Thursday, December 20, 2012

गुजरात की जीत और भाजपा की सफलता


गुजरात में केशुभाई पटेल की हार के बाद ये चीज फिर से साफ हो गई कि भारतीय जनता पार्टी को छोड़कर जो भी गया वो सफल नहीं हो सका। विचारक गोविंदाचार्य, उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह, मध्यप्रदेश में उमा भारती और अब गुजरात में केशुभाई पटेल इन सभी दिग्गज नेताओं ने भाजपा को छोड़कर अकेले चलने की कोशिश की, लेकिन चल नहीं पाए, बल्कि बुरी तरह विफल हुए। इसके पीछे सब अलग-अलग कारण बता सकते हैं, लेकिन सबसे बड़ा कारण है इन नेताओं का बुनियादी संस्कार। भाजपा के सभी दिग्गजों का बुनियादी संस्कार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से आता है। और ये संस्कार उनको किसी दूसरी पार्टी के अंदर बेचैन कर देता है। भाजपा पर लाख आरोप लगे हों, लेकिन सिद्धांतों के मामले में अभी भी उसकी छवि सबसे अलग है। यही बुनियादी सिद्धांत भाजपा के नेताओं को किसी दूसरी पार्टी में एडजस्ट नहीं करने देते। और अकेले अपनी पार्टी को चला पाना बेहद टेढ़ी खीर है।

जबकि कांग्रेस के मामले में ऐसा नहीं है। कांग्रेस को जिसने भी छोड़ा उसको अच्छी सफलता मिली। ममता बनर्जी और शरद पवार इसके उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है। हालांकि कांग्रेस के बार-बार टूटने, बिखरने और बनने की कहानी बहुत लंबी है। कांग्रेस में से ढेरों कांग्रेस निकलीं, और सबने सफलता प्राप्त की। कांग्रेस इंदिरा, कांग्रेस तिवार, तमिल मनीला कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी आदि ढेरों उदाहरण हैं। जनता बार-बार स्पष्ट कर चुकी है कि भाजपा की सफलता एकजुटता में ही है। लेकिन फिर भी
अंदरूनी स्तर पर पार्टी में चल रहे तमाम मतभेदों पर पार्टी को विचार करना चाहिए।

जनता पार्टी को उसकी स्पष्टता, सिद्धांतों और संस्कारों के लिए पसंद करती है। कांग्रेस पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते हैं तो कोई खास असर नहीं होता, लेकिन भाजपा के किसी नेता पर जब आरोप लगते हैं तो उसका गहरा असर पड़ता है। क्योंकि खुद भाजपा ने सिद्धांतों को लेकर अपनी लड़ाई शुरू की थी। इसलिए खास मुद्दों पर पार्टी को वोट बैंक की चिंता न करते हुए अपना रुख स्पष्ट रखना चाहिए। प्रमोशन में आरक्षण के मुद्दे पर अंदरूनी तौर पर भाजपा के तमाम नेता पार्टी के स्टैंड से नाराज हैं। इस गंभीर मुद्दे पर पार्टी को ढुलमुल रवैया न अपनाकर स्पष्ट रुख रखना चाहिए था। इस तरह की चीजों पर 2014 के चुनावों को देखते हुए भाजपा को गहन चिंतन करने की जरूरत है। मौकापरस्त या वोट बैंक की राजनीति में फंसकर पार्टी को नुकसान ही उठाना पड़ेगा।