रविवार, 1 फ़रवरी 2009
आलोचकों को आलोचना का बहाना चाहिए
टीवी पर एक विज्ञापन आता था, जिसकी पञ्च लाइन थी "खाने वालों को खाने का बहाना चाहिए...", यह लाइन आज के आलोचकों पर फिट बैठती है क्योंकि "आलोचकों को भी आलोचना का बहाना चाहिए.... "। अच्छे से अच्छे काम की आलोचना करना उनके बाएं हाथ का खेल है। अब अपने ऐआर रहमान को ही लो, भाई ने गोल्डन ग्लोब जीता। संसार के पटल पर भारत के संगीत को पहचान मिली। लेकिन आलोचकों को इसमें भी बुरे नज़र आ रही है। लगे हैं कागज़ काले करने में, की रहमान का सिंथेसाईंज़र करोड़ों का है, पहले संगीतकार रहमान से ज्यादा बढ़िया थे। अब अगर पहले संगीतकारों को सम्मान नहीं मिला तो इसमे रहमान की तो कोई गलती नहीं है न। सजनते हैं की पश्चिमी चस्मा हमें किस तरह से देखता है। हमारी फिल्में बढ़िया हैं, संगीतकार बढ़िया हैं, कलाकार भी बढ़िया हैं, पर उनकी नज़रों में नहीं चढ़ते , क्या कर सकते हैं। अब भइया लोग लगे हैं रहमान से हिसाब बराबर करने में। "स्लम डॉग..." ने नाम क्या कमाया की उसकी तो शामत आ गई। बुराई ही बुराई झेलनी पड़ रही है... कहीं बच्चन, कहीं बच्चे, कहीं पत्रकार तो कहीं तथाकथित सामाजिक संगठन, सब कूद पड़े हैं मैदान में। फ़िल्म की स्टोरी में भारत की तस्वीर लोगों को पसंद नहीं आ रही। सही भी है, भारत अब पुराना देश नहीं रहा। लेकिन क्या सारी गलती उस विदेशी निर्देशक की है, उस लेखक का क्या करें कहानी पर फ़िल्म आधारित है। बात लेखक "विकास स्वरुप" की हो रही है। वह तो भारतीय हैं, अपनी किताब "क्यू एंड ऐ" में यह भारत की ऐसी तस्वीर उन्होंने ही पेश की है, जिसे निर्देशक ने परदे पर उतारा है। अब भाई निंदा तो उनकी ही होनी चाहिए। यानी आलोचना में भी बेइमानी चल रही है। इत्ती मिलावट ठीक नहीं।
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achcha likha hai...lekin jinhe aalochna karni hai wo to krenge hi n...
जवाब देंहटाएंye verification hata do
सत्य वचन.
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही कहा...
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