Saturday, July 12, 2014

उनके लिए, जिन्हें सरदार की मूर्ति पर ऐतराज है!


आम बजट में सरदार वल्लभ भाई पटेल की मूर्ति के लिए 200 करोड़ रुपये का प्रावधान होने के बाद सोशल मीडिया पर एक वर्ग तरह-तरह के तर्क देकर स्टैचु आॅफ यूनिटी का लगातार विरोध कर रहा है। हालांकि हर किसी को समर्थन और विरोध का निजी अधिकार है और इस अधिकार को छीना नहीं जा सकता। फिर भी कई बार विरोध केवल इसलिए भी किया जाता है कि आपको विरोध करना ही है। सो, जिन लोगों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से विरोध लिया हुआ है, उनको विरोध करने से कोई नहीं रोक रहा, लेकिन क्या ये जरूरी है कि हर उस चीज का विरोध किया जाए जो नरेंद्र मोदी से जुड़ी है।

मुझे ऐसा लगता है कि ये मूर्ति जब बनकर तैयार हो जाएगी तो भारत की गौरव गाथा का हिस्सा बनेगी और इसका विशाल आकार एक नया इतिहास बनाएगा। ये सत्य है कि स्वतंत्रता के बाद से देश लगातार विभिन्न मोर्चों पर संघर्ष करता आ रहा है। गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, युद्ध, आतंकवाद, भ्रष्टाचार, प्राकृतिक आपदाएं, कमजोर अर्थव्यवस्था जैसी समस्याओं से जूझते-जूझते, इस तरफ कम ही ध्यान गया कि देश में विशाल स्मारकों या भवनों का निर्माण भी किया जाए। भारत में आज जो भी ऐतिहासिक इमारतें हैं वे या तो हमें भारत के स्वर्णकाल से या फिर फिर मुगलों और अंग्रेजों के शासन काल से विरासत में मिली हैं। आजादी के उपरांत बहुत कम निर्माण ऐसे हुए जो भारतीय शिल्प विद्या का लोहा मनवा सकें।

जिन निर्माणों की भारत में प्रमुखता से चर्चा होती है उनमें एक तरफ कोणार्क मंदिर, जगन्नाथ मंदिर, मीनाक्षी मंदिर जैसी कुछ पौराणिक इमारतें हैं, तो दूसरी तरफ मुगल काल से मिले लाल किला, ताज महल, चार मीनार, बुलंद दरवाजा जैसे निर्माण। इसके अलावा ब्रिटिश राज में बने हावड़ा ब्रिज, राष्ट्रपति भवन, इंडिया गेट, गेटवे आॅफ इंडिया, विक्टोरियल मेमोरियल और संसद भवन जैसी इमारतें हमें अपनी गुलामी काल की याद दिलाते हैं। स्वतंत्र भारत में जो भव्य निर्माण हुए उनमें दिल्ली और अहमदाबाद के अक्षरधाम को छोड़कर कोई ऐसा भव्य निर्माण नहीं नजर आता जिस पर हम गर्व कर सकें।

जब भारत सरकार ने इस बजट में स्टैचु आॅफ यूनिटी और वाॅर मेमोरियल के लिए धन आवंटित किया है, तो कुछ लोग यह कहकर निंदा कर रहे हैं कि भारत जैसे गरीब देश में 200 करोड़ रुपये मूर्ति निर्माण में खर्च करना उचित नहीं है, तो कुछ लोग सरदार की मूर्ति की तुलना मायावती के मूर्ति प्रेम से कर रहे हैं। ये दोनों ही तर्क आधारहीन हैं। मायावती का मूर्ति प्रेम बिल्कुल अलग किस्म का है, मैं उसके विस्तार में जाना नहीं चाहता। और मायावती के पार्कों के निर्माण में जो खर्च हुआ था उसकी तुलना में तो सरदार की मूर्ति का खर्च बेहद छोटा है। दूसरी बात यह कि सरदार की मूर्ति अपने आप में एक विश्वरिकाॅर्ड कायम करने जा रही है और इसके निर्माण के दौरान तो रोजगार का सृजन होगा ही, निर्माण पूर्ण हो जाने के उपरांत भी पर्यटन के माध्यम से हजारों लोगों को रोजगार के अवसर मिलेंगे। सबसे बड़ी बात ये मूर्ति भारत की बढ़ती शक्ति का प्रतीक बनेगी।

जहां तक बात गरीबी की है तो 200 करोड़ रुपये में हम देश की गरीबी को नहीं मिटा सकते। भारत की अर्थव्यवस्था जिस तरह उभर रही है और जिस तरह की कल्याणकारी योजनाएं पिछली और वर्तमान सरकारों ने चलाई हैं, उसमें से अगर भ्रष्टाचार का पुट हटा दिया जाए तो हाशिए पर पड़े व्यक्ति को सशक्त करने में देश आज सक्षम है। पर हमारी व्यवस्था में लालफीताशाही का जंजाल और भ्रष्टाचार का पेट इतना बड़ा है कि किसी भी योजना का लाभ आम आदमी तक पहुंचते-पहुंचते मरणासन्न स्थिति में पहुंच जाता है। चाहे वह भ्रष्टाचार हो या फिर बेपनाह सरकारी खर्च, असली जरूरत इन गड्ढों को भरने की है, जिनमें देश का करोड़ों रुपया समा जाता है। सरदार की मूर्ति का विरोध करने से देश का कोई भला होने नहीं जा रहा।

Wednesday, July 2, 2014

ईएमयू ट्रेन का रसास्वादन


वैसे तो हर भारतीय ट्रेन में सफर का अपना अलग अनुभव और रोमांच होता है, लेकिन अगर आपने भारतीय रेल द्वारा चलाए जाने वाली ईएमयू या लोकल सेवा में सफर नहीं किया तो समझिए कि जीवन का एक बड़ा एक्सपीरिएंस मिस किया है। खचाखच भरी लोकल ईएमयू के फर्श पर अपने दो पैरों के लिए जगह बनाने में जो मशक्कत करनी पड़ती है उतनी अगर कोई जीवन के बड़े लक्ष्य को प्राप्त करने में करे तो वो उसे अवश्य हासिल हो जाए। 2005-06 में जाॅब स्ट्रगल के दौरान ईएमयू में सफर का मौका मिला था। जिंदगी आगे बढ़ी और फिर ये मौका नहीं मिला। दिल्ली आने के बाद पिछले दिनों फिर ईएमयू में सफर का अवसर मिला और पाया कि ईएमयू की दुनिया जस की तस है, कोई खास फर्क नहीं पड़ा। सफर के दौरान आप अलग-अलग रसों का आनंद उठाते हुए अपनी मंजिल की ओर बढ़ते चले जाते हैं। ईएमयू में ऐसी तमाम चीजें होती हैं जो आपको विचलित कर सकती हैं, लेकिन अगर आप नजरिया बदलें तो उन चीजों में आपको मजा आने लगेगा। दिल्ली में जिसे ईएमयू कहा जाता है उसे मुंबई में लोकल कहकर पुकारा जाता है। वैसे ईएमयू का अर्थ होता है इलेक्ट्रिक मल्टिपल यूनिट। 

ज्ञान रस
ईएमयू ट्रेन में आपको छोटे-छोटे समूह में बैठी यात्रियों की बहुत बड़ी संख्या समसामयिक विषयों पर बहस करके अपनी ज्ञान क्षुधा को शांत करती दिख जाएगी। यात्रियों के बीच बतियाने के लिए सबसे हाॅट टाॅपिक ‘भारतीय राजनीति का उत्थान और पतन’ होता है। इंदिरा के जमाने से लेकर मोदी के सत्ता हथियाने तक का सफर इन यात्रियों को मुंह जुबानी याद होता है। बहस का स्तर कभी-कभी इतना गहरा हो जाता है कि रवीश कुमार को भी शर्म आ जाए। चुनाव से पहले ये यात्री कांग्रेस के आतंक से परेशान थे तो चुनाव के बाद अब इन्हें मोदी सरकार का कांग्रेसीकरण होता दिख रहा है। कभी बहस का विषय राजनीति से बदलकर महिलाओं पर भी फोकस हो जाता है, उसका स्तर कहां तक जाता है उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। गाजियाबाद से दिल्ली की ओर जाने वाली ईएमयू में कभी-कभी एक हींग-गोली बेचने वाला भी आता है, जो एक डिब्बी गोली यात्रियों के बीच प्रचार करने के लिए यूं ही बांट देता है। इससे उसकी एक-दो डिब्बी बिक जाती हैं। लेकिन उसके जाने के बाद डिब्बे के अंदर जो वायु प्रकोप मचता है उससे न मोदी बचा सकते हैं और न मनमोहन। इससे बचने के लिए सांस रोकने की अच्छी प्रैक्टिस होनी चाहिए जो बाबा रामदेव का प्राणायाम करने से मिलती है।

भक्ति रस
ईएमयू में एक बड़ा ग्रुप उन भक्तों का होता है जो सफर के दौरान भजन गाकर अपना टाइम पास करते हैं। हर ईएमयू से आपको भजनों की आवाज सुनाई देगी। भजन प्रेमी यात्री किसी न किसी कीर्तन समूह से नाता जोड़ लेते हैं। इन समूहों का ग्रुप मैनेजमेंट पर आईआईएम रिसर्च कर सकता है। जहां से टेªन चलती है, वहां मंडली के लोग कुछ सीटें घेरकर दोनों तरफ की खिड़कियों पर अपनी मंडली की झंडी बांध देते हैं। अगले स्टेशनों पर समूह से जुड़े यात्री इन्हीं झंडियों को देखकर पता लगाते हैं कि उनके लोग किस डिब्बे में बैठे हैं और वे उसी डिब्बे में सवार हो जाते हैं। कीर्तन मंडली आधा-पौन घंटे के सफर के लिए भी अपने साथ पूरा तामझाम लेकर चलती है। किसी के बैग से मंजीरे निकलते हैं, किसी के बैग से झांझ, किसी के बैग में ढपली रखी होती है, तो किसी बैग से चालीसा और प्रार्थनाओं की पुस्तिकाएं। कुछ मंडली अपने साथ माइक और स्पीकर सिस्टम भी लेकर चलती हैं। मंडली के लोगों के एक डिब्बे में मिलते ही शुरू होता है संगीत का अखिल भारतीय कार्यक्रम। एक से एक नई तान छेड़ी जाती है, उनका गायन कुछ इसी तरह का होता है कि- न सुर है न सरगम है, न लय न तराना है, भगवान के चरणों में एक पुष्प चढ़ाना है। डिब्बे में बैठे जो भगवत प्रेमी हैं वे भक्ति रस में डूब जाते हैं और जो भजन प्रेमी नहीं हैं वे नाक-भौं सिकोड़कर कान में ईयरफोन लगाकर मोबाइल से पाॅप सुनने लगते हैं। कीर्तन मंडली दिन के हिसाब से भजन गाती है। कीर्तन की शुरुआत गुणपति बप्पा को समर्पित होती है, सोमवार को मंडली बाबा भोलेनाथ को मनाती है, मंगलवार को हनुमान चालीसा का जोरदार पाठ होता है, नवरात्रों को माता रानी की चैकी सजती है, कोई त्योहार आने वाला हो तो उसके हिसाब से अलग भजन, दिल्ली से मेरठ जाने वाली लंबी दूरी की डीएमयू में सुंदरकांड का पाठ किया जाता है। कुछ मंडलियां गायन के साथ-साथ नृत्य का आयोजन भी करती हैं और नृत्य भी ऐसा कि हर कोई देखने को मजबूर हो जाए। ज्यों ही मंडली का पड़ाव आने वाला होता है तो आरती के साथ कीर्तन का समापन किया जाता है। एक कार्यकर्ता पूरे डिब्बे में प्रसाद वितरण शुरू कर देता है। मंगल के दिन बूंदी और बाकी दिन मिश्री से काम चलाया जाता है। डिब्बे में बैठे कुछ भजन प्रेमी इस कार्यकर्ता को दान में कुछ रुपये देते हैं, जिनको अगले दिन का प्रसाद खरीदने या मंडली के लिए संसाधन जुटाने में इस्तेमाल किया जाता है। पूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव से एक बार जब इस बारे में शिकायत की गई तो उन्होंने ट्रेन में होने वाले कीर्तन पर ये कहते हुए प्रतिबंध लगाने की बात कही कि इससे डिब्बे में बैठे दूसरे धर्म के लोगों की भावनाएं आहत होती हैं। लेकिन वो इसे अमलीजामा नहीं पहना पाएं, ट्रेन के पहियों की तरह रेलवे कीर्तन का सिलसिला लगातार जारी है।

हास्य रस
जो लोग ये सोचते हैं कि क्रिकेट और वीडियो गेम के जमाने में ताश खेलने का चलन देश से पोलियो की तरह खत्म हो गया है, तो वे बिल्कुल गलत हैं। वे लोग किसी दिन फुर्सत निकालकर दिल्ली की ईएमयू में सफर करें, ईएमयू के हर डिब्बे में उन्हें ताश का वल्र्ड कप खेला जाता नजर आएगा। खेल भी ऐसा कि आसपास वालों को जबरदस्ती अपना दर्शक बना ले। सीट नहीं मिली तो डिब्बे के फर्श पर बैठकर, सीट मिली तो चार लोग आमने सामने बैठे घुटनों पर बैग रखा या रूमाल बिछाया और फिर होने दो दो-दो हाथ। कोई भी चार डेली पैसेंजर आपस में खेलना शुरू कर देते हैं। तकरीबन 70 फीसदी डेली पैसेंजरों के बैग में बाकी कुछ मिले या न मिले पर ताश की गड्डी जरूर रखी मिल जाएगी। खेल के दौरान पत्ता इतनी जोर से फेंका जाता है मानों ओलंपिक के मैदान में भाला फेंक रहे हों, और पत्ता फेंकने के साथ मुंह से विशेष तरह की आवाज या फिर किसी चिरपरिचित गाली की टेक। साथ में ठहाकों की जबरदस्त गूंज।

प्रेम रस
दिल्ली से चलने वाली लोकल ईएमयू में एक बड़ी संख्या उन स्टूडेंट्स की भी होती है गाजियाबाद, फरीदाबाद, अलीगढ़, मथुरा आदि शहरों से अपनी पढ़ाई के लिए रोज अप-डाउन करती है। ये स्टूडेंट्स भी एक ग्रुप बनाकर सफर करते हैं। मोबाइल फोन की मदद से अलग-अलग स्टेशनों से चढ़ने के बावजूद ये सभी पहले से तय डिब्बे में ही बैठते हैं। ट्रेन के अंदर इन स्टूडेंट्स की अपनी एक अलग दुनिया होती है, बातचीत के अपने विषय होते हैं। लेकिन अगर इस ग्रुप अगर लड़कियां भी हों तो पूरे ग्रुप का अंदाज अलग ही होता है। ग्रुप के लड़के, लड़कियों को सुरक्षित महसूस कराने के साथ-साथ अपने मन में उमड़ रही एक तरफा प्यार की हिलोर को भी जाहिर करने का प्रयास करते नजर आते हैं। कुछ लड़के अन्य संसाधन होने के बावजूद जानबूझकर लोकल से इसलिए सफर करते हैं कि उनकी बैचमेट ईएमयू से काॅलेज जाती है। कई बार लोकल ट्रेन की लव स्टोरीज लंबी खिंचती हैं तो कभी सफर के साथ ही खत्म हो जाती हैं। खैर, स्टूडेंट्स के ये ग्रुप पूरी लोकल में सबसे ज्यादा उत्साहित और जीवंत होते हैं। उनकी आंखों में उम्मीदें होती हैं, भविष्य के सपने होते हैं।

मौन रस
ईएमयू में सफर के दौरान सबका अपना-अपना स्टाइल होता है। ईएमयू के सफर में प्रत्येक पैसेंजर को संविधान में मिले तमाम अधिकार और स्वतंत्रता बरतने का पूरा हक होता है। सफर करने का एक मूल नियम ये है कि आप किसी को डिस्टर्ब न करें। अगर आपकी भुजाओं में भीमसेन का दम हो तभी किसी को हिदायत देने का प्रयास करें। कोई कुछ भी कर रहा है उसे वो करने दें, वरना अगर आपने किसी को ज्ञान देने की कोशिश की या नफासत दिखाने की कोशिश की तो पलक झपकते ही आपकी नाक से खून का फव्वारा बहता नजर आएगा। फिर आपकी बाकी जिंदगी लोगों को ये बताने में बीतेगी कि आपकी नाक कैसे टेढ़ी हुई। इसलिए ईएमयू में अगर आप अकेले सफर कर रहे हैं तो तब तक मौन धारण करके रखें जब तक कि आपकी निजता को जबरदस्त रूप से भंग न किया जाए।

Tuesday, July 1, 2014

शादी से पहले और चुनाव के बाद!


शादी से पहले
बाॅलीवुड की फिल्मों से प्रेरणा लेकर 16 से लेकर 25 साल की उम्र में परवान चढ़ते प्रेम प्रसंग में प्रेमी रूपी पुरुष की हालत बेहद दयनीय होती है। उसके मन-मस्तिष्क में अपनी प्रियसी को पाने की इतनी तीव्र उत्कंठा घर कर जाती है कि प्रेमिका उसके जीवन का अंतिम लक्ष्य बन जाती है और वो मनसा, वाचा कर्मणा उसे प्राप्त करने की प्रतिज्ञा उठाकर सोता, जागता और विचरता नजर आता है। उसके हृदय की वीणा से निरंतर ऐसे स्वर फूटते हैं जो प्रतिपल उसकी प्रेमिका को आकर्षित कर उसे मंत्रमुग्ध कर देते हैं। इस अवस्था में प्रीतम अपनी प्रियसी के लिए हर वो कर्म करने के लिए तत्पर रहता है, जिससे प्रेमिका प्रसन्न हो। वो प्रेमिका के साथ तमाम सपने देखता और दिखाता है। वादों का ऐसा पहाड़ खड़ा करता है कि प्रेमिका उसकी वादियों में खो जाती है। और एक दिन ऐसा आता है जब प्रेमी अपनी प्रेमिका का पूरा विश्वास जीत लेता है और प्रेमिका उसे वरने के लिए तैयार हो जाती है। खुशी-खुशी दोनों का विवाह संपन्न होता है। सालों से हिलोरे ले रहे प्रेमी के हृदय में हनीमून के ख्याल मात्र से हजारों मयूर नृत्य करने लगते हैं। किसी हसीन से पर्यटक स्थल पर आखिरकार प्रेमी उन पलों का अनुभव करता है जिसका उसे न जाने कब से इंतजार था। प्रेमिका अपने प्रेमी के समक्ष संपूर्ण समर्पण कर देती है। कुछ समय दोनों एक हसीन दुनिया का अनुभव करते हैं। फिर शनैः शनैः समय बीतता है और प्रेमी का प्रेमिका के प्रति आकर्षण कम होने लगता है। प्रेमी के अंदर आ रहे बदलाव प्रेमिका को विचलित करते हैं। वो रह-रह कर प्रेमी को पुरानी बातें पुराने वादे याद दिलाती है, लेकिन प्रेमी हर बार हंस कर टाल देता है। और थोड़े समय में ही वो वक्त आ जाता है जब प्रेमिका को अपने पति से कहना पड़ता है- ‘‘सारे मर्द एक जैसे होते हैं’’!

चुनाव के बाद
देश के महापुरुषों से प्रेरणा लेकर परिपक्व उम्र में परवान चढ़ती राजनीतिक लालसा में सज्जन रूपी नेता की हालत बेहद दयनीय होती है। उसके मन-मस्तिष्क में सत्ता को पाने की इतनी तीव्र उत्कंठा घर कर जाती है कि जनता की वोट उसके जीवन का अंतिम लक्ष्य बन जाती है और वो मनसा, वाचा कर्मणा सत्ता प्राप्त करने की प्रतिज्ञा उठाकर सोता, जागता और विचरता नजर आता है। उसके हृदय की वीणा से निरंतर ऐसे स्वर फूटते हैं जो प्रतिपल आम जनता को आकर्षित कर उसे मंत्रमुग्ध कर देते हैं। इस अवस्था में नेता अपनी प्रिय जनता के लिए हर वो कर्म करने के लिए तत्पर रहता है, जिससे जनता प्रसन्न हो। वो जनता के साथ तमाम सपने देखता और दिखाता है। वादों का ऐसा पहाड़ खड़ा करता है कि जनता उसकी वादियों में खो जाती है। और एक दिन ऐसा आता है जब नेता अपनी प्रिय जनता का पूरा विश्वास जीत लेता है और जनता उसे वोट देने के लिए तैयार हो जाती है। पूरे जोश के साथ चुनाव संपन्न होता है। सालों से हिलोरे ले रहे नेता के हृदय में सत्ता के ख्याल आते ही हजारों मयूर नृत्य करने लगते हैं। एक खूबसूरत कार्यक्रम में शपथ ग्रहण करके आखिरकार नेता उन पलों का अनुभव करता है जिसका उसे न जाने कब से इंतजार था। जनता खुद को अपने नेता के समक्ष समर्पण कर चुकी होती है। कुछ समय नेता और जनता परिवर्तन का सुखद अनुभव करते हैं। फिर शनैः शनैः समय बीतता है और नेता का जनता के प्रति आकर्षण कम होने लगता है। नेता के अंदर आ रहे बदलाव जनता को विचलित करते हैं। वो रह-रह कर नेता को पुरानी बातें पुराने वादे याद दिलाती है, लेकिन नेता हर बार हंस कर टाल देता है। और थोड़े समय में ही वो वक्त आ जाता है जब जनता को अपने नेता से कहना पड़ता है- ‘‘सारे नेता एक जैसे होते हैं’’!