Sunday, May 29, 2011

क्या प्रसंशा के लिए केवल महिला होना की काफी है?

कल अचानक एक अखबार में मृणाल पांडे जी का लेख पढ़ने को मिला। लेख में वो जयललिता और ममता के मुख्यमंत्री बनने पर नारी शक्ति को बधाई देते हुए न केवल खुशी का इजहार कर रही थीं, बल्कि ममता और जाया के साथ उन्होंने मायावती के भी तारीफों के पुल भी बांधे हैं। वे केवल इस बात से ही फूली नहीं समा रही हैं कि विजेता के रूप में महिलाएं उभर कर आई हैं। इन तीन महिला मुख्यमंत्रियों को उन्होंने तीन देवियां कहकर पुकारा है। अब ममता के बारे में तो नहीं कह सकते क्योंकि वे पहली बार सत्ता में आई हैं, लेकिन माया और जयललिता वर्तमान और भूत में किस तरह की मुख्यमंत्री साबित हुई हैं ये सारा देश जानता है। अब चूंकि वे महिलाएं हैं बस इसलिए उनकी तारीफों के पुल बांधे जाएं ये तो कोई तुक न हुई। 

मायावती ने भ्रष्टाचार के मामले में अपने पूर्ववर्ती सभी मुख्यमंत्रियों के रिकाॅर्ड तोड़ दिए हैं। जयललिता ने भी अपने पिछले कार्यकालों के दौरान जो अकूत संपत्ति कमाई है वो भी किसी से छिपी नहीं है। उनकी हजारों साडि़यों और सैकड़ों जोड़ी चप्पलों की कहानी देश की गरीब जनता को भलीभांति याद है। इन दोनों ने ही महिला होते हुए महिलाओं के लिए भी कुछ ऐसा उल्लेखनीय नहीं किया जिसपर फख्र किया जाए। न ही अपने-अपने प्रदेश की आवाम को ही कुछ खास दिया जो तारीफ के कसीदे कसे जाएं। जैसा पुरुषों का शासन होता है, कमोवेश वैसा ही इन महिलाओं का शासन भी है। वो तो जनता के पास विकल्पों की कमी और चुनावी समीकरण ऐसे बैठते हैं कि इन दोनों की बार-बार ताजपोशी हो जाती है। इनमें केवल ममता बनर्जी एक ऐसी महिला हैं जिन्होंने रेल मंत्री रहते हुए भी अपनी सादगी को नहीं छोड़ा। ममता और जया-माया में बहुत बड़ा फर्क है। इन तीनों को एक ही श्रेणी में रखकर उन पर प्रशंसा के फूल चढ़ाना कहां तक सही है मुझे समझ नहीं आता। तारीफ भी केवल इसलिए कि वो महिला हैं। हां, अगर उन्होंने अपने मुख्यमंत्री रहते हुए कोई ऐसा शासन दिया होता जिससे ये सिद्ध होता कि महिलाएं पुरुषों से बेहतर शासन देती हैं तो बात अलग थी। लेकिन उन्होंने तो भ्रष्टाचार के नए कीर्तिमान ही स्थापित किए हैं। फिर भी मृणाल पांडे जी उनकी बस इसलिए प्रशंसा की जा रही हैं कि वो महिला हैं। ये तो वही बात हुई कि पुरुष करे तो भ्रष्टाचार और महिला करे तो चमत्कार।

अगर महिला-पुरुष के शासन में इतना ही अंतर होता तो आज देश की तस्वीर की कुछ और होनी चाहिए थी। देश के राष्ट्रपति पद से लेकर यूपीए सरकार तक की कमान महिला ही संभाले हुए है। और अब तीन प्रदेशों की कमान भी महिलाओं के हाथ में है और वर्तमान तस्वीर भी हम सबके सामन ही है। कोई ये नहीं कह सकता कि हम अपनी सरकार को पसंद करते हैं। आम लोगों के दिलों में सरकार के प्रति नफरत न भी हो पर सम्मान और प्रेम तो कतई नहीं है।

दरअसल, बात महिला-पुरुष की है ही नहीं। कुछ महिलावादी संगठन इस तरह की बातें करके स्त्री-पुरुष के बीच खाई पैदा करने का ही काम करते हैं। स्त्री-पुरुष दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं और दोनों ही एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं। जो महिलाएं आज सफलता के शिखर पर हैं उनको वहां होना ही था। पंडित नेहरू के घर अगर एक बेटा पैदा हुआ होता तो क्या उनकी विरासत इंदिरा गांधी को मिल पाती, शायद नहीं। उनकी स्वाभाविक विरासत उनके बेटे को ही जाती। इसलिए इंदिरा गांधी को आगे आना ही था। अब राहुल और प्रियंका गांधी का ही मामला लें तो प्रियंका के प्रति लोगों में ज्यादा लगाव और रुझान होने के बावजूद राहुल को ही युवराज के तौर पर पेश किया जा रहा है। जबकि आम लोगों में भी और कांग्रेसियों में भी राहुल से ज्यादा प्रियंका के प्रति उत्साह देखने को मिलता है।

तो जिन तीन देवियों की बात मृणाल जी कर रही हैं उनमें से केवल ममता बनर्जी जमीन से उठीं और बेहद संघर्षपूर्ण सफर तय करके इस मुकाम तक पहुंची हैं। बाकी बची दो देवियां अपने सरपरस्तों की कृपा से सत्ता सुख भोग रही हैं। वैसे मेरी राय पढ़कर कुछ लोग ऐसा भी कह सकते हैं कि ये मेरा नारी विरोध है. पर जिसको जो लगे लेकिन महिलाओं की प्रशंशा में इस तरह की हवा हवाई बातें ज़मीनी स्तर पर महिलाओं को काफी नुकसान पहुंचा सकती हैं. 

Monday, May 16, 2011

यमुना एक्सप्रेस वे- एक कहानी अनकही

(ये स्टोरी मैंने चेन्नई से प्रकाशित होने वाली एक नयी "इंक" मैगजीन के लिए लिखी थी जिसे अंग्रेजी में अनुवाद करके पृष्ठ संख्या ९९ पर छापा गया है-  www.inkthemagazine.com  क्यूंकि अब ये स्टोरी प्रकाशित हो चुकी है तो आज अपने ब्लॉग पर प्रकाशित कर रहा हूँ. )

ग्रेटर नॉएडा का परी चौक 
मंजिलों तक ले जाते हैं रास्ते, नई उम्मीद जगाते हैं रास्ते, कभी कोई गीत तो कभी नई कहानी सुनाते हैं रास्ते। रास्ते बदलाव के सूचक हैं, रास्ते नई शुरुआत के सूचक हैं, रास्ते सूचक हैं जीवंतता के, रास्ते सूचक हैं विकास के। भारत में सड़कों और रास्तों का इतिहास उतना ही पुराना है जितना ये देश। चंद्रगुप्तमौर्य ने जिस सड़क का सपना देखकर उसकी शुरुआत की थी, उसको शेरशाह सूरी ने आगे बढ़ाया और कलकत्ता से पेशावर तक ग्रैंड ट्रंक रोड का विशाल निर्माण कराया। तब से लेकर आज तक लगातार भारत में सड़कों का जाल बिछाया जाता रहा है। चाहे वो पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का गोल्डन क्वाड्रिलेटरल हो या ईस्ट-वेस्ट और नाॅर्थ-साउथ काॅरिडोर, यूपी की मुख्यमंत्री मायावती का गंगा एक्सप्रेस-वे का सपना हो या यमुना एक्सप्रेस वे की हकीकत। सड़कें भारत के विकास में सबसे बड़ी मददगार बन गईं और जहां सड़क नहीं पहुंची वहां के लिए बाधा। नई सड़क जब किसी इलाके से गुजरती है तो वहां के बाशिंदों के जीवन को कई तरह से प्रभावित करती है। एक ओर यही सड़क उन इलाकों को आर्थिक उन्नति देती है, तो दूसरी ओर वहां की आबोहवा और संस्कृति को निगल भी जाती है।

यमुना एक्सप्रेस वे- दिल्ली को ताज नगरी आगरा से जोड़ने के लिए तैयार किया जा रहा ये खालिस कंकरीट का 165 किलोमीटर लंबा विशालकाय ढांचा दिल्ली-आगरा के बीच सफर को बेहद सुगम बनाने जा रहा है, समय की बचत से लेकर आर्थिक विकास तक तमाम संभावनाएं इस रोड से जुड़ गई हैं। न केवल उत्तर प्रदेश बल्कि समूचे भारत की दृष्टि से ये सड़क ऐतिहासिक है। ताज महल के दीदार करने आने वाले विदेशी सैलानियों के सामने ये सड़क एक नए भारत की तस्वीर पेश करेगी। लेकिन इसके आसपास जो पुराना भारत बसा था वो भी बदला-बदला सा नजर आएगा। जी हां, बात कर रहे हैं उन 1187 गांवों की जिनसे होकर यमुना एक्सप्रेस वे गुजर रहा है। चैहड़पुर, घरबरा, मुरशदपुर, जगनपुर, नौरंगपुर, सिलारपुर, रीलखा, छपरगढ़, रौनीजा, मिर्जापुर, नीलानी, जेवर, जिकरपुर और टप्पल ये कुछ ऐसे गांवों के नाम हैं जिनका आने वाले समय में नक्शा बदलने वाला है। आने वाला समय इन गांवों में रहने वाले लोगों के लिए उम्मीदों की फुलवारी लेकर आएगा या फिर नाउम्मीदी के कांटे ये तो वक्त ही बताएगा, बहरहाल इतना तो तय है कि ये गांव अब गांव नहीं रहेंगे बल्कि देश के सबसे बड़े अर्बन जोन का हिस्सा होंगे, जो ग्रेटर नोएडा एक्सप्रेस-वे के दोनों तरफ पांव पसारने वाला है। यमुना एक्सप्रेस वे को लेकर पत्रकारों ने जमकर अपनी स्याही खर्च तो की है, लेकिन इसके आसपास बसे इन गांवों के अंदरूनी हालात जानने की कोशिश नहीं की गइ। वैसे मुख्य रूप से ये गांव गुर्जर बाहुल्य क्षेत्र हैं, लेकिन यहां यादव, पंडित, ठाकुर, जाट और दलितों की भी अच्छी खासी तादाद है। जनरल इमरजेंसी के दौरान 19 अप्रैल 1976 को जब संजय गांधी की पहल पर नोएडा शहर की स्थापना हुई थी, तब शायद सोचा भी न गया होगा कि ये कारवां ग्रेटर नोएडा तक ऐसा बढ़ेगा कि देश का सबसे बड़ा अर्बन जोन कहलाएगा। लेकिन नोएडा की जिन जमीनों को अधिग्रहित करके उनपर उद्योग लगाए गए वो जमीनें कम उपजाऊ थीं, लेकिन अंधाधुंध विकास की दौड़ में अब जिन जमीनों का अधिग्रहण किया जा रहा है वे बेहद उपजाऊ और कमाऊ हैं। वे न केवल वहां के किसानों का पेट पाल रही हैं बल्कि देश के खाद्यानों में भी बड़ा योगदान दे रही हैं। इन्हीं सब जमीनी हकीकतों को जानने के लिए हम निकल पड़े यमुना एक्सप्रेस-वे के इर्दगिर्द बसे गांवों का जायजा लेने के लिए और वहां के किसानों और युवाओं से मुलाकात की।

चौहड़पुर में आवभगत
यमुना एक्सप्रेस वे के आसपास के गांवों का जायजा लेने की शुरुआत हमने चैहड़पुर गांव से की। ग्रेटर नोएडा में बतौर इंश्योरेंस एजेंट काम कर रहे श्यामवीर ने मेरी अगवानी की और सीधे अपने घर ले गए। वे अपनी मारूती आॅल्टो में आगे-आगे और मैं अपनी हीरो हाॅन्डा स्प्लेंडर बाइक से उनके पीछे-पीछे। उस विशालकाय हाईवे के नीचे  से कब कहां एक छोटा सा रास्ता चैहड़पुर की तरफ मुड़ गया पता ही न चला। फिर उस छोटे से रास्ते ने एक गली का रूप ले लिया जो सीधे श्यामवीर के घर के बाहर खुली जगह पर जाकर खत्म हुई। सीधे अपने ड्राइंग रूम के सामने उन्होंने अपनी गाड़ी पार्क की और उसी के बगल में मैंने अपनी बाइक लगा दी। आंगन में गाड़ी, फिर एक वेरांडा और उसमें दो कमरे। अंदर कमरे में बैठते ही उन्होंने अपने भाई को आंखों ही आंखों में इशारा किया और वो हमारे लिए पानी ले आया। फिर उन्होंने अपने जेब से मोबाइल निकाला और गांव के कुछ लोगों को फोन करके अपने घर पर ही बुला लिया। हमने चर्चा शुरू की ही थी कि तीन लोग और कमरे में आ गए। ‘राम राम जी...’ और तीनों हमारे सामने सोफों पर बैठ गए। अपना परिचय देने के बाद मैंने फिर से बातचीत शुरू की ही थी कि श्यामवीर का भाई हम सबके लिए चाय ले आया, जिसमें पानी कम और दूध ज्यादा था। ‘अरे कुछ खाने को भी ला’ श्यामवीर ने भाई को हिदायत दी। ‘ला रहा हूं जी’ कहकर वो बाहर गया और दो प्लेट लेकर आया। एक प्लेट में पारले जी के बिस्किट थे ओर दूसरी प्लेट में नमकीन। अब चाय की चुस्कियों के साथ मैंने बातचीत को आगे बढ़ाया, लेकिन मैं सोच रहा था कि भारत के जिन गांवों में पहले दूध, मट्ठा, दही और गुड़ से मेहमानों का स्वागत होता था आज उन्हीं गांवों में चाय और बिस्किट अब आम हो गया है।

जब जमीन थी तब विकास नहीं आज विकास है पर जमीन नहीं
यमुना एक्सप्रेस वे पर बसे चैहड़पुर जैसे गांवों की कहानी बड़ी अजीब है। जब किसानों के पास खेती के लिए जमीन थी तो उस समय उनके पास संसाधन नहीं थे, आज जब संसाधन हैं तो उनके पास मेहनत करने के लिए जमीन नहीं बची। 1989 तक गांव के पास से गुजरने वाली यमुना पर बांध नहीं था। पुरानी दिनों को याद करते हुए श्यामवीर बताते हैं कि बरसात के दिनों में दो-दो महीने तक स्कूल नहीं जा पाते थे। जब कुछ पानी उतरता तो स्कूल जाना शुरू करते, लेकिन वो भी पैंट उतार कर रास्तों से गुजरना पड़ता था। लेकिन अब यमुना पर बांध भी है और आने-जाने के लिए रास्ते भी, लेकिन नहीं बची है तो करने के लिए खेती। यमुना एक्सप्रेस वे में भूमि अधिग्रहित हो जाने के बाद गांव वालों के पास खेती के लिए तकरीबन पांच प्रतिशत ही जमीन बची है। स्थिति ये आ गई है कि इन गांवों का जो किसान कल तक दूसरों के पेट भरता था आज खुद बाहर से अनाज खरीदकर अपना जीवन यापन करने को मजबूर है। ये बेहद चिंताजनक स्थिति है कि देश के अन्नदाता के सामने ही आज अन्न का संकट खड़ा है।

जाएं तो जाएं कहां?
चैहड़पुर के ही संजय भाटी की 15 बीघा जमीन 2003 में यमुना एक्सप्रेस वे डेवलपमेंट अथाॅरिटी ने अधिग्रहित कर ली। जमीन चले जाने के बाद की स्थिति पर चर्चा करते हुए संजय कहते हैं कि ये हाईवे किसानों के लिए नहीं बनाए जा रहे हैं। इनका असली फायदा कहीं और होने वाला। किसान तो इस रास्ते का महज एक रोड़ा मात्र है, जिसे सरकार ने एक रकम देकर हटा दिया है। एक साथ रकम आ जाने से किसानों का फौरी तौर पर जरूर फायदा हुआ है, लेकिन आने वाले समय में किसानों को इसका भारी खामियाजा भुगतना पड़ेगा। नोएडा से इतर ग्रेटर नोएडा के आसपास स्थित गांवों की जमीनें उपजाऊ हैं। यहां गन्ना, गेहूं, और धान जैसी फसलें अच्छे स्तर पर उगाई जाती थीं। जबकि नोएडा के आसपास की जमीनों की पैदावार बहुत कम थी। इसलिए ग्रेटर नोएडा के आसपास के गांवों का किसान कमोबेश खुशहाल था। लेकिन अब उनके पास पैसा तो है पर उसका सदुपयोग करने के लिए उतनी शिक्षा नहीं है। एक बार बात शुरू हुई तो संजय एक बहाव में बहते चले गए और अपने मन की गांठों को खोलने लगे। वे बताते हैं कि किसानों को मुआवजे के साथ उसकी जमीन के छह प्रतिशत के बराबर का प्लाॅट भी दिया गया। लेकिन प्लाॅट भले ही मुफ्त दिया गया हो, लेकिन उसके डेवलपमेंट फीस और सर्किल रेट इतने महंगे हैं कि किसानों को भारी पड़ रहे हैं। किसानों के लिए की गई प्लाॅटिंग में काभी भेदभाव भी किया गया है। वहां की सड़कों और सीवरों की क्वालिटी बेहद खराब है। ग्रेटर नोएडा में जहां कम से कम सड़कों की चैड़ाई 12 मीटर है वहीं किसानों को दी गई काॅलोनी में सड़कें केवल 7.5 मीटर की ही है। चाय पीते-पीते संजय थोड़े गंभीर होकर एक बड़ी गहरी बात कहते हैं ‘सरकार जिन प्रोजेक्ट्स के पीछे जनता का फायदा और समाज का फायदा बताती है, दरअसल उनके पीछे बेहद चुनिंदा लोगों का फायदा छिपा होता है। एक सरकार द्वारा एक ही कंपनी को ग्रेटर नोएडा के सारे प्रोजेक्ट्स दिए गए हैं। जनता का फायदा तो महज एक छलावा है। इन प्रोजेक्ट्स में असली फायदा तो राजनीति और नौकरशाही के शिखर पर बैठे चंद लोगों का है।’

बदलते व्यवसाय
संजय बताते हैं कि एक्सप्रेस वे ने गांवों की एक पीढ़ी को खाली बिठा दिया है। वे कहते हैं ‘हमारा मुख्य काम खेती था, अब इस उम्र में कोई हम से कहे कि हम कंप्यूटर सीखें तो हम नहीं कर सकते। जिसका जो काम है वो उसी को शोभा देता है। एक्सप्रेस वे के साथ-साथ रेजिडेंशियल एरिया ज्यादा डेवलप किया जा रहा है। अगर उद्योग ज्यादा आते तब भी किसानों को थोड़ा फायदा हो सकता था।’ बातचीत में पता चला कि आज गांव के ज्यादातर युवा जो थोड़े पढ़े-लिखे हैं वो प्राॅपर्टी डीलिंग का काम कर रहे हैं। जो पढ़े-लिखे कम हैं वे या तो कंपनियों में सिक्योरिटी गार्ड का काम करते हैं या फिर अपनी ट्रैक्टर-ट्राॅली से किराए पर मिट्टी ढोते हैं। उसमें भी बार-बार उनका चालान काट दिया जाता है। 

शिक्षा का अभाव
सड़कें बनीं, विकास हुआ, नए-नए संसाधन खड़े हुए और इस विकास ने समाज के दो वर्गों को एक साथ लाकर खड़ा कर दिया। एक ओर वे लोग हैं जो इलीट क्लास कहलाते हैं और दूसरी तरफ वे लोग हैं जिनको ये इलीट क्लास देहाती कहकर पुकारती है। दोनों वर्गों की संस्कृति, शिक्षा, रहन-सहन, खान-पान, बोलचाल और आर्थिक स्थिति में जमीन आसमान का अंतर है। और अब ये दोनों वर्ग आमने-सामने हैं। एक मजबूरी के तहत आसपास रह रहे हैं, एक अनकहे और अनसुने तनाव के साथ। इलीट क्लास का मानना है कि गांव के लोग हिंसक हैं और अनएजुकेटिड हैं। जबकि गांव के लोग मानते हैं कि उनको एवाॅइड किया जाता है। ग्रामीण क्षे़त्र की सबसे बड़ी समस्या है अच्छी शिक्षा का अभाव। पैसा आ जाने से आज गांव के हर घर में कलर टीवी है, गाड़ी है और रहने के लिए अच्छा घर है। लेकिन इस स्टैंडर्ड को सस्टेन करने के लिए उनके पास उतनी शिक्षा नहीं है। संजय भाटी के साथ आए गांव के ही एक निवासी लोई ओढ़े काफी देर से खामोश बैठे थे। अपना नाम तो नहीं बताया पर इतना ही बोले ‘सरकार को हमारे बच्चों की शिक्षा का ख्याल करना चाहिए। ग्रेटर नोएडा में नाॅलेज पार्क बनाया गया और तमाम प्रोफेशनल इंस्टीट्यूट खोले गए। यहां तकरीबन डेढ़ लाख स्टूडेंट पढ़ रहे हैं, लेकिन हमारे बच्चों को एडमिशन देने से सब बचते हैं। उनको दबंग कहा जाता है। ऐसे तो ये बच्चे कहीं के नहीं रहेंगे।’ बताया जाता है कि ग्रेटर नोएडा की गौतम बुद्ध यूनिवर्सिटी जो मुख्यमंत्री का ड्रीम प्रोजेक्ट है, वहां प्रोफेशनल कोर्सेज की फीस इतनी ज्यादा है कि वो प्राइवेट इंस्टीट्यूट्स को भी मात देती नजर आती है। वो किसी भी दृष्टि से ग्रामीण स्टूडेंट्स की जरूरतें पूरी करती नहीं दिखती।

क्या किया पैसे का?
मनोज भाटी 
ये सवाल काफी कौतूहल का विषय रहता है कि आखिर किसान उस मुआवजे की रकम का करते क्या हैं, जो जमीन के एवज में या तो सरकार से या फिर प्राइवेट बिल्डर्स से मिलती है। हमारी मुलाकात हुई ग्रेटर नोएडा के जुनपत गांव में रहने वाले मनोज भाटी से। मनोज की खानदानी जमीन दो बार अधिग्रहण की चपेट में आई। पहली बार 2002 में जब उनको 40 लाख का मुआवजा मिला और दूसरी बार 2007 में जब उनको 1 करोड़ 77 लाख का मुआवजा हाथ आया। इतनी बड़ी रकम अचानक मिल जाना और फिर उसको सही दिशा दे पाना एक बड़़ी चुनौती थी। अपने ठेठ देसी अंदाज में मनोज अपनी कहानी मेरे सामने बयां करते चले गए। उन्होंने बेबाकी से स्वीकार किया कि गांव के लोग पैसे को सही जगह लगाना नहीं जानते। इसके चलते थोड़े ही समय में मुआवजा खत्म हो जाता है और अभाव की स्थिति आ जाती है। मुआवजा मिलते ही सबसे पहला काम होता है- एक गाड़ी खरीदना और फिर गांव में एक शानदार घर बनवाना। मनोज ये भी स्वीकारते हैं कि कई घरों को शराब की लत ले डूबी। बहरहाल मनोज अपने बारे में बताते हैं ‘हमने तो जी दादरी कस्बा में एक बड़ो मकान बनायो, और वाकू किराये पै उठा दियो। अब हमैं जी महीना के बीस हजार बैठे बिठाए मिल जावै हैं। बाकी खाली समय में मेरो प्राॅपर्टी डीलिंग और सैटरिंग को काम है।’ मनोज ने अपनी देसी भाषा में पूरी स्थिति मेरे सामने साफ कर दी। आज इस क्षेत्र के ज्यादातर युवाओं का यही हाल है। उनके पास बहुत पैसा है, लेकिन एक अच्छा 

रोजगार है नहीं और खेती वो कर नहीं सकते।
मनोज ये भी बताते हैं कि क्षेत्र के कई किसानों ने जमीन के बदले जमीन खरीदने की दिशा में भी कदम बढ़ाए हैं। अपने गांवों में जमीन खत्म हो गईं तो किसानों ने बुलंदशहर और अलीगढ़ की तरफ के गांवों में जमीनें खरीदनी शुरू कीं, ताकि उनका परंपरागत और खानदानी पेशा न छूटने पाए। ऐसा करके जहां कुछ लोगों को सफलता हाथ लगी तो वहीं कुछ किसान विफल भी रहे। दूर दराज के गावों में जमीन खरीदना काफी रिस्की खेल था। क्योंकि वहां के लोकल लोगों द्वारा यहां के किसानों की जमीनों पर कब्जा करने के कई मामले प्रकाश में आए। रंजिशें पनपने लगीं, थाने-कचहरियों के चक्कर लगने लगे और रकम फंसी सो अलग। इस सबके बाद क्षेत्र के किसानों ने दूर दराज इलाकों में बिना जान-पहचान के जमीन खरीदने का सिलसिला कम कर दिया।

राजनीति का चस्का
पैसा आ जाने के बाद युवाओं में राजनीति का चस्का भी जबरदस्त है। हाल ही में संपन्न हुए ग्राम पंचायत और जिला पंचायत चुनावों में युवाओं ने जमकर भागीदारी की। युवाओं के पास धन भी है, समय भी है और अपने सपनों को अमलीजामा पहनाने के लिए आवश्यक पौरुष भी। पूरे ग्रेटर नोएडा में चिपके पाॅलिटिकल पोस्टर्स पर युवाओं के चेहरे मुस्कुराते नजर आते हैं और ये युवा किसी इलीट क्लास के नहीं बल्कि ठेठ गंवई हैं जो अपने धन के बल पर राजनीति में अपना भाग्य आजमाने उतर पड़े हैं। युवाओं में गाड़ी और राजनीति के बाद जो दूसरा ट्रेंड देखने को मिल रहा है वो है लाइसेंसी हथियार रखने का। शादियों में अंधाधुंध फायरिंग करने के अलावा अपनी जींस में विदेशी पिस्टल लगाना एक शगल बन गया है। शायद यही सब कारण हैं कि ग्रेटर नोएडा के इलीट क्लास को गांव के ये लोग दबंग और वाॅयलेंट लगते हैं।

बढ़ गया दहेज का चलन
जब से इस क्षेत्र के किसानों को जमीन के एवज में मोटे-मोटे मुआवजे मिले हैं तब से यहां के दूल्हों की पौ बारह हो गई है। इन गांवों के लड़कों के रेट सातवें आसमान पर हैं। इन गांवों के लड़के भले की कुछ न कर रहे हों फिर भी उनकी शादी में लड़की वालों को औसतन 20 से 40 लाख तक खर्च करने पड़ रहे हैं। अपनी बेटी के साथ उनको देनी पड़ रही है एक शानदार चमचमाती गाड़ी और मोटा कैश। कारण वही कि लड़की वालों को इस क्षेत्र के लड़कों में उनके मुआवजे की वजह से ज्यादा संभावना नजर आती है। उनकी बेटी के रहने के लिए एक अच्छा घर और खाता-पीता परिवार। ये भी कोई अचरज की बात नहीं कि इसी क्षेत्र के इमलिया गांव में आई बारात एक मिसाल बन गई। दूल्हा हेलीकाॅप्टर से जो आया था। थोड़ा आगे बढ़कर खुद मुख्यमंत्री मायावती के गांव तक चलें तो यहां एक लड़के को शादी में बीएमडब्ल्यू कार दी गई। ये बात दीगर है कि लड़का एक मंत्री का बेटा था। जबकि मर्सिडीज कार तो कई लड़कों को मिल चुकी है। दहेज की ये होड़ इस क्षेत्र के लिए बेहद हानिकारक साबित हो रही है। ग्रेटर नोएडा के गांवों में दहेज का इतना तगड़ा काॅपटीशन चल निकला है कि लड़की वालों की आफत आ गई है। भरे समाज के बीच लड़के की लगन चढ़ती है और लड़की वाला उसको उपहार स्वरूप तमाम कैश, गाड़ी और तमाम घरेलू साजो सामान से नवाजता है। फिर गांव के पंडित जी सभी के बीचो-बीच खड़े होकर एनाउंसमेंट करते हैं कि गांव के इस होनहार सपूत को दहेज में क्या-क्या मिला है। और इस प्रथा को बल मिलता चला जाता है। कुछ सामाजिक संगठन दहेज के खिलाफ लामबंद तो हुए हैं लेकिन उनकी मुखालफत करने वाले ज्यादा हैं और समर्थन करने वाले कम।

सुरेन्द्र नागर
कुड़ी खेड़ा गांव यूं तो अभी अधिग्रहण की चपेट में नहीं आया है, लेकिन बहुत जल्द यहां भी अधिग्रहण का खेल शुरू होने वाला है। गांव के किसान पहले से ही सजग हो सतर्क बैठे हैं कि किस प्रकार अपनी जमीन का ज्यादा से ज्यादा मुआवजा लिया और फिर अक्समात मिलने वाले धन का किस तरह सही उपयोग किया जाए। सुरेंद्र नागर इस गांव से एमबीए की पढ़ाई करने वाले पहले युवा थे। इन्होंने पहले गाजियाबाद के एक इंस्टीट्यूट से बीबीए और फिर ग्रेटर नोएडा के ही गलगोटिया काॅलेज से एमबीए किया। आज सुरेंद्र अपने गांव के सबसे एलिजिबल बैचलर हैं और उनकी देखादेखी आज उनके गांव के कम से कम दस लड़के एमबीए कर रहे हैं। कोर्स करने बाद ही सुरेंद्र को आईसीआईसीआई बैंक में अच्छी नौकरी भी मिल गई। लेकिन नौकरी के सत्तर झंझट सुरेंद्र को पसंद नहीं आए और एक दिन ये फैसला ले लिया कि अब अपना काम करना है। सुरेंद्र ने अपने एमबीए के ज्ञान को लाभी उठाते हुए ग्रेटर नोएडा में ही शेयर मार्केट का बिजनेस शुरू कर दिया। साथ में परिवार के प्राॅपर्टी डीलिंग के काम में भी हाथ बंटाने लगे। सुरेंद्र भले ही बहुत पढ़-लिख गए हों लेकिन उनका अंदाज एकदम देसी है। गलगोटिया काॅलेज का माॅडर्न एन्वाॅयरमेंट उन पर बहुत प्रभाव नहीं डाल पाया। 25 साल का ये युवक मानता है कि शादी के मामले में युवाओं को माता-पिता की मर्जी का ख्याल रखना चाहिए। अपने आॅफिस में चाय-पकौड़ों से मेरा इस्तकबाल करने के साथ-साथ सुरेंद्र अपनी भावनाएं व्यक्त करते चले गए ‘अभी इस क्षेत्र में एजूकेशन की बहुत कमी है। अगर एजूकेशन की तरफ जल्द ही ध्यान नहीं दिया गया तो युवा बहक भी सकते हैं। उनके अंदर भरपूर एनर्जी है- धन की भी और तन की भी और इस एनर्जी को सही दिशा देना बेहद जरूरी है। वरना वो क्राइम में भी उतर सकते हैं।’

पंचायत को पूरा अधिकार
इन गांवों के आसपास भले ही एक सुपर माॅडर्न वल्र्ड खड़ा हो रहा हो। लेकिन आज भी ये गांव अपनी जड़ों को नहीं छोड़ पाए हैं। आज भी गांवों में पंचायतें फैसले लेती हैं। लड़का-लड़की का अपनी मर्जी से ‘लव मैरिज’ करना अवैध माना जाता है। आॅनर किलिंग की घटनाएं होती हैं, लेकिन उनको इस कदर समाज का समर्थन प्राप्त है कि वे घटनाएं प्रकाश में भी नहीं आ पातीं। युवा अपनी दुनिया में कितने भी मनचले और उन्मुक्त क्यों न हों, लेकिन गांव के बड़े बुजुर्गों के सामने आज भी जुबान नहीं खोल पाते।

अर्बन जोन
उत्तर प्रदेश सरकार ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण फैसला लेते हुए यमुना एक्सप्रेस वे के दोनों तरफ के इलाकों को अर्बन जोन घोषित कर दिया है। ग्रेटर नोएडा का ये अर्बन जोन नोएडा से कम से कम दस गुना बड़ा होगा। इससे छह जिलों के 1187 गांव शहरी सीमा में आ जाएंगे। एक्सप्रेस वे के बाईं तरफ 10 से 15 किमी का क्षेत्र और दाईं तरफ यमुना नदी तक का क्षेत्र इस अर्बन जोन की हद में आ जाएगा। सरकार का तर्क है कि एक्सप्रेस वे के दोनों तरफ बेतरतीब तरीके से होने वाले विकास की जगह एक सिस्टेमैटिक डेवलपमेंट करने के लिए ये फैसला जरूरी था। इस फैसले का इन गांवों पर क्या असर होने जा रहा है इसका अंदाजा अभी से लगाया जा सकता है। सुरेंद्र नागर कहते हैं कि ‘जो लोग अब तक दाल-रोटी को तरजीह देते थे उनको जबरदस्ती डोमिनोज पिज्जा परोसने की कोशिश है’। 

संस्कृति
गांवों के आसपास भले ही विकास अपने पांव पसारता जा रहा है, लेकिन गांवों की संस्कृति में बहुत बड़ा परिवर्तन नहीं आया है। जब मैं श्यामवीर के साथ चैहड़पुर गांव में घुस रहा था तो गांव के मुहाने पर ही कुछ महिलाएं गोबर से उपले बनाने व्यस्त थीं। जब उन्होंने मुझे अपनी ओर देखता पाया तो उन्होंने झट से पर्दा कर लिया। गांवों के लड़कों ने भले ही जींस पहननी शुरू कर दी है लेकिन महिलाएं भी पारंपरिक सूट और साड़ी ही पहनती हैं। बस इतना जरूर है कि उनकी साड़ी अब थोड़ी महंगी हो गई है। हां, अगर खत्म हो रही है तो मर्दानी धोती। गांव के बूढ़े भी अब धोती कुर्ता की जगह कुर्ता पयजामा पहन रहे हैं। वैसे अब तो संसद में धोती वाले नेता कम होते जा रहे हैं। उत्तर भारत में धोती हो या दक्षिण भारत की लूंगी युवाओं में इस परिधान के प्रति रुझान काफी तेजी से घट रहा है। शहरों में तो धोती वैसे भी रुढि़वादी और दकियानूसी विचारधारा का प्रतीक होती है।

इंश्योरेंस एजेंट
बातचीत में पता चला कि गांवों में अभी मैकडोनाल्ड बर्गर और डोमिनोज पिज्जा का चलन तो नहीं, लेकिन इंश्योरेंस एजेंट धड़ल्ले से पहुंच रहे हैं। गांव वालों को अचानक मिली अकूत संपत्ति को सही जगह इंवेस्ट करने की तरीके सुझाने के लिए तमाम कंपनियों के एजेंट्स गांव की धूल फांक रहे हैं। ये भी कोई अतिश्योक्ति नहीं कि ज्यादातर एजेंट इन्हीं गांवों के रहने वाले हैं, जो आपसी विश्वास और भाईचारे के आधार पर लोगों को पाॅलिसियां बेच रहे हैं। हालांकि लोगों की ये भी शिकायत थी कि कुछ एजेंट्स उनका पैस लेकर भाग गए, जो शहर से आए थे और ये लोग उनको जानते भी नहीं थे।

और अब नाइट सफारी
यमुना एक्सप्रेस वे के आसपास के गांव में रहने वाले लोगों के बीच अब ‘नाइट सफारी’ का एक नया शिगूफा आ रहा है। इस क्षेत्र में रहने वाले अधिकांश लोग तो नाइट सफारी का मतलब भी नहीं जानते। लेकिन अगर सबकुछ ठीक रहा तो ये अजीबोगरीब नाम जल्द ही उनके बीच प्रचलित होने वाला है। जी हां, नाइट सफारी मतलब एक ‘नाॅक्टरनल जू’ यानि रात को देखा जाने वाला चिडि़याघर। विश्व भर में अब तक केवल तीन देशों में ही नाइट सफारी हैं- सिंगापुर, चीन और थाइलैंड। यदि प्रयास सफल होते हैं तो भारत इस तरह का चैथा देश होगा। ग्रेटर नोएडा अथाॅरिटी सूत्रों की मानें तो विश्वप्रसिद्ध जू डिजाइनर बरनार्ड हैरिसन, जिन्होंने सिंगापुर नाइट सफारी को डिजाइन किया था, ग्रेटर नोएडा नाइट सफारी को भी डिजाइन करेंगे। 222 एकड़ में बनने वाले इस मेगा प्रोजेक्ट में तमाम तरह के वन्यजीवों को लाने की तैयारी है। पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए यहां हाई प्रोफाइल कैसीनो और रेस्तरां भी तैयार करे जाएंगे। इतना तो तय है कि इस नाइट सफारी के बनने से एनसीआर के लोगों को मस्ती का नया अड्डा और देश के लोगों को एक शानदार पर्यटन स्थल मिलने जा रहा है, लेकिन एक्सप्रेस वे के आसपास बसे गांवों में रहने वाली आबादी की जिंदगी को ये किस तरह प्रभावित करेगा ये देखना होगा। बहरहाल इस नाइट सफारी को सेंट्रल जू अथाॅरिटी और सुप्रीम कोर्ट से मंजूरी मिल गई है। गौतम बुद्ध यूनिवर्सिटी के पास बनने वाले इस प्रोजेक्ट के लिए जमीन का अधिग्रहण भी किया जा चुका है। जब ये नाइट सफारी अस्तित्व में आएगी तब शायद गांवों के लोग इसके आसपास चाय और जूस के खोखे लगाते नजर आएं। या फिर ऐसा भी हो सकता है कि हाइजीन के नाम पर उनको इसकी भी इजाजत न दी जाए।


’’यमुना एक्सप्रेस-वे पूर्णतयाः व्यवासयिक दृष्टिकोण पर आधारित है। इसमें किसान और गांवों का कोई लाभ नहीं है। इस एक्सप्रेस-वे को बनाने में जिस तरह की नीतियां अपनाई गई हैं, उससे वेस्ट यूपी का ग्रामीण अंचल बर्बाद हो जाएगा। इस क्षेत्र में मुख्यतौर पर गुर्जर, पंडित, ठाकुर और जाटों के पास अधिकांश जमीनें हैं। ये एक तरह से इन जातियों को कमजोर करने का भी जरिया है। इस क्षेत्र में लगातार बढ़ रहा अपराध आने वाले बुरे समय की ओर इशारा कर रहा है। सरकार को किसानों की पूरी जमीन न लेकर आधी जमीन लेनी चाहिए थी, ताकि उनका परंपरागत काम उनके हाथ से नहीं छिनता। साथ ही 25 प्रतिशत जमीन किसानों के लिए विकसित करके देनी चाहिए थी, ताकि वे उसमें कोई व्यवसाय आदि कर सकें। सरकार फार्म हाउस तो बना रही है लेकिन वे उद्योगपतियों के लिए हैं। इस क्षेत्र को जो अर्बन जोन में कन्वर्ट करने का फैसला आया है वो बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। इसको लागू नहीं होने दिया जाएगा। किसान अभी शांत हैं, इसका मतलब ये नहीं कि आंदोलन समाप्त हो गया। आंदोलन फिर शुरू होने वाला है, हम अपनी पूरी ताकत लगा देंगे। जमीन अपनी शर्तों पर देंगे और अपने रेट पर देंगे। चाहे हमारी जान ही क्यों न चली जाए।’’
-मनवीर सिंह तेवतिया, अध्यक्ष, सर्वदल किसान संर्घष समिति


Quick Facts about Yamuna Expressway
§  Districts Touched: 6 (Gautam Buddha Nagar, Bulandshahr, Aligarh, Mahamaya Nagar (Hathras),Mathura and Agra)
§  Villages Touched: 1187
§  Rural Population affected:  24 Lakhs
§  Length - 165.53 km
§  Right of Way - 100m
§  Number of Lane - 6 Lanes extendable to 8 lanes
§  Type of Pavement - Rigid (Concrete)
§  Interchange - 7
§  Main Toll Plaza - 3
§  Toll Plaza on Interchange Loop - 7
§  Underpass - 35
§  Rail Over Bridge - 1
§  Major Bridge - 1
§  Minor Bridge - 42
§  Cart Track Crossing - 68
§  Culverts – 204
§  Slated to Complete in: April 2011
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