शुक्रवार, 5 जुलाई 2024

मिलावटः समाज में घुल रहा एक धीमा जहर


खाद्य पदार्थों में मिलावट की समस्या सतही तौर पर भले बहुत गंभीर नहीं दिखती हो, लेकिन मिलावटखोरी का बाजार देश में गहराई तक फैला हुआ है। धन कमाने की दौड़ इस कदर आंख मूंद ली गई हैं कि बच्चों के दूध और आइस्क्रीम को भी नहीं बख्शा गया है। यह समस्या न केवल सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है, बल्कि इसके सामाजिक दुष्परिणाम भी नजर आने लगे हैं।

भारतीय मसालों पर लगा प्रतिबंध

हाल ही में भारतीय मसालों के ब्रांडों पर कई देशों में प्रतिबंध लगाया गया है। इनमें मिले हानिकारक रसायनों की वजह से कुछ देशों ने यह कदम उठाया। बताया जा रहा है कि इन मसालों में एथलीन ऑक्साइड मिला है, जो कैंसरकारक होता है। एमडीएच और एवरेस्ट जैसे ब्रांड के मसाले दशकों से भारतीय रसोइयों में बड़े विश्वास से प्रयोग किये जाते रहे हैं। लेकिन इन प्रतिबंधों के बाद नामी कंपनियों के प्रति विश्वास कमजोर हुआ है। अपने पेड पीआर के माध्यम से ऐसी कंपनियां अपने कारनामों पर कितना भी पर्दा डालें, लेकिन इन्होंने न केवल अपने उपभोक्ताओं का विश्वास खोया है, बल्कि विदेश में भी भारत की छवि खराब की है।

मिलावट का व्यापक असर

इसी प्रकार पनीर, दूध, घी और मिठाइयों में भी भारी मिलावट की खबरें भी लगातार आती रहती हैं। थोड़ी लागत से मोटा पैसा बनाने की फिराक में मिलावट का यह बाजार छोटे-छोटे शहरों और गांव तक तक फैल चुका नजर आता है। सब्जियों में भी खरनाक रसायन पाए जा रहे हैं। खाद्य तेलों में भी यह समस्या गंभीर रूप से देखी जा सकती है। इसके अलावा पैकेट बंद खाद्यपदार्थों की एक अलग दुनिया है, जो महीनों तक खराब ही नहीं होते। ऐसे कौन से कारक उनमें प्रयोग किये जाते हैं, जो उन्हें महीनों तक प्रयोग करने योग्य बनाए रखते हैं। इन सब परिस्थितियों में आम जन के स्वास्थ्य पर होने वाले दुष्परिणामों के बारे में आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है। 

खाद्य मिलावट से जुड़े आंकड़े

मिलावट के संदर्भ में भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) के आंकड़े डराने वाले हैं। एक संसदीय प्रश्न के उत्तर केन्द्रीय उपभोक्ता कार्य, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण मंत्री द्वारा ये आंकड़े संसद के पटल पर रखे गए। इन आंकड़ों की मानें तो एफएसएसएआई द्वारा जांचे गए खाद्य पदार्थों में 20 से 25 प्रतिशत सैंपल मानकों पर खरे नहीं उतरे। गौर करने वाली बात यह है कि अनेक मामलों में सजा भी हुई, लेकिन 6 माह जैसी मामूली सजा ऐसे अपराध के लिए कम प्रतीत होती है, जिसके साथ देश का स्वास्थ्य जुड़ा हो। देश में तेजी से बढ़ रहीं कैंसर, डायबिटीज, ब्लडप्रेशर, और दिल की बीमारियों के मामलों के पीछे मिलावटी खाद्य पदार्थ भी काफी हद तक जिम्मेदार हैं। 

Year

No. of Samples Analysed

No. of Samples found non-conforming

Civil Cases

Criminal Cases

 No. of Cases launched

No. of Convictions

 No. of Cases Launched

No. of Convictions

 

2018-19

1,06,459

30,415

18,550

12,734

2,813

701

 

2019-20

1,18,775

29,589

27,412

17,345

4681

780

 

2020-21

1,07,829

28347

24,195

14,817

3869

506

 

2021-22

1,44,345

32,934

28,906

19,437

4,946

671

 

2022-23

1,72,687

44,421

38,053

27,053

4,817

1133

 

एक स्वस्थ समाज की दिशा

इस समस्या के समाधान के लिए अत्यंत जनजागरण की आवश्यकता है। पैकेट बंद खाद्य पदार्थों पर तेजी से बढ़ रही निर्भरता पर स्व-नियंत्रण करना होगा। बाजार के खाद्य पदार्थों पर आंख मूंदकर विश्वास करने की प्रवृत्ति बदलनी होगी। सदैव यह ध्यान रहे कि बाजार मुनाफे के लिए बना है, परोपकार के लिए नहीं और मुनाफा बढ़ाने के लिए बाजार में बैठी शक्तियां किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार रहती हैं।

बुधवार, 3 जुलाई 2024

अत्यंत विशेष है कैवल्यदर्शनम् पुस्तक की भूमिका

सब राष्ट्रों में आध्यात्मिक सामंजस्य को बढ़ावा देने में श्रीयुक्तेश्वर जी की गहरी रुचि को देखते हुए महावतार बाबाजी ने उन्हें हिंदुत्व और ईसाइयत में निहित मूलभूत एकता को दर्शाने के लिए कैवल्यदर्शनम् पुस्तक लिखने का आदेश दिया। अतः श्रीयुक्तेश्वर गिरि जी ने अपने गुरु लाहिड़ी महाशय के गुरू महाअवतार बाबाजी की आज्ञा का पालन करने के लिए यह पुस्तक सन् 1894 में लिखी।

यह पुस्तक भारत के सांख्य दर्शन और बाइबिल के यूहन्ना का प्रकाशित वाक्य (रिविलेशन) के बीच मूलभूत एकता को दर्शाती है। हालांकि, इस पुस्तक में मुझे सबसे ज्यादा ध्यान आकर्षित करने वाली प्रतीत हुई इसकी भूमिका, जो स्वयं श्रीयुक्तेश्वर गिरि जी द्वारा लिखी गई है। 21 पृष्ठों की इस प्रस्तावना में श्रीयुक्तेश्वर जी द्वारा काल गणना से संबंधित भाग विशेष रूप से ध्यान आकर्षित करता है।

उनकी गणना के अनुसार हमारे पंचांगों में कुछ गलत भाष्यों या अनुवाद के कारण भूल आ गई है और वर्तमान में जिसे हम कलियुग मानते हैं, वह वास्तव में द्वापर युग है। वह अकाट्य तर्कों के माध्यम से इस बात को सिद्ध भी करते हैं। उनकी गणना को मानें तो आज 2024 में द्वापर युग का 324वां वर्ष चल रहा है।

वे बताते हैं कि सारे उपग्रह अपने-अपने ग्रहों की परिक्रमा करते हैं और सारे ग्रह अपनी-अपनी धुरी पर गोल घूमते हुए सूर्य की परिक्रमा करते हैं, जबकि सूर्य भी एक महा-केन्द्र या विष्णुनाभि की परिक्रमा करता है, जो स्रष्टा या ब्रह्मा का अर्थात सृष्टि के चुम्बकत्व का केन्द्र है। ब्रह्मा धर्म का या आन्तरिक जगत् की मानसिक सच्चरित्रता का नियंत्रणकर्ता है।

जब सूर्य अपनी परिक्रमा करते हुए इस महा केन्द्र के सबसे निकट पहुंचता है, तब मानसिक सच्चरित्रता या धर्म इतना उन्नत हो जाता है कि मनुष्य को सहज ही सब ज्ञान हो जाता है, यहां तक कि परमतत्व के गूढ़ तत्वों का भी और इसी काल को सतयुग कहा जाता है।

जब सूर्य अपने परिक्रमा पथ पर अपने महा-केन्द्र या ब्रह्मा से सबसे दूर पहुंचता है, तब धर्म का हृास होते-होते इतनी निकृष्ट अवस्था में पहुंच जाता है कि मनुष्य स्थूल जगत से परे कुछ भी नहीं समझ पाता, इसी काल को कलियुग कहा जाता है।

पुस्तक की भूमिका में इस कालगणना को श्रीयुक्तेश्वर जी ने बेहद सरल शब्दों में विस्तार से समझाया है। 1894 में लिखी अपनी इस पुस्तक में वे इसी आधार पर वे 19वीं शताब्दी के कुछ महान वैज्ञानिकों के आविष्कारों और मानव जाति की अन्य प्रगतियों की चर्चा करते हुए बताते हैं कि मनुष्य की यह उन्नति इस चीज को सिद्ध करती है कि समाज में चेतना जागृत हो रही है और ये सभी लक्षण द्वापर युग में देखने को मिलते हैं।

पुस्तक की भूमिका में कालगणना से संबंधित ये रोचक तथ्य इस विषय में रुचि रखने वाले मनीषियों द्वारा अवश्य ही चिंतन करने योग्य हैं। पुस्तक में वर्णित कालगणना को यहां मैंने बेहद संक्षेप में यहां प्रस्तुत किया। उत्सुकजन विस्तार से जानने के लिए पुस्तक को पढ़ सकते हैं। लगभग 130 वर्ष पहले लिखी गई यह पुस्तक पढ़कर सहज ही यह आभास होता है कि भारतीय ज्ञान परंपरा कितनी समृद्धशाली रही है।

मंगलवार, 2 जुलाई 2024

निर्माण कार्यों की गुणवत्ता जांचने आया मानसून और कर्नल बड़ोग का स्वाभिमान


इस वर्ष मानसून की शुरुआत के साथ ही देश के विभिन्न हिस्सों में पुलों, हवाई अड्डों और राजमार्गों के धंसने की खबरें सुर्खियां बटोरने लगी हैं। हाल ही में देश ने जब स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मनाया है, तब निर्माण कार्यों की संदेहास्पद गुणवत्ता आधुनिक डिग्री धारक इंजीनियर्स और निर्माण कार्य से जुड़े संस्थानों के लिए निश्चित रूप से गहन चिंता का विषय है। 

जिस ब्रिटिश शासन से हमने स्वतंत्रता प्राप्त की, उसके माथे पर भले ही अनेक संगीन आरोप हों, लेकिन उनके निर्माण कार्य आज भी अपनी गुणवत्ता की तस्दीक कर रहे हैं। नई दिल्ली का निर्माण हो या भारतीय रेल व्यवस्था की आधारशिला, यह सब कार्य अंग्रेजों ने भले ही अपने स्वार्थ के लिए किये, लेकिन उनके कार्य पर आज भी कोई संदेह नहीं करता। एक ही बारिश में धराशायी हो जाने वाले कागजी निर्माण करने वाले आधुनिक समय के काबिल इंजीनियर्स के लिए पुराने निर्माण कार्य निश्चित रूप से एक नज़ीर हैं। 

जब भी अखबारों में खराब निर्माण कार्य से जुड़ी खबरें प्रकाशित होती हैं, तब सहसा कर्नल बड़ोग (बरोग) का नाम सहसा ध्यान में आता है। वे ऐसा ही एक उदाहरण हैं, जिससे अपने काम के प्रति समर्पण, ईमानदारी और जिम्मेदारी का भाव सीखा जा सकता है। 

जब 20वीं सदी में जब कालका- शिमला रेलवे लाइन बिछाने का कार्य चल रहा था, तब पहाड़ी काटकर बड़ोग सुरंग (क्रमांक 33) बनाने का कार्य ब्रिटिश इंजीनियर कर्नल बड़ोग के पास था। उस जमाने में कालका- शिमला के बीच पहाड़ों को काटकर 100 से अधिक सुरंगें बनाना अपने आप में एक विलक्षण कार्य था। बरोग सुरंग कर्नल बड़ोग के लिए बहुत बड़ी चुनौती बन गई। सुरंग बनाने के लिए कर्नल बड़ोग ने सबसे पहले पहाड़ का निरीक्षण किया। सुरंग बनाने के लिए दोनों छोर पर निशान लगाने के बाद मजदूरों को खोदने का ऑर्डर दिए। मजदूर दोनों छोर से एकसाथ खुदाई करने लगे। कर्नल बड़ोग इस बात से आश्वस्त थे कि खुदाई के दौरान दोनों सुरंगें बीच में आकर मिल जाएंगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अंग्रेजी हुकूमत को यह पैसे की बर्बादी लगी और उन्होंने कर्नल बड़ोग पर एक रुपया जुर्माना लगा दिया। बड़ोग इस कार्रवाई से बहुत आहत हुए और उनके आत्मसम्मान को गहरी ठेस लगी। एक दिन वह अपने कुत्ते को लेकर सुबह टहलने निकले व सुरंग के नजदीक ही खुद को गोली मार ली। बड़ोग को वर्तमान सुरंग के पास ही दफनाया गया है। आत्महत्या किसी भी समस्या का समाधान नहीं, लेकिन यह कहानी उस इंजीनियर के स्वाभिमान की है। बाद में एक स्थानीय निवासी बाबा भलकू ने उस सुरंग को पूरा करने में मदद की थी, जिनके दिशा-निर्देशन में एक नई सुरंग बनाई गई। ब्रिटिश सरकार ने नई सुरंग का नाम इंजीनियर कर्नल बड़ोग के नाम पर ही रखा। यह इस मार्ग पर सबसे लंबी सुरंग है।

अपने कार्य के प्रति निष्ठा और समर्पण का कर्नल बड़ोग जैसा भाव ही ऐतिहासिक और पीढ़ियों तक चलने वाले निर्माण की नींव रखते हैं। वर्तमान भारत में निर्माण कार्यों से जुड़ी एजेंसियों और  अधिकारियों को यह कहानी नियमित पढ़ानी चाहिए, शायद कभी उनके अंदर अंतःप्रेरणा जागृत हो, ताकि एक मजबूत देश का निर्माण बन सके। हर विफलता का आरोप राजनीति पर लगा देना सबसे आसान मार्ग है। किसी भी तरह की राजनीति आपको तब तक मजबूर नहीं कर सकती, जब तक कमजोरी आपके स्वयं के अंदर न हो। कहीं न कहीं आपने भी बहती नदी में हाथ धोए होंगे, तब जाकर ये पुल धराशायी हुए होंगे।


सोमवार, 1 अप्रैल 2019

पता नहीं कितने दिन और मिलेगी कच्चे चूल्हे की रोटी?

यूं तो गार्गी हर साल ही गांव जाती रही है, लेकिन अब वह चार बरस की हो गई है और हर चीज पर सवाल करने लगी है। इस बार होली पर जब वह हमारे गांव गई तो चूल्हे पर रोटी बनते देख उसके जिज्ञासु मन से सवाल निकला कि ‘यहां लकड़ी से खाना क्यों बन रही है’? फिर उसकी नजर लकड़ी के बने पटले और पीढे़ पर पड़ी। फिर सवाल किया यहां सबकुछ लकड़ी का ही क्यों है? शहर में गैस स्टोव पर खाना बनते देखना और घर में अधिकांश वस्तुएं प्लास्टिक की होने के कारण गार्गी के मन में यह जिज्ञासाएं स्वभाविक ही थीं। लेकिन उसने सब लोगों को हंसने पर मजबूर कर दिया। हालांकि गांव में गैस सिलेंडर के दो-दो कनेक्शन हैं, लेकिन लकड़ी के ईंधन की उपलब्धता के कारण वह अभी भी सस्ता पड़ रहा है। गैस का इस्तेमाल अति आवश्यक होने पर ही किया जाता है। 

पर भाजपा नेता संबित पात्रा के वीडियो के कारण चूल्हे पर बनी रोटी को लेकर सोशल मीडिया पर जो हल्ला मच रहा है, उसे देखकर मन दूर तक निकल गया। यह बात सही है कि चुनावी मौसम में संबित पात्रा द्वारा वह वीडियो प्रचार के लिए ही डाला गया है और हंगामा भी इसीलिए मच रहा है, क्योंकि वे राजनीति से जुड़े हैं। लेकिन चूल्हे की रोटी को बहुत गलत ढंग से प्रदर्शित किया जा रहा है। इसमें हेय दृष्टि नजर आती है। गैस पर रोटी पकाना जरूर आधुनिकता की निशानी है और इंडक्शन चूल्हे पर पकाना अति-आधुनिकता की बात है, पर चूल्हे की रोटी की बात और स्वाद कुछ अलग ही होता है। यह स्वाद उन लोगों के लिए समझना कठिन है, जिन्होंने कभी कच्चे चूल्हे की बनी रोटी खाई ही नहीं। सरकार द्वारा गांव-गांव गैस कनेक्शन पहुंचाने की बात सही है। शत-प्रतिशत लोगों के घर में गैस कनेक्शन है, ऐसा दावा तो अभी नहीं किया गया है। और फिर गांवों में जिन घरों में गैस कनेक्शन पहुंच गया है, उन लोगों ने चूल्हे का प्रयोग बिल्कुल बंद कर दिया है, ऐसा भी नहीं है। गैस कनेक्शन ने उनकी सहूलियत जरूर बढ़ाई है। लेकिन कच्चा चूल्हा आज भी ग्रामीण घरों के आंगन की पहचान है।

हालांकि, आर्थिक उन्नति के साथ परिवार सिकुड़ रहे हैं, धीरे-धीरे नई पीढ़ी चूल्हे से तौबा कर रही है, और हो सकता है कि अगले 20 से 30 वर्षों बाद मिट्टी के चूल्हे भारत के किसी मानव संग्राहलय में ही नजर आएं। ज्यों-ज्यों देश आर्थिक रूप से तरक्की करेगा, विकास की परिभाषा गांव देहात तक पहुंचेगी, हम अपनी पुरानी जीवन शैली को खोते चले जाएंगे। ऐसा होता ही है, कोई नई बात नहीं। पक्के घरों को आधुनिकता और संपन्नता की पहचान बनाया गया, और पंजाब, हरियाणा व पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांवों से कच्चे घर धीरे-धीरे गायब होने लगे। आज स्थिति ये है कि न केवल ठंडी छांव वाली झोंपड़ियां खत्म हुईं बल्कि छप्पर बनाने वाले लोग भी अब नहीं रहे। मटका, घड़ा, सुराही की जगह गांवों में भी फ्रिज, कूलर और एसी पहुंचने लगे हैं। यह जीवनशैली गांव और शहर का अंतर कम होने की पहचान है और देश की अर्थव्यवस्था के लिए लाभदायक भी। पर अजीब तब लगता है जब विकास के नाम पर गांवों का शहरीकरण किया जाए और शहरों में ‘ईको-विलेज’ और ‘नेचुरल लिविंग’ जैसे रिहायशी अपार्टमेंट तैयार किये जाएं। गांवों की झोंपड़ियां पिछड़ेपन की निशानी लगने लगें, लेकिन शहर में विशेष कारीगर बुलवाकर रिजाॅर्ट में ‘हट’ का निर्माण कराते फिरें। दिल्ली के आसपास कई ऐसे रिजाॅर्ट खुल गये हैं, जहां काफी खर्चा करके माॅडर्न लोग ग्रामीण परिवेश देखने के लिए जाते हैं और चूल्हे की रोटी खाते हैं।

देश बहुत तेज रफ्तार से विकासशील मार्ग पर दौड़ते हुए विकसित मार्ग तक पहुंचने जा रहा है। आज हम विश्व की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हैं और जल्द शीर्ष तीन की श्रेणी में भी होंगे। देश की राजधानी दिल्ली व इसके जैसे अन्य मेट्रोपोलिटन शहर इतने ज्यादा विकसित हो गए हैं कि यहां के तमाम निवासी हर वीकएंड पर अपनी विकसित जिंदगी से दूर किसी गैर-विकसित स्थान की तरफ निकल लेते हैं। वर्ष 2020 को लेकर पूर्ण विकसित देश का सपना देखा गया था। 2020 न सही पर 2025 तक यह लक्ष्य हम अवश्य प्राप्त कर लेंगे, ऐसा अनुमान है। लेकिन तब तक शहर के साथ-साथ हमारे गांवों की तस्वीर पूरी तरह बदल चुकी होगी। घर के आंगन से गायब हो जाएगा कच्चा चूल्हा, साथ ही गायब हो जाएगा उस पर पकाने का कौशल। इसलिए कच्चे चूल्हे की रोटी जहां मिले खा लो, क्योंकि यह कितने दिन और मिलेगी, पता नहीं।

मंगलवार, 17 जनवरी 2017

बोल-बोल सकारात्मक बोल!


आप जब सड़क पर निकलते हैं तो ऐसा हो ही नहीं सकता कि आपके कानों में अश्लील गालियां न सुनाई पड़ें, विशेषकर दिल्ली, एनसीआर और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में। आम बोलचाल की भाषा में गालियों की टेक लगाकर बात करना आम बात सी लगने लगी है। लोग सार्वजनिक स्थलों पर अश्लील गालियों से सनी वार्तालाप बेधड़क होकर करते हैं, बिना इस बात की परवाह किये कि उनके आसपास महिलाएं भी खड़ी हैं। 


लेकिन पिछले रविवार जब मैं शेव कराने नाई की दुकान (आप सैलून या मेन्स पार्लर भी पढ़ सकते हैं) पर गया तो वहां एक व्यक्ति अपने बच्चे के साथ आया। उसने आकर नाई से कहा कि इसके ‘बाल बड़े’ कर दो। पहले मुझे सुनकर थोड़ा अजीब लगा कि लोग यहां बाल कटवाने आते हैं और ये आदमी कह रहा है कि बाल बड़े कर दो। बाद में समझ आया कि वह भी बाल कटवाने ही आया था, लेकिन ‘काटना’ एक नकारात्मक शब्द होने के कारण उसने बाल बड़े करना कहकर एक सकारात्मक शब्द प्रयोग किया। ऐसा नहीं था कि वह कोई बहुत बड़े बुद्धिजीवी या आध्यात्मिक वर्ग से था, बल्कि यह शब्द उसने अपने उस मूल स्थान की परंपरा से सीखा होगा जहां का वह निवासी था। हमारे क्षेत्र में भी बाल कटवाना नहीं कहा जाता था, बल्कि बाल बनवाना कहा जाता था। 

अपने समाज में बातचीत के दौरान नकारात्मक शब्द न प्रयोग करने की परंपरा शायद बहुत पुरानी है। अपनी दैनिक बोलचाल की भाषा में हमें तमाम ऐसे शब्द मिल जाएंगे जिनका अर्थ बिल्कुल विपरीत होता है। उदाहरण के लिए कोई भी दुकानदार दुकान ‘बंद’ करना नहीं बोलता बल्कि कहता है कि वह दुकान बढ़ा रहा है। कुछ लोग जब घर से बाहर जाते हैं तो यह नहीं कहते कि मैं जा रहा हूं, बल्कि कहते हैं कि मैं अभी आ रहा हूं। उसी प्रकार महिलाएं चूड़ियों के टूटने के लिए अपने-अपने क्षेत्र के हिसाब से अलग-अलग शब्द प्रयोग करती हैं, हमारी तरफ ‘चूड़ी मौलना’ शब्द प्रचलित है। ऐसे ही गांवों में दीया बुझा दो कोई नहीं बोलता बल्कि कहते हैं ‘दीया बढ़ा’ दो। इस प्रकार के तमाम शब्द हैं, जो हमारी जिंदगी से सकारात्मक कारणों से जुड़े हुए हैं।

सकारात्मक बोलने की परंपरा गढ़ने वालों की सोच यही रही होगी कि गलती से भी मुख से गलत शब्द न निकले, नकारात्मक बोल न निकलें। गौर से देखें तो हंसी-मज़ाक के लिए भी मर्यादाएं नजर आती हैं। पर इसे आधुनिकता कहें, टीवी का प्रभाव कहें या फिल्मों का असर कि लोग बेधड़क नकारात्मक शब्दों का प्रयोग करते हैं। नकारात्मक शब्दों से तात्पर्य केवल अश्लील गालियों से नहीं है, बल्कि आम बोलचाल में अपनी दिक्कतों, परेशानियों में गलत शब्द मुख से निकलना आम हो गया है। हास्य के नाम पर कवि सम्मेलनों में और काॅमेडी के नाम पर टीवी शो में ऐसे-ऐसे चुटकुले खुले मंच पर सुना दिये जाते हैं कि आप असहज हो जाएं। बातचीत का वही तौर-तरीका धीरे-धीरे समाज में स्वीकार किया जाने लगा है। 

संक्रमण के दौर से गुजर रही भाषा को देखकर लगता है कि नकारात्मकता ने जीवन में गहराई तक पांव पसार लिये हैं। यदि कभी अकेले में बैठकर मनन करें तो लगता कि कम बोलने, सार्थक बोलने और सकारात्मक बोलने की परंपरा कितनी सही थी।

सोमवार, 16 जनवरी 2017

ऑनलाइन मतदान की ओर कदम बढ़ाने का सही वक्त!

भारत में इलेक्ट्रिॉनिक वोटिंग मशीन की अपार सफलता के बाद अब चुनाव आयोग को ई-वोटिंग की ओर कदम बढ़ाना चाहिए। जिस प्रकार देश तेजी से डिजिटाइजेशन की ओर बढ़ रहा है, उसको देखते हुए यदि जल्द यह कदम उठाया जाता है, तो बहुत बड़े खर्च और प्रशासनिक उठापटक को टाला जा सकता है। साथ ही इससे उन लोगों को भी फायदा होगा जो नौकरी या अन्य कारणों से अपने शहर से दूर बस गए हैं, लेकिन वोट डालने के कारण उन्हें अपने शहर आना पड़ता है।

इसके लिए चुनाव आयोग ऑनलाइन वोट डालने के इच्छुक मतदाताओं से अपना एपिक नंबर आयोग की साइट पर रजिस्टर करवाये और ऐसे मतदाताओं के लिए अलग से एक ऑनलाइन वोटर लिस्ट तैयार करे। फिर ऐसे मतदाताओं के नाम कागजी वोटर लिस्ट से हटा दे। इस प्रकार चुनाव आयोग दो तरह की वोटर लिस्ट तैयार कर सकता है- एक ऑनलाइन मतदाताओं के लिए और दूसरी मतदान केंद्र पर जाने वाले मतदाताओं की। चुनाव के दिन ऑनलाइन मतदाता आयोग की वेबसाइट और मोबाइल एप पर वोट डाल सकते हैं और बाकी मतदाता मतदान केंद्र पर जाकर अपना मत डाल सकते हैं। ऑनलाइन मतदाताओं को मतदान केंद्र पर वोट डालने की अनुमति नहीं होगी। लेकिन ऑनलाइन वोट डालने के बाद मतदाता को मतदान रसीद अवश्य प्रदान की जाए, एसएमएस और ईमेल के माध्यम से भी। प्रयोग के तौर पर इसे छोटे राज्यों में आजमाया जा सकता है। 

जिस तरह डीबीटी एक सफल प्रयोग बनकर उभरा है, ऑनलाइन वोटिंग भी निश्चित तौर पर सफल होगी। ऑनलाइन वोटिंग का विकल्प आने से मतदान प्रतिशत में भी इजाफा होना लाजमी है, साथ ही भारी प्रशासनिक खर्च भी धीरे-धीरे घटता चला जाएगा। आज के दौर में जब ऐसे-ऐसे काम घर बैठे ऑनलाइन संभव हो रहे हैं, जिनके बारे में सोच भी नहीं सकते थे, तो फिर ऑनलाइन मतदान करवाना कोई बड़ी बात नहीं है। कई अखबार, न्यूज वेबसाइट और सर्वे कंपनियां इस तरह की वोटिंग समय-समय पर कराती ही रहती हैं। हालांकि चुनावी मतदान में थोड़ा एहतियात बरतने की आवश्यकता है। वोटिंग सॉफ्टवेयर तैयार करने में तमाम पहलुओं पर कड़ाई से सोचना होगा, ताकि दिमागी खुजली वाले लोग इसकी सुरक्षा में सेंध न लगा सकें। 

मंगलवार, 3 नवंबर 2015

पंचायत चुनाव बनाम ग्राम स्वराज


इन दिनों जब पूरे देश का ध्यान बिहार के विधानसभा चुनाव और उनके परिणामों पर केंद्रित हैं, ठीक उसी वक्त उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनावों का जोर है। अभी एक दिन के लिए अपने गांव जाना हुआ तो वहां की दीवारों पर चस्पा पोस्टरों को देखकर आभास हुआ कि देश में किसी भी चीज की कमी हो सकती है पर नेताओं की कमी कभी नहीं होगी। ऐसी-ऐसी चुनावी बिसात बिछाई जा रही हैं कि अमित शाह और लालू यादव भी मात खा जाएं। ऐसी गोटियां फेंकी जा रही हैं कि पूरी कांग्रेस पार्टी भी पानी मांगने लगे। पिलखुन के नीचे बैठकर ऐसी रणनीति तैयार हो रही हैं जिनको सुनकर बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ शर्म खा जाएं। छोटे-छोटे गांवों में इतनी बड़ी-बड़ी राजनीति खेली जा रही है कि दिल्ली भी लजा जाए। गांव के इस चुनावी माहौल को देखकर अरस्तु के वाक्य पर यकीन होने लगता है- ‘मनुष्य एक जन्मजात राजनीतिक जीव है’। भारत में तो राजनीति रग-रग में बसी है। किसी को छेड़ना भर मात्र है और वो अपने अंदर का पूरा राजनीतिक शास्त्र उड़ेल कर रख देगा। अपने यहां नाई की दुकान से लेकर रेल की बोगी तक, चाय के खोखे से लेकर गांव की चैपाल तक, मंदिर-मस्जिद से लेकर विश्वविद्यालयों तक राजनीतिक शास्त्रार्थ करने के लिए पुरोधा हर वक्त मुफ्त में तैयार मिलते हैं।

परंतु गांधी जी ने जिस ग्राम स्वराज का सपना देखा और दिखाया था वह आज के ग्राम पंचायत चुनाव से कतई मेल नहीं खाता। गांधी जी यदि आज की ग्रामीण राजनीति देख लेते तो शायद पंचायत चुनाव की जगह गांव की जिम्मेदारी एक दरोगा के हवाले करने की सिफारिश करते। उत्तर प्रदेश के अंदर ग्राम पंचायत चुनाव में जीतने के लिए हर वो हथकंडा अपनाया जाता है जिसका नैतिकता के दायरे से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं। पूरे चुनाव के दौरान मांस-मदिरा और सुरा-सुंदरी का प्रचलन अपने उत्कर्ष पर रहता है। इससे भी बात न बने तो बंदूक की गोली अंतिम उपाय के तौर पर काम आती है। यकीन न आए तो जिस दिन से चुनाव घोषित हुए हैं उस दिन से लेकर परिणाम घोषित होने के बीच कितनी चुनावी हत्याएं और हमले हुए इनके आंकड़े आरटीआई से निकलवाकर देखे जा सकते हैं। चुनाव आयोग ने विधानसभा और लोकसभा चुनावों के दौरान होने वाली हिंसा पर तो काबू पा लिया है, लेकिन पंचायत चुनाव के मौसम में पूरे उत्तर प्रदेश में रंजिशन गोलीबारी और हत्याओं के मामलों में अब भी बेतहाशा वृद्धि दर्ज की जाती है।  

कई जगह पंचायत चुनाव ने ऐसी गहरी रंजिशों की नींव डाली हैं कि पीढि़यां उसका खामियाजा भुगत रही हैं। यूं तो सतत विकास के कारण भी गांव की सामाजिक समरसता प्रभावित हो चुकी है, लेकिन पंचायत चुनावों ने भी गांव के सामाजिक ताने-बाने को पूरी तरह तोड़-मरोड़ दिया है। किसी कवि कि कविता या हिंदी फिल्म में गांव की जो सुनहरी तस्वीर पेश की जाती है, गांव दरअसल ठीक उसके विपरीत हैं। उत्तर प्रदेश के ग्रामीण समाज का सटीक चित्रण श्रीलाल शुक्ला के उपन्यास ‘राग दरबारी’ में ही देखने को मिलता है। देश के आर्थिक विकास के साथ जब से पंचायतों को मोटा धन मिलना शुरू हुआ है, तब से उत्तर प्रदेश में सभी पंचायती प्रतिनिधित्व वाले पद सिर्फ भ्रष्टाचार के गढ़ बन कर रह गए हैं। ग्राम प्रधान बनते ही गांव की उन्नति हो न हो पर उस व्यक्ति की उन्नति निश्चित है जो उस पद पर शोभायमान है।

हो सकता है इसी पंचायती राज व्यवस्था के कुछ सकारात्मक पहलू भी हों या फिर कुछ गांवों ने इसी व्यवस्था के तहत विकास किया हो। लेकिन मेरा निजी अनुभव यही कहता है कि उत्तर प्रदेश के अंदर पंचायती राज व्यवस्था अधिकांश गांवों के अंदर राजनीतिक सड़ांध पैदा कर रही है। ऐसी सड़ांध जो ग्रामीण जीवन के लिए एक अभिशाप से कम नहीं। पंचायतों में महिलाओं को जबरदस्त आरक्षण देकर हम दिल्ली में दो-चार महिला सरपंचों को सम्मानित कर महिला सशक्तिकरण का ढोल भले ही पीटें, लेकिन 99.99 प्रतिशत मामलों में महिला सरपंच अपने पति के आधीन होकर ही चलती हैं। सिर्फ कागजों पर विश्व को दिखाने भर के लिए इस प्रकार का महिला सशक्तिकरण क्या सचमुच देश और समाज के हित में होगा। महात्मा गांधी ने जरूर ग्राम स्वराज की परिकल्पना देश के समक्ष रखी थी, लेकिन हम अपने दिल पर हाथ रख कर बता दें कि क्या वर्तमान पंचायती राज व्यवस्था सचमुच गांव के हित में है। जहां ग्राम प्रधान और स्कूल प्रधानाचार्य मिलकर बच्चों का भोजन डकारने की मानसिकता रखते हों भला ऐसा पंचायती राज समाज के किस काम का?

अन्ना हजारे के गांव रालेगण सिद्धि और उनके प्रभाव वाले आसपास के कुछ गांवों में पंचायत चुनाव नहीं होते, बल्कि आम राय से निर्विरोध तरीके से पदों पर नियुक्ति की जाती है। और फिर अन्ना के दिए गए सूत्रों के अनुसार गांव का विकास किया जाता है, जिसमें शराब बंदी, बालिका शिक्षा, पर्यावरण संरक्षण, जननी सुरक्षा, शाकाहार, अहिंसक जीवन जैसे मूल्यों को आधार बनाया गया है। उन्होंने अपने गांव में एक ऐसा स्कूल भी खोला है जिसमें दूसरे स्कूलों में फेल हुए बालक-बालिकाओं को पढ़ाया जाता है। साथ ही उत्तम भोजन भी प्रदान किया जाता है। कुछ ऐसे ही मापदंडों पर यदि देश के अधिकांश गांव आगे बढ़ते हैं तब कहीं गांव में सुधार की शुरुआत होगी अन्यथा खानापूर्ति के लिए पंचायती राज व्यवस्था हम अपने कंधों पर ढोते रहेंगे। अंतिम बात, राजनीति जब राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ही हो तो बेहतर है, लेकिन जब ये आपके गांव और घर में घुसने लगे तो बेहद घातक सिद्ध होती है।

मिलावटः समाज में घुल रहा एक धीमा जहर

खाद्य पदार्थों में मिलावट की समस्या सतही तौर पर भले बहुत गंभीर नहीं दिखती हो, लेकिन मिलावटखोरी का बाजार देश में गहराई तक फैला हुआ है। धन कमा...