसाम, केरल, पुद्दुचेरी, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव का सामना करना होगा। शायद ही कोई साल ऐसा हो जब देश में चुनाव मुंह बाय न खड़े हों।</div>
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अब लोकतांत्रिक देश है तो चुनाव तो होंगे ही। चुनाव से इंकार करने के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता है, पर प्रश्न ये है कि क्या बार-बार होने वाले चुनावी खर्च से बचने के लिए कोई रास्ता नहीं खोजा जा सकता। पाकिस्तान में पूरे देश के अंदर केंद्र और राज्य के चुनाव एक साथ होते हैं। पहले भारत में भी यही व्यवस्था थी, लेकिन राज्यों में राजनीतिक अस्थिरता के कारण समयावधि बदलती चली गई। और आज ये स्थिति है कि देश हर साल ही नहीं, साल में कई-कई बार चुनाव कराने के लिए मजबूर है।</div>
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बार-बार होने वाले चुनावों के कारण केंद्र में बैठी सरकार को ठोस निर्णय लेने में बाधा आती है। देश में चुनावों के दौरान लोकलुभावन नीति अपनाने की परंपरा है, जिसके कारण राष्ट्रहित में कड़े फैसले लेने से केंद्र सरकार को डर लगता है। भारत में आम जनता की सोच अभी इतनी परिपक्व नहीं हुई है। यहां तो प्याज के बढ़े हुए दामों की वजह से भी पार्टियों को चुनाव हारने पड़ जाते हैं। </div>
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEikHruHPlj_bnaZWGztv3rZgv4Uelz-WCKz3DpezfmhuzHEELuYOu0ZXsLH94y7B4P0PoYQyl1hyphenhyphenqnFMjjfBJVlQLQUOJv8ffwn5F0sjaZWNKl92R3BdZZvVsN9KW0d1UeMMPUjiHP_o_xp/s1600/elections+4.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEikHruHPlj_bnaZWGztv3rZgv4Uelz-WCKz3DpezfmhuzHEELuYOu0ZXsLH94y7B4P0PoYQyl1hyphenhyphenqnFMjjfBJVlQLQUOJv8ffwn5F0sjaZWNKl92R3BdZZvVsN9KW0d1UeMMPUjiHP_o_xp/s1600/elections+4.jpg" height="213" width="320" /></a>इसलिए व्यापक राष्ट्रहित में ये जरूरी है कि देश केंद्र और राज्यों में चुनाव एक साथ हों। भाजपा ने इस मुद्दे को <span style="text-align: left;">अपने एजेंडे में भी जगह प्रदान की थी, लेकिन फिलहाल इस दिशा में कोई पहल नहीं होती दिख रही है। केंद्र और राज्य में चुनाव एक-साथ कराने के लिए भले ही सहमति न बने या इसमें वक्त लगे, लेकिन कम से कम इतना तो किया जा सकता है कि किसी साल के भीतर होने वाले सभी चुनावों को एक-साथ क्लब करके एक साथ कराए जाएं। जैसे 2015 में दिल्ली और बिहार के चुनाव अलग-अलग महीनों में होंगे। इन दोनों चुनावों को साल के मध्य में एक साथ कराया जाए, इससे समय और धन दोनों की बचत होगी। ये व्यवस्था देने में कोई बहुत बड़ा पेच नहीं है, केवल राजनीतिक दलों के बीच आपसी सहमति बनाने की जरूरत है।</span></div>
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बार-बार चुनाव होने के कुछ फायदे भी हैं, खबरिया चैनलों को 24 घंटे चैनल चलाने के लिए भरपूर मसाला मिल जाता है, ओपीनियन पोल और एग्जिट पोल करने वाली सर्वे कंपनियों को चांदी कूटने का मौका मिल जाता है और चुनाव से जुड़े एक बड़े बाजार को बिजनेस मिल जाता है। पर बार-बार मचने वाले चुनावी शोर के बीच आम आदमी की समस्याएं और उसके मुद्दे कहीं दबते चले जाते हैं।</div>
</div>
सचिन http://www.blogger.com/profile/08484919973851372449noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7079008157695611591.post-79179766355444849082014-12-24T16:06:00.000+05:302014-12-24T16:58:00.614+05:30सुशासन दिवस : 25 दिसंबर को मिली एक और पहचान<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhufaDc08wpwJ1A74eZ9T5xMyNeZ7Hf9mkg352sqP7N2pa2QVSjuv3JiUbB2He3Vop6L7xGtHW0eLO0SG0pydpyBJh9QuNjpT-xR7iyNZawBN-UcvRmgYnLQomNNgK49O-ghgL1TCtc5O98/s1600/Shri_Atal_Bihari_Vajpayeeji.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhufaDc08wpwJ1A74eZ9T5xMyNeZ7Hf9mkg352sqP7N2pa2QVSjuv3JiUbB2He3Vop6L7xGtHW0eLO0SG0pydpyBJh9QuNjpT-xR7iyNZawBN-UcvRmgYnLQomNNgK49O-ghgL1TCtc5O98/s1600/Shri_Atal_Bihari_Vajpayeeji.jpg" height="320" width="225" /></a></div>
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यूं तो 25 दिसंबर क्रिसमस के लिए जाना जाता है, भारत में इसे बड़ा दिन भी कहा जाता है। इस साल से भारत में इस दिन को ‘सुशासन दिवस’ के रूप में एक और पहचान मिलने जा रही है। वर्तमान सरकार ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिवस को सुशासन दिवस के तौर पर मनाने का जो फैसला किया है, वो कई मायनों में उचित है। 1998 से लेकर 2004 तक अटल जी ने जिस नई किस्म की सरकार का नेतृत्व किया उन परिस्थितियों में देश को नई दिशा प्रदान करना कोई आसान काम नहीं था। </div>
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भारत में 90 के दशक का उत्तरार्ध बेहद अस्थिरता भरा था। देश की जनता ने अपनी आंखों के सामने ओछे राजनीतिक स्वार्थ, सत्ता लोलुपता और क्षेत्रीय टिड्डी दलों की ब्लैकमेलिंग का नंगा नाच देखा। तमाम आर्थिक कमजोरियों के बावजूद देश को बार-बार चुनाव के खर्चीले दलदल में धकेला गया। सरकारें गिराना मानो बच्चों का खेल हो गया था। देश को 1996, 1998 और 1999 में चुनावी खर्च की मार झेलनी पड़ी। ऐसे माहौल में ये अटल जी का ही व्यक्तित्व था जिन्होंने तमाम दलों के साथ सामंजस्य बिठाकर देश को अस्थिरता के माहौल से बाहर निकाला।</div>
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एनडीए के न्यूनतम साझा कार्यक्रम के साथ उन्होंने देश हित में कई बड़े फैसले किए। परमाणु बम परीक्षण के बाद देश पर लगे तमाम आर्थिक प्रतिबंधों के बावजूद उनकी नेतृत्व वाली सरकार देश को आत्मनिर्भरता प्रदान करने में सफल रही। कोई सोच भी नहीं सकता था कि भाजपा जैसी घोर दक्षिणपंथी पार्टी की सरकार पाकिस्तान के साथ दोस्ती की बात करेगी। ये अटल जी ही ही दूरदृष्टि थी कि वो बस लेकर लाहौर गए और कारगिल का घाव खाने के बावजूद जनरल परवेज मुशर्रफ को बातचीत के लिए आगरा बुलाया।</div>
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ये उनकी ही सरकार में पहली बार हुआ कि गैस सिलेंडरों की जमाखोरी खत्म हुई और गांव-गांव तक गैस कनेक्शन पहुंच गए। बुकिंग कराने के दो के अंदर ही सिलेंडर घर पहुंचने लगा, जबकि उसके बाद 2004 से 2014 तक यूपीए की सरकार में लोग एक-एक सिलेंडर के लिए तरसे। देश में वल्र्ड क्लास सड़कों का जाल बिछाकर उन्होंने विकास को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। नदियों को जोड़ने जैसा महाप्लान भी उन्हीं सात वर्षों की देन था।</div>
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हालांकि अटल जी को एक मजबूरियों से भरी सरकार चलाने का मौका मिला, लेकिन वो मजबूरी ही उनकी मजबूती बन गई और वो सभी दलों से ऊपर उठकर सर्वमान्य होते चले गए। आज भले ही एक से एक धुरंधर वक्ता राजनीतिक पार्टियों के पास हों, लेकिन अटल जी जैसी वाकपटुता, भाषण कला और शैली आज देश के किसी भी नेता के पास नहीं है। जब वो बोलने खड़े होते थे, तो पूरा सदन सुनता था, चुनावी सभाओं में सन्नाटा छा जाता था। उनका रुक-रुक कर बोलने का अंदाज लोगों को उनसे इस तरह जोड़ देता था कि पता नहीं उनके मुंह से अगली बात क्या निकल जाए।</div>
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पत्रकारों के लिए अटल जी का भाषण बेहद सहायक होता था। अटल जी अपने भाषण में ऐसे-ऐसे पंच छोड़ते थे कि हेडलाइन क्या हो ये सोचना नहीं पड़ता था। अटल जी अपने भाषण में चार-पांच हेडलाइन देकर जाते थे। ये उनका स्वाभाविक अंदाज था, इसके लिए वो कोई काॅपी राइटर या पीआर एजेंसी की मदद नहीं लेते थे। आज उनकी आवाज की सबसे ज्यादा कमी महसूस होती है।</div>
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ये संयोग ही है कि न केवल अटल बिहारी वाजपेयी और महामना मदन मोहन मालवीय के नाम एक साथ भारत रत्न के लिए घोषित हुए हैं, बल्कि उनका जन्म दिवस भी एक ही दिन 25 दिसंबर को होता है। और ये एक विडंबना ही है कि पाकिस्तान में मोहम्मद अली जिन्नाह और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ का जन्म दिन भी 25 दिसंबर को ही पड़ता है</div>
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सचिन http://www.blogger.com/profile/08484919973851372449noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7079008157695611591.post-36766254986311276202014-12-14T16:55:00.000+05:302014-12-14T16:56:16.275+05:30गोलगप्पे की बात ही कुछ और है<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi-5HGqD-aF7a3BJfJ6Iw1FIuFca9LULZpvKeKxu4f0t_0VZEFrcJ8hbgYqzntfRCxxalvUcnGWApvX7HX0XI_qCUBOta3BEUIKHbNgSszfZsJz9zfuq-D6CPjPHOXsP1ESq-t5DFEeY7Ry/s1600/golgappa+1.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi-5HGqD-aF7a3BJfJ6Iw1FIuFca9LULZpvKeKxu4f0t_0VZEFrcJ8hbgYqzntfRCxxalvUcnGWApvX7HX0XI_qCUBOta3BEUIKHbNgSszfZsJz9zfuq-D6CPjPHOXsP1ESq-t5DFEeY7Ry/s1600/golgappa+1.jpg" height="212" width="320" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
चाट की दुनिया में गोलगप्पों का कोई तोड़ हो नहीं सकता। बिना कोई गरिष्ठता लिए, सीधा, सरल, प्यारा सा गोलगप्पा। दिखने में जितना गोलू-मोलू खाने में उतना की जायकेदार। बशर्ते उसका पानी जरा ठीक से बनाया गया हो। फिर बीच में चाहे आलू भरा हो या काला चना या फिर उबली मटर। मुंह में जाते ही खट्टे, मीठे, चटपटे स्वाद के साथ घुल जाता है। लेकिन अगर आप मुंह बड़ा करके नहीं खोल सकते तो इसे खाने से बचें या अकेले में ही खाएं।</div>
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<br /></div>
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<b>चटपटा स्वाद, मजेदार नाम </b></div>
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इसका स्वाद जितना चटखारेदार है उतने ही रोचक इसके नाम हैं। भारत के अलग-अलग हिस्सों में इसे कई मजेदार नामों से पुकारा जाता है, जैसे दिल्ली में गोलगप्पा, पश्चिमी यूपी में पानी के बताशे, बंगाल में फुचका, हरियाणा और पंजाब में पानी के पताशे, महाराष्ट्र और गुजरात में पानी पूरी, उड़ीशा में गुपचुप, मध्यप्रदेश में फुल्की जैसे नामों से फेमस हैं। हाल ही में आई क्वीन फिल्म में हिरोइन कंगना राणावत ने भी इन नामों का जिक्र किया है। इसके चाहने वाले भी हर उम्र में मिलते हैं। छोटे बच्चे जरूर इसका तीखा स्वाद नहीं झेल पाते, लेकिन टीन-एज से लेकर ओल्ड-एज तक इसके कद्रदानों की तादाद बहुत बड़ी है। हालांकि कुछ लोग ऐसे भी आपको मिल सकते हैं जो कहेंगे कि गोलगप्पे भी कोई खाने की चीज है (फिलहाल उनसे बहस करने का कोई मूड नहीं है)।</div>
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<br /></div>
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<b>गोलगप्पे और नफासत!</b></div>
<div style="text-align: justify;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhoQHl-Aulv1RQjiMLd8Bz44Dbo1kUCxqrumqlnUNTpGlXmgROUYcYIJt_R0FGc7NRssqXnQFWv8bgA-1hbpcIC3zCxW_wwGbHPBNJVFy7I_KtCtMj1Vkb1MmJ2n_cgHZryBb9xDOVxi0BF/s1600/golgappa2.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhoQHl-Aulv1RQjiMLd8Bz44Dbo1kUCxqrumqlnUNTpGlXmgROUYcYIJt_R0FGc7NRssqXnQFWv8bgA-1hbpcIC3zCxW_wwGbHPBNJVFy7I_KtCtMj1Vkb1MmJ2n_cgHZryBb9xDOVxi0BF/s1600/golgappa2.jpg" height="276" width="320" /></a>गोलगप्पे खाने का तरीका परंपरागत देसी वाला ही अच्छा लगता है। मतलब हाथ में हो दोना (पत्ते वाला,प्लास्टिक का नहीं) और सामने वाला एक-एक करके खिलाए। प्लेट में पानी और गोलगप्पे रखकर खुद खाले वाला नफासती तरीका अपन को नहीं जंचता। हाथ में पन्नी पहनने तक तो ठीक है, लेकिन एक शादी में गए तो कैटरर ने नफासत की पूरी टांग ही तोड़ रखी थी। एक जगह गोलगप्पे और दोने रख दिए और दो जगह डिस्पेंसर में पानी भरकर रख दिया। टोंटी खोलो, गोलगप्पे में पानी भरो और खुद ही खाओ। जबरदस्ती की नफासत दिखाने के चक्कर में वहां लंबी लाइन लग गई और व्यवस्था डोल गई। न स्वाद आया न मजा, पानी गिरने से जूता गीला हुआ सो अलग।</div>
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<br /></div>
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<b>सस्ता ही अच्छा</b></div>
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बात गोलगप्पे के दामों की करें तो ये इन दिनों दस रुपये प्लेट से लेकर साठ रुपये प्लेट तक मिलते हैं। लेकिन गोलगप्पा एक ऐसी चाट है जो महंगी नहीं जंचती। ये सस्ती और आम आदमी से जुड़ी हुई चीज है। आज के समय के हिसाब से दस रुपये से ज्यादा नहीं मिलनी चाहिए। लेकिन दिल्ली के कुछ ब्रांडेड फूड चेन इस सस्ती चाट को भी 60 रुपये में बेचकर गोलगप्पे की सादगी और स्वाद का अपमान करते हैं। अपनी तो यही राय है कि ऐसी जगह गोलगप्पे कभी नहीं खाने चाहिए। जबकि मेरठ में अच्छे से अच्छे गोलगप्पे 10-20 रुपये में ही मिलते हैं। हालांकि गोलगप्पे के लिए 20 रुपये भी ज्यादा हैं। क्योंकि गोलगप्पे गिनकर प्लेट के हिसाब से खाने की चीज नहीं है। एक बार खाओ तो तब तक खाओ जब तक मन न भर जाए। दिल्ली में रहकर मैं मेरठ के गोलगप्पे मिस करता हूं। आबूलेन के टी प्वाइंट पर डेरावाल चाट भंडार के गोलगप्पों का जवाब नहीं साहब। खट्टे, मीठे और हींग के पानी की तीन वैरायटी के साथ, सस्ते और स्वादिष्ट।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEijN7IcXqLMeXT-0GXdEXkIW03BOyxLEM8EoZtPEBmj69ixX7SXpRKz9JYktx8kaqIjXlS486oZvsO3c1PKkAF8QnNDYVUUOxPgnV61VGIT9HLA3gVci-F5HdqJ3Zz6D4gLbLbB1V3ElKPG/s1600/golgappa3.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEijN7IcXqLMeXT-0GXdEXkIW03BOyxLEM8EoZtPEBmj69ixX7SXpRKz9JYktx8kaqIjXlS486oZvsO3c1PKkAF8QnNDYVUUOxPgnV61VGIT9HLA3gVci-F5HdqJ3Zz6D4gLbLbB1V3ElKPG/s1600/golgappa3.jpg" height="213" width="320" /></a><b>हजारों गोलगप्पे वाले, लाखों गोलगप्पे</b></div>
<div style="text-align: justify;">
ये स्वादिष्ट चाट हजारों लोगों को रोजगार भी मुहैया कराती है। शहर की गलियों में हजारों रेहड़ी-फेरी वाले गोलगप्पे बेचकर अपने घर की गुजर-बसर करते हैं। बेरोजगारी की स्थिति में कोई नया काम शुरू करने के लिए ये एक कम इन्वेस्टमेंट वाला बिजनेस आइडिया है। अगर आपके हाथ में स्वाद, जुबान पर मिठास और रेट लाजमी हों तो ग्राहक खोजना कोई बड़ी बात नहीं। एक दिन मेरठ में राकेश जी के साथ मैंने बैठे-बैठे हिसाब जोड़ा तो पता चला कि शहर में प्रतिदिन तकरीबन तीन लाख गोलगप्पों की खपत है। ये अंदाजा उस समय और पुख्ता हो गया जब कहीं से ये खबर मिली कि शहर में एक गोलगप्पे की फुल्की बनाने वाला प्लांट लगने जा रहा है, जो शहर के सभी मशहूर गोलगप्पे वालों को उचित रेट पर रेडीमेड फुल्कियां मुहैया कराएंगे।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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<b>गोलगप्पे का ठेला और पुलिस</b></div>
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgcCexHH-RJwzFK1g3heB_4z6SDKmMhufIj7g7Op_SimbDRNn17SCvXusqh9Xa7rnrr7AkWsXdqsXDYOpjX1_tg1cMuQH4KdHLWP5hOJnaI-ZPgYz4U9YGyav12L9mBviGzb519b7C9ltte/s1600/golgappa.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgcCexHH-RJwzFK1g3heB_4z6SDKmMhufIj7g7Op_SimbDRNn17SCvXusqh9Xa7rnrr7AkWsXdqsXDYOpjX1_tg1cMuQH4KdHLWP5hOJnaI-ZPgYz4U9YGyav12L9mBviGzb519b7C9ltte/s1600/golgappa.jpg" height="239" width="320" /></a>कभी-कभी गोलगप्पे का मोह मुझे कहीं भी ब्रेक लगाकर इनका स्वाद चखने को मजबूर कर देता है। पिछले <span style="text-align: left;">दिनों घर लौटते वक्त वैशाली में गोलगप्पे का नया ठेला दिखा तो एक प्लेट आजमाने के लिए मैं वहां रुका। दस रुपये के पांच पीस दिए। रेट के हिसाब से उसका स्वाद ठीक-ठाक था। ज्यों ही मैं उसके पैसे देकर आगे बढ़ा तभी एक पुलिस जीप चैराह पर आकर रुकी और उसमें से एक रौबदार आवाज ने गाली का छौंक लगाकर गोलगप्पे वाले को अपने पास बुलाया। गोलगप्पे वाला थोड़ा झिझकता हुआ वर्दीधारियों के पास जा पहुंचा, कुछ सवाल-जवाब हुए, फिर एक नई गाली की टेक के साथ जोरदार तमाचे की आवाज आई। उत्तर प्रदेश पुलिस ने अपनी वीरता का परिचय देते हुए बीच चैराहे पर गोलगप्पे बेचने वाले उस युवक की इज्जत उतार दी। अगले दिन मैंने उससे पूछा तो उसने बताया कि स्टाल लगाने से पहले हल्का इंचार्ज से महीना तय नहीं किया था, अब मामला तय हो गया है। साहिबान ये आलम तक है जब केंद्र सरकार रेहड़ी-ठेले वालों के हितों की रक्षा के लिए स्ट्रीट वेंडर्स बिल पास कर चुकी है। पर सरकारी रक्षक उस बिल की धज्जियां उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। गोलगप्पे वाले का कुसूर सिर्फ इतना है कि वो इज्जत और ईमानदारी से गुजर-बसर करना चाहता है। अगर वो भी नक्सलियों की तरह बंदूक उठा ले या अपराध की दुनिया में उतर जाए तो यही यूपी पुलिस उसके आगे दुम हिलाती नजर आएगी।</span></div>
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सचिन http://www.blogger.com/profile/08484919973851372449noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7079008157695611591.post-27279314632053981622014-10-11T18:42:00.000+05:302014-10-11T18:42:03.693+05:30कैसे बनेंगे आदर्श ग्राम!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgeFKiOav_DtLcqfBcstZ6CfoWuJJq-alRsBetkJatwFx61ucV3ceOIAqxGFspOR_zpDgTXSddqM2A0IV7CpgjgLrTlb8VfWwzuXbnGNvMOLq3H7Ts8y8rKM7qmxgvW9yalKlVN9cW5MRfh/s1600/Chulha.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgeFKiOav_DtLcqfBcstZ6CfoWuJJq-alRsBetkJatwFx61ucV3ceOIAqxGFspOR_zpDgTXSddqM2A0IV7CpgjgLrTlb8VfWwzuXbnGNvMOLq3H7Ts8y8rKM7qmxgvW9yalKlVN9cW5MRfh/s1600/Chulha.jpg" height="265" width="400" /></a></div>
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा आदर्श ग्राम योजना की शुरुआत एक सराहनीय कदम है। ये कदम बहुत लंबे समय से अपेक्षित था, लेकिन पहले अंग्रेजों ने और फिर आजाद भारत की सरकारों ने गांव को हमेशा उपेक्षित ही रखा। परिणाम ये निकला कि आज गांव खाली हो रहे हैं। एक ओर गांव जबरदस्त पलायन के शिकार है तो दूसरी ओर शहरीकरण की चपेट में आते जा रहे हैं। जिन सात लाख गांवों की बात गांधी जी किया करते थे आज की जनगणना के अनुसार उनकी संख्या घटकर 6,38,596 रह गई है। ऐसे में प्रधानमंत्री द्वारा सांसदों को गांव के काम पर लगाना कितने परिणाम ला पाएगा ये तो पता नहीं, पर कम से कम इस बहाने गांव एक बार चर्चा में जरूर आ जाएंगे। वोटों की संख्या कम होने के कारण गांव कभी नेताओं की प्राथमिकता पर तो नहीं रहे, पर प्रधानमंत्री ने अगर खुद सांसदों का फौलोअप रखा तो जरूर कुछ हो सकता है।</div>
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<b>शहर में खो रहा गांव</b></div>
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शहर का रहन-सहन और वहां की चमक-दमक ने ग्रामीण भारत को भी अपनी तरफ खींच लिया है। गांव का खानपान, बोलचाल और पहनावे पर अब शहर का असर स्पष्ट दिखता है। ये अजीब सी विडंबना ही है कि जिसे देश में तकरीबन साढ़े छह लाख गांवों का शक्तिशाली बसेरा हो उसी देश में गांव का मतलब गंवार और पिछड़ेपन से समझा जाता है। गांवों की यही उपेक्षा वहां के निवासियों को या तो शहरों में खींच लाई है या फिर गांव में ही शहरी जीवनशैली अपनाई जा रही है। जैविकता और प्राकृतिक देन से भरपूर गांवों में अब प्लास्टिक, पक्के मकान, फास्टफूड और जीन्स का चलन आम हो गया है। शहरों को तवज्जो देने वाली हमारी व्यवस्था कुछ ऐसी है कि ग्रामीण भारत को कहीं न कहीं ये आभास कराया जाता है कि जहां वे रहते हैं, जो वे खाते हैं, जो वे बोलते हैं, जो वे पहनते हैं वो सब पिछड़ा हुआ है। कुछ-कुछ वैसा ही अहसास जैसा अंग्रेजों ने भारत को कराया था। जबकि मुझे ऐसा लगता है कि गांव का घर, कुएं, भोजन, भाषा और परिधान एक बहुमूल्य धरोहर हैं, अगर हमने इन पर ध्यान नहीं दिया तो आने वाली पीढ़ी के लिए ये रिसर्च का विषय बन जाएंगे।</div>
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<b>गांव को खा गई प्रधानी और शराब</b></div>
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गांव के सामाजिक ताने-बाने को तोड़ने में प्रधानी के चुनाव बहुत बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। प्रधानी के चक्कर में आज गांव के अंदर ऐसी वीभत्स राजनीति हो रही है कि शहर में बैठकर उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस राजनीति ने गांवों को कई टुकड़ों में बांट दिया है। रंजिशें और कत्ल बहुत आम हो गए हैं। पिद्दी से इलेक्शन के लिए लाखों रुपया बहाया जा रहा है। गांव वालों को लुभाने के लिए उपहार से लेकर शराब तक हर हथकंडा अपनाया जाता है। प्रधानी जीतने के बाद गांव के विकास के लिए जो रुपया आता है उसका कोई पारदर्शी हिसाब-किताब रखने वाला नहीं। इस तरह भ्रष्टाचार की राष्ट्रीय समस्या व्यवस्था की सबसे निचली इकाई में जड़ें फैला रही है। जो गांव कभी प्यार, सहयोग और सरलता के लिए जाने जाते थे उनमें अब घृणा, वैमनस्य और भ्रष्ट आचरण फैल गया है। रही सही कसर गांव में कुकरमुत्तों की तरह खुल रहे शराब के ठेकों ने पूरी कर दी। शराब की इतनी आसान उपलब्धता गांव तक पहुंचाने से पहले राज्य सरकार के मन में क्या सोच रही होगी कहा नहीं जा सकता।</div>
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<b>निर्विरोध कराए जाएं चुनाव</b></div>
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केंद्र और राज्य सरकारों को पंचायती चुनावों की विश्लेषण के लिए देश भर में सर्वे कराना चाहिए जो ये बताए कि पंचायती राज व्यवस्था से गांवों को कितना फायदा और उनका कितना विकास हुआ है? मुझे नहीं लगता कि इक्का-दुक्का राज्यों को छोड़कर कहीं से भी अच्छी तस्वीर सामने आएगी। और अगर ऐसा सामने आता है तो पंचायती चुनाव की इस फिजूलखर्ची पर प्रतिबंध लगाया जाए। जिस तरह कुछ राज्यों ने शिक्षा की गुणवत्ता में हो रहे नुकसान को देखते हुए यूनिवर्सिटी के छात्रसंघ चुनावों पर प्रतिबंध लगा रखा है उसी तरह पंचायती चुनावों पर भी पुनर्विचार किया जाए। यदि चुनाव बहुत ही जरूरी हों तो इसके लिए निर्विरोध वाली व्यवस्था बनाई जाए। अन्ना हजारे ने अपने गांव रालेगण सिद्धि में आदर्श ग्राम के लिए बेहद प्रेरणादायी प्रयोग किये हैं।</div>
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<b>सबसे जरूरी मानसिकता का बदलाव</b></div>
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गांवों को आदर्श ग्राम बनाने के लिए सबसे जरूरी है मानसिकता में बदलाव। पंचायती चुनाव ने सकारात्मक बदलाव के स्थान पर गांव की मानसिकता में नकारात्मक बदलाव को बल दिया है। उत्तर प्रदेश के गांवों का तो ये हाल है कि अब आपसी सहयोग भी धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। केवल केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री की पहल से आदर्श ग्राम नहीं बन सकते। इसके लिए राज्य सरकारों, सांसदों, विधायकों और सबसे पहले खुद गांव वालों को पहल करनी होगी। गांधी जी ने जिस ग्राम स्वराज का सपना देखा था वो तो बहुत दूर की कौड़ी दिखता है। बहुत कुछ नहीं तो स्वच्छ, निर्मल व हरे-भरे गांव बनाने की दिशा में भी अगर सफलता मिल जाए तो ये बड़ी उपलब्धि होगी।</div>
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सचिन http://www.blogger.com/profile/08484919973851372449noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7079008157695611591.post-56882358346748823642014-09-25T14:26:00.000+05:302014-09-25T14:27:13.104+05:30मोदी का अमेरिका दौरा और भारत से बढ़ती अपेक्षाएं<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhMDCiPqXf8H1yV45TaL7PKqS6GADVSU2eIopR7xEr6vx4wINQb_MI58V1DwR4YLpXDCZlxT275IZaPZBMieGU0fwVDInqgyUCM54NEejC3SQ35uqoCPxwqr82KhR_2d8_K1-af2hsW6nXS/s1600/US-AND-INDIA.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhMDCiPqXf8H1yV45TaL7PKqS6GADVSU2eIopR7xEr6vx4wINQb_MI58V1DwR4YLpXDCZlxT275IZaPZBMieGU0fwVDInqgyUCM54NEejC3SQ35uqoCPxwqr82KhR_2d8_K1-af2hsW6nXS/s1600/US-AND-INDIA.jpg" height="135" width="400" /></a></div>
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अमेरिका दौरे से पहले ऐसी खबरें आ रही हैं कि ओबामा इस मुलाकात में मोदी से इस्लामिक स्टेट के खिलाफ चल रहे युद्ध में मदद मांग सकते हैं। इसे अमेरिका की कमजोरी समझा जाए या फिर उसकी एक और चालाकी। अमेरिका का स्वार्थ के बारे में कहा जाता है कि जब वो आपके हित की बात करता है तो उसमें कहीं न कहीं उसका हित छिपा होता है। सो, भारत से मदद की गुहार लगाने के पीछे भी निश्चित तौर पर उसका अपना ही स्वार्थ होगा।</div>
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<b>भारत से क्या मतलब </b></div>
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सवाल ये उठता है कि भारत अमेरिका का साथ क्यों दे? ऐसा अमेरिका ने भारत का विश्वास जीतने के लिए क्या किया है कि भारत अमेरिका के लिए अपने सैनिकों का खून बहाए। 90 के दशक में भारत में लगातार आतंकवादी हमले बढ़े तो भारत ने वैश्विक मंचों पर खड़े होकर अपनी आवाज उठाई और पूरे विश्व को आतंक के खतरे के खिलाफ आगाह किया। लेकिन पश्चिमी ताकतों के कान पर जूं नहीं रेंगी। किसी भी देश ने खुलकर आतंकवाद के खिलाफ भारत का समर्थन नहीं किया। उन्होंने इन हमलों की निंदा तो की, लेकिन कभी भारत को विशेष मदद नहीं दी। यहां तक कि पाकिस्तान में चल रही आतंक की फैक्ट्रियों को भी पश्चिमी देश अनदेखा करते रहे। </div>
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<b>जब खुद को दर्द हुआ</b></div>
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आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों की आंख तब खुली जब आतंकवादियों ने न्यू याॅर्क के वल्र्ड ट्रेड सेंटर को मिट्टी में मिला दिया। उस दिन अमेरिका को ये एहसास हुआ कि आतंकवाद का दर्द क्या होता है। तब जाकर उसने अल कायदा के खिलाफ निर्णायक युद्ध छेड़ा। 9/11 के बाद भारत में भी अनेक आतंकी हमले हुए, लेकिन भारत ने उन्हें अपने अकेले के दम पर झेला और मुकाबला किया। भारत कभी किसी देश के सामने मदद के लिए नहीं गिड़गिड़ाया। और आज अमेरिका उसी भारत से मदद चाहता है, जिसके दर्द को कभी वो समझता नहीं था।</div>
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<b>नहीं मानना चाहिए प्रस्ताव</b></div>
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अगर ऐसा कोई भी प्रस्ताव अमेरिका की तरफ से भारत के समक्ष रखा जाए तो उसे कतई स्वीकार नहीं करना चाहिए। ये युद्ध अमेरिका के ही बोए हुए बीजों का परिणाम है, सो फसल भी उसे खुद ही काटनी होगी। एशियाई देशों में अशांति और आतंक फैलाने के लिए अमेरिका ने ही कई संगठनों को पाला-पोसा था और आज वही संगठन नया रूप धरकर अमेरिका के खिलाफ लामबंद हो गए हैं। तो भारत उसकी मदद क्यों करे? </div>
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<b>नहीं बन सका विजेता</b></div>
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क्षेत्रीय अशांति को बढ़ावा देना अमेरिका की पुरानी नीति है, जिसके दम पर वो दुनिया का चैधरी बना हुआ है। भारत और पाकिस्तान के बीच अशांति बढ़ाने में भी अमेरिका ने कोई कमी नहीं की। पर आज यही नीति उसके सामने सबसे बड़ा खतरा बनकर खड़ी है। अफगानिस्तान और इराक में युद्ध लड़ते-लड़ते अमेरिका की अर्थव्यवस्था चरमरा रही है। हजारों सैनिकों की जान गंवाकर और खरबों डाॅलर खर्च करने के बावजूद अमेरिका विजेता नहीं बन पाया है और उसके सिर पर आतंक का खतरा लगातार मंडरा रहा है। इसलिए अमेरिका चाहता है कि अपनी डगमगाती नैया में कुछ सवार और चढ़ा लिए जाएं। अमेरिका अपनी लड़ाई को पूरे विश्व की लड़ाई बनाना चाहता है। चालीस देश उसके साथ आ चुके हैं और उसे अब भारत का भी सहयोग चाहिए।</div>
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<b>दक्षिण एशिया की शांति</b></div>
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जब पूरे विश्व में जगह-जगह से हिंसा की ज्वालाएं सुलग रही हैं, ऐसे में दक्षिण एशियाई क्षेत्र लंबे समय से शांति और तरक्की की राह पर चल रहा है, खासतौर से भारत, चीन और जापान की स्थिति अमेरिका की आंख की किरकिरी बना हुआ है। इसलिए अमेरिका भारत को भी इस युद्ध में खींचना चाहता है। भारत और अमेरिका की दोस्ती नए शिखर पर पहुंचे ये हर भारतीय भी चाहता है और अमरीकी भारतीय भी चाहता है। पर उचित यही रहेगा कि ये दोस्ती अमेरिका के युद्ध कुचक्र से दूर रहे।</div>
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सचिन http://www.blogger.com/profile/08484919973851372449noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7079008157695611591.post-17783953010071294402014-09-02T20:05:00.001+05:302014-09-02T20:05:46.420+05:30कृष्ण और राम से सीखें जनता के साथ ‘पर्सनल टच’ रखना<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjDJL5mJFIJqDCxCFRJrUfy4vYDW7SzClFPPMyt7SRN8YH2EuSwhEHEFGKDM4FjqOe5vlHtsOfbZXOkPatjbPJ5Xpu468IW7trKV-SvP2SgHKGD_-iQ8P_maFf9o6cGh836qOJJ0rlnzUgZ/s1600/krishna-rasa-leela.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjDJL5mJFIJqDCxCFRJrUfy4vYDW7SzClFPPMyt7SRN8YH2EuSwhEHEFGKDM4FjqOe5vlHtsOfbZXOkPatjbPJ5Xpu468IW7trKV-SvP2SgHKGD_-iQ8P_maFf9o6cGh836qOJJ0rlnzUgZ/s1600/krishna-rasa-leela.jpg" height="240" width="320" /></a></div>
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मधुबन में गोपियों संग रचाया गया रास भगवान कृष्ण की जीवनी का महत्वपूर्ण अंग है। रासलीला के बिना श्री कृष्ण की लीला अधूरी है। रास एक विशेष प्रकार का नृत्य होता है, जिसमें एक नायक होता है जो अनेक नायिकाओं के संग घूम-घूम कर नृत्य करता है। श्री कृष्ण को रास में महारथ हासिल थी। कहा जाता है कि श्री कृष्ण एक घेरे में नृत्य कर रही गोपियों के संग इतनी तीव्र गति से नृत्य करते थे कि प्रत्येक गोपी को यही लगता था कि कृष्ण केवल उन्हीं के संग नृत्य कर रहे हैं किसी और गोपी के पास जा ही नहीं रहे। जबकि वास्तविकता में श्री कृष्ण की गति इतनी तेज होती थी कि हर गोपी को यही लगता था कि कन्हैया केवल उन्हीं के साथ नृत्य कर रहे हैं। </div>
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इसी प्रकार रामायण में भी एक ऐसा प्रसंग आता है जब भगवान राम पल भर में अनेक लोगों का अभिवादन</div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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<div style="text-align: justify;">
स्वीकारते हैं। लंका विजय के बाद जब श्री राम पुष्पक विमान से अयोध्या नगरी में पधारते हैं तो हजारों अयोध्यावासी नम आंखों के साथ उनके स्वागत में खड़े मिले। यहां भगवान राम ने ऐसी लीला रचाई कि वो प्रत्येक नगर वासी के साथ निजी तौर पर मिले। श्री राम हर नगरवासी का एक-एक करके अभिवादन स्वीकार करते हैं, पर उनकी गति इतनी तेज है कि इस काम में उनको बहुत देर नहीं लगी। और हर नगर वासी इस बात को लेकर खुश और संतुष्ट दिखा कि राम ने बड़े प्यार से निजी तौर पर उनके हालचाल लिये।</div>
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कहने का भाव ये है कि संबंधों में ‘पर्सनल टच’ हमेशा आपको करीब लाता है। लेकिन भारत में चली आ रही लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में शासन और जनता के बीच ये ‘पर्सनल टच’ मिसिंग है। 67 साल से ये हालात हैं कि आम जनता सरकार के साथ खुद को जुड़ा हुआ महसूस नहीं करती। अबकी बार आम चुनाव में जब नरेंद्र मोदी ने सोशल मीडिया के साथ-साथ पूरे देश में घूम-घूम कर सैकड़ों रैलियों को संबोधित किया तो लोगों ने खुद को उनसे जुड़ा हुआ महसूस किया और परिणाम सबके सामने है। जरूरत इस बात की है कि सत्ता में बैठने के बाद भी शासक जनता के साथ जुड़ाव बनाए रखे। सत्ता के कोलाहल में जनता की आवाज दबनी नहीं चाहिए। लेकिन लोकतांत्रिक दस्तूर ऐसा रहा है जिसमें सत्ता मिलने के बाद जनता को हाशिए पर डाल दिया जाता है और पांच साल बाद ही उसकी सुध आती है। </div>
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हाल ही मोदी सरकार ने http://mygov.nic.in/ पोर्टल की शुरुआत करके आम लोगों से जुड़ने का एक अच्छा प्रयोग किया है, पर सवा सौ करोड़ के देश के लिए ये प्रयास अभी छोटा है इसे और वृहद आकार देने की जरूरत है। इस तरह के प्रयास राज्यों के स्तर पर शुरू होने जरूरी है। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री कार्यालय टेक्नोलाॅजी के स्तर पर इतने सशक्त होने चाहिए कि देश के प्रत्येक जिले के प्रत्येक गांव में क्या घटित हो रहा है इसकी पल-पल की जानकारी वहां उपलब्ध रहे। अभी हो ये रहा है कि जिला प्रशासन भी सूचनाओं के लिए मीडिया पर निर्भर रहता है, पीएम और सीएम तो बहुत दूर की बात है। टेक्नोलाॅजी के माध्यम से केंद्र और राज्य सरकारें आम जनता के साथ इस तरह का पर्सनल टच स्थापित कर सकती हैं। इसके अलावा राजधानी की सीमाओं से बाहर निकलकर निजी तौर पर लोगों के बीच दौरा करने के बार-बार कारण खोजना भी शासक को जनता के साथ जोड़ता है। लेकिन, ‘मेरा इस जगह से गहरा रिश्ता है और यहां आकर मुझे बेहद खुशी मिली’ जैसे रटे-रटाये परंपरागत भाषण देने से काम नहीं चलेगा। अब समय है कुछ नया करने का।</div>
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सचिन http://www.blogger.com/profile/08484919973851372449noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7079008157695611591.post-14841361912459444192014-08-15T11:50:00.002+05:302014-08-15T16:28:31.335+05:30पहले ही भाषण में दीवार गिरा दी मोदी ने!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgGWx6PRLM35ynBMD3-FJ8vXg1alKYqkaHgSx5w4liAxg5bet7EuBM9IlgCSfdKGj3z02Hplo6GAMCm-NoP-22Ka2q2rspofKzChLx1JWDpinsEd3JOiFzqpLgx5-GX3LIqPoI2JIUxLIHx/s1600/Modi+Red+Fort.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgGWx6PRLM35ynBMD3-FJ8vXg1alKYqkaHgSx5w4liAxg5bet7EuBM9IlgCSfdKGj3z02Hplo6GAMCm-NoP-22Ka2q2rspofKzChLx1JWDpinsEd3JOiFzqpLgx5-GX3LIqPoI2JIUxLIHx/s1600/Modi+Red+Fort.jpg" height="242" width="400" /></a></div>
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का लाल किले से पहला कैसा होगा, इसको लेकर मीडिया और लोगों के मन में तरह-तरह के कयास थे। और आज उनके पहले भाषण के साथ उन कयासों पर विराम लग गया। उनके पहले भाषण में कई विशेषताएं रहीं, उन पर तमाम चैनलों पर चर्चा शुरू हो चुकी है। लेकिन मुझे इस भाषण में आज तीन बातें खास लगीं, जो पूर्व प्रधानमंत्रियों में नहीं दिखीं।</div>
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<b>गिर गई दीवार</b></div>
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प्रधानमंत्री मोदी के लाल किले से पहले भाषण में सबसे उल्लेखनीय बात ये रही कि सरकार और जनता के बीच खड़ी उस कांच की दीवार गिरा दिया गया जो दशकों से सुरक्षा के नाम पर प्रधानमंत्री और लोगों के बीच खड़ी कर दी जाती थी। देखने में ये बहुत सामान्य लगे लेकिन ये बहुत असामान्य घटना है। वह कांच की बुलेट प्रूफ दीवार आम लोगों के दिलों में एक असुरक्षा का भाव पैदा करती थी। बचपन में उस दीवार को देखकर यही भाव आते थे कि जब देश का प्रधानमंत्री ही सुरक्षित नहीं तो आम लोग खुद को कैसे सुरक्षित मान लें। वह दीवार हमारी सुरक्षा व्यवस्था पर एक प्रश्नचिन्ह थी, जिसे आज नरेंद्र मोदी ने हटा दिया। </div>
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<br /></div>
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मुझे याद आता है कि इस दीवार को हटाने का प्रयास पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी किया था। जिस दिन वाजपेयी ने लाल किले से अपना पहला भाषण दिया था उसके अगले दिन अखबार में सूत्रों के हवाले से एक खबर आई थी कि उन्होंने सुरक्षा एजेंसियों के समक्ष बुलेट प्रूफ केबिन हटाने की बात रखी थी। लेकिन सुरक्षा एजेंसियों ने प्रधानमंत्री की सुरक्षा में कोई भी जोखिम उठाने से इंकार करते हुए खुद प्रधानमंत्री की बात नहीं मानी। इससे नाराज वाजपेयी ने उस दिन नाश्ता नहीं किया और बुलेट प्रूफ केबिन से ही अपना भाषण दिया। सरकार और जनता के बीच की दीवार यूं ही खड़ी रही।</div>
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इस बार जब मोदी के प्रथम भाषण में बुलेट प्रूफ केबिन गायब दिखा तो हैरानी के साथ प्रसन्नता भी हुई। मोदी ने फिर एक बार अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति का परिचय दिया, जिसके लिए वो जाने जाते हैं। उम्मीद है कि ये सिलसिला आगे भी जारी रहेगा और देश की सुरक्षा एजेंसियों में लोगों का विश्वास भी बढ़ेगा।</div>
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<b>सिर पर राजस्थानी पगड़ी</b></div>
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भारतीय संस्कृति में सिर ढकने का एक विशेष महत्व रहा है। खास मौकों पर तो सिर को विशेषकर ढका जाता है। सिर ढकने का महत्व हर धर्म में माना गया है। हर धर्म में सिर ढकने के अपने-अपने तरीके हैं। हो न हो इसके पीछे कोई वैज्ञानिक आधार होगा। पुराने महापुरुषों के चित्रों को देखें तो ये स्पष्ट हो जाता है कि पहले सिर ढकने का कितना महत्व था। बालगंगाधर तिलक के चित्र को देखकर सोच होती है कि न जाने वो किस तरह अपनी पगड़ी बांधते होंगे। आज वैसी पगड़ी कहीं देखने को नहीं मिलती। भारत में तो हर राज्य की एक विशेष पगड़ी या टोपी होती है। लेकिन फैशन के इस दौर में पगडि़यों का महत्व धीरे-धीरे खत्म होता चला गया। लोगों को टोपी या पगड़ी सिर पर बोझ लगने लगी। यहां तक कि पंजाब में बड़ी संख्या में सिख युवा भी पगड़ी पहनने से परहेज कर रहे हैं। आजादी के बाद लंबे समय तक राजनेताओं की पहचान गांधी टोपी से की जाती थी, लेकिन अब वो भी विलुप्त हो चली है। ज्यादातर नेता अब नंगे सिर ही दिखते हैं।<br />
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स्वतंत्रता दिवस के मौके पर सेना और पुलिस के जवानों के बीच भी सिर पर विशेष पगड़ी पहनने की परंपरा है, पर लंबे समय से देश के प्रधानमंत्री बिना सिर ढके ही राष्ट्र को संबोधित करते आ रहे थे (हालाँकि इसमें डॉक्टर मनमोहन सिंह अपवाद हैं)। इस बार नरेंद्र मोदी ने राजस्थानी पगड़ी पहनकर एक अच्छी परंपरा शुरू की है। राजस्थानी पगड़ी शौर्य का प्रतीक है। उम्मीद है कि आने वाले सालों में वो अपने सिर पर अन्य राज्यों का भी प्रतिनिधित्व करेंगे।</div>
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<b>छोटी-छोटी बातें</b></div>
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प्रधानमंत्री मोदी ने अपने पहले भाषण में साफ-सफाई, शौचालय, समय से आॅफिस आना, मेहनत से काम करने जैसे कुछ छोटे-छोटे मुद्दे उठाए। उन्होंने देश के माता-पिताओं से ये अपील भी करी कि वे जितनी लगाम अपनी बेटियों पर लगाते उतनी अगर अपने बेटों पर लगाएं ताकि देश को बलात्कार जैसी घिनौनी घटनाओं से शर्मिंदा न होना पड़े। देश के प्रधानमंत्री द्वारा इस तरह की अपील लोगों पर निश्चित तौर पर असर छोड़ती है। फिर ये उम्मीद की जा सकती है कि देश इन बातों को गंभीरता से लेगा। क्योंकि अकेली सरकार कभी बदलाव नहीं ला सकती, उसके साथ लोगों का खड़ा होना बहुत जरूरी है।</div>
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<b>जय विज्ञान को भूले</b></div>
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प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण में लाल बहादुर शास्त्री को याद करते हुए उनके ‘जय जवान जय किसान’ नारे का जिक्र किया, लेकिन वो अटल बिहारी वाजपेयी के दिये ‘जय विज्ञान’ के नारे को भूल गए। ऐसा उन्होंने सोच समझकर किया या फिर यूं ही भूल गए, ये कहा नहीं जा सकता।</div>
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सचिन http://www.blogger.com/profile/08484919973851372449noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7079008157695611591.post-84046729720209695032014-08-01T14:43:00.000+05:302014-08-01T15:08:08.945+05:30रफ्ता-रफ्ता आउट-डेटेड होती जिंदगी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEidz6EMEgh48yVvv4RmMNScH-rLwezRCzKTypysvNro7B2TEaCw2R6MtsJIbgeD2F-FoYlbQvVyL32zqbdwj8RQ-RP9YouGmCamNb9AELF1uvip0_SLJQY6p0Q2mBOQf2H0QRgfDBooxBYY/s1600/Outdated-Telephone-Interview.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEidz6EMEgh48yVvv4RmMNScH-rLwezRCzKTypysvNro7B2TEaCw2R6MtsJIbgeD2F-FoYlbQvVyL32zqbdwj8RQ-RP9YouGmCamNb9AELF1uvip0_SLJQY6p0Q2mBOQf2H0QRgfDBooxBYY/s1600/Outdated-Telephone-Interview.jpg" height="149" width="200" /></a></div>
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छोटी सी जिंदगी में हम बार-बार आउट-डेटेड हो रहे हैं। कभी मोबाइल के बहाने, कभी टीवी के बहाने, कभी कपड़ों के बहाने, कभी खानपान के बहाने तो कभी अपनी सोच के बहाने। पिछली पीढ़ी को ये सुविधा उपलब्ध नहीं थी, जब उनको आउट-डेटेड कहा जाता था तब तक वे 60 के पार पहुंच जाते थे, पर अब आप टीन एज में भी आउटडेटेड कहलाए जा सकते हैं। हालत ये है कि आप आउट-डेटेड होने से बच नहीं सकते क्योंकि बाजार और टेक्नोलाॅजी आप से दस कदम आगे चल रहा है। बाजार के साथ कदमताल करने के लिए आपकी जेब में दम होना चाहिए। जेब में दम नहीं तो आप बाजार से पीछे तो रहेंगे, लेकिन खुद को सही साबित करने के लिए थोड़ा ज्ञान भी बांचेंगे और आपका ये ज्ञान फिर आपकी आउट-डेटेड सोच का परिचायक बन जाएगा।</div>
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiYmSzEnLsvcRa4J7CN0OaT1joxMHzU11md4bEm0N0hva8oXBOKwXa07RbsN_GIt34XOnKHV-f38jc4a_y1t1SVgey_60vvyxwJbRmnwUy_ZkAiYm7v4ZRdY1VF0H8NSXblRylWI59vM-rc/s1600/cassette.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiYmSzEnLsvcRa4J7CN0OaT1joxMHzU11md4bEm0N0hva8oXBOKwXa07RbsN_GIt34XOnKHV-f38jc4a_y1t1SVgey_60vvyxwJbRmnwUy_ZkAiYm7v4ZRdY1VF0H8NSXblRylWI59vM-rc/s1600/cassette.jpg" height="200" width="200" /></a>नरेंद्र मोदी के प्रचार तंत्र के सामने कांग्रेस का प्रचार तंत्र एकदम आउट-डेटेड साबित हुआ, जैसे स्मार्ट फोन के <span style="text-align: left;">सामने साधारण मोबाइल फोन आउट-डेटेड होते जा रहे हैं। अब तक शाहरुख खान की डीडीएलजे सबकी जुबान पर थी लेकिन ज्यों ही आलिया भट्ट अभिनीत ‘हम्प्टी शर्मा की दुलहनिया’ आई तो पता चला कि हमारे जमाने का प्यार करने का स्टाइल भी अब आउट-डेटेड हो गया है। शहर के व्यस्ततम चौक पर अपनी पुश्तैनी दुकान को एक शोरूम में तब्दील करके दुकानदारी पर बैठे लालाजी से अगर आप आॅनलाइन शाॅपिंग की बात छेड़ दो तो बुरी तरह फनफना जा रहे हैं और फ्लिपकार्ट, अमेजन, स्नैपडील जैसी साइट्स को जमकर गरियाकर उनका सामान फर्जी बता रहे हैं। पर वो ये स्वीकार करने को कतई तैयार नहीं कि वो और उनका शोरूम अब आउट-डेटेड हो गया है।</span></div>
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgXQfEVVsiTH0FQD5ZQoYOrsQ9Uu0F4_gFSD2wS3kX6R_TBAF8c-R9uW1Ew249n57OUo83wc7O-IPMYaJKG7TVdRR-bN1LytxUpmOnAqfakQIr31jPdO6I40FyXNaxI8TjJ5BFKOH52mWTw/s1600/computer.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgXQfEVVsiTH0FQD5ZQoYOrsQ9Uu0F4_gFSD2wS3kX6R_TBAF8c-R9uW1Ew249n57OUo83wc7O-IPMYaJKG7TVdRR-bN1LytxUpmOnAqfakQIr31jPdO6I40FyXNaxI8TjJ5BFKOH52mWTw/s1600/computer.jpg" height="110" width="200" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
तो जी, फिर से बताएं कि खुद को आउट-डेटेड होने से बचाने के लिए आपके बटुए में दम होना जरूरी है। खानपान से लेकर बोलचाल तक, शाॅपिंग से लेकर बैंकिंग तक, मोबाइल से लेकर टीवी, फिल्मों से लेकर सीरियल्स, नेता से लेकर अभिनेता, लाइफस्टाइल से लेकर लविंगस्टाइल तक सब बहुत तेजी से बदल रहे हैं। इस तीव्र गति बदलाव के साथ कदमताल करना एक काॅमन मैन के बस की बात नहीं, इसके लिए सुपर मैन होना जरूरी है। दूसरा फाॅर्मूला ये है कि ‘कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना’ वाले सिद्धांत को आत्मसात करते हुए आप अपनी गति से चलते जाएं और लोगों को अपनी जुबानी खुजली मिटाने का मौका देते रहे।</div>
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgQ6SUIRRS4b2ekb-_ZJrCQErzMpZaw8-oHfO7w7V546JYxhdSekWFCoeAJ-eksipxsrXWmP6fe0RRWDxobu9W-VFMTM9mvVBlyRO-teUmyGWOexEKOaHUj1YtyRY28oQVcJkjcLw81ZM3i/s1600/floppy.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgQ6SUIRRS4b2ekb-_ZJrCQErzMpZaw8-oHfO7w7V546JYxhdSekWFCoeAJ-eksipxsrXWmP6fe0RRWDxobu9W-VFMTM9mvVBlyRO-teUmyGWOexEKOaHUj1YtyRY28oQVcJkjcLw81ZM3i/s1600/floppy.jpg" height="120" width="200" /></a>वैसे तो आपकी जिंदगी की डेट हर रोज आपके हाथ से निकल रही है, लेकिन उससे ज्यादा मतलब नहीं है। <span style="text-align: left;">असली मतलब इस बात से है कि आप बाजार और टेक्नोलाॅजी के हिसाब से आउट-डेटेड न हो जाएं। वैसे भारतीय संस्कृति की बात की जाए तो हम भारतीयों की प्राथमिकता पर जिंदगी की डेट्स होनी चाहिए, पर एक विकासशील देश की बढ़ती अर्थव्यवस्था की मजबूरियों और अंतर्राष्ट्रीय मानकों को ध्यान में रखा जाए तो राष्ट्र का हित इसी में है कि उसके नागरिक अपना ज्यादा से ज्यादा ध्यान बाजार और टेक्नोलाॅजी के हिसाब से खुद को अपडेट करने पर लगाएं।</span></div>
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiHNjZTwQjLBYDTEu42nQkvAfUHNdrxkXSpH2hKoGD97M-gcKYsW7oU9SPUOq9vSEApYensAbvalgQ3bwPw_jWCrcBKYFWFPMD2W63w-kIIwgl3P1QGv0TFbCI7zM0TqgLXUxyM0o4ZAIaV/s1600/tv.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiHNjZTwQjLBYDTEu42nQkvAfUHNdrxkXSpH2hKoGD97M-gcKYsW7oU9SPUOq9vSEApYensAbvalgQ3bwPw_jWCrcBKYFWFPMD2W63w-kIIwgl3P1QGv0TFbCI7zM0TqgLXUxyM0o4ZAIaV/s1600/tv.jpg" height="149" width="200" /></a></div>
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हमारे ऋषि-मुनि तो बहुत पहले ही कह गए हैं कि बाबू ये संसार सब माया है ज्यादा चक्कर में मत पड़ना अगर संसार के ज्यादा चक्कर में पड़ोगे तो इह लोक तो खराब होगा ही परलोक भी बिगड़ जाएगा, इसलिए जिंदगी की डेट्स का ध्यान रखना और जितना वक्त इस दुनिया में आए हो प्रभु का भजन करते हुए सत्कर्मों में लगा देना। लेकिन हमारी सरकार और बाजारू ताकतें यही चाहती हैं कि आप खुद को बाजार के हिसाब से अपडेटेड रखें, इसी में देश और विश्व की अर्थव्यवस्था की भलाई है। यदि हर कोई अपनी जरूरतों को कम करके हरि भजन करने लग गया तो संसार की आर्थिक कश्ती डूब सकती है। बीच-बीच में कुछ धर्म धुरंधर बढ़ते उपभोक्तावाद के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद तो करते हैं, लेकिन ध्यान से देखने पर धर्म भी खुद बाजार की गिरफ्त में खड़ा मिलता है।<br />
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiWGDZyPom9b2wYs98uci3br1iSC-WSdVSIQEjAkdGH5lN4DwEp4PHPm7Ld-eIlehwNh29ROvQ-QeSEHIYGKG28e9CYU8YtybtGdQ1hFCi08jorQMVtkTW7CQJXIJd5jyxbSH4BQiK7xghB/s1600/dd.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiWGDZyPom9b2wYs98uci3br1iSC-WSdVSIQEjAkdGH5lN4DwEp4PHPm7Ld-eIlehwNh29ROvQ-QeSEHIYGKG28e9CYU8YtybtGdQ1hFCi08jorQMVtkTW7CQJXIJd5jyxbSH4BQiK7xghB/s1600/dd.jpg" height="112" width="200" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
सो, अंत में गौतम बुद्ध के मध्यम मार्ग का ही सहारा लेना पड़ता है, के भैया इतना भी मत जुटाओ की बाजार <span style="text-align: left;">के हिसाब से चलकर ईएमआई भरते-भरते कमरिया टूट जाए और इतने भी सिद्धांतों पर अडिग मत रहो कि दीन-हीन की श्रेणी में आ जाओ।</span></div>
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सचिन http://www.blogger.com/profile/08484919973851372449noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7079008157695611591.post-21830618687956097132014-07-12T17:09:00.000+05:302014-07-12T17:09:00.086+05:30उनके लिए, जिन्हें सरदार की मूर्ति पर ऐतराज है!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhhjNlDDlzmcBQjYg-T3u0TPHeNqShngkMuyuThBMEx4mb63v2yf32dhjyu73hTo9jOOmTNZ2L7Chrxo_F1Sbgr-1U8hUzvu8FKG1UnLVj5ffbgsrioVc4yWI-1nbCtWQzCDJi8LhWKKMG4/s1600/statue+of+unity.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhhjNlDDlzmcBQjYg-T3u0TPHeNqShngkMuyuThBMEx4mb63v2yf32dhjyu73hTo9jOOmTNZ2L7Chrxo_F1Sbgr-1U8hUzvu8FKG1UnLVj5ffbgsrioVc4yWI-1nbCtWQzCDJi8LhWKKMG4/s1600/statue+of+unity.jpg" height="225" width="400" /></a></div>
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आम बजट में सरदार वल्लभ भाई पटेल की मूर्ति के लिए 200 करोड़ रुपये का प्रावधान होने के बाद सोशल मीडिया पर एक वर्ग तरह-तरह के तर्क देकर स्टैचु आॅफ यूनिटी का लगातार विरोध कर रहा है। हालांकि हर किसी को समर्थन और विरोध का निजी अधिकार है और इस अधिकार को छीना नहीं जा सकता। फिर भी कई बार विरोध केवल इसलिए भी किया जाता है कि आपको विरोध करना ही है। सो, जिन लोगों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से विरोध लिया हुआ है, उनको विरोध करने से कोई नहीं रोक रहा, लेकिन क्या ये जरूरी है कि हर उस चीज का विरोध किया जाए जो नरेंद्र मोदी से जुड़ी है।</div>
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मुझे ऐसा लगता है कि ये मूर्ति जब बनकर तैयार हो जाएगी तो भारत की गौरव गाथा का हिस्सा बनेगी और इसका विशाल आकार एक नया इतिहास बनाएगा। ये सत्य है कि स्वतंत्रता के बाद से देश लगातार विभिन्न मोर्चों पर संघर्ष करता आ रहा है। गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, युद्ध, आतंकवाद, भ्रष्टाचार, प्राकृतिक आपदाएं, कमजोर अर्थव्यवस्था जैसी समस्याओं से जूझते-जूझते, इस तरफ कम ही ध्यान गया कि देश में विशाल स्मारकों या भवनों का निर्माण भी किया जाए। भारत में आज जो भी ऐतिहासिक इमारतें हैं वे या तो हमें भारत के स्वर्णकाल से या फिर फिर मुगलों और अंग्रेजों के शासन काल से विरासत में मिली हैं। आजादी के उपरांत बहुत कम निर्माण ऐसे हुए जो भारतीय शिल्प विद्या का लोहा मनवा सकें।</div>
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जिन निर्माणों की भारत में प्रमुखता से चर्चा होती है उनमें एक तरफ कोणार्क मंदिर, जगन्नाथ मंदिर, मीनाक्षी मंदिर जैसी कुछ पौराणिक इमारतें हैं, तो दूसरी तरफ मुगल काल से मिले लाल किला, ताज महल, चार मीनार, बुलंद दरवाजा जैसे निर्माण। इसके अलावा ब्रिटिश राज में बने हावड़ा ब्रिज, राष्ट्रपति भवन, इंडिया गेट, गेटवे आॅफ इंडिया, विक्टोरियल मेमोरियल और संसद भवन जैसी इमारतें हमें अपनी गुलामी काल की याद दिलाते हैं। स्वतंत्र भारत में जो भव्य निर्माण हुए उनमें दिल्ली और अहमदाबाद के अक्षरधाम को छोड़कर कोई ऐसा भव्य निर्माण नहीं नजर आता जिस पर हम गर्व कर सकें।</div>
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<br /></div>
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जब भारत सरकार ने इस बजट में स्टैचु आॅफ यूनिटी और वाॅर मेमोरियल के लिए धन आवंटित किया है, तो कुछ लोग यह कहकर निंदा कर रहे हैं कि भारत जैसे गरीब देश में 200 करोड़ रुपये मूर्ति निर्माण में खर्च करना उचित नहीं है, तो कुछ लोग सरदार की मूर्ति की तुलना मायावती के मूर्ति प्रेम से कर रहे हैं। ये दोनों ही तर्क आधारहीन हैं। मायावती का मूर्ति प्रेम बिल्कुल अलग किस्म का है, मैं उसके विस्तार में जाना नहीं चाहता। और मायावती के पार्कों के निर्माण में जो खर्च हुआ था उसकी तुलना में तो सरदार की मूर्ति का खर्च बेहद छोटा है। दूसरी बात यह कि सरदार की मूर्ति अपने आप में एक विश्वरिकाॅर्ड कायम करने जा रही है और इसके निर्माण के दौरान तो रोजगार का सृजन होगा ही, निर्माण पूर्ण हो जाने के उपरांत भी पर्यटन के माध्यम से हजारों लोगों को रोजगार के अवसर मिलेंगे। सबसे बड़ी बात ये मूर्ति भारत की बढ़ती शक्ति का प्रतीक बनेगी।</div>
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<br /></div>
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जहां तक बात गरीबी की है तो 200 करोड़ रुपये में हम देश की गरीबी को नहीं मिटा सकते। भारत की अर्थव्यवस्था जिस तरह उभर रही है और जिस तरह की कल्याणकारी योजनाएं पिछली और वर्तमान सरकारों ने चलाई हैं, उसमें से अगर भ्रष्टाचार का पुट हटा दिया जाए तो हाशिए पर पड़े व्यक्ति को सशक्त करने में देश आज सक्षम है। पर हमारी व्यवस्था में लालफीताशाही का जंजाल और भ्रष्टाचार का पेट इतना बड़ा है कि किसी भी योजना का लाभ आम आदमी तक पहुंचते-पहुंचते मरणासन्न स्थिति में पहुंच जाता है। चाहे वह भ्रष्टाचार हो या फिर बेपनाह सरकारी खर्च, असली जरूरत इन गड्ढों को भरने की है, जिनमें देश का करोड़ों रुपया समा जाता है। सरदार की मूर्ति का विरोध करने से देश का कोई भला होने नहीं जा रहा।</div>
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<br /></div>
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सचिन http://www.blogger.com/profile/08484919973851372449noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7079008157695611591.post-5731861795035397542014-07-02T16:55:00.000+05:302014-07-02T16:55:12.094+05:30ईएमयू ट्रेन का रसास्वादन <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiJkTmaoLZyRwHNER_n7gOgW6gzZe2iIJPW8Fk38BWhzDSqnASBbyxdDmtmUG71GdKQidpmt7It2pWLt5-zbP9xguah_nuUzQ-lSN9xNsPb0IGWMSRmQQM-V1-K7szlNs185AcJMDp_mp6p/s1600/emu.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiJkTmaoLZyRwHNER_n7gOgW6gzZe2iIJPW8Fk38BWhzDSqnASBbyxdDmtmUG71GdKQidpmt7It2pWLt5-zbP9xguah_nuUzQ-lSN9xNsPb0IGWMSRmQQM-V1-K7szlNs185AcJMDp_mp6p/s1600/emu.jpg" height="276" width="400" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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वैसे तो हर भारतीय ट्रेन में सफर का अपना अलग अनुभव और रोमांच होता है, लेकिन अगर आपने भारतीय रेल द्वारा चलाए जाने वाली ईएमयू या लोकल सेवा में सफर नहीं किया तो समझिए कि जीवन का एक बड़ा एक्सपीरिएंस मिस किया है। खचाखच भरी लोकल ईएमयू के फर्श पर अपने दो पैरों के लिए जगह बनाने में जो मशक्कत करनी पड़ती है उतनी अगर कोई जीवन के बड़े लक्ष्य को प्राप्त करने में करे तो वो उसे अवश्य हासिल हो जाए। 2005-06 में जाॅब स्ट्रगल के दौरान ईएमयू में सफर का मौका मिला था। जिंदगी आगे बढ़ी और फिर ये मौका नहीं मिला। दिल्ली आने के बाद पिछले दिनों फिर ईएमयू में सफर का अवसर मिला और पाया कि ईएमयू की दुनिया जस की तस है, कोई खास फर्क नहीं पड़ा। सफर के दौरान आप अलग-अलग रसों का आनंद उठाते हुए अपनी मंजिल की ओर बढ़ते चले जाते हैं। ईएमयू में ऐसी तमाम चीजें होती हैं जो आपको विचलित कर सकती हैं, लेकिन अगर आप नजरिया बदलें तो उन चीजों में आपको मजा आने लगेगा। दिल्ली में जिसे ईएमयू कहा जाता है उसे मुंबई में लोकल कहकर पुकारा जाता है। वैसे ईएमयू का अर्थ होता है इलेक्ट्रिक मल्टिपल यूनिट। </div>
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<b>ज्ञान रस</b></div>
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ईएमयू ट्रेन में आपको छोटे-छोटे समूह में बैठी यात्रियों की बहुत बड़ी संख्या समसामयिक विषयों पर बहस करके अपनी ज्ञान क्षुधा को शांत करती दिख जाएगी। यात्रियों के बीच बतियाने के लिए सबसे हाॅट टाॅपिक ‘भारतीय राजनीति का उत्थान और पतन’ होता है। इंदिरा के जमाने से लेकर मोदी के सत्ता हथियाने तक का सफर इन यात्रियों को मुंह जुबानी याद होता है। बहस का स्तर कभी-कभी इतना गहरा हो जाता है कि रवीश कुमार को भी शर्म आ जाए। चुनाव से पहले ये यात्री कांग्रेस के आतंक से परेशान थे तो चुनाव के बाद अब इन्हें मोदी सरकार का कांग्रेसीकरण होता दिख रहा है। कभी बहस का विषय राजनीति से बदलकर महिलाओं पर भी फोकस हो जाता है, उसका स्तर कहां तक जाता है उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। गाजियाबाद से दिल्ली की ओर जाने वाली ईएमयू में कभी-कभी एक हींग-गोली बेचने वाला भी आता है, जो एक डिब्बी गोली यात्रियों के बीच प्रचार करने के लिए यूं ही बांट देता है। इससे उसकी एक-दो डिब्बी बिक जाती हैं। लेकिन उसके जाने के बाद डिब्बे के अंदर जो वायु प्रकोप मचता है उससे न मोदी बचा सकते हैं और न मनमोहन। इससे बचने के लिए सांस रोकने की अच्छी प्रैक्टिस होनी चाहिए जो बाबा रामदेव का प्राणायाम करने से मिलती है।</div>
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<b>भक्ति रस</b></div>
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ईएमयू में एक बड़ा ग्रुप उन भक्तों का होता है जो सफर के दौरान भजन गाकर अपना टाइम पास करते हैं। हर ईएमयू से आपको भजनों की आवाज सुनाई देगी। भजन प्रेमी यात्री किसी न किसी कीर्तन समूह से नाता जोड़ लेते हैं। इन समूहों का ग्रुप मैनेजमेंट पर आईआईएम रिसर्च कर सकता है। जहां से टेªन चलती है, वहां मंडली के लोग कुछ सीटें घेरकर दोनों तरफ की खिड़कियों पर अपनी मंडली की झंडी बांध देते हैं। अगले स्टेशनों पर समूह से जुड़े यात्री इन्हीं झंडियों को देखकर पता लगाते हैं कि उनके लोग किस डिब्बे में बैठे हैं और वे उसी डिब्बे में सवार हो जाते हैं। कीर्तन मंडली आधा-पौन घंटे के सफर के लिए भी अपने साथ पूरा तामझाम लेकर चलती है। किसी के बैग से मंजीरे निकलते हैं, किसी के बैग से झांझ, किसी के बैग में ढपली रखी होती है, तो किसी बैग से चालीसा और प्रार्थनाओं की पुस्तिकाएं। कुछ मंडली अपने साथ माइक और स्पीकर सिस्टम भी लेकर चलती हैं। मंडली के लोगों के एक डिब्बे में मिलते ही शुरू होता है संगीत का अखिल भारतीय कार्यक्रम। एक से एक नई तान छेड़ी जाती है, उनका गायन कुछ इसी तरह का होता है कि- न सुर है न सरगम है, न लय न तराना है, भगवान के चरणों में एक पुष्प चढ़ाना है। डिब्बे में बैठे जो भगवत प्रेमी हैं वे भक्ति रस में डूब जाते हैं और जो भजन प्रेमी नहीं हैं वे नाक-भौं सिकोड़कर कान में ईयरफोन लगाकर मोबाइल से पाॅप सुनने लगते हैं। कीर्तन मंडली दिन के हिसाब से भजन गाती है। कीर्तन की शुरुआत गुणपति बप्पा को समर्पित होती है, सोमवार को मंडली बाबा भोलेनाथ को मनाती है, मंगलवार को हनुमान चालीसा का जोरदार पाठ होता है, नवरात्रों को माता रानी की चैकी सजती है, कोई त्योहार आने वाला हो तो उसके हिसाब से अलग भजन, दिल्ली से मेरठ जाने वाली लंबी दूरी की डीएमयू में सुंदरकांड का पाठ किया जाता है। कुछ मंडलियां गायन के साथ-साथ नृत्य का आयोजन भी करती हैं और नृत्य भी ऐसा कि हर कोई देखने को मजबूर हो जाए। ज्यों ही मंडली का पड़ाव आने वाला होता है तो आरती के साथ कीर्तन का समापन किया जाता है। एक कार्यकर्ता पूरे डिब्बे में प्रसाद वितरण शुरू कर देता है। मंगल के दिन बूंदी और बाकी दिन मिश्री से काम चलाया जाता है। डिब्बे में बैठे कुछ भजन प्रेमी इस कार्यकर्ता को दान में कुछ रुपये देते हैं, जिनको अगले दिन का प्रसाद खरीदने या मंडली के लिए संसाधन जुटाने में इस्तेमाल किया जाता है। पूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव से एक बार जब इस बारे में शिकायत की गई तो उन्होंने ट्रेन में होने वाले कीर्तन पर ये कहते हुए प्रतिबंध लगाने की बात कही कि इससे डिब्बे में बैठे दूसरे धर्म के लोगों की भावनाएं आहत होती हैं। लेकिन वो इसे अमलीजामा नहीं पहना पाएं, ट्रेन के पहियों की तरह रेलवे कीर्तन का सिलसिला लगातार जारी है।</div>
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<b>हास्य रस</b></div>
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जो लोग ये सोचते हैं कि क्रिकेट और वीडियो गेम के जमाने में ताश खेलने का चलन देश से पोलियो की तरह खत्म हो गया है, तो वे बिल्कुल गलत हैं। वे लोग किसी दिन फुर्सत निकालकर दिल्ली की ईएमयू में सफर करें, ईएमयू के हर डिब्बे में उन्हें ताश का वल्र्ड कप खेला जाता नजर आएगा। खेल भी ऐसा कि आसपास वालों को जबरदस्ती अपना दर्शक बना ले। सीट नहीं मिली तो डिब्बे के फर्श पर बैठकर, सीट मिली तो चार लोग आमने सामने बैठे घुटनों पर बैग रखा या रूमाल बिछाया और फिर होने दो दो-दो हाथ। कोई भी चार डेली पैसेंजर आपस में खेलना शुरू कर देते हैं। तकरीबन 70 फीसदी डेली पैसेंजरों के बैग में बाकी कुछ मिले या न मिले पर ताश की गड्डी जरूर रखी मिल जाएगी। खेल के दौरान पत्ता इतनी जोर से फेंका जाता है मानों ओलंपिक के मैदान में भाला फेंक रहे हों, और पत्ता फेंकने के साथ मुंह से विशेष तरह की आवाज या फिर किसी चिरपरिचित गाली की टेक। साथ में ठहाकों की जबरदस्त गूंज।</div>
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<b>प्रेम रस</b></div>
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दिल्ली से चलने वाली लोकल ईएमयू में एक बड़ी संख्या उन स्टूडेंट्स की भी होती है गाजियाबाद, फरीदाबाद, अलीगढ़, मथुरा आदि शहरों से अपनी पढ़ाई के लिए रोज अप-डाउन करती है। ये स्टूडेंट्स भी एक ग्रुप बनाकर सफर करते हैं। मोबाइल फोन की मदद से अलग-अलग स्टेशनों से चढ़ने के बावजूद ये सभी पहले से तय डिब्बे में ही बैठते हैं। ट्रेन के अंदर इन स्टूडेंट्स की अपनी एक अलग दुनिया होती है, बातचीत के अपने विषय होते हैं। लेकिन अगर इस ग्रुप अगर लड़कियां भी हों तो पूरे ग्रुप का अंदाज अलग ही होता है। ग्रुप के लड़के, लड़कियों को सुरक्षित महसूस कराने के साथ-साथ अपने मन में उमड़ रही एक तरफा प्यार की हिलोर को भी जाहिर करने का प्रयास करते नजर आते हैं। कुछ लड़के अन्य संसाधन होने के बावजूद जानबूझकर लोकल से इसलिए सफर करते हैं कि उनकी बैचमेट ईएमयू से काॅलेज जाती है। कई बार लोकल ट्रेन की लव स्टोरीज लंबी खिंचती हैं तो कभी सफर के साथ ही खत्म हो जाती हैं। खैर, स्टूडेंट्स के ये ग्रुप पूरी लोकल में सबसे ज्यादा उत्साहित और जीवंत होते हैं। उनकी आंखों में उम्मीदें होती हैं, भविष्य के सपने होते हैं।</div>
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<b>मौन रस</b></div>
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ईएमयू में सफर के दौरान सबका अपना-अपना स्टाइल होता है। ईएमयू के सफर में प्रत्येक पैसेंजर को संविधान में मिले तमाम अधिकार और स्वतंत्रता बरतने का पूरा हक होता है। सफर करने का एक मूल नियम ये है कि आप किसी को डिस्टर्ब न करें। अगर आपकी भुजाओं में भीमसेन का दम हो तभी किसी को हिदायत देने का प्रयास करें। कोई कुछ भी कर रहा है उसे वो करने दें, वरना अगर आपने किसी को ज्ञान देने की कोशिश की या नफासत दिखाने की कोशिश की तो पलक झपकते ही आपकी नाक से खून का फव्वारा बहता नजर आएगा। फिर आपकी बाकी जिंदगी लोगों को ये बताने में बीतेगी कि आपकी नाक कैसे टेढ़ी हुई। इसलिए ईएमयू में अगर आप अकेले सफर कर रहे हैं तो तब तक मौन धारण करके रखें जब तक कि आपकी निजता को जबरदस्त रूप से भंग न किया जाए।</div>
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सचिन http://www.blogger.com/profile/08484919973851372449noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7079008157695611591.post-21248145978852942702014-07-01T15:51:00.000+05:302014-07-01T15:53:39.134+05:30शादी से पहले और चुनाव के बाद! <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<b><b>शादी से पहले</b></b></div>
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh0BOFtgzFNG_DlWgI9QZ8QzqTPTiKZsMEbjdbupSmr9lAc4xlY1OsMG3mQ-TI14nZvydVqVpJG5PKKofaPhA6B4CLvHhpSYFt-cQbNF0p_JNg7edYGqqXQwwKOluBB1O7y-sf3aL0C_uMt/s1600/marriage.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em; text-align: justify;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh0BOFtgzFNG_DlWgI9QZ8QzqTPTiKZsMEbjdbupSmr9lAc4xlY1OsMG3mQ-TI14nZvydVqVpJG5PKKofaPhA6B4CLvHhpSYFt-cQbNF0p_JNg7edYGqqXQwwKOluBB1O7y-sf3aL0C_uMt/s1600/marriage.jpg" height="133" width="200" /></a><span style="text-align: justify;">बाॅलीवुड की फिल्मों से प्रेरणा लेकर 16 से लेकर 25 साल की उम्र में परवान चढ़ते प्रेम प्रसंग में प्रेमी रूपी पुरुष की हालत बेहद दयनीय होती है। उसके मन-मस्तिष्क में अपनी प्रियसी को पाने की इतनी तीव्र उत्कंठा घर कर जाती है कि प्रेमिका उसके जीवन का अंतिम लक्ष्य बन जाती है और वो मनसा, वाचा कर्मणा उसे प्राप्त करने की प्रतिज्ञा उठाकर सोता, जागता और विचरता नजर आता है। उसके हृदय की वीणा से निरंतर ऐसे स्वर फूटते हैं जो प्रतिपल उसकी प्रेमिका को आकर्षित कर उसे मंत्रमुग्ध कर देते हैं। इस अवस्था में प्रीतम अपनी प्रियसी के लिए हर वो कर्म करने के लिए तत्पर रहता है, जिससे प्रेमिका प्रसन्न हो। वो प्रेमिका के साथ तमाम सपने देखता और दिखाता है। वादों का ऐसा पहाड़ खड़ा करता है कि प्रेमिका उसकी वादियों में खो जाती है। और एक दिन ऐसा आता है जब प्रेमी अपनी प्रेमिका का पूरा विश्वास जीत लेता है और प्रेमिका उसे वरने के लिए तैयार हो जाती है। खुशी-खुशी दोनों का विवाह संपन्न होता है। सालों से हिलोरे ले रहे प्रेमी के हृदय में हनीमून के ख्याल मात्र से हजारों मयूर नृत्य करने लगते हैं। किसी हसीन से पर्यटक स्थल पर आखिरकार प्रेमी उन पलों का अनुभव करता है जिसका उसे न जाने कब से इंतजार था। प्रेमिका अपने प्रेमी के समक्ष संपूर्ण समर्पण कर देती है। कुछ समय दोनों एक हसीन दुनिया का अनुभव करते हैं। फिर शनैः शनैः समय बीतता है और प्रेमी का प्रेमिका के प्रति आकर्षण कम होने लगता है। प्रेमी के अंदर आ रहे बदलाव प्रेमिका को विचलित करते हैं। वो रह-रह कर प्रेमी को पुरानी बातें पुराने वादे याद दिलाती है, लेकिन प्रेमी हर बार हंस कर टाल देता है। और थोड़े समय में ही वो वक्त आ जाता है जब प्रेमिका को अपने पति से कहना पड़ता है- ‘‘सारे मर्द एक जैसे होते हैं’’!</span><br />
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<b>चुनाव के बाद</b></div>
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सचिन http://www.blogger.com/profile/08484919973851372449noreply@blogger.com0