Monday, January 23, 2012

बेरियों के बेर पक गए...

आज सुबह-सुबह आॅफिस जाते वक्त छोटे-छोटे हरे-पीले बेरों से भरा एक ठेला दिखा। मतलब बसंत पंचमी आसपास ही है। इस दिन होने वाली सरस्वती पूजा में चढ़ावे में सबसे ज्यादा बेर चढ़ाए जाते हैं। आॅफिस आकर कैंलेण्डर देखा तो पता चला कि इस बार बसंत 28 जनवरी से शुरू हो रहा है। बसंत पंचमी पर सरस्वती पूजा के साथ-साथ होलिका भी रखने की परंपरा है। गांवों में होली बसंत पंचमी को ही रख दी जाती है। लेकिन कुछ शहरों में चैराहों पर जगह की किल्लत को देखते हुए प्रायः एक-दो दिन पहले ही होलिका रखने का प्रचलन है। पीली सरसों, पीले कपड़े और पतंगबाजी से भी बसंत आगमन का जुड़ाव है। ऋतुओं में सबसे श्रेष्ठ ऋतु। बसंत पर न जाने कितने कवियों की कल्पनाओं ने लिख-लिख कर कलम तोड़ दीं।

खैर, हम बसंत ऋतु की नहीं बल्कि बेरों की बात करेंगे। बेर अमूमन काफी सस्ता फल है। गांव में तो जंगलों में उगे पेड़ों से आप मुफ्त में प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन महंगाई के इस दौर में मेट्रो सिटीज में बेर के दाम भी आसमान से नीचे कैसे हो सकते हैं। सरस्वती पूजा पर तो बेरों का महत्व है ही, लेकिन भोलेनाथ को भी बेर कम प्रिय नहीं हैं। इसलिए शिवरात्रि पर भी बेरों की रेलमपेल रहती है। भगवान शिव ने तो वैसे भी भस्म, बिल्वपत्र, धतूरा, भांग आदि चीजों को अपनाकर मनुष्य को प्राकृतिक जीवन जीते हुए कम से कम जरूरतों में जीवन यापन करने की सीख दी है। भगवान शिव का पूजन सबसे सरल और सबसे सस्ता है। उन्होंने कभी अपने भक्तों से छप्पन भोगों की लालसा नहीं की। बेर भी ऐसा ही फल है जो आसपास के पेड़ से तोड़कर सीधे भोले को समर्पित किया जा सकता है। इधर शबरी को जब कुटिया में पधारे अपने प्रभु का आदर सत्कार करना था, तो उस बूढ़ी भगतनी को भी बेरों से सुलभ फल कोई नहीं दिखा। बेरी का पेड़ उसको अपनी कुटिया के आसपास ही मिल गया होगा।

वैसे तो बेर एक जंगली पेड़ है। यहां-वहां यूं ही उग आता है। कांटेदार और बेहद नीरस सा नाॅन रोमैंटिक पेड़। फिर भी बाॅलीवुड की गीतों की खान में से एक-दो गानों में बेरी का जिक्र मिल ही जाता है कि साहब- मेरी बेरी के बेर मत तोड़ो, कांटा लग जाएगा... और दूसरा वाला था कि जी- ऋतु प्यार करन की आई... और बेरियों के बेर पक गए जिंदमेरिये....। गीतकार की सोच का कुछ भरोसा नहीं, जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि। बेरी जैसे कंटीले पेड़ पर ही गाना लिख डाला। लेकिन शुक्र इस बात का है कि किसी निर्देशक ने अपनी हीरोइन से बेरी के पेड़ का आलिंगन करते हुए गाना नहीं फिल्माया। दूसरे वाले गीत ने इशारों में ये भी बता दिया कि जब प्यार करने की ऋतु आती है तो बेरियों पर बेर पक जाते हैं या ये कहें कि जब बेरियों पर बेर पक रहे हों तो प्यार करना चाहिए। सो बसंत और प्रेम का संबंध कितना पुराना है ये बताने की जरूरत ही नहीं है। शिव सेना का दुश्मन मूआ वैलेंटाइन डे भी बसंत में ही आता है।

वैसे आम का बाग लगाते लोगों को खूब सुना, लेकिन बेरी का बाग लगाते किसी को नहीं देखा, सुना। गांव में बसंत के दिनों में बच्चों का फेवरेट टाइम-पास होता है खेतों में उगे जंगली बेरों से बेर तोड़कर इकट्ठा करना। फिर चाहे उसके लिए डांट पड़े या हाथ में कांटा लगे। इतनी मेहनत से प्राप्त हुए फल भले ही खट्टे हों, पर गजब के मीठे लगते हैं। खेतों के किनारे उगी बेरी की झाडि़यों से निजात पाने के लिए किसान उसमें कई बार आग भी लगा देते हैं। पर बेशर्म इतना कि फिर से उग आता है। आम के पेड़ की तरह बेर के पेड़ के नखरे नहीं होते। बेर एक तरह से देश की आम जनता की तरह है कहीं भी किसी भी माहौल में एडजस्ट कर लेता है और आम का पेड़ नाम से ‘आम’ होते हुए भी देश के इलीट क्लास को दर्शाता है, जो हर चीज में वीआईपी ट्रीटमेंट चाहता है। गांवों में तो शायद ही कोई बेर खरीदकर खाता हो। लेकिन शहर में बेर का पेड़ खोजना फिर उससे फल तोड़कर खाना थोड़ी टेढ़ी खीर है। खैर, दिल्ली की भागमभाग से समय निकालकर सिर्फ बेर तोड़कर खाने की ख्वाहिश से गांव जाना मुश्किल है, तो जी खरीदकर ही खा लिए जाएंगे। कल बेरों पर हुई बातचीत में ये भी पता चला कि बिहार में बसंत पंचमी की पूजा के बाद ही बेर खाने की परंपरा रही है, उससे पहले खाना दोष माना जाता है। लेकिन अब बहुत कम लोग इस परंपरा को निभाते हैं। ऐसी ही एक परंपरा हमारे गांव में भी है जो गन्ने से जुड़ी है, जिसमें ‘‘देव-उठान’’ की पूजा से पहले न तो गन्ना खाया जाता है और न ईख की छिलाई शुरू की जाती है। पर इन परंपराओं के मर्म पर फिर कभी। अभी आप बाजार जाओ और बेर खरीदकर खाओ!