Thursday, March 31, 2011

टार्गेट अचीव करना है तो हनुमान से सीखो!

सीता जी की खोज में जब समुद्र लांघकर लंका जाने की बात आई तो पूरी वानर सेना असमर्थ नजर आ रही थी. उस समय जामवंत ने हनुमान को उनकी शक्ति का स्मरण कराया। तब हनुमान ये कठिन काम अपने कंधों पर लिया और बखूबी कर के दिखाया। इस ओर से समुद्र लांघकर सीता जी के दर्शन तक के सफर में हनुमान के साथ कई घटनाएं घटीं। सबसे पहले मैनाक पर्वत ने उनसे थोड़ा आराम करने को कहा, फिर परीक्षा लेने के लिए सुरसा आई, फिर समुद्र में रहने वाली सिंघिका राक्षसी का वध करना पड़ा, फिर लंका के द्वार पर लंकिनी ने रोका, उसके बाद विभीषण से मुलाकात हुई, तब विभीषण के बताए मार्ग पर चलकर उनको सीता जी के दर्शन हुए।

इस पूरे घटनाक्रम से आज के जीवन में कई चीजें सीखने वाली हैं। जब हम कोई काम अपने हाथ में लेते हैं तो जैसा हनुमान के साथ हुआ वैसा ही हम सबके साथ भी होता है और हम मंजिल तक पहुंचने से पहले ही हिम्मत हार जाते हैं। किसी भी काम को हाथ में लेते वक्त ये बात गांठ बांध लेनी चाहिए कि रास्ते में व्यवधान आएंगे ही आएंगे। हमें उन व्यवधानों का सामना अपनी बुद्धि और अपने विवेक से करना है।

सबसे पहला व्यवधान है मैनाक पर्वत- यानि हमारा आलस्य। हर कंपनी में दो तरह के कर्मचारी होते हैं। एक वे जो काम को हाथ में लेने के बाद तब तक शांत नहीं बैठते जब तक कि वो पूरा न हो जाए। दूसरे वे जो काम पूरा करने के लिए डेडलाइन का इंतजार करते हैं। पहले किस्म के कर्मचारी अपना काम ज्यादा व्यवस्थित ढंग से पूरा करते हैं जबकि दूसरे किस्म के लोग हबड़धबड़ में काम को पूरा करते हैं। तो हनुमान बता रहे हैं कि काम के प्रति ऐसी लगन होनी चाहिए कि आपको भूख, प्यास और थकान जैसी चीजों का एहसास ही न हो। हनुमान जी ने कब खाने की मांग की जब उन्होंने सीता की दर्शन कर लिए। खुद सीता जी से ही कहा कि माता मुझे अब भूख लग रही है। उसी तरह कुशल टीम लीडर्स अपना काम और अपना टार्गेट पूरा करने के बाद पूरी टीम के साथ सेलिब्रेट करते हैं।

फिर हनुमान के सामने दूसरा व्यवधान आया- सुरसा। उसने हनुमान से उसकी भूख मिटाने को कहा। तब हनुमान ने अपनी चतुराई से सुरसा को जीता। इसी तरह जब आप किसी बडे़ प्रोजेक्ट को हाथ में लेते हो तो कई तरह की सुरसाएं आपसे अपनी रिक्वायरमेंट पूरी करने की डिमांड करती हैं। कहीं आपको लालफीताशाही रोकती है तो कहीं फैमिली की समस्याएं। ऐसे में आपको अपने विवेक का इस्तेमाल करना और कम समय वेस्ट करते हुए उनकी रिक्वायरमेंट को पूरा करना है। विनम्र आचरण बनाए रखते हुए अपना ध्यान अपने मेन टार्गेट पर लगाए रखना है।

इसके बाद हनुमान जी के सामने सिंघिका आई। ंिसंघिका आकाश में उड़ने वाले जीवों की परछाईं को पकड़कर उनको खा लेती थी। वही काम उसने हनुमान के साथ भी किया। इस बार हनुमान ने बिना कोई समय बर्बाद किए उसका वध करना उचित समझा। ये जो सिंघिका है ये आपके आसपास बिखरे अनवांटेड ऐलीमेंट्स हैं। जो आपकी टांग खींचते रहते हैं या आॅफिस में पाॅलिटिक्स करते रहते हैं। तो ऐसे लोगों की तरफ बिल्कुल ध्यान न देते हुए उनकी बात न सुनते हुए उनको पूरी तरह इग्नोर करना है। अगर आप उनके साथ उलझेंगे तो आपका अपना नुकसान होगा, जो वे चाहते हैं।

फिर हनुमान का सामना लंकिनी से हुआ। पहले तो हनुमान ने उससे बचकर निकलने की कोशिश की। लेकिन उसने उन्हें नहीं जाने दिया। तब हनुमान ने एक घूंसा मारकर उसको अपनी शक्ति का एहसास करा दिया। एक घूंसा पड़ते ही उसने आत्मसमर्पण कर दिया और हनुमान को आगे जाने दिया। ऐसे ही जब आप अपने टार्गेट के बहुत पास पहुंचने वाले होते हो तो कुछ बाधाएं खड़ी हो जाती हैं। ऐसा लगता है मानो अब ये काम पूरा नहीं हो पाएगा। लेकिन इन परिस्थितियों में आपको अपनी जिद पर अड़ जाना है और अपनी आत्मशक्ति को जगाकर खुद में पाॅजिटिव एनर्जी जनरेट करनी है। आपके अंदर की जो पाॅजिटिव एप्रोच है वो बहुत जरूरी है किसी टार्गेट को अचीव करने के लिए।

जब हनुमान लंका के अंदर गए तो सीता को खोज नहीं पाए। तब उनको विभीषण का घर दिखा। उसके आसपास के वातावरण से उन्होंने अंदाजा लगाया कि ये व्यक्ति सज्जन है। इससे मित्रता करनी चाहिए। ये जरूर मेरी मदद करेगा। फिर वही हुआ जैसा हनुमान ने सोचा था। विभीषण ने उनको सीता का सही पता बताया। बदले में हनुमान ने उन्हें राम जी से मिलवाने का आश्वासन दिया। इसी तरह जब हम किसी बड़े काम को हाथ में लेकर आगे बढ़ते हैं, तो हमारे आसपास कई अच्छे और अनुभवी लोग भी होते हैं। लेकिन हम अपनी ईगो के चलते उनकी मदद लेना उचित नहीं समझते। हमें ऐसे लोगों को पहचानकर उनकी मदद लेनी चाहिए। इससे हमारी मंजिल हमको जल्दी मिल सकती है। वरना काफी समय बर्बाद होगा। लेकिन ये रिश्ता एकदम क्षणिक और स्वार्थ आधारित नहीं होना चाहिए। हमें ऐसे लोगों से लांग टर्म रिलेशन बनाने चाहिए। उनको भी कभी मदद की जरूरत पड़े तो हमें भी उनकी मदद करनी चाहिए। जैसे बाद में हनुमान ने विभीषण को राम से मिलवाने में मदद की।  

Tuesday, March 29, 2011

चुनाव का फंदा और उद्योपतियों का चंदा!!!


अंग्रेजी में एक कहावत है ‘‘नो लंचेज आर फ्री!’’ यानि कोई भी भोज मुफ्त नहीं होता। उसके पीछे कोई न कोई स्वार्थ जरूर जुड़ा होता है। भारतीय राजनीति को ये बात अच्छी तरह पता होने के बावजूद हमारी राजनीति फ्री के भोज खाने में मगन है। जी मेरा इशारा पाॅलिटिकल फंडिंग की तरफ है। भारत की पाॅलिटिकल पार्टियां अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए इस कदर उद्योगपतियों पर निर्भर हो गई हैं कि सत्ता हासिल करने के लिए वे उद्योगपतियों के हाथ की कठपुतली बन जाती हैं। उद्योगपति किस कदर शासन व्यवस्था में अपना हस्तक्षेप करते हैं इसका नमूना अभी हाल ही में राजा-राडिया-बरखा-टाटा प्रकरण में देश के सामने आ ही चुका है। मंत्रीमंडल के चयन में भी उद्योगपति दखल देते हैं, जोकि केवल प्रधानमंत्री/मुख्यमंत्री का विशेषाधिकार है। इसका एकमात्र कारण पाॅलिटिकल फंडिंग ही है। जो पैसा उद्योगपति चंदे के तौर पर जिन पार्टियों को देते हैं, सत्ता हासिल करने के बाद उनसे पाई-पाई वसूलने की कोशिश करते हैं। कोई भी चंदा निःस्वार्थ भाव से या राष्ट्र निर्माण की भावना से नहीं दिया जाता।


शायद आपने सुना होगा काका जोगिंदर सिंह उर्फ धरतीपकड़ के बारे में। उन्होंने देश हर एक चुनाव लड़ा था। पार्षदी से लेकर राष्ट्रपति तक, लेकिन कभी नहीं जीते। वो किसी पार्टी से नहीं जुड़े थे, बस निर्दलीय खड़े हो जाते थे। चुनाव लड़ना उनकी हाॅबी थी। उस समय चुनाव लड़ने की फीस भी बहुत ज्यादा नहीं थी। वे अपना परचा दाखिल करते और अकेले ही निकल पड़ते प्रचार करने पैदल-पैदल। कंधे पर झोला और झोले में कुछ किशमिश और छुआरे। दिनभर लोगों से मिलते और वोट मांगते। बच्चों को किशमिश और छुआरे देते। उनको चुनाव प्रचार का वही अंदाज था और वही खर्च भी। चुनाव में लगाने के लिए काका के पास करोड़ों की रकम नहीं थी। लेकिन क्या यही कारण था कि काका कोई चुनाव नहीं जीत पाए? काका के चुनाव न जीतने के पीछे धन के अलावा और भी कई कारण थे। लेकिन आज चुनाव जीतने और हारने के पीछे सिर्फ एक ही मकसद है और एक ही कारण है और वो है- धन!

आज चुनाव जीतने के लिए धन को सबसे बड़ा मापदंड माना जाता है और चुनाव जीतने के बाद उस धन का कई गुना वापिस अर्जित करना उस नेता का जन्म सिद्ध अधिकार होता है। भारतीय राजनीति में यही तमाशा सालों से चला आ रहा है। चुनाव जीतने के लिए पानी की तरह पैसा बहाया जाता है। कोई मंगलसूत्र बांट रहा है तो कोई टीवी दे रहा है। कोई अखबार वालों को पैसा बांटकर पेड न्यूज छपवाता है तो कोई पीआर फर्म की मदद से जीत सुनिश्चित करता है। और इतना मोटा खर्च करने के लिए रकम ली जाती है चंदे में, यानि देश के उद्योगपतियों से। उद्योगपति भी सभी पार्टियों को थोड़ा-थोड़ा बांटते हैं। कोई न कोई तो सत्ता में आ ही जाएगी। किसी एक को देकर और किसी दूसरे को न देकर क्यों बैर मोल लिया जाए। पैसा तो है ही, 80 जी में छूट भी मिल जाती है, सो सभी को खुश रखा जाए। धीरुभाई अंबानी कहते थे कि एक उद्योगपति के सभी पार्टियों के साथ अच्छे रिश्ते होने चाहिए। लेकिन उनकी बात उनके बेटे अनिल अंबानी ने नहीं मानी। एक बार वो अमर सिंह की बातों में आकर सपा के समर्थन से राज्यसभा की शोभा बढ़ाने पहंुच गए थे, लेकिन थोड़े समय में ही उनको अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया।

भारतीय राजनीति में ये जो उद्योगपतियों की दखल है, ये कहीं न कहीं सिस्टम को कमजोर बना रही है। कोई पार्टी इतनी स्वावलंबी नहीं है जो अपने दमखम पर चुनाव लड़ सके। अगर वामपंथी पार्टियों को छोड़ दिया जाए तो हर पार्टी को उद्योगपतियों से ही जीवन जीने के लिए आॅक्सीजन मिल रही है। धनबलियों की धन की बैसाखी को हटा लिया जाए तो कोई पार्टी चुना न लड़ पाए। चुनावी खर्च हर साल सुरसा के मुख की तरह बढ़ रहा है। उत्तर प्रदेश में पिछले दिनों ग्राम पंचायत के चुनाव संपन्न हुए। अभी होली पर गांव गया तो गांव की बहुओं की वोट मांगते पोस्टर और होर्डिंग्स लगे दिखे। जिन बहुओं को आज तक गांव के किसी बुजुर्ग ने नहीं देखा था, वही बहुएं चुनाव प्रचार के नाम दीवारों पर चिपकी थीं। चुनाव में प्रचार के नाम धन की गंगा बहाना किस तरह जरूरी हो गया है, इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं। ग्राम प्रधान से लेकर प्रधानमंत्री तक का सफर आप बिना धन बहाए नहीं तय कर सकते। जब कुछ आदर्शवादी नेता कभी-कभी चंदा न मांगने की जिद पर अड़ जाते हैं, लेकिन उनके चेले उनको बार-बार व्यवहारिक बनने का हवाला देकर स्वयं चंदा वसूल कर लाते हैं।

यूं तो चुनाव आयोग कई दफै चुनावी खर्च कम करने के लिए संसद के पास प्रस्ताव भेज चुका है। लेकिन हर मसले पर अलग राय रखने वाले राजनीतिक दल इस मसले पर एकमत हो जाते हैं और उस प्रस्ताव को देखना तक मुनासिब नहीं समझते। चुनाव लड़ने के नाम पर पार्टियां न केवल मोटा चंदा उगाती हैं बल्कि उनके बड़े नेता उद्योगपतियों के निजी हेलीकाॅप्टरों का भी इस्तेमाल करते हैं। अब सोचिए जब उद्योगपतियों से इतना लोगे तो बदले में कुछ भी न दोगे। ये पूरी सृष्टि ही लेन-देन के सिद्धांत पर टिकी है। सो, नेताओं को सत्ता मिलने के बाद पग-पग पर उद्योगपतियों का फेवर करना पड़ता है। वैसे तो इस देश को कृषि प्रधान देश कहा जाता है, लेकिन जब आम बजट का समय आता है, तब देश के वितमंत्री बड़े-बड़े उद्योगपतियों से रायशुमारी करते हैं। क्या आज तक उन्होंने बजट से पहले किसानों की राय ली? किसानों और आम आदमी की राय भला क्यों लें, वे कौनसे चुनाव लड़ने के लिए चंदा देते हैं। जो देगा सो लेगा।

अजीब सी बात है कि आजादी के 64 साल बाद भी किसी पार्टी ने इस चंदा सिस्टम का विकल्प नहीं तलाशा। ऐसा विकल्प जिससे उन्हें किसी उद्योगपति के एहसानों के नीचे न दबना पड़े। हमारे गांव में कहावत है कि- जब मिले यूं तो करे क्यूं! जब पार्टियों का खर्चा-पानी चंदे से चल ही रहा है तो ज्यादा दिमाग लगाने के लिए क्या गांधी जी कह गए हैं।

Sunday, March 27, 2011

देश में बदलाव का बिगुल फूंकेगा अन्ना हजारे का ये सत्याग्रह

बन्दे में है दम.. वन्दे मातरम !
ये संधि काल चल रहा है. यानि परिवर्तन का समय. एक ऐसा समय जब भारत में एक बड़ा और सकारात्मक परिवर्तन होने की उम्मीद है. ये उम्मीद यूँ ही नहीं जगी है. इसके पीछे कई प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कारण हैं. आगामी वर्ष २०१२ को लेकर तरह-तरह के कयास पहले से ही लगाये जाते रहे हैं. कोई इसको विनाश का वर्ष बताता है तो किसी के लिए ये वर्ष आशाओं वाला है. लेकिन इतना तो तय है कि परिवर्तन अवश्यम्भावी है. स्वामी विवेकानंद ने भी २०१२ को भारत की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण बताया था. अखिल विश्व गायत्री परिवार के संस्थापक श्री राम शर्मा आचार्य ने भी अपने साहित्य में जगह जगह इशारा किया है कि २०११-१२ महत्त्वपूर्ण वर्ष होंगे. इस वर्ष उनकी जन्म शताब्दी भी मनाई जा रही है. गायत्री परिवार के समस्त अनुयायियों का दृढ विश्वास है कि गुरु जी का जन्म शताब्दी वर्ष देश और समाज के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण है और आशा की किरण जगाने वाला है.

अगर प्रत्यक्ष तौर पर भी देखा जाए तो हर ओर बदलाव की चाह भी स्पष्ट दिख रही है. वो शहरयार की पंक्तियाँ हैं न "सीने में जलन आँखों में तूफां सा क्यों है , इस शहर में हर शख्स परेशां से क्यों है". आज देश का हर खासो-आम परेशान हो चुका है. ६३ साल की आज़ादी उसको कुछ खास दे नहीं पायी है, अब वो फिर से बदलाव चाहता है. ऐसी राजनीति का विकल्प चाहता है जो इस देश के लिए अंग्रेजों से भी ज्यादा घातक सिद्ध हुयी. बदलाव के लक्षण दिखने शुरू हो गए हैं. राजनितिक पार्टियों के सम्मेलनों में लगातार घटती भीड़ बताती है कि लोगों का विश्वास उठ चुका है. बड़े से बड़े नेता की रैली में संख्या बढ़ाने के लिए अब किराये की भीड़ जुटाई जा रही है. लोग नेताओं को मुंह पर गाली बक रहे हैं और उनका स्वागत जूतों से करने लगे हैं. मीडिया और कोर्ट के सक्रिय हो जाने से अब भ्रष्ट तंत्र में कुछ भी छिपा नहीं रह गया है. भ्रष्टाचारियों को सजा भले ही न मिल पा रही हो लेकिन इस देश की आवाम भली-भांति समझ गयी है कि हमाम में सब नंगे हैं.

ये एक सकारात्मक बदलाव की चाह ही है कि लोग अब एकत्र हो रहे हैं. तमाम सामाजिक व धार्मिक संगठन एक साथ आने शुरू हो गए हैं. इन धार्मिक और सामाजिक संगठनों ने अपनी-अपनी सात्विकता और शक्ति के अहम् में सालों तक अपनी एनर्जी एक-दूसरे की निंदा और टांग खिंचाई में लगायी. लेकिन उनको हासिल कुछ नहीं हुआ. अब सबको समझ आ रहा है कि अकेले बात बनने वाली नहीं है. अगर देश के लिए सचमुच कुछ करना है तो एकजुट होना ही पड़ेगा. भारत की दृष्टि से ये एक सकारात्मक बदलाव की किरण है. भ्रष्ट तंत्र इतना शक्तिशाली हो चुका है कि उसका मुकाबला मिलकर ही किया जा सकता है. देश में बदलाव देखने की चाह लोगों में किस तरह विद्यमान है इसका एक उदाहरण मुझे जनवरी में देखने को मिला. हरिद्वार में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय योग कांफ्रेंस में मेरी भारतीय मूल के अमरीकी व्यवसायी ब्रह्म रत्न अग्रवाल जी से एक संक्षिप्त मुलाकात हुयी. भारत में सुधर के लिए जितने में संगठन सच्चे मन से समाज सेवा के कार्य में जुटे हैं ब्रह्म अग्रवाल जी अपनी फ़ौंडेशन की ओर से तरीबन सभी को आर्थिक सहायता देते हैं. पतंजलि में आयोजित उस कांफ्रेंस में भी ब्रह्म जी ने बाबा राम देव द्वारा चलाये जा रहे कार्यों में मदद के लिए एक करोड़ रूपए देने की घोषणा की. भारत से सात समंदर दूर बैठे लोग भी चाहते हैं कि भारत में बदलाव आये. सबके मन में तीव्र उत्कंठा है कि भारत विश्व गुरु बने, उसका परचम विश्व में सबसे ऊंचा लहराए. लेकिन लोगों की उम्म्दें लगातार भ्रष्ट तंत्र की भेंट चढ़ती जा रही हैं.

इस भ्रष्ट व्यवस्था से लड़ने के लिए अस्तित्व में आया एक और संगठन "इंडिया अगेंस्ट करप्शन" भी पूरी तन्यमयता के साथ सामने आया है. भ्रष्टाचारियों को उनके सही स्थान तक पहुँचाने के लिए इस संगठन ने "जन लोकपाल बिल" का मसौदा तैयार किया. संगठन की मांग है कि देश से भ्रष्टाचार मिटाने के लिए इस बिल को पारित किया जाए. लेकिन भारत सरकार की हवा खिसकी हुयी है. भ्रष्टाचारियों की पनाहगार बन चुकी संसद से वैसे ये उम्मीद करनी भी नहीं चाहिए कि वो ये बिल वर्तमान रूप में पारित भी करेगी, क्योंकि बिल में भ्रष्टाचार के खिलाफ बेहद कड़े प्रावधान हैं. लेकिन फिर भी अगर इस देश की जनता थान ले तो ये बिल पास हो भी सकता है. इसी मुद्दे को लेकर विख्यात गांधीवादी "अन्ना हजारे" आगामी ५ अप्रैल से जंतर मंतर पर अनिश्चितकाल के लिए भूख हड़ताल पर बैठकर सत्याग्रह करने जा रहे हैं. ७८ साल के अन्ना जन लोकपाल बिल पारित कराने के लिए इस उम्र में ये हिम्मत दिखा रहे हैं. ये उनकी अपनी लड़ाई नहीं हैं, न ही इससे उनके परिवार को कोई लाभ होने वाला है क्योंकि उनका अपना तो कोई परिवार ही नहीं है. वो पूरे देश को अपना परिवार मानते हैं और देश के लिए ही वो अपनी जान खतरे में डालने जा रहे हैं. अन्ना का साथ देने के लिए देश के कोने-कोने से लोग और संगठन जुटते नज़र आ रहे हैं. अन्ना का ये सत्याग्रह देश में बदलाव का बिगुल बजाने जा रहा है. उनके सत्याग्रह से सरकार के कान पर अगर जूं रेंगती है तो ये देश के आवाम की सबसे बड़ी जीत होगी.

Friday, March 25, 2011

राजनीति की ओर बाबा रामदेव के बढ़ते मजबूत कदम!


जो काम गांधी न कर पाए, जो काम संघ न कर पाया, अब वही काम बाबा रामदेव ने अपने हाथ में लिया है। देश को सही दिशा देने के लिए सत्ता का एक केंद्र स्थापित किया जाए और फिर उस केंद्र को पीछे से मार्गदर्शित किया जाए। एक राजनीतिक संगठन के पीछे नैतिक और चारित्रिक रूप से शक्तिशाली संगठन का मार्गदर्शन ताकि देश का सर्वांगीण विकास हो सके। महात्मा गांधी ने भी ये कोशिश की थी कि वे बिना किसी पद पर बैठे कांग्रेस को पीछे से मार्गदर्शित करते रहेंगे और कांग्रेस उनके सपनों का भारत खड ा करेगी। लेकिन सत्ता के दिन नजदीक आते-आते उनके चेलों में ऐसा झगड ा शुरू हुआ कि देश का बंटवारा और बंटाधार दोनों एक साथ हो गया। आजादी मिलने के बाद नेहरू ने गांधी की एक न मानी और अपने हिसाब से देश का विकास करना शुरू कर दिया। शहरों को विकास का केंद्र बना दिया गया और गांवों की ओर ध्यान नहीं दिया गया। परिणाम स्वरूप शहर और गांव के बीच का फासला बढ ता चला गया। गांधी जो चाहते थे वो उनकी किताबों तक ही सीमित होकर रह गया। कांग्रेस ने गांधी का मुखौटा जरूर लगाया, लेकिन न तो गांधी को अपनाया और न उनकी मानी। बंटवारे के बाद मिली आजादी से गांधी इतने ज्यादा खिन्न थे कि उन्होंने १५ अगस्त १९४७ को आजादी जलसे में शामिल होना भी मुनासिब नहीं समझा। गांधी अच्छी तरह जान गए थे कि कांग्रेस भटक गई है। आजादी के बाद गांधी तकरीबन डेढ साल जीवित रहे, लेकिन इस दौरान उन्होंने देश की शासन व्यवस्था में कोई सक्रिय भूमिका नहीं निभाई।
 
संघ और भाजपा

आरएसएस भी एक नैतिक और चारित्रिक संगठन के रूप में ही काम करना चाहता था, लेकिन पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने संघ को इस बात के लिए राजी कर लिया कि देश को सही दिशा और दशा प्रदान करने के लिए राजनीति में उतरना जरूरी है। और आरएसएस ने अपना पॉलिटिकल विंग खड़ा करने का रास्ता साफ कर दिया। मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की पहली सरकार कम ही दिन रही पर उसने कई ठोस और नए कदम उठाए। लेकिन बाद में ये सरकार भी इंदिरा गांधी के बिछाए जाल में फंसकर पद लोलुपता की भेंट चढ गई। बाद में १९९८ में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी भारतीय जनता पार्टी की सरकार सात साल तक गठबंधन धर्म का रोना रोती रही और संघ के दिशानिर्देशों की अवहेलना करती रही। माना कि राम मंदिर का मुद्‌दा विवादित था, लेकिन भाजपा ने स्वदेशी से लेकर धारा ३७० और समान नागरिक कोड सबको भुला दिया। लोगों को भाजपा सरकार नई बोतल में पुरानी शराब की तरह लगनी शुरू हो गई। देश का आर्थिक विकास तो हुआ, लेकिन उसका मॉडल विदेशी की था। उसमें भारतीयता की बू कहीं नहीं थी। अगर एक परमाणु परीक्षण को छोड दिया जाए तो पूरे कार्यकाल के दौरान एक भी ठोस कदम नहीं उठाया गया। प्रधानमंत्री वाजपेयी के दिल में उमड ी नोबल पुरस्कार की चाह ने उन्हें बार-बार पाकिस्तान के सामने मजबूर किया। पार्टी के दिग्गज नेताओं का अहंकार इतना बढ ा कि उन्होंने आम जनता से कुछ ज्यादा ही दूरी बना ली। कांग्रेस से भी ज्यादा। जिस पॉलिटिकल विंग को खड ा करते वक्त संघ ने तरह-तरह के सपने संजोए थे, उसका वही संगठन उसको आंखें तरेरने लगा। हश्र सबके सामने है कांग्रेस और भाजपा एक ही सिक्के के दो पहलू बनकर रह गए हैं। भाजपा के दामन में भ्रष्टाचार के दाग भले ही न हों पर दोनों ही दलों में पद की लोलुपता सिर चढ कर बोल रही है।
 
अब बाबा रामदेव

बाबा रामदेव भी अब इस पथ पर कदम बढ़ा रहे हैं। प्राचीन भारतीय राज व्यवस्था ऐसी ही थी, जहां संतों के मार्गदर्शन में राजा शासन किया करते थे। संत ऐसे सलाहकार की भूमिका निभाते थे, जो निःस्वार्थ भाव से प्रजा के हित में सलाह देते थे और उनकी राय सर्वोपरि होती थी। आज की सरकारें जितने भी सलाहकार नियुक्त करती हैं वे सभी पद और पैसे की चाह में हवा का रुख देखकर सलाह देते हैं। कोई सही सलाह देता भी है तो उसकी एक नहीं सुनी जाती। वर्तमान में सभी सरकारी सलाहकार महज शो-पीस मात्र बनकर रह गए हैं। बाबा रामदेव भारत स्वाभिमान ट्रस्ट के माध्यम से यही चाहते हैं कि एक ऐसी राजनीतिक शक्ति का सृजन हो जो देश को संतों और समाजसेवियों के मार्गदर्शन में आगे ले जाए। जो उच्च स्तर के नैतिक मूल्यों की स्थापना करे, जो देश को लूटने और बांटने के बजाए पूरी ईमानदारी के साथ जोड े। इतना तो तय है कि बाबा खुद चुनाव नहीं लड ेंगे। लेकिन भारत स्वाभिमान के अंतर्गत उनके नुमाइंदे चुनावी दंगल में उतरेंगे और भ्रष्टाचारियों से मुकाबला करेंगे। देखना यही होगा कि २०१४ में जब बाबा की पार्टी मैदान में आएगी तो क्या गुल खिलाएगी। इससे पहले बाबा जय गुरुदेव भी एक पॉलिटिकल एक्सपेरिमेंट कर चुके हैं जो विफल रहा। हालांकि बाबा रामदेव का ये प्रयोग एकदम अलग किस्म का है और उम्मीद जगाने वाला है। उनके साथ हर वर्ग, हर जाति और हर धर्म के लोग जुड े हुए हैं। और फिलहाल सब जोश से भरे दिख रहे हैं। सत्ता हासिल करने तक ये जोश ठंडा भी नहीं होने वाला।
 
राजीव दीक्षित का नुकसान

राजीव दीक्षित के रूप में बाबा रामदेव को एक कुशल वक्ता और तेजस्वी व्यक्तित्व मिला था, जिसे काल ने असमय छीन लिया। उनके भाषण में एक अजीब सा सम्मोहन था। उनकी आवाज में गजब का आकर्षण था। तथ्यों की जानकारी ऐसी थी कि कंप्यूटर को भी मात दे दे। विषयों की पड़ताल ऐसी थी कि विशेषज्ञों से पानी भरवा ले। ये राजीव दीक्षित की कार्य कुशलता और नेतृत्व कुशलता ही थी कि उन्हें लोग भारत के प्रधानमंत्री के रूप में देखने लगे थे। लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। भारत स्वाभिमान यात्रा के दौरान ३० नवंबर को अचानक आए हार्ट अटैक ने बाबा रामदेव से उनका ये सिपेहसालार छीन लिया। ये बाबा रामदेव के लिए बहुत बड ा झटका था। भारत स्वाभिमान का सबसे मजबूत स्तंभ भरभराकर गिर गया। लेकिन बाबा ने हार नहीं मानी और न ही यात्रा को वापस लिया। भारत स्वाभिमान यात्रा यथावत चलती रही और २७ फरवरी को दिल्ली के रामलीला ग्राउंड में एक विशाल रैली करने के बाद राष्ट्रपति को ज्ञापन सौंपने के साथ संपन्न हुई। उस दिन भारत स्वाभिमान ट्रस्ट ने सत्ताधीशों को अपनी ताकत का अंदाजा भी करा दिया। अब भारत स्वाभिमान ट्रस्ट को राजीव दीक्षित के बिना राजनीतिक मोर्चा संभालना होगा।
 
हरिद्वार बना आध्यात्मिक राजधानी

जैसे मुंबई को भारत की कमर्शियल कैपिटल कहा जाता है, उसी तरह हरिद्वार आज भारत की स्प्रिचुअल कैपिटल कहलाए जाने योग्य है। पतंजलि योग पीठ, गायत्री शक्ति पीठ और गुरुकुल कांगड़ी सरीखे शक्तिशाली आध्यात्मिक संगठनों की बदौलत इस नगरी से आध्यात्म की बयार निकलकर न केवल पूरे देश में बल्कि विश्व के कोने-कोने में फैल रही है। राजनीति के पैरों में अगर धर्म की बेडि यां डाल दी जाएं तो वह भटक नहीं पाएगी। लेकिन इस बात का खयाल भी रखना है कि राजनीति धर्म से चले, पर धर्म की राजनीति न हो। राजनीति को उसका धर्म समझाना जरूरी है और ये काम संत ही कर सकते हैं, ऐसे संत जो धार्मिक उन्माद भड काकर देश को तोड ने के बजाए देश को जोड ने का काम करें। बाबा रामदेव ने विभिन्न धर्मों और मतों के लोगों को एक मंच पर लाकर जोड ने का काम किया है। आशा करें कि हरिद्वार आने वाले समय में देश का ऐसा मार्गदर्शन करे कि उसको सचमुच देश की आध्यात्मिक राजधानी घोषित कर दिया जाए।

Monday, March 21, 2011

होली मिलने आए पत्रकार के रिश्तेदार की बच्ची का किया गाजियाबाद पुलिस ने अपहरण!!!

२० फरवरी को होली के दिन गाजियाबाद में प्रताप विहार पुलिस चौकी, पुलिस की कायरता और बर्बरता की गवाह बनी। पुलिस ने न केवल एक अबोध बच्ची के अपहरण की कोशिश की, बल्कि विरोध करने पर उसकी मां समेत अन्य महिलाओं पर लाठियां बरसाईं। पुलिस ने इतनी हिमाकत तब की जब वो पीड़ित पक्ष को अच्छी तरह जानती-पहचानती थी। घटना प्रताप विहार निवासी तेजेश चौहान जो कि पंजाब केसरी में रिपोर्टर हैं, के साथ घटी। इससे पहले तेजेश वॉइस ऑफ इंडिया चैनल में गाजियाबाद के संवाददाता थे। तेजेश चौहान और उनके भाई राजीव चौहान से रविवार को होली मिलने के लिए उनके रिश्तेदार दीपक अपने परिवार के साथ आए। लेकिन उनका घर बंद पाकर वे अपनी कार से वापस लौटने लगे इतने में तेजेश चौहान के पड़ोसियों ने उन्हें होली खेलने के लिए रोक लिया। दीपक और उनकी पत्नी अपनी ढाई साल की बच्ची आस्था को गाड़ी में अपने भाई के साथ छोड कर पड़ोसियों को गुलाल लगाने उतर पड़े । अभी उन्होंने गुलाल लगाया भी नहीं था कि बगल में ही स्थित पुलिस चौकी से चौकी इंचार्ज नरेंद्र शर्मा ने आकर गाड़ी का दरवाजा खोला और चलता बना। दीपक और उनकी पत्नी ने पीछे मुड कर देखा तो गाड़ी गायब थी। इस पर बच्ची की मां का बुरा हाल हो गया। सामने खड़े एक प्रत्यक्षदर्शी ने बताया कि एक पुलिस वाला जबरदस्ती गाड़ी ले गया है। आनन-फानन सबको फोन मिलाया गया। होली के कारण अधिकांश लोगों ने अपने मोबाइल घर पर छोड रखे थे। इतने में पत्रकार तेजेश चौहान के छोटे भाई राजीव मौके पर पहुंच गए और उन्होंने चौकी इंचार्ज को फोन करके अपना हवाला दिया। इस पर चौकी इंचार्ज ने बताया कि गाड़ी और बच्ची विजय नगर थाने में सुरक्षित है। गाड़ी और बच्ची को वो क्यों ले गया, इसका उसने कोई जवाब नहीं दिया। इतना सुनते ही परिजनों ने प्रताप विहार पुलिस चौकी पर हंगामा कर दिया। हंगामे की खबर फैलते ही चौकी इंचार्ज ने थाने पर ये कहकर चौकी पर फोर्स बुला ली कि स्थानीय लोगों ने शराब पीकर चौकी पर हमला कर दिया है। इसके बाद एसओ विजय नगर अनिल कप्परवान के नेतृत्व में आए तकरीबन ५० पुलिस वालों की फोर्स ने ऐसी लाठियां बरसाईं कि कई लोगों को लहुलुहान कर दिया। लाठीचार्ज में एक व्यक्ति का हाथ भी टूट गया, जिससे बाद में पुलिस ने झूठी गवाही भी दिलवा दी। बर्बरता का स्तर ये था कि पुरुषों को बचाने आई महिलाओं को भी उन्होंने नहीं बखशा और उनपर भी लाठियां बरसाईं। इस कायराना हरकत को अंजाम देते वक्त एसओ विजयनगर की नेमप्लेट भी मौके पर गिर गई। ये हंगामा देखकर तकरीबन पूरा प्रताप विहार पुलिस चौकी पर आ गया। इतनी भीड देखकर पुलिस के होश फाखता हो गए और पुलिस हवाई फायरिंग करने की प्लानिंग करने लगी। इतने में कॉलोनी के कुछ लोगों ने आकर मामला शांत कराया। भीड ने जब हंगामा खड़ा किया तो एसओ विजय नगर अपने मोबाइल से भीड की वीडियो बनाने लगे। इस पर कुछ महिलाओं ने उनका मोबाइल ये कहकर छीनने की कोशिश की कि उस समय उन्होंने वीडियो क्यों नहीं बनाई तब पुलिस महिलाओं पर डंडे बरसा रही थी। प्रताप विहार वासियों ने पूरी पुलिस फोर्स के सामने एसओ विजय नगर को बुरा भला कहा, दबाव बढ ता देख एसओ विजय नगर ने मौके से खिसकने में ही भलाई समझी और कुछ लोगों को जबरदस्ती गाड़ी में ठूंसकर थाने पर आकर बात करने को कहा।


विजयनगर थाने पर लोगों का भारी हुजूम पहुंच गया। मामले की गंभीरता को देखते हुए सीओ सिटी आरके सिंह थाने पहुंच गए। उनके सामने ही लोगों ने एसओ विजयनगर और चौकी इंचार्ज प्रताप विहार को आड़े हाथों लिया। दोनों के दोनों इस बात का स्पष्ट जवाब नहीं दे पाए कि बच्ची को क्यों उठाया गया। इस शर्मनाक कृत्य के बावजूद दोनों के चेहरे पर न तो कोई शर्म थी और न अपने किए का पछतावा। अगर प्रताप विहार के लोगों का दवाब नहीं होता तो पुलिस क्या करती कहा नहीं जा सकता। सीओ सिटी ने बच्ची आस्था की मां, जो खुद ज्यूडिशियरी की तैयारी कर रही हैं, के बयान लिए। उनके बयान सुनकर सीओ भी सन्न रह गए। लेकिन एसओ विजय नगर अपनी गलती मानने को तैयार नहीं था। उसका बार-बार यही कहना था कि जब पता चल गया कि बच्ची सुरक्षित है तो हंगामा क्यों किया गया। लेकिन वो इस बात का जवाब नहीं दे पाया कि पूरे देश में एक आदमी ऐसा बता सकते हैं जो ये मानने को तैयार हो जाए कि उनकी बहू-बेटी पुलिस की कस्टडी में सुरक्षित है। इस देश की पुलिस ने आज तक आम लोगों का विश्वास तोडा है, जीता नहीं। बहरहाल हुआ वही जिसकी उम्मीद थी, न्याय नहीं मिला। प्रताप विहार वाहिसयों के दबाव को देखते हुए पकडे गए लोगों को तो छोड दिया गया, लेकिन गाड़ी को सीज कर दिया। गाड़ी में रखा पर्स, जिसमें पांच हजार रुपये थे, भी गाड़ी से गायब था। आज पुलिस ने गाड़ी को छोड ते हुए दिखाया है कि गाड़ी बेढंगी तरह से चौराहे पर खड़ी थी। गाड़ी में कागज नहीं थे। गाड़ी को बच्ची के ताऊ (जिनको गाड़ी चलानी नहीं आती) खुद चलाकर थाने ले गए। किसी भी पुलिस वाले के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई। अगर यही काम किसी और ने किया होता तो क्या पुलिस उस पर अपहरण का मामला नहीं दर्ज करती। तो फिर चौकी इंचार्ज पर अपहरण का मुकदमा क्यों नहीं दर्ज किया गया। होली के अवसर पर गाजियाबाद एसएसपी के आदेश थे कि किसी भी गाड़ी को सीज न किया जाए, फिर उनके आदेशों की अवहेलना क्यों की गई।

एक रिहायशी मकान में चल रही प्रताप विहार पुलिस चौकी एक सफेद हाथी मात्र है। लोगों को इस चौकी से अपनी सुरक्षा की कोई अपेक्षा नहीं है। रेजिडेंट्‌स वेलफेयर एसोसिएशन अपने दम पर अपनी दमड़ी खर्च करके प्राइवेट गाड्‌र्स से अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करती है। आए दिन होने वाली छोटी-मोटी चोरियों और चेन स्नेचिंग की भी रपट कोई लिखाने नहीं जाता क्योंकि पुलिस का रवैया सबको पता है। बल्कि ये कहें की पुलिस से सबका विश्वास उठ चुका है. यूपी पुलिस की नस्ल ही कुछ ऐसी है कि आतंकवादियों और गुंडा तत्वों के सामने घुटने टेकती है और सारी हेकड़ी आम लोगों पर जमाती है। महिलाओं पर लाठियां तब बरसाई गई हैं, जब कुछ दिन पहले गाजियाबाद के दौरे पर आईं मुखयमंत्री मायावती ये कहकर गईं थीं कि महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करना पुलिस की प्राथमिकता हो। वो तो मामला मीडिया से जुड़े लोगों का था, तो पुलिस इतना दब भी गई वरना क्या होता कह नहीं सकते। लेकिन कौन सुनता है तूती की नक्कारखाने में। इस तरह की सैकड़ों घटनाएं हर रोज घटती हैं, लेकिन पुलिस की कार्यशैली को सुधारने की कोई कोशिश नहीं की जाती। समझौता कराने आए सीओ सिटी ने ये तो माना कि पुलिस ने गलत काम किया है, लेकिन कार्रवाई के नाम पर उन्होंने कुछ नहीं किया। समझौते के अंत में उनका डायलॉग था- ''ये घटना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। इसका हमें भी गहरा दुख है।''

घटना की अधिक जानकारी इन नंबरों से ली जा सकती है-


पत्रकार तेजेश चौहान- ९७१८६२४७४४

चौकी इंचार्ज प्रताप विहार- ९४१०८५५८८८

थाना विजय नगर- ९४५४४०३४२८

Saturday, March 19, 2011

डॉ. राजीव दीक्षितः असमय शांत हो गई एक ओजस्वी वाणी

ऐसा कम ही होता है कि लोगों की जन्म तिथि और पुण्यतिथि एक हो। क्योंकि जिन लोगों का जन्म और देहांत एक ही दिन होता है वे महान आत्माएं होती हैं। ऐसी ही एक महान आत्मा हमारे बीच नहीं रही। जिसने अपनी तेजस्वी वाणी से भारत के कोने-कोने में स्वदेशी की अलख जगाई और अपने वाक कौशल से लोगों को अंदर तक झकझोर दिया, ऐसे डॉ. राजीव दीक्षित असमय काल का शिकार हो गए। ३० नवंबर १९६७ को उत्तर प्रदेश में अलीगढ़ जिले के अतरौली तहसील में जन्में राजीव दीक्षित ने ३० नवंबर २०१० को अचानक हार्ट अटैक हो जाने से छत्तीसगढ के भिलाई में अंतिम सांस ली। उस समय वे भारत स्वाभिमान ट्रस्ट के तत्वाधान में आयोजित भारत स्वाभिमान यात्रा पर थे।

स्वदेशी के प्रखर वक्ता और बाबा रामदेव के मार्गदर्शन में स्थापित भारत स्वाभिमान ट्रस्ट के राष्ट्रीय सचिव की जिम्मेदारी निभा रहे राजीव दीक्षित की शुरुआती शिक्षा ग्रामीण परिवेश में हुई। राधेश्याम दीक्षित के घर में जन्में डॉ. राजीव का शुरुआती जीवन वर्धा में व्यतीत हुआ। बेहद सरल और संयमी जीवन जीने वाले राजीव दीक्षित निरंतर साधना में लगे रहते थे। पिछले कुछ महीनों से वे लगातार गांव-गांव व शहर-शहर घूमकर भारत के उत्थान के लिए भ्रष्टाचार और स्वदेशी जैसे मुद्‌दों पर लोगों के बीच जनजाग्रति पैदा कर रहे थे। राजीव भाई वैज्ञानिक भी रहे उन्होंने डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम के साथ भी काम किया और फ्रांस के टेलीकम्युनिकेशन सेक्टर के अलावा भारत के सीएसआईआर में भी काम किया था।
 
राजीव दीक्षित पिछले २० सालों से बहुराष्ट्रीय कंपनियों और बहुराष्ट्रीय उपनिवेशवाद के खिलाफ व स्वदेशी की स्थापना के लिए संघर्ष कर रहे थे। वे मानते थे कि भारत पुनर्गुलामी की ओर बढ़ रहा है और इसे रोकना बहुत जरूरी है। उनकी प्रारंभिक व माध्यमिक शिक्षा फिरोजाबाद में हुई। फिर वे १९९४ में उच्च शिक्षा के लिए इलाहबाद चले गए। वे सेटेलाइट कम्युनिकेशन में उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहते थे, लेकिन अपनी शिक्षा बीच में ही छोड कर वे देश को विदेशी कंपनियों की लूट से मुक्त करने के लिए स्वदेशी आंदोलन में कूद पड े। शुरू में वे भगतसिंह, उधमसिंह और चंद्रशेखर आजाद जैसे महान क्रांतिकारियों से प्रभावित रहे। बाद में जब उन्होंने गांधी जी को पढ ा तो उनसे भी काफी प्रभावित हुए।


पिछले २० सालों में राजीव दीक्षित ने जो कुछ भी सीखा उसके बारे में लोगों को जागृत किया। भारतीय जनमानस में स्वाभिमान जगाने के लिए उन्होंने लगातार व्याखयान दिए। २० सालों में राजीव भाई ने तकरीबन १५ हजार से अधिक व्याखयान दिए। जिनमें से कुछ व्याखयानों की ऑडियो और वीडियो सीडी भी बनाई गईं। उनके व्याखयानों की सीडी लोगों के बीच खासी लोकप्रिय हैं। उन्होंने सबसे पहले देश में स्वदेशी और विदेशी कंपनियों की सूची तैयार की और लोगों से स्वदेशी अपनाने का आग्रह किया। उन्होंने पेप्सी और कोक जैसे पेय पदार्थों के खिलाफ आंदोलन चलाया और कानूनी कार्यवाही भी की। पिछले १० सालों से स्वामी रामदेव के साथ संपर्क में रहने के बाद ९ जनवरी २००९ को उन्होंने भारत स्वाभिमान की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली।
 
जब राजीव दीक्षित मंच से बोलते थे, तो सुनने वाले एकटक उनकी ओर देखते हुए उन्हें सुनते रह जाते थे। उनके भाषण में ऐसा सम्मोहन था कि बीच से उठकर जाना कठिन था। आवाज में ऐसा आकर्षण था कि कोई कहीं भी सुने तो खिंचा चला आए। ठोस तथ्यों के साथ वो अपनी बात को इतनी मजबूती और सहज ढंग से रख देते थे कि समझने के लिए दिमाग पर जोर डालने की जरूरत नहीं पड़ती। देश की कठिन से कठिन समस्या पर उन्होंने बेहद सरलता के साथ निदान दिए। कम ही लोगों को समझ आने वाला अर्थशास्त्र भी वे बेहद सरलता के साथ लोगों को समझा देते थे। यही कारण था कि लोगों को उनके रूप में देश का कर्णधार नजर आने लगा था। लेकिन ३० नवंबर २०१० को लोगों की इन उम्मीदों पर उस समय पानी फिर गया जब अचानक आए हार्ट अटैक ने डॉ. राजीव दीक्षित को हमसे छीन लिया। 

Friday, March 18, 2011

जनगणना में हिजड़ों की तरह नेताओं की भी अलग कैटेगरी में गिनती हो!!!


आज जब मेट्रो से ऑफिस जा रहा था, तो पास बैठे मेरे सहयात्री के हाथ में अंग्रेजी का एक प्रतिष्ठित अखबार था। सीट ग्रहण करते ही उन्होंने अखबार खोला और पहले पेज से मुखातिब हुए। मैंने सोचा चलो अपना भी जुगाड हो गया और अपन भी उनके अखबार में झांकने लगे। पहले पेज की पहली खबर सांसद रिश्वत कांड की थी। संसद भवन में हंगामे की तस्वीर और भारती राजनीति पर कालिख पोतती एक हेडलाइन। वैसे क्रिकेट वर्ल्डकप के चलते लोगों को खेल पृष्ठ आजकल ज्यादा भा रहा है, लेकिन मैंने देखा कि आसपास खड े दो और सज्जन  अखबार में झांक रहे थे और विकीलीक्स द्वारा खोले गए इस कथित रिश्वत कांड की खबर को पढने की कोशिश कर रहे थे। अब मुझे मिलाकर कुल चार लोग इस खबर को पढ रहे थे। क्योंकि अखबार अंग्रेजी का था तो इसका अर्थ था कि चारों पाठक औसत दर्जे से ज्यादा पढ े-लिखे थे। मेट्रो में उस समय भीड ज्यादा नहीं थी। मुझे लगा कि ज्यों ही हम चारों खबर को पढ लेंगे तो एक बहस शुरू होगी, और ये अच्छी बहस हो सकती है। मैंने इस आशा से बाकी के पाठकों से नजरें भी मिलाईं, उन्होंने भी मेरी ओर देखा। लेकिन ये क्या किसी की ओर से कोई टिप्पणी नहीं। उनमें से एक सज्जन बस मुस्कुरा भर दिए। अखबार वाले भाई साहब ने पन्ना पलटा और अगली खबरें पढ ने लगे, तीसरे सज्जन मेट्रो की बड ी-बड ी खिड कियों से बाहर के नजारे देखने लगे। तीनों पर उस खबर का कोई खास असर नहीं पड ा। उनके चेहरे पर एकदम निर्लिप्त भाव थे। बाकी बचा मैं, सो मैंने भी अपना मोबाइल निकाला और उसमें सॉलिटेयर गेम खेलने लगा। जीभ की खुजली नहीं मिट पाई। तमाम तरह की बातें जुबान पर आकर ही रह गईं।
 
मेरे लिए ये एक परिवर्तन जैसा था। पहले लोग खबरों पर कमेंट जरूर देते थे। राजनीतिक बहस अगर शुरू हो जाए तो फिर बघिया उधेड़ कर रख देते थे। ट्रेनों और बसों में ऐसे पॉलिटिकल डिस्कशन होते थे मानो संसद का सदन हों। वैसे काफी समय से जनरल डिब्बे में सफर नहीं किया, लेकिन पिछले दिनों स्लीपर क्लास से लखनऊ गया था, उसमें भी एक अजीब सी खामोशी पसरी हुई थी। आपस में कोई डिस्कशन नहीं। जो परिवार के साथ थे बस वे अपने परिवार वालों से बात कर रहे थे। बीच-बीच में या तो किसी के बच्चे के रोने की आवाज आ रही थी या रेल के डिब्बे की संकरी गली में चाय-पानी बेचते फेरी वालों की पुकारने की आवाज।
 
अब अगर कोई ये कहे कि लोग एकांकी हो गए हैं या उनके अंदर का मिलनसार भाव खत्म हो रहा है या वे बेकार की बहस में पड़ना नहीं चाहते तो सही नहीं होगा। कितना भी विकास क्यों न हो गया हो, भारतीय समाज अभी निष्ठुर नहीं हुआ है। उसके अंदर का मिलनसार भाव अभी भी जीवित है। अगर समाज में राजनीतिक बहसें खत्म हो रही हैं जो उसका एक मात्र कारण यही है कि लोग अब राजनीति को बहस के लायक नहीं समझते। सुबह से शाम तक न्यूज चैनलों पर बहस ही बहस सुनाई देती है। लेकिन किसी बहस का कोई नतीजा निकलता नजर नहीं आता। सारे गणमान्य नेतागण अपनी ढपली और अपना राग आलाप रहे हैं। किसी नेता की बात में अब इतना दम बचा नहीं है कि लोग उसका विश्वास करे। एक-एक करके हमाम में सब के सब नंगे नजर आए। ९० के दशक राजनीतिक उथल-पुथल और अस्थिरता का दशक रहा। उस समय भाजपा ने लोगों को सुराज का सपना दिखा रखा था। लेकिन १९९८ में बनी भाजपा की गठबंधन सरकार भी वैसा कुछ खास कर नहीं पाई जैसी लोगों को उम्मीद थी। लोगों के हिस्से में केवल बातें और आश्वासन ही आए। हम देश को अच्छा शासन दे रहे हैं इस बात को सिद्ध करने के लिए सरकारें को विज्ञापनों और होर्डिंग्स का सहारा है। लेकिन अगर शासन वास्तव में अच्छा होता तो वो लोगों को खुद-ब-खुद नजर आता। फिर ढोल पीटने ही जरूरत नहीं पड ती। नौबत यहां तक आ गई है कि सरकार के १०० दिन पूरे करने पर जश्न, छह महीने पूरे करने पर जश्न, एक साल पूरा करने पर जश्न, मानो सरकार में बैठे लोगों को ये उम्मीद ही न रही हो कि सरकार इतने दिन चल भी जाएगी। एक पार्टी भी ऐसी नहीं बची है जो कोई राजनीतिक आदर्श स्थापित करती दिख रही हो। इस बहुदलीय व्यवस्था में पूरी राजनीति आरोप-प्रत्यारोप, लाल-नीली बत्ती, दल-बदल और दलाली तक सिमट कर रह गई है।
 
घोटाले और भ्रष्टाचार भारतीय लोकतंत्र का अभिन्न अंग बन चुके हैं। अब कोई घोटाला या रिश्वत कांड खुलने पर लोगों को अचंभा नहीं होता। लोग ये मानकर चल रहे हैं कि सफेद खादी में घूम रहा एक भी आदमी विश्वसनीय नहीं है। जिन लोगों के दामन साफ लग रहे हैं ये महज संयोग मात्र है, उसका किसी सच्चाई या वास्तविकता से कोई ताल्लुक नहीं है। अगर फिर भी कोई नेता ईमानदार पाया जाता है तो फिर वह नेता नहीं कुछ और है। जनगणना में इस बार जिस तरह हिजड़ों की अलग कैटेगरी में गिनती हो रही है, उसी तरह नेताओं के लिए भी अलग से एक कैटेगरी बनानी चाहिए। नेताओं को आम जनता के साथ गिनना, सरासर आम लोगों का अपमान है। इसके लिए लोगों को आवाज बुलंद करनी चाहिए। लेकिन लोगों ने राजनीति पर ऐसी खाक डाल दी है कि वे राजनीति से उम्मीद ही छोड े बैठे हैं। अगर यही आलम रहा तो चुनावों में वोटिंग प्रतिशत घटता चला जाएगा और वह दिन ज्यादा दूर नहीं नजर आ रहा।

Thursday, March 17, 2011

बाबा रामदेव की हुंकार!!!!!

  २७ फरवरी को बाबा रामदेव के नेतृत्व में दिल्ली के रामलीला मैदान में भारत स्वाभिमान ट्रस्ट के बैनर तले भ्रष्टाचार के खिलाफ आयोजित विशाल रैली देश की राजनीति को कई संदेश दे गई। विभिन्न धर्मों, सम्प्रदायों और मतों के लोग एक मंच पर थे और देश की नाकारा राजनीति को एक चेतावनी दे रहे थे। सभी राजनीतिक पार्टियों में खलबली है। सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी इसलिए डर रही है क्योंकि बिगुल भ्रष्टाचार के खिलाफ बजाया गया है और विपक्षी भाजपा इसलिए डर रही है कि बाबा ने सही मायने में धर्म को राजनीति से जोड़ दिया है। लोगों को लगने लगा है कि अब बातों और नारों की राजनीति नहीं होगी बल्कि धरातल की राजनीति का समय आ गया है। रामलीला मैदान का वो दृश्य देश की आवाम में आशा की किरण जगाने वाला था।

मेंढकों को तौल दिया
यूं तो भारत स्वाभिमान ट्रस्ट बाबा रामदेव के नेतृत्व में पिछले एक वर्ष से भारत स्वाभिमान यात्रा पर निकला हुआ था। दिल्ली के रामलीला मैदान में इस यात्रा की पूर्णाहुति थी। रामलीला मैदान के उस विशाल मंच से दिन तमाम समाजसेवी, पूर्व प्रशासनिक अधिकारी, कूटनीतिज्ञ और विभिन्न धर्मों के संतों ने संबोधित किया। ये वे लोग थे जिनको एकसाथ एक मंच पर लाना नामुमकिन था। अपने-अपने क्षेत्र में अपनी-अपनी तरह से सुधार के प्रयास कर रहे ये लोग शायद ही कभी एकसाथ आए हों। ये एक तरह से छोटी-छोटी नदियों द्वारा एक स्थान पर संगम होकर सागर रूप था। दरअसल अच्छाई के लिए अच्छा काम कर रहे लोगों और उनके संगठनों में एक बुराई आमतौर पर पाई जाती है और वह है- ''ईगो प्रॉब्लम''। अच्छे लोगों के अहम इस कदर टकराते हैं कि उनको एकसाथ जोड़ना नामुमकिन जैसा ही है। कहीं निजि हित आड े आते हैं तो कहीं मान-सम्मान। यही कारण है कि देश में सुधार के प्रयास तो हमेशा से ही किए जा रहे थे, लेकिन वे बिखरे हुए थे। लेकिन देश के हालातों से ईमानदार और सज्जन व्यक्ति त्रस्त है और था। सबके मन में एक चाह समान रूप से हिलोरे ले रही है कि देश की सूरत सुधरनी चाहिए। भारत स्वाभिमान ट्रस्ट ने देश में सुधार के लिए काम कर रहे तमाम संगठनों और उनके नेताओं को एक मंच पर बुलाकर मेंढकों को तौलने जैसा काम किया है, जो अब से पहले कभी नहीं हुआ था। ये बाबा रामदेव के विनम्र प्रयासों का ही नतीजा था कि आर्यसमाज के स्वामी अग्निवेश और गांधीवादी अन्ना हजारे के साथ-साथ तमाम ऐसी विभूतियां रामलीला मैदान में जुटीं जो अलग-अलग क्षेत्रों में सुधार के लिए अलग-अलग प्रयास कर रही हैं। उनमें भारत स्वाभिमान आंदोलन के अगुआ और पूर्व भाजपा नेता केएन गोविंदाचार्य, प्रखयात अधिवक्ता रामजेठमलानी, किरण बेदी, अरविंद केजरीवाल, विजय कौशल जी महाराज, सुब्रमण्यम स्वामी, मौलाना मकसूद हसन, विश्वबंधु गुप्ता, कवि गजेंद्र सोलंकी और हरिओम पंवार जैसे लोग शामिल थे।
 
प्रचीन शासन व्यवस्था
भारत की प्रचीन शासन व्यवस्था ऐसी ही थी जिसमें शासक संतों और मुनियों से मार्गदर्शन में प्रजापालन का कार्य करते थे। राम और वशिष्ठ से लेकर चंद्रगुप्त और चाणक्य तक सभी सफल शासन व्यवस्थाओं में संतों के मार्गदर्शन ने न्यायपूर्ण और खुशहाल प्रजापालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लेकिन हमने भारत में भारतीय दर्शन पर आधारित शासन व्यवस्था न अपनाकर विदेश से आयातित शासन व्यवस्था को अपनाया। हमने वो नहीं अपनाया जो हमारे लिए उपयुक्त था, बल्कि हमने वो अपनाया जो दूसरों के लिए उपयुक्त था। आजादी के ६५ साल बाद आज इसका परिणाम हमारे सामने है। देश में व्याप्त बुराइयों और समस्याओं का जिक्र करने की जरूरत नहीं है। आम लोगों का पैसा पिछले ६५ सालों से भ्रष्टाचार की बेदी पर बदस्तूर चढ़ रहा है। सबसे बड े लोकतंत्र में लोगों के पास कोई विकल्प नहीं है। चोट्‌टों की फौज खड ी है उनमें से या तो उनको उसे चुनना है जो कम चोर है या फिर उसे चुनना है जो उनकी जाति और धर्म की बात करता है। २१वीं सदी में भी हम जाति और धर्म के आधार पर वोट डाल रहे हैं। आज ऐसा कोई नहीं जो देश की बात करे, जो भारत की बात करे। कोई मराठों की बात करता है, कोई तमिलों की, कोई बंगालियों तो कोई तेलंगाना की, कोई दलितों की बात करता है तो कोई ओबीसी। भारत और भारतीयों की बात करने वाला कोई नहीं। अंग्रेजों की डिवाईड एंड रूल का सिद्धांत जस का तस चला आ रहा है।
 
धार्मिक राजनीति बनाम राजनीतिक धर्म
कुछ राजनीतिज्ञ कह रहे हैं कि बाबाओं का राजनीति में आना ठीक नहीं है। जबकि प्राचीन भारतीय राज व्यवस्था के हिसाब से संतों ने सदा सत्ता का मार्गदर्शन किया। संतों का मार्गदर्शन इसलिए सर्वोच्च और सर्वमान्य था क्योंकि वे बिना किसी स्वार्थ और बिना किसी निजि हित को ध्यान में रखे प्रजा की भलाई के निर्देश देते थे। बाबा रामदेव ने अपना सफर समाज में योग की चिंगारी से किया, जो आज पूरे देश में ज्वाला बनकर जल रही है। गली मोहल्लों के पार्कों में लोग सुबह-सुबह योग करते दिख रहे हैं, स्कूलों ने योग की क्लास को अनिवार्य किया है। ये बाबा रामदेव ही थे जिन्होंने दवा कंपनियों के मकड़जाल से लोगों को छुड ाने के लिए देश को ''दवा मुक्त भारत'' का सपना दिखाया। जो लोग ये मानकर चलते थे कि दवा जीवन का अभिन्न अंग है उनको ये विश्वास दिलाया कि जीवन शैली बदलो और जीवनभर बिना दवा खाए जियो। लोगों ने अपने जीवन में उतारा और सीधा-सीधा लाभ उठाया। बाबा रामदेव ने अब भ्रष्टाचार मुक्त भारत का सपना लोगों को दिखाया है। ये कोई धार्मिक उन्माद नहीं है। ये कोई धर्म की राजनीति नहीं है। उनको सभी धर्मों के लोगों को समर्थन प्राप्त है। उन्होंने किसी एक धर्म को दूसरे धर्म के प्रति उकसाया नहीं है। वे सबको साथ लेकर चलना चाहते हैं। यही कारण है कि धुर-विरोधी संगठन भी एक साथ उनके संग बैठे हैं। उनके साथ ब्यूरोक्रेसी भी है और टेक्नोक्रेसी भी, उनके साथ संत भी हैं और उनका सपना है अखंड भारत, संपन्न भारत और स्वस्थ भारत। और क्योंकि इस सपने को पूरा करने के लिए पॉवर सेंटर्स को हाथ में लेना जरूरी है इसलिए चुनाव लड ना एक मजबूरी है। लोगों को भारत स्वाभिमान से एक बड ी उम्मीद जगी है। भ्रष्ट पार्टियों की फौज में उनको अब एक विकल्प नजर आने लगा है। जो जाति और क्षेत्र की घटिया राजनीति नहीं करता।
 
लोकपाल और भ्रष्टाचार
पूरी रैली के दौरान भ्रष्टाचार और विदेश में जमा काले धन को वापस लाने का मुद्‌दा छाया रहा। भ्रष्टाचारियों की नाक में नकेल डालने के लिए ''इंडिया अगेंस्ट करप्शन'' द्वारा तैयार किया गया लोकपाल विधेयक पारित कराने के लिए भी पुरजोर मांग उठाई गई। हमारा सिस्टम ही कुछ ऐसा है कि आम जनता का करोड़ों डकारने के बावजूद भ्रष्ट लोग इस देश में खुले सांड की तरह पूरी ऐश से घूमते हैं। उनका बाल भी बांका नहीं होता। जबकि छोटा सा ट्रैफिक रूल तोड ने पर आम आदमी की हडि्‌डयां तक तोड दी जाती हैं। इस विधेयक का प्रारूप कुछ ऐसा है कि अगर ये पारित हुआ तो भ्रष्टाचारियों की नींद उड जाएगी। कोई भी भ्रष्ट आचरण करने से पहले सौ बार सोचेगा। इस विधेयक को पारित कराने के लिए गांधीवादी अन्ना हजारे ने अप्रैल के प्रथम सप्ताह में ''अनशन'' पर जाने की घोषणा की है। अगर भारत सरकार नहीं चेती तो वे आमरण अनशन पर बैठ जाएंगे। आजादी के ६५ सालों में से ५५ साल तक केंद्र में एक ही पार्टी का राज रहा है। ये वही पार्टी है जिसके साथ महात्मा गांधी के सपने जुड े थे। लेकिन सत्ता महारानी मिलते ही गांधी के अनुयाइयों ने गांधी के विचारों का बलात्कार कर उनकी हत्या कर दी। उन्होंने विश्व को दिखाने के लिए गांधी का मुखौटा लगा लिया। गांधी को ५०० के नोट पर चस्पा कर दिया, भाषण में बोलने के लिए गांधी की उक्तियां रट लीं, लेकिन गांधी के विचारों को न तो अपने जीवन में उतारा और न शासन व्यवस्था में। लोग यहां तक त्रस्त हैं कि ये भी कह दिया जाता है कि इससे तो हम गुलाम ही अच्छे थे। इससे दुखद स्थिति कुछ नहीं हो सकती।
 
अनुयायियों पर है जिम्मेदारी
बाबा रामदेव देश के लिए जो सपना लेकर चल रहे हैं, उसको पूरा करने में भारत स्वाभिमान ट्रस्ट और उनके अनुयायियों पर महत्वपूर्ण भूमिका है। जो शुद्ध भावना बाबा रामदेव लेकर चल रहे हैं, वही शुद्ध भाव उनके अनुयायियों को भी अपनाना होगा। अगर यहां भी पद का लोभ और चुनावी टिकट की लालसा हिलोरें मारने लगी तो यहां भी हाल वही होगा जो गांधी और कांग्रेस का हुआ। सभी के समक्ष केवल एक ध्येय होना चाहिए कि ''राष्ट्र प्रथम बाद में हम''। किसी भी महान विचार को सबसे ज्यादा नुकसान उसके विरोधी नहीं बल्कि उसके अनुयायी पहुंचाते हैं। चाहे वह गांधी का विचार हो या संघ का विचार। गांधी की कांग्रेस ने सत्ता मिलते ही गांधी के जीवन और उनके विचार को छोड़ दिया। भाजपा ने भी सत्ता मिलते ही संघ के भारतीय मॉडल को भुला दिया और फाइव स्टार कल्चर अपना लिया। सात साल के अंदर ही भाजपा घुटनों पर आ गई। अब वही भारतीय विचार बाबा रामदेव लेकर आए हैं। उनके लाखों-करोड ों अनुयायी हैं, लेकिन देखना ये होगा कि जब सही समय आएगा तब वे बाबा रामदेव के विचारों का खयाल रखते हैं कि नहीं।

एकला चलो
भारत स्वाभिमान को बस इतना खयाल रखना है कि किसी भी राजनीतिक दल से हाथ नहीं मिलाना है। क्योंकि सब के सब चोर हैं। कोई ज्यादा चोर है तो कोई कम चोर है और सबके सब घबराए हुए हैं। उनकी कोशिश भी रहेगी, कि भारत स्वाभिमान के साथ हाथ मिला लिया जाए। अगर देश को लूटने वाले इन दलों के साथ भारत स्वाभिमान ने हाथ मिला लिया गया तो फिर कोई फर्क नहीं रह जाएगा। केवल गुरुदेव की ''एकला चलो'' की नीति अपनानी होगी।

Tuesday, March 8, 2011

दर्शन

पिछली बार जब अयोध्या गया था तो राम जन्मभूमि के दर्शन नहीं किये थे. कनक भवन में ही राम लला से कह दिया था कि जब आप खुद ही टीन-टप्पर के नीचे बैठे हो तो मैं कैसे दर्शन करूँ. उस अस्थाई और जीर्ण से मंदिर में मैं आपके दर्शन नहीं कर पाउँगा. अपने लिए मंदिर की व्यवस्था करो फिर आकर दर्शन करूँगा. और मैं कनक भवन और हनुमान गढ़ी के दर्शन करके ही लौट आया था. ये बात थी मई २०१० की और सितम्बर २०१० में ये इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला  आ गया कि राम जन्मभूमि वही हैं जहाँ राम लला विराजमान हैं. मन को थोड़ी शांति मिली कि चलो जो भगवान सबका फैसला करता है उस भगवान का आज इंसानों ने फैसला कर ही दिया. जो राम अखिल ब्रह्माण्ड नायक हैं उनको वो ज़मीन का टुकड़ा देने का फैसला सुना दिया गया जिस पर वो प्रतिमा रूप में विराजमान हैं. भले ही इस फैसले में अभी भी पेच फंसे हैं लेकिन पहली बार अदालत ने माना तो सही.  मैंने तो उस समय सिर्फ इसलिए दर्शन नहीं किये थे क्योंकि मैं अपने आराध्य को उस दशा में देखना नहीं चाहता था. लेकिन इतनी जल्दी और इस तरह का फैसला आ जायेगा ये नहीं सोचा था, क्योंकि भारतीय लोकतंत्र बड़ा अजीबो-गरीब टाइप का है. यहाँ सत्ता के लिए छद्म रूप में तरह तरह के छल होते रहते हैं. सो, फैसला आने के बाद ही सोच लिया कि अब तो राम जन्मभूमि के दर्शन करना बनता है. १६ फ़रवरी को शादी का कार्ड देने के बहाने अयोध्या जाने का प्रोग्राम बन ही गया. पिछली बार के अनुभव लखनऊ में दिव्य जी के  साथ शेयर किये थे, तो उन्होंने भी उस समय मेरे साथ अयोध्या चलने की इच्छा जताई थी. सो इस दफै अपने साथ उनका भी लखनऊ से रिजर्वेशन करा लिया. ये मैं एक तरह से वादा भी निभा रहा था और दिव्य जी पर इमोशनल अत्याचार भी कर रहा था क्यूंकि सद्भावना एक्सप्रेस रात के तकरीबन ३:०० बजे लखनऊ पहुँचती है जिसको पकड़ने के लिए दिव्य जी को फरवरी की सर्दी सहते हुए कम से कम रात के १:०० बजे अपने घर गोमती नगर से स्टेशन के लिए निकलना पड़ता. मैंने रिजर्वेशन करा तो दिया लेकिन अन्दर ही अन्दर अपराध बोध भी सता रहा था. मुरादाबाद से ट्रेन पकड़ते वक़्त में शाम को दिव्य जी को फ़ोन तो कर दिया लेकिन सर्दी को देखते हुए आने के लिए बहुत जोर नहीं दिया और दिव्य जी ने भी जैसी राम जी इच्छा कहकर फ़ोन रख दिया. रात को कई बार उठकर देखा कि कहीं लखनऊ तो नहीं आ गया. लेकिन हर बार ट्रेन को अन्य जगह खड़ा पाया. फिर जब मेरी आँख खुली तो ट्रेन लखनऊ स्टेशन पर खड़ी थी. मैंने अपना मोबाइल चेक किया न कोई मैसेज न कोई मिस कॉल. और मैं फिर सो गया, सोचा दिव्य जी ने बारिश और ठण्ड की वजह से प्रोग्राम चेंज कर दिया होगा. सुबह अयोध्या पहुँच कर ही फ़ोन करूँगा. फिर जब आँख खुली तो फैजाबाद आने वाला था. अब अयोध्या दूर नहीं थी. सो उठकर मुंह हाथ धोकर सामान सेट करने लगा और मोबाइल उठाया तो उस पर एक मैसेज पड़ा था. खोला तो दिव्य जी का मैसेज था- "सचिन, आई ऍम एट ३६/एस-५" पढ़ते ही बर्थ से उछल पड़ा. दिव्य जी आकर अपनी बर्थ पर लेट भी गए और मैं उनको रिसीव भी नहीं कर सका. दरअसल उनकी बर्थ मेरी बर्थ से थोड़ी दूर थी. मैं कूदकर ३६ नंबर बर्थ पर पहुंचा. देखा तो दिव्य जी चद्दर ओढ़े सो रहे थे. सोचा उठाना ठीक नहीं, रात में चलें हैं, नींद पूरी भी नहीं हुयी होगी. और वापस अपनी बर्थ पर आ गया. ५ मिनट बैठा ही था कि मन नहीं माना. अब जब इतने परेशान हुए हैं तो थोडा और सही. पौन घंटे का  सफ़र बचा है, इतनी देर में तो बहुत साड़ी बातें हो जाएँगी. और मैं फिर उनके पास पहुँच गया और उनको उठा ही दिया. राम राम हुयी, फिर पूछा सर क्या सोने का मन है. बोले- "हाँ है तो". मैंने कहा "पर अब ज्यादा देर का सफ़र नहीं बचा है नींद पूरी नहीं हो पायेगी. मेरी बर्थ पर ही आ जाइये वही लेट जाइएगा". और मैं उनका छोटा सा बैग लेकर अपनी बर्थ पर आ गया. और उनसे लेटने को कहा. लेकिन अब वो भी कहाँ लेटने वाले थे. चद्दर ओढ़कर बैठ गए और बातों का सिलसिला शुरू हो गया. बतियाते-बतियाते अयोध्या आ गयी.

अयोध्या पहुंचकर ठहरने कि व्यवस्था की और दर्शनों के लिए निकल पड़े. जो रिक्शेवाला स्टेशन से पकड़ा था वही कहने लगा कि दर्शन वगैरह सब करा दूंगा आधे दिन के लिए बुक कर लो. उस रिक्शे की शाही सवारी पर मैं और दिव्य जी अयोध्या भ्रमण पर निकल पड़े. सबसे पहले पहुंचे सरयू जी तट पर, होटल में नहाने के बाद निर्णय लिया था कि सरयू जी में एक बार और स्नान किया जायेगा. लेकिन जब तट पर पहुंचे तो दिव्य जी को ध्यान आया कि कपड़ों की थैली तो होटल में ही भूल आये हैं. खैर उन्होंने सरयू जी के जल से आचमन कराया और कुछ जल के छींटें दिए. वहां से निकलकर बह्ग्वान शिव के दर्शन किये और जल चढ़ाया. तब हमारे रिक्शेवाले ने बताया कि जन्मभूमि मंदिर जल्दी बंद हो जाता है, पहले वहीं दर्शन कर लिए जाएँ. सो हम अपने सारथी के साथ सीधे जन्मभूमि की तरफ बढ़ लिए.  प्रवेश द्वार पर दर्शनार्थियों से ज्यादा वर्दीधारियों की भीड़ थी. चौकसी ऐसी कि परिंदा भी पर न मार सके, लेकिन हाँ बंदरों को रोकने में नाकाम थी, जो बार-बार प्रसाद की थैली पर आक्रमण कर रहे थे. हमारी जेबों में रखा एक-एक सामान निकलवा लिया गया सिवाय धन के. मोबाइल, बेल्ट, कंघा, पेन-ड्राइव, पेन, पेंसिल हर चीज़. इसके बाद खाकी वर्दी ने अपने हाथों से शारीर की कुछ इस तरह तलाशी ली कि एक-एक अंग छू कर देख लिया. वो भी एक जगह नहीं तीन-तीन जगह. मंदिर पर हमला तो आतंकवादियों ने किया था खामियाजा आम जनता को भुगतना पड़ रहा है. ऐसी तलाशी जीवन में पहले एक ही बार हुई थी जब हम संसदीय रिपोर्टिंग सीखने के लिए अपनी क्लास पूरी क्लास के साथ माननीयों के क्रियाकलाप देखने के लिए संसद भवन गए थे. उस दिन भी पक्ष-विपक्ष का झगडा चल रहा था. ये पक्ष-विपक्ष का झगडा ही तमाम झगड़ों की जड़ है. खैर तलाशी के बाद जब अन्दर दाखिल हुए तो ऐसा लगा मानों किसी छावनी में आ गए हों. मंदिर कम और युद्ध का बोर्डर ज्यादा लग रहा था.  दुःख हुआ, कि प्रभु आपके दर्शन करने के लिए क्या-क्या झेलना पड़ रहा है. बख्तरबंद गाड़ी कि तरह एक जाल से ढका हुआ संकरा सा मार्ग था जिसमें से होते हुए मैं और दिव्य जी उस अस्थाई मंदिर तक पहुंचे. दूर से ही राम लला के दर्शन किये और फिर बहार की ओर चल दिए. कुछ देर तक उन परिस्थितियों के बारे में सोचकर अजीब सा लगता रहा. लेकिन फिर "होइहि वही जो राम रचि रखा..." सोचकर आगे चल दिए. प्रभु से इस प्रार्थना के साथ कि अगली बार आयेंगे तब तक भगवान को अपने स्थान पर एक मंदिर और अयोध्या को एक बेमिसाल पर्यटक स्थल मिल जायेगा.