आप जब सड़क पर निकलते हैं तो ऐसा हो ही नहीं सकता कि आपके कानों में अश्लील गालियां न सुनाई पड़ें, विशेषकर दिल्ली, एनसीआर और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में। आम बोलचाल की भाषा में गालियों की टेक लगाकर बात करना आम बात सी लगने लगी है। लोग सार्वजनिक स्थलों पर अश्लील गालियों से सनी वार्तालाप बेधड़क होकर करते हैं, बिना इस बात की परवाह किये कि उनके आसपास महिलाएं भी खड़ी हैं।
लेकिन पिछले रविवार जब मैं शेव कराने नाई की दुकान (आप सैलून या मेन्स पार्लर भी पढ़ सकते हैं) पर गया तो वहां एक व्यक्ति अपने बच्चे के साथ आया। उसने आकर नाई से कहा कि इसके ‘बाल बड़े’ कर दो। पहले मुझे सुनकर थोड़ा अजीब लगा कि लोग यहां बाल कटवाने आते हैं और ये आदमी कह रहा है कि बाल बड़े कर दो। बाद में समझ आया कि वह भी बाल कटवाने ही आया था, लेकिन ‘काटना’ एक नकारात्मक शब्द होने के कारण उसने बाल बड़े करना कहकर एक सकारात्मक शब्द प्रयोग किया। ऐसा नहीं था कि वह कोई बहुत बड़े बुद्धिजीवी या आध्यात्मिक वर्ग से था, बल्कि यह शब्द उसने अपने उस मूल स्थान की परंपरा से सीखा होगा जहां का वह निवासी था। हमारे क्षेत्र में भी बाल कटवाना नहीं कहा जाता था, बल्कि बाल बनवाना कहा जाता था।
अपने समाज में बातचीत के दौरान नकारात्मक शब्द न प्रयोग करने की परंपरा शायद बहुत पुरानी है। अपनी दैनिक बोलचाल की भाषा में हमें तमाम ऐसे शब्द मिल जाएंगे जिनका अर्थ बिल्कुल विपरीत होता है। उदाहरण के लिए कोई भी दुकानदार दुकान ‘बंद’ करना नहीं बोलता बल्कि कहता है कि वह दुकान बढ़ा रहा है। कुछ लोग जब घर से बाहर जाते हैं तो यह नहीं कहते कि मैं जा रहा हूं, बल्कि कहते हैं कि मैं अभी आ रहा हूं। उसी प्रकार महिलाएं चूड़ियों के टूटने के लिए अपने-अपने क्षेत्र के हिसाब से अलग-अलग शब्द प्रयोग करती हैं, हमारी तरफ ‘चूड़ी मौलना’ शब्द प्रचलित है। ऐसे ही गांवों में दीया बुझा दो कोई नहीं बोलता बल्कि कहते हैं ‘दीया बढ़ा’ दो। इस प्रकार के तमाम शब्द हैं, जो हमारी जिंदगी से सकारात्मक कारणों से जुड़े हुए हैं।
सकारात्मक बोलने की परंपरा गढ़ने वालों की सोच यही रही होगी कि गलती से भी मुख से गलत शब्द न निकले, नकारात्मक बोल न निकलें। गौर से देखें तो हंसी-मज़ाक के लिए भी मर्यादाएं नजर आती हैं। पर इसे आधुनिकता कहें, टीवी का प्रभाव कहें या फिल्मों का असर कि लोग बेधड़क नकारात्मक शब्दों का प्रयोग करते हैं। नकारात्मक शब्दों से तात्पर्य केवल अश्लील गालियों से नहीं है, बल्कि आम बोलचाल में अपनी दिक्कतों, परेशानियों में गलत शब्द मुख से निकलना आम हो गया है। हास्य के नाम पर कवि सम्मेलनों में और काॅमेडी के नाम पर टीवी शो में ऐसे-ऐसे चुटकुले खुले मंच पर सुना दिये जाते हैं कि आप असहज हो जाएं। बातचीत का वही तौर-तरीका धीरे-धीरे समाज में स्वीकार किया जाने लगा है।
संक्रमण के दौर से गुजर रही भाषा को देखकर लगता है कि नकारात्मकता ने जीवन में गहराई तक पांव पसार लिये हैं। यदि कभी अकेले में बैठकर मनन करें तो लगता कि कम बोलने, सार्थक बोलने और सकारात्मक बोलने की परंपरा कितनी सही थी।