मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

कर्ण बनाम अर्जुन और केजरीवाल बनाम मोदी!

महाभारत में कर्ण और अर्जुन के भयंकर युद्ध पर बड़े-बड़े महारथियों की नजर थी। समस्त योद्धा इन दो महारथियों को भिड़ता देखना चाहते थे। नियत समय पर इन दोनों का युद्ध हुआ। अर्जुन और कर्ण दोनों एक से बढ़कर एक थे। एक गुरु द्रोण का शिष्य तो एक भगवान परशुराम का। युद्ध के दौरान अर्जुन के बाणों के प्रहार से कर्ण का रथ कई गज पीछे खिसक जाता और कर्ण के बाण से अर्जुन का रथ हथेली भर ही पीछे खिसकता। लेकिन भगवान कृष्ण कर्ण की प्रशंसा करते। इस पर अर्जुन ने हैरान होकर प्रशंसा का कारण पूछा तो भगवान कृष्ण ने बताया कि कर्ण के रथ पर तो केवल कर्ण और उसके सारथी शल्य का ही भार है, लेकिन तुम्हारे रथ पर स्वयं हनुमान जी विराजमान है, इसके अलावा मेरे अंदर तीन लोक का भार और तुम्हारे रथ के पहियों पर शेषनाग भी लिपटे हुए हैं। फिर भी कर्ण के बाण द्वारा रथ को हथेली भर खिसका देना प्रशंसनीय है। यह जानकर अर्जुन ने भी मन ही मन कर्ण की प्रशंसा की।

आज के राजनीतिक महाभारत में नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल के बीच भी कर्ण और अर्जुन जैसी स्थिति बनी हुई है। एक गोलवलकर का शिष्य है तो एक अन्ना हजारे का। मोदी और केजरीवाल दोनों अपने-अपने क्षेत्र में महारथी हैं। लेकिन जहां नरेंद्र मोदी के पीछे एक मजबूत आधार वाली भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टी, आरएसएस और पूरा काॅरपोरेट जगत खड़ा है। उनकी रैलियों में जो हुजूम उमड़ रहा है उस सफलता के पीछे बहुत बड़ा धन और जन का तंत्र काम कर रहा है। तब कहीं जाकर मोदी की सफलता नजर आती है। इस सबकी तुलना में केजरीवाल की सफलता को देखा जाए तो वह प्रशंसनीय लगती है। एक बिना कैडर की पार्टी ने दिल्ली के जन-जन तक अपनी पहुंच बनाई। उनका विश्वास जीता। आप के किसी भी नेता के पास अच्छी भाषण शैली नहीं थी, फिर भी लोगों को उनकी बात सच्ची लगी। केजरीवाल के पीछे मोदी की तरह न तो उतना बड़ा जनबल है और न धनबल। फिर भी उन्होंने दिल्ली में बहुत बड़ी सफलता हासिल की।

लेकिन महाभारत में अंतिम विजय अर्जुन को मिली। कर्ण को उसके गुरु ने श्राप दिया था कि उसकी विद्या तब उसके काम नहीं आएगी जब उसे उसकी सबसे ज्यादा जरूरत होगी। युद्ध के दौरान वही हुआ और कर्ण की हार हुई। अब 2014 के महाभारत में अंतिम विजय किसको मिलेगी ये देखना होगा। वैसे दिल तो अरविंद केजरीवाल ने भी अपने गुरु (अन्ना हजारे) का दुखाया है!!!

रविवार, 8 दिसंबर 2013

आम आदमी की ताकत

चार राज्यों में झन्नाटेदार हार का सामना करने के बाद कांग्रेस के युवराज ने कहा- ’’शायद हम आम लोगों को अपने साथ नहीं जोड़ पाए। लेकिन अब हम कांग्रेस के साथ भी आम लोगों को जोड़ेंगे, और इस तरह जोड़ेंगे कि आपने सोचा भी नहीं होगा’’।

यहां सवाल यही उठता है कि इतनी करारी हार के बाद राहुल को आम आदमी की सुध क्यों आई। जब गली-गली, गांव-गांव घूमकर देश की नब्ज को समझ रहे थे, तब उनको समझ क्यों नहीं आया कि आम आदमी इस व्यवस्था से कितना आजिज आ चुका है। राहुल गरीब कलावती के घर पर रात बिताने के बाद भी उसके दर्द और जरूरतों को नहीं समझ पाए। कलावती के घर से लौटकर उन्होंने लंबा-चैड़ा भाषण तो दिया लेकिन सरकार में होते हुए भी कोई ऐसा ठोस कदम नहीं उठा पाए कि देश की सैकड़ों कलावतियों का भला हो। 

बस्तर की नक्सली हिंसा में तकरीबन 27 लोग मारे गए। कांग्रेस ने सहानुभूति भुनाने के लिए उस हमले में मारे गए नेताओं के परिजनों को तो चुनाव लड़ने के लिए टिकट दिए, लेकिन कांग्रेस को ये ख्याल नहीं आया कि उन शहीद जवानों के परिजनों को भी टिकट दिए जाने चाहिए, जिन्होंने उन नेताओं की सुरक्षा करते हुए जान गंवाई। बल्कि ये काम बीजेपी भी कर सकती थी। लेकिन दोनों में से किसी पार्टी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। यही अंतर है आम आदमी पार्टी और दूसरी पार्टियों की सोच में। आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में खालिस आम लोगों को टिकट दिए, उन युवाओं को मौका दिया जो अभी राजनीति का ककहरा भी नहीं जानते। आम आदमी पार्टी के नवनिर्वाचित विधायकों में से अधिकांश को भाषण देना भी नहीं आता। खुद केजरीवाल भी धाराप्रवाह नहीं बोल पाते। लेकिन फिर भी लोगों ने उन्हें जिताया। उसके पीछे बड़ा कारण यही है कि अब लोगों को भाषण देने वाला नहीं काम करने वाला नेता चाहिए। भाषण तो लोग पिछले 67 सालों से सुनते चले आ रहे हैं। उन भाषणों ने उनके जीवन को नहीं बदला। 

बस इतनी सी बात राहुल गांधी को समझनी होगी। अगर समझ गए तो आगे का रास्ता आसान हो जाएगा।

हार के बाद राहुल गांधी मीडिया के सामने दावा कर रहे थे कि वो किसी चमत्कारिक रूप से आम लोगों को कांग्रेस से जोड़कर दिखाने वाले हैं। उनका ये दावा बेहद संदेहास्पद है, क्योंकि ऐसा करने के लिए उन्हें कांग्रेस का पूरा कल्चर बदलना पड़ेगा। उन्हें उस बूढ़े फकीर के पास फिर से लौटना पड़ेगा जिसका ‘सरनेम’ वो आज तक इस्तेमाल कर रहे हैं। हो सकता है कि राहुल गांधी के मन की भावना अच्छी हो, लेकिन उस भावना को वो पिछले दस साल में कांग्रेस पर परिलक्षित नहीं कर पाए। दस साल की यूपीए सरकार ने देश को रिकाॅर्ड तोड़ भ्रष्टाचार, घोटाले और महंगाई की मार दी। खाद्य पदार्थों में जो महंगाई आई वो पूरी तरह आर्टिफिशियल थी और बाजारी ताकतों द्वारा पैदा की गई थी। उसका फायदा न तो किसान को मिल रहा था और न आम आदमी को। उसका लाभ केवल बिचैलिए और जमाखोर उठा रहे थे। कांग्रेस का नेतृत्व अपनी आंखों के सामने यह सब होता देखता रहा और देख रहा है। केवल मुफ्तखोरी की योजनाएं चलाने से देश और लोगों का भला कभी नहीं हो सकता। योजनाओं का असली लाभ तो किसी और की ही जेब में पहुंचता है। लोगों का भला तो उनको आत्मनिर्भर बनाने से ही होगा।

बहरहाल, इस कारारी हार के बाद राहुल गांधी को अगर आत्मविश्लेषण करना ही है तो एक महीने तक अपनी सलाहकार समिति से दूर रहकर केवल महात्मा गांधी का साहित्य पढ़ें। शायद उनको 2014 के लिए कोई दिशा मिले, अन्यथा लोगों ने अपने इरादे इन चुनावों में जता ही दिए हैं।

शनिवार, 16 नवंबर 2013

सचिन-सचिन-सचिन

नजर-नजर में उतरना कमाल होता, नफस-नफस में बिखरना कमाल होता है,
बुलंदियों पर पहुंचना कोई कमाल नहीं, बुलंदियों पर ठहरना कमाल होता है।

सचिन तेंदुलकर देश के ऐसे सितारे हैं, जो ध्रुव तारे की तरह बुलंदी पर इस तरह स्थापित हुए कि अपना स्थान हमेशा-हमेशा के लिए पक्का कर लिया। ऐसा खेल खेला कि भारत में क्रिकेट नया धर्म बन गया और भारतीयों ने खुद उन्हीं को इस नए धर्म के भगवान बना दिया। धर्म भी ऐसा कि आज क्रिकेट सारे धर्मों के सिर चढ़कर बोलता है। इसीलिए जब आज मंुबई में क्रिकेट का भगवान विदाई ले रहा था तो भक्तों की आंखों में आंसू थे। सचिन अपने जीते-जी अपने भक्तों को रुला कर चले गए और पिच को नमन करते हुए खुद भी रोए।

लेकिन क्रिकेट के माध्यम से जो मुकाम भारत में सचिन ने हासिल किया वैसा मुकाम देश के किसी भी क्षेत्र में शायद ही किसी को मिला हो। एक ऐसा मुकाम जहां आज सचिन का कोई विरोधी नहीं, सिर्फ प्यार ही प्यार, सम्मान ही सम्मान। राजनीति, कला, विज्ञान, अध्यात्म, काॅर्पोरेट किसी भी क्षेत्र को उठा कर देख लें, कहीं कोई ऐसी शख्सियत नजर नहीं आती जिसका विरोध या आलोचना न हो। लेकिन सचिन एकमात्र ऐसे शख्स हैं जो निर्विरोध सर्वोच्च शिखर पर स्थापित हुए हैं।

संन्यास का दिन सचिन के लिए बेहद खास रहा। क्रिकेट में ऐसी विदाई किसी भी खिलाड़ी को नहीं मिली। या यूं कहें कि कपिल देव और गावस्कर के जमाने में इलेक्ट्राॅनिक मीडिया इतना सशक्त नहीं हुआ करता था, जिसने सचिन की विदाई को एक इंटरनेशनल इवेंट में तब्दील कर दिया। खचाखच भरे वानखेड़े स्टेडियम ने ‘सचिन-सचिन’ के घोष के बीच मास्टर-ब्लास्टर को जबरदस्त भावुक विदाई दी। मैच के तुरंत बाद भारत सरकार द्वारा भारत रत्न प्रदान करने की घोषणा ने सचिन की विदाई में चार चांद लगा दिये। एक साथ इतनी सारी खुशियां या तो फिल्मों में ही देखने को मिलती हैं या फिर परियों की कहानियों में लेकिन विदाई दिन फिर साबित कर दिया कि वो वास्तव में खास हैं। उनकी उपलब्धियां गिनती से आगे निकल गई हैं, किसी इंसान के लिए अपने जीवन में इतनी सारी उपलब्धियां जुटाना नामुमकिन लगता है, इसीलिए सचिन को भगवान का दर्जा दे दिया गया। उनके उपलब्धियों को देखकर कभी-कभी लगता है कि ये दर्जा उन्हें सही दिया गया है। 

बुधवार, 21 अगस्त 2013

योजनाएं हैं योजनाआों का क्या?

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी के जन्मदिवस के मौके पर दिल्ली, हरियाणा और उत्तराखंड में खाद्य सुरक्षा योजना शुरू कर दी गई। ये कोई पहली योजना नहीं है जिसे सरकार ने आम लोगों के हितों को ध्यान में रखते हुए शुरू किया है। लेकिन इसके सामने भी वही पुराना सवाल मुंह बाय खड़ा है कि बाकी तमाम योजनाओं की तरह क्या इस योजना का लाभ भी आम आदमी तक पहुंच पाएगा?

ये योजना अच्छी है। पहली तमाम योजनाएं भी अच्छी थीं। पर अपना सरकारी सिस्टम ही कुछ ऐसा है कि योजनाओं का लाभ जरूरतमंद लोगों तक नहीं पहुंच पाता। देश के सर्वोच्च सत्ता केंद्र को देश की बुनियादी जरूरतों से जोड़ने के लिए अंग्रेजों ने जो सिस्टम इजाद किया था, उस सिस्टम में अब सड़ांध फैल चुकी है। सिस्टम सही है, लेकिन उसमें बैठे लोग या तो काम करना नहीं चाहते, या उनके पास सोच नहीं है, या फिर केवल मलाई मार रहे हैं।

दिल्ली में बैठे सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह ने आम लोगों तक जो सस्ता राशन पहुंचाने का सपना देखा है, वो अंततः राज्य सरकारों और उनके नीचे बैठे नौकरशाहों के माध्यम से आम लोगों तक पहुंचना है। सरकार तो योजना की घोषणा और उसके लिए धन मुहैया कराकर पल्ला झाड़ लेती है। और पूरी योजना जिला और तहसील स्तर पर बैठे नौकरशाहों के भरोसे छोड़ दी जाती है। और यहीं से शुरू होता है ऊपर से आने वाले धन का दुरुपयोग।

क्या इन योजनाओं को जमीनी स्तर पर लागू कराने में जनप्रतिनिधियों की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए? संसद में सांसद अपना चेहरा दिखाने के लिए विभिन्न योजनाओं पर जमकर बहस तो करते हैं, लेकिन अपने संसदीय क्षेत्र में योजना को लागू कराने में कभी कोई अग्रणी भूमिका अदा नहीं करते। क्या सांसदों और विधायकों को समय-समय पर विभिन्न योजनाओं का जायजा नहीं लेना चाहिए? लेकिन सारी की सारी योजनाएं जिला कलेक्टर के भरोसे छोड़ दी जाती हैं। अब या तो इसे जिला प्रशासन और जनप्रतिनिधियों के बीच की सेटिंग माना जाए या फिर जनप्रतिनिधियों की काहिली।

जमीनी स्तर पर लोगों तक विभिन्न योजनाओं का लाभ पहुंचाने में जनप्रतिनिधि बहुत बड़ा रोल अदा कर सकते हैं। भारतीय राजनीति का ढांचा भी ऐसा है जिसमें जनप्रतिनिधि के दायित्वों का दायरा बहुत बड़ा है। पर जनप्रतिनिधि कभी इस तरफ ध्यान देते नहीं देखे गए।

भारतीय राजनीति के साथ समस्या ये है कि पहले तो नेता सांसद बनने के लिए टिकट के लिए मारामारी करते हैं, ज्यों ही नेता जी सांसद बनते हैं तो मंत्री बनने की ताक में लग जाते हैं और अगर मंत्री बन गए तो सीधे प्रधानमंत्री बनने के सपने पालने लगते हैं। दरअसल एक विधायक और सांसद अगर चाह लें तो देश के बुनियादी स्तर पर बहुत बड़ा बदलाव ला सकते हैं। हर सांसद अपने संसदीय क्षेत्र के प्रधानमंत्री के रूप में काम कर सकता है और हर विधायक अपने विधानसभा क्षेत्र के मुख्यमंत्री के तौर पर। और अगर इस तरह से सांसद और विधायक काम कर ले जाएं तो शायद ही उनको कोई हरा पाए। पर उनके अंदर ये चाह कहीं नजर नहीं आती।

बड़े मंच पर खड़े होकर बातें बनाना जितना आसान है, उन बातों को हकीकत में बदलना उतना ही मुश्किल। देश का एक-एक गांव, तहसील और जिला अगर मजबूती के साथ खड़ा होता है तो देश अंदर से स्ट्रांग बनेगा। फिर सतही विकास के झंडे नहीं गाढ़ने पड़ेंगे। और ये तभी संभव है जब एक-एक सांसद, विधायक, मेयर, ब्लाॅक प्रमुख और ग्राम प्रधान अपनी-अपनी भूमिका समझें। पर इन लोगों को समझाना भी अपने आप में एक टेढ़ी खीर है।

मंगलवार, 20 अगस्त 2013

भारत मतलब हादसों का देश!

बिहार के खगडि़या के धमारा घाट स्टेशन पर हुई रेल दुर्घटना भारतीय रेल या भारत सरकार के लिए कोई नई बात नहीं है। आजादी के बाद के भारत को अगर हादसों का देश कहा जाए तो शायद ही किसी को ऐतराज हो। दुर्घटनाओं की फेहरिस्त बनाने लग जाएं तो आठ जीबी की पेनड्राइव में भी स्पेस कम पड़ जाए। दुर्घटनाएं हुईं, हो रही हैं और होती रहेंगी। देश के आम लोगों को मजबूत सुरक्षा मिलना अभी बहुत दूर की कौड़ी है। खगडि़या हादसे के बारे में अगर सरकारी चैनल की मानें तो दुर्घटना में 28 लोग मारे गए हैं, प्राइवेट चैनलों को सुनें तो 35 लोगों के मारे जाने की खबर है और अगर घटनास्थल पर लोगों की सुनें तो मृतकों की संख्या इस से भी कहीं ज्यादा है।

खैर, मृतकों की संख्या कितनी भी हो इससे सरकार की सेहत पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता। दरअसल सरकार तो ‘डिमांड एंड सप्लाई’ के फाॅर्मूले पर चलती है। देश की आबादी जरूरत से कहीं ज्यादा है, सो आम लोगों के मरने-खपने से कोई असर नहीं पड़ता। आम लोगों का दुर्भाग्य है कि उनका देश वो देश नहीं है, जहां एक-एक जान सरकार के लिए कीमती हो। जहां, लोगों की सुरक्षा के इंतजाम इतने पुख्ता हों, कि दुर्घटना की गंजाइश ही न हो। जहां एक भी जान जाने पर पूरा सरकारी तंत्र हिल जाता हो। जहां सिस्टम का रेस्पांस टाइम बहुत तेज हो। ये सब तो उन पश्चिमी देशों के इंतजाम हैं जिनकी नकल पर हमारी सरकार काम करती है। लेकिन नकल करते वक्त सरकार आम लोगों की सुविधा और सुरक्षा का पक्ष बड़ी सफाई से दरकिनार कर देती है और अपनी सहूलियत के हिसाब से चीजों को देश में लागू करती है।

खगडि़या की दुर्घटना पर बयान देते हुए बिहार के विकास पुरुष मुख्यमंत्री कह रहे थे कि घटना ऐसी जगह हुई है जहां पहुंचने के लिए रास्ते भी नहीं है। ये कहते हुए उनके चेहरे पर कतई संकोच नहीं था। यही कारण था कि मौके तक पहुंचने में एंबुलेंस पहुंचने में भी घंटों का वक्त लग गया। दिल्ली की चमचमाती सड़कों पर सफर करने वाले तो ये सोच भी नहीं सकते कि देश में ऐसे स्थान होंगे, जहां पहुंचने के लिए सड़कें भी न हों। लेकिन यही इस विकासोन्मुखी भारत की सच्चाई है। दिल्ली जैसे कुछ मेट्रोपाॅलिटन शहरों को चमकाकर सरकार विकास का ढिंढोरा पीटती फिरती है। जबकि हकीकत कुछ और ही है।

आजादी के 66 साल बाद भी सरकारी सुरक्षा इंतजाम ऐसे हैं कि छोटी-छोटी गलतियों के कारण बड़ी-बड़ी दुर्घटनाएं सामने आ रही हैं। और इन दुर्घटनाओं के बाद देश के प्रधानमंत्री दिल्ली से बेहद सरकारी टाइप बयान जारी करके दुख जता देते हैं। संबंधित मंत्रालय और राज्य अपनी-अपनी तरफ से मुआवजा राशि घोषित कर देता है। सालों से यही प्रथा चली आ रही है और आगे भी चलती रहेगी। सुरक्षा इंतजामात पुख्ता बनाने की दिशा में कोई ठोस रणनीति नजर नहीं आती।

अगर भारतीय रेल की ही बात करें तो राजधानी दिल्ली के दोनों स्टेशनों की सुरक्षा में इतने छेद हैं कि आतंकी जब चाहें किसी भी घटना को अंजाम दे सकते हैं। बाकी स्टेशनों की बात करना ही बेमानी है। अगर आज हम अपने-अपने स्थानों पर सुरक्षित हैं तो ये हमारा भाग्य है, इसमें सरकारी सुरक्षा इंतजामों का कोई योगदान नहीं है। पूरे देश के नागरिकों में ये असुरक्षा का भाव विद्यमान है, जिसको दूर करने में हमारा सिस्टम पूरी तरह नाकाम साबित हुआ है। काई जब चाहे आपके घर में चोरी कर सकता है, चेन स्नेचिंग कर सकता है, गाड़ी उठा सकता है, आप कभी भी कहीं भी एक्सीडेंट का शिकार हो सकते हैं। हमारा सिस्टम न तो इन घटनाओं को रोक पा रहा है और न ही हादसों के बाद कोई ठोस कदम उठाता है।

काश भारत ऐसा देश होता जहां इंसानों का मूल्य समझा जाता। अमेरिका में अप्रैल में हुए बाॅस्टन बम ब्लास्ट में तीन लोग मरे और 140 घायल हुए। घटना के बाद अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा खुद चलकर बाॅस्टन गए और देश के लोगों को ये भरोसा दिलाया कि आगे से ऐसी घटना नहीं होने देंगे और जो लोग इस घटना के पीछे हैं उनको नहीं बख्शा जाएगा। लेकिन दिल्ली में बैठी सरकार का ज्यादातर वक्त अपनी कुर्सी बचाने, विपक्ष से टकराने, मंत्रणाएं करने और भ्रष्टाचार फैलाने में निकल जाता है। वहीं दिल्ली में बैठा मीडिया काॅस्मेटिक जर्नलिज्म करता है। दिल्ली और एनसीआर में बिजली भी चली जाए तो मीडिया में कोहराम मच जाता है, लेकिन उन गांवों तक कैमरा नहीं पहुंच पाता जहां आज भी रातें काली हैं। नोएडा के आरुषि मर्डर केस को तो नाॅन स्टाॅप 24-7 कवरेज मिल सकती है, लेकिन छोटे-छोटे शहरों में हर रोज मर रही आरुषियों को बचाने के लिए मीडिया के पास कोई प्लान नहीं है।

लोकतंत्र और विकास की हवा-हवाई बातें करने से राजनीति और राजनीतिज्ञों का तो भला हो सकता है, लेकिन भारत और भारतीयों की इसमें कोई भलाई नहीं है। लोकतंत्र लालकिले पर चढ़कर बार-बार वही संकल्प दोहराने का नाम नहीं है, अगर आप सच्चे लोकतंत्र हैं तो आम लोगों पर उसकी झलक दिखनी चाहिए।

गुरुवार, 15 अगस्त 2013

आओ मनाएं जश्न-ए-आजादी!

बचपन में स्वतंत्रता दिवस का मतलब एक ऐसा दिन जब स्कूल में प्रिंसिपल द्वारा झंडारोहण, एक पकाऊ भाषण और उसके बाद चपरासी के हाथों कागज के खलते में मिलने वाले बूंदी के दो लड्डू। स्कूल में एक घंटा खर्चने के बाद पूरा दिन अपना घर पर खेलने कूदने के लिए। 

ज्यों-ज्यों उम्र बढ़ी इस आजादी के मायने पता चलते गए। प्रिंसिपल की जो बातें पहले समझ नहीं आती थीं, धीरे-धीरे समझ आने लगीं। समझ आने लगीं देश के अंदर व्याप्त समस्याएं, चुनौतियां, भ्रष्टाचार और चरमराता सिस्टम।

तरुणाई के समय जैसे तकरीबन हर युवा के मन में देशभक्ति का जज्बा जागता है, वो आकर विद्यमान हो गया। मन में तरह-तरह के संकल्प जागे, देश के लिए ये करेंगे, वो करेंगे, एक बड़ा बदलाव लाएंगे। कोई दिशा या ठोस रणनीति नहीं थी। बस एक जज्बा था, भावना थी। परिवर्तन के लिए राजनीतिक मंच सबसे ठोस जगह हो सकती थी, लेकिन दूर-दूर तक राजनीति से कोई नाता नहीं था। सो, पत्रकारिता को माध्यम चुना।

लेकिन पत्रकारिता में आकर पता चला ये तो खालिस व्यापार है। पहले तो विज्ञापनों को लेकर ही मीडिया की नैतिकता पर सवाल उठाए जाते थे, लेकिन अब तो इतने सवाल खड़े हो गए हैं कि सवाल भी खड़े-खड़े थक चुके हैं। और ये हालात केवल पत्रकारिता के ही नहीं हैं, प्रत्येक पेशे में नैतिक गिरावट दर्ज की जा रही है। पुलिस और राजनीति तो यूं ही बदनाम है, मेडिकल, ज्यूडिशियरी, रिटेल, बैंकिंग, रीयल एस्टेट कोई सा भी सेक्टर उठा कर देख लें हर जगह नैतिक पतन दिखेगा।

महात्मा गांधी ने 15 अगस्त 1947 को मिली आजादी पर कहा था कि जहां तक देश के सात लाख गांवों का सवाल है अभी भारत को सामाजिक, नैतिक और आर्थिक आजादी मिलनी बाकी है। उन्होंने देश के पहले जश्न-ए-आजादी में शिरकत भी नहीं की थी। बल्कि आजादी के बाद कांग्रेस को भंग करने की भी बात कही थी। तब उन्होंने कांग्रेस को भंग करने की बात क्यों कही होगी, ये आज की कांगे्रस को देखकर भलीभांति समझ आता है। गांधी युगदृष्टा थे। जिस कांग्रेस को उन्होंने अपने मेहनत से सींचा था, उसी कांग्रेस के कार्यकर्ता आगे चलकर देश के साथ क्या करेंगे, गांधी पहले ही समझ चुके थे। खैर उनकी बात तब भी नहीं सुनी गई, आज तो सुनेगा ही कौन।

गांधी की किताब ‘मेरे सपनों का भारत’ के पन्ने पल्टे जाएं तो पता चलता है कि वो देश की तमाम समस्याओं पर किस तरह सोचते हैं। छोटी-छोटी चीजों पर उन्होंने स्पष्ट दिशानिर्देश दे रखे हैं। जो शराब देश की रगों में सोची-समझी रणनीति के तहत उड़ेली जा रही है, उस शराब का तो उन्होंने घोर विरोध किया है। उन्होंने यहां तक लिख डाला कि उन्हें भारत का गरीब होना पसंद है, लेकिन देश का शराबी होना उनका मंजूर नहीं। उसी गांधी के देश में आज दूध की डेरियों से ज्यादा शराब के ठेके हैं। देश में मिल रहे प्रत्येक खाद्य पदार्थ में आज मिलावट है, केवल शराब ही है जिसमें कोई मिलावट नहीं और पूरी तरह शुद्ध रूप में जमकर बेची जा रही है।

गांधी जी ने जिन नैतिक मूल्यों की बात की थी, वे नैतिक मूल्य सत्ता की भूख ने चबाचबाकर खा लिए। यथा राजा तथा प्रजा के सिद्धांत को फलीभूत करते हुए राजनीति का नैतिक पतन अंततः देश के नागरिकों में गहराई तक समाता चला गया। ऐसा पाखंड शायद ही किसी देश में देखने को मिलता हो जहां के राजनीतिज्ञ और धर्मज्ञ मंच पर खड़े होकर आदर्शवाद का गान करें और मंच से उतरते ही भ्रष्टाचार और अनैतिकता के कीर्तिमान स्थापित करते हों। देश ने चाहे जैसा भी विकास किया हो लेकिन देश के चरित्र में जबरदस्त गिरावट आ चुकी है। हम पश्चिमी देशों में भले ही तरह-तरह के दोषारोपण करें, लेकिन एक चीज साफ है कि वहां के लोग मूल रूप से ईमानदार हैं, और हम लोग मूल रूप से बेईमान। हम रिश्तों को लेकर खासतौर से अपना गुणगान करते हैं, लेकिन सबसे ज्यादा अवैध रिश्तों के कीर्तिमान इसी देश में स्थापित हैं। फर्क बस इतना है कि पश्चिम में रिश्तों पर खुलकर बात होती है और हम दबे-छिपे अवैध रिश्तों को पालते हैं।

आज एक नेता ऐसा नहीं बचा जिसके आदर्श बच्चों को पढ़ा सकें। राजनीति के हमाम में सब नंगे नजर आते हैं। इसलिए देश के नैतिक विकास के लिए राजनीति का नैतिक उत्थान सबसे पहले जरूरी है। जिस राम राज्य की कल्पना हम वर्षों से करते आए हैं, उस राम राज्य के लिए पहले ये समझना होगा कि राजा राम ने उस राज्य को स्थापित करने के लिए किस स्तर का तप किया। जब राम जैसा तपस्वी राजा हो तो प्रजा में धर्म की स्थापना खुदबखुद हो जाती है।

21वीं सदी का भारत ऐसा होगा और वैसा होगा, जैसे सपने देखना छोड़कर यथार्थ की धरा पर अगर काम नहीं शुरू किया गया तो भारत की स्थिति इस से भी खराब हो सकती है। दुशमन लगातार देश की सीमाओं को सिकोड़ता जा रहा है। पाकिस्तान और चीन की बात तो क्या करें, बांग्लादेश जैसा देश भी हमारे कुछ गांवों में पर कब्जा जमाए हुए है। नेपाल में जब से नई सरकार बनी है, बहुत ज्यादा भारत के प्रति सद्भावना नहीं दिखा रही है। नेपाल में वामपंथियों के उदय को चीन का वरदहस्त प्राप्त है। अब वहां ज्यादा भरोसा बचा नहीं है। भूटान को भारत ने एलपीजी और केरोसीन पर सब्सिडी क्या कम की उसने भी चीन का दामन थामने की धमकी दे डाली। दक्षिण में श्रीलंका भी चीन के साथ जमकर गलबहियां कर रहा है। ये परिस्थितियां कोई विशेष हर्ष नहीं पैदा करती हैं।

1947 में डाॅलर एक रुपये का था, 1991 में जब प्रकांड अर्थशास्त्री डाॅ. मनमोहन सिंह ने एलपीजी (लिब्रेलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन, ग्लोबलाइजेशन) की पाॅलिसी दी उस समय डाॅलर 18 रुपये का था। इस बीच देश में विकास के बड़े-बड़े दावे किए गए। इंडिया शाइनिंग से लेकर भारत निर्माण तक का सफर तय किया गया। लेकिन आज इस आर्थिक शक्ति संपन्न भारत में डाॅलर ने सारे कीर्तिमान तोड़ डाले और हमारा रुपया सीनियर सिटिजन बन गया। इस वास्तविकता को भुलाने के लिए हम पुराना राग अलापते रहते हैं कि भारत कभी सोने की चिडि़या था। पिछले दिनों ही पढ़ा कि उस समय हैदराबाद के निजाम विश्व के सबसे रईस आदमी थे। जब वर्तमान राष्ट्रपति भवन यानि उस समय का वाॅयसराॅय हाउस बना तो हैदराबाद के निजाम ने ल्युटियंस को इससे भी बड़ा घर बनाने के लिए कहा। ल्युटियंस ने उनकी बात तो मान ली, लेकिन अंग्रेजी हुकूमत नहीं चाहती थी कि दिल्ली में कोई भी बिल्डिंग वाॅयसराॅय हाउस से बड़ी बने। लिहाजा ल्युटियंस ने निजाम को हैदराबाद हाउस बनाकर दिया। इतना पैसा खर्चने के बाद भी निजाम के बच्चों को ये हाउस पसंद नहीं आया और बाद में इसे सरकार को ही प्रदान कर दिया गया। भारत की संपन्नता को लेकर इस तरह के सैकड़ों किस्से इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। लेकिन वर्तमान स्थिति क्या है, हमें उस पर गंभीरता से गौर करना होगा।

बुधवार, 14 अगस्त 2013

ऐ पाकिस्तान बता तेरी रजा क्या है?


पाकिस्तान में आम चुनाव के बाद जिस दिन मियां नवाज शरीफ की पार्टी जीत की ओर बढ़ी, उन्होंने तपाक से बयान जारी कर दिया ‘वो भारत के साथ मजबूत और दोस्ताना रिश्ते बनाना चाहते हैं और बनाएंगे, चाहे भारत आग आए या न आए’। भारत के खबरिया चैनलों में बैठे अंग्रेजीदां पत्रकार इस बयान से इतने प्रेरित हुए कि उन्होंने मियां नवाज शरीफ का एक ‘मासूम गऊ’ चेहरा अपनी टीवी स्क्रीनों पर दिखाना शुरू कर दिया और तब तक दिखाते रहे जब तक हमारे ‘सिंह’ प्रधानमंत्री ने भी नहीं कह दिया कि वो भी पाकिस्तानी के नए गऊ प्रधानमंत्री से बतियाना चाहते हैं।

पाकिस्तान के मामले में अब तक के अनुभवों के बावजूद पता नहीं क्यों भारतीय मीडिया को उधर से दोस्ती की इतनी ज्यादा उम्मीद रहती है। किसी को उधर से अमन की आशा रहती है, कोई वहां के कलाकारों को मंच देने के लिए पलक बिछाए रहता है, तो कोई क्रिकेट डिप्लोमेसी की पैरोकारी करता है। भारतीय मीडिया के बीच पाए जाने वाले चंद जरूरत से ज्यादा ‘क्रिएटिव’ पत्रकार बार-बार ये बताने का प्रयास करते हैं कि वे जरा अलग ढंग से सोचते हैं, उनकी सोच परंपरागत नहीं है।

आप नई सोच रखें या परंपरागत पाकिस्तान अपनी करतूतों से आपकी हर सोच पर पानी फेरता रहा था, है और रहेगा। एक नई सोच के साथ ही अटल बिहारी वाजपेयी बस में सवार होकर लाहौर गए थे। यही मियां नवाज शरीफ उस समय भी दोस्ती के राग अलाप रहे थे। पर हुआ क्या इधर वो लाहौर में बार-बार वाजपेयी से गले मिल रहे थे और उधर कारगिल में मुशर्रफ भारत की पीठ में छुरा घोंप रहे थे। कारगिल में धोखा खाने के बावजूद वाजपेयी ने तानाशाह मुशर्रफ को बातचीत के लिए आगरा बुलाया। लेकिन आगरा में भारत का नमक खाने के बाद भी मुशर्रफ ने क्या सिला दिया, वो सबके सामने है।

नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तान जो इन दिनों कारस्तानियां कर रहा है, वो सोची समझी रणनीति लगती है। उधर मियां नवाज शरीफ अपनी शराफत का लबादा ओढ़े हुए हैं और विश्व को दिखा रहे हैं कि पाकिस्तान भारत के साथ शांति चाहता है, और इधर उनकी फौज भारत के साथ छिछोरी हरकतें कर रही है। पाकिस्तान ने इस बार अपनी आजादी के जलसे में संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बानकी मून को न्यौतकर एक तरफ उनके समाने शांति का ढोंग रचा और दूसरी तरफ सीमा पर लगातार गोलीबारी करता रहा। पाकिस्तान कश्मीर के मसले पर विश्व समुदाय के सामने झूठ परोसकर बेहद धूर्त राजनीति करता आया है। लेकिन फिर भी न जाने क्यों भारत को पाकिस्तान के साथ दोस्ती की उम्मीदें बरकरार हैं।

मियां नवाज शरीफ भले ही देखने में शरीफ लगें, लेकिन वो भारत के साथ शराफत से कभी पेश नहीं आएंगे। भारत को ये भी नहीं भूलना चाहिए कि शरीफ की पार्टी पाकिस्तान के कट्टरपंथियों के समर्थन से ही सत्ता में आई है। लिहाजा अपने आकाओं के साथ दगा करके भारत के साथ वफा करने की गलती नवाज शरीफ कर ही नहीं सकते। फिर भी कुछ भारतीय पत्रकार सिर्फ इस बात से खुश हो जाते हैं कि पाकिस्तान के शीर्ष नेता उनको नाम से पहचानते हैं और तवज्जो देते हैं, लिहाजा वो हर वक्त अपने चैनलों पर उन पाकिस्तानी नेताओं का अहसान सा उतारते दिखते हैं।

ये बात किसी से भी छिपी नहीं है कि पाकिस्तान की पूरी राजनीति भारत के साथ घृणा पर टिकी है, सो वो अमन की बात कर ही नहीं सकता। यहां से न जाने कितनी बार दोस्ती के हाथ बढ़ाए गए, लेकिन हर बार उसने दोस्ती का सिला दुश्मनी से दिया। पाकिस्तान की ये ऐंठ तो तब है जब उसके आर्थिक हालात समुंद्र में गोते लगा रहे हैं। अगर छोटा सा भी युद्ध हुआ तो पाकिस्तान छेल नहीं पाएगा, लेकिन फिर भी भारत को उकसाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहा है। चाहे वो भारतीय जवानों का सिर कलम करने की दुस्साहस हो या फिर भारतीय चैकी पर हमला कर पांच जवानों की हत्या का मामला। भाड़े के आतंकियों के बलबूते पाकिस्तानी सेना हमेशा से कायराना और छिछोरा खेल खेलती आई है। इसी से भारत को समझ लेना चाहिए कि पाकिस्तान भारत का कभी हितैषी नहीं बन सकता।

गुरुवार, 13 जून 2013

मोदी के सामने चुनौती

पिछले कुछ दिनों से देश का की राजनीति बेहद तेजी से बदली है। नरेंद्र मोदी के भाजपा प्रचार प्रमुख बनने के बाद राष्ट्रीय राजनीति ने तेजी से करवट बदली है। एक लंबे स्थाई दौर के बाद उठापटक की स्थिति पैदा हो गई। अब इसे मोदी का प्रभाव कहें या फिर समय की जरूरत कि उनके आने की भनक मात्र ने देश की राजनीति को पलट दिया है।

चाहिए 200 का आंकड़ा
2014 के चुनाव में देश का शीर्ष सिंहासन हासिल करने के लिए नरेंद्र मोदी के सामने कई बड़ी चुनौतियां हैं। उनको महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दिए जाने के बाद भाजपा कार्यकर्ताओं का ठंडा पड़ा उत्साह एक बार फिर जागा है। उम्मीद बंधी है कि 2014 में पार्टी का बनवास खत्म होगा। लेकिन इस बनवास को खत्म करने के लिए पार्टी को अपनी पूरी ताकत झोंकनी होगी। अगर पार्टी डिवाइडेड हाउस की तरह चुनाव में उतरती है तो फिर वही हाल होगा। एक बात तो साफ है कि अगर 2014 में भाजपा को अपने नेतृत्व में सरकार बनानी है तो उसे कम से कम 180 से 200 सीटें जीतनी होंगी। वहीं अगर कांग्रेस को यूपीए की तीसरी पारी खेलनी हो तो उसका काम 140 सीटों में ही चल जाएगा। 2009 में 115 पर सिमटी भाजपा के लिए 180 का लक्ष्य प्राप्त करना न तो बहुत मुश्किल है और न ही बहुत आसान। अगर मोदी एक ठोस रणनीति बनाने में सफल रहे तो जीत में संशय नहीं है। लेकिन अगर पार्टी अंदरूनी खींचतान में फंसी रही तो जीत में संशय है।

यूपी के पास चाभी
आज भी दिल्ली के दरबार का रास्ता यूपी की तंग गलियों से होकर ही जाता है। शायद मोदी इस बात को समझ गए हैं, और इसीलिए अपने सबसे खास अमित शाह को यूपी का प्रभारी बनाया है। अमित शाह को जिस गर्मजोशी से यूपी भाजपा का समर्थन मिला है उसको देखकर लगता है कि उनके आने से कुछ नया होगा। इसके अलावा पार्टी इस बार अपने तमाम फायर ब्रांड नेताओं के भरोसे यूपी में दमखम आजमाएगी। यूपी से भाजपा के पास इस समय कल्याण सिंह, उमा भारती, वरुण गांधी, योगी आदित्यनाथ, पार्टी प्रमुख राजनाथ सिंह, दिग्गज मुर्ली मनोहर जोशी, मेनका गांधी जैसे जिताऊ नाम हैं। इस बात की पूरी संभावना है कि खुद नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश से लोकसभा का चुनाव लड़ें। और ऐसा करने में पार्टी को फायदा ही फायदा है। पूरी उम्मीद है कि अजीत सिंह अपना राष्ट्रीय लोकदल लेकर फिर भाजपा की गोद में आकर बैठ जाएं। अगर ऐसा हुआ तो भाजपा को जाट वोटों को थोड़ा फायदा तो मिलेगा। लेकिन भाजपा को इस तरह के टिड्डी दलों का सहारा लेने के बजाय खुद अपना जाट नेता तैयार करना चाहिए। इससे पार्टी को दूरगामी परिणाम मिलेंगे। वैसे धीरे-धीरे जाटों का अजीत सिंह से काफी हद तक मोह भंग हो रहा है, लेकिन कोई विकल्प न होने के कारण उनका हाथ थामना मजबूरी है। ऐसे में अजीत सिंह का खाली रहना बहुत जरूरी हैं।

भरत मिलाप कराएं
महाराष्ट्र में लंबे समय से भाजपा-शिवसेना गठबंधन सत्ता से बाहर है। पिछले लोकसभा चुनाव में भी कोई खास परिणाम नहीं मिले हैं। ऐसे में अगर भाजपा-शिवसेना और मनसे अलग-अलग चुनाव लड़ती हैं, तो एक-दूसरे का वोट ही काटेंगी। महाराष्ट्र में ठोस परिणाम हासिल करने के लिए जरूरी है कि मोदी उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे का भरत मिलाप कराएं। स्वर्गीय बाल ठाकरे की भी यही मंशा थी। अगर उद्धव ठाकरे अपने पिता का स्थान लें और राज ठाकरे को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट किया जाए तो महाराष्ट्र से अच्छे परिणाम मिल सकते हैं। नरेंद्र मोदी, भाजपा के अन्य वरिष्ठ नेता और बाबा रामदेव जैसे अध्यात्मिक नेता अगर दोनों भाइयों को मिलाने का प्रयास करेंगे तो ये भरत मिलाप होना संभव है।

कहां-कहां से उम्मीदें
भाजपा अगर उन सभी राज्यों में मेहनत कर लेती है, जिनमें उसका पुराना जनाधार रहा है तो दिल्ली का रास्ता आसान हो सकता है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, गुजरात, दिल्ली, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक, बिहार ऐसे राज्य हैं जहां अगर पार्टी जमकर मेहनत कर लेती है, तो 200 सीटों का आंकड़ा छुआ जा सकता है।

मीडिया मैनेजमेंट
नरेंद्र मोदी मीडिया के कुछ ज्यादा ही चहेते हैं। मोदी का कोई भी कदम मीडिया के लिए खबर होता है। छोटी-छोटी चीजों में भी मीडिया मोदी के खिलाफ गुबार निकालने के लिए हर वक्त तैयार है। ऐसे में पार्टी को प्रचार के ऐसे तौर-तरीके अपनाने होंगे जो बेवजह मीडिया की धार पर न आएं। खासतौर से विपक्ष के खिलाफ भाषा की मर्यादाओं को बनाए रखना जरूरी है। जैसा कि कहा जाता है कि आम जनता चीजों को बहुत जल्द भूल जाती है। ऐसे में पार्टी को यूपीए के दस सालों का लेखाजोखा फिर से याद दिलाना होगा। इसमें सोशल साइट्स सबसे बड़ी भूमिका निभा सकती हैं।

टिड्डी दलों को परखना जरूरी
1996 के बाद से देश में छोटे-छोटे टिड्डी दलों की ब्लैकमेलिंग जमकर बढ़ी है। वाजपेयी की एनडीए सरकार हो या मनमोहन की यूपीए दोनों की सरकारों ने बार-बार क्षेत्रिय दलों के आगे घुटने टेकने पड़े। ऐसे में अपने साथियों का चुनाव बेहद पारखी नजर से करना होगा। जनता दल यूनाइटेड को एनडीए से अलग होने का खामियाजा 2014 में बुरी तरह भुगतना होगा। जदयू में सबसे ज्यादा नुकसान अगर किसी को होगा तो वो हैं शरद यादव। नीतीश कुमार लगभग दस सालों से बिहार में सत्ता सुख भोग रहे हैं। लेकिन शरद यादव दस सालों से एनडीए के साथ विपक्ष में बैठे हैं। अब जब एनडीए के सत्ता में लौटने की संभावना जागी तो, नीतीश ने गठबंधन भंग करने का राग आलाप दिया। ऐसा करके नीतीश अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारकर केवल लालू यादव के लिए रास्ता प्रशस्त कर रहे हैं।

चैतरफा अभियान की जरूरत
लोगों तक अपनी पहुंच बनाने और उसको वोट में कन्वर्ट करने के लिए पार्टी अगर चैतरफा अभियान चलाए तो अच्छे परिणाम मिल सकते हैं। पहले मोर्चे पर पार्टी पूरी एकजुटता के साथ खुद लोगों तक जनसंपर्क करे, दूसरे मोर्चे पर संघ और उसके कार्यकर्ता अभियान चलाएं, तीसरे मोर्चे पर बाबा रामदेव के भारत स्वाभिमान व अन्य सामाजिक संगठनों का सहारा ले और चैथे मोर्चे पर पार्टी एक ई-ब्रिगेड को उतारे, जो इंटरनेट के माध्यम से सोशल साइट्स पर अभियान चलाए। अगर इस तरह का चैतरफा हमला किया जाता है, तो परिणाम सार्थक हो सकते हैं।

कर्म फल

बहुत खुश हो रहा वो, यूरिया वाला दूध तैयार कर कम लागत से बना माल बेचेगा ऊंचे दाम में जेब भर बहुत संतुष्ट है वो, कि उसके बच्चों को यह नहीं पीन...