आखिरकार आईपीएल-३ का फ़ाइनल निबट ही गया. वैसे तो फ़ाइनल में जीत चेन्नई सुपर किंग्स की हुई है, लेकिन हार बहुतसों की हुई. मुंबई इंडियंस के साथ साथ इस इस आईपीएल में देश के विदेश मंत्री हार गए, आईपीएल के मालिक हार गए और अभी कई लोगों का हारना बाकी है. इन हारों का सिलसिला शायद अब सालभर चलेगा. लेकिन क्रिकेट के नेशनलाईजेशन से लोकलाईजेशन थ्रू ग्लोबलाईजेशन से कई रंग सामने आये हैं.
कौन हारा
खेल में अपनी टांग घुसा के राजनीति एक बार फिर हार गयी है. ये इतिहास रहा है कि जब जब राजनीति ने खेल या धर्म में अपनी टांग घुसाई है तब तब राजनीति की न केवल हार हुई है बल्कि धर्म और खेल की छवि भी ख़राब हुई है. लेकिन फिर भी राजनीति बाज़ नहीं आती. जहाँ जहाँ पैसे कि खनखनाहट या फिर लोगों का शोर सुनाई देता है वो अपनी टांग घुसाने पहुच जाती है. कुछ जगह ऐसी होती हैं जहाँ न नेता चाहिए, न ब्यूरोक्रेसी. वहां लोग अपने आप को खुद मैनेज करना जानते हैं, वहां वो कायदों से दूर रहना चाहते हैं.
दूसरी हार कॉर्पोरेट वर्ल्ड की हुई है, जिसने खेल को माध्यम बनाकर चाँदी कूटने की कोशिश की. पैसे की चमक ने ऐसा अँधा किया कि कायदा कानून सब भुला दिया. डर इसलिए नहीं था क्योंकि सिस्टम में बैठे लोगों का हाथ सर पे था. सो लगे थे गोरखधंधा करने में. ये तो सर्वविदित है कि आईपीएल में जमकर सट्टेबाजी होती है. लेकिन झूठ के पाँव लम्बे नहीं होते किसी खेल की आड़ में दूसरा खेल चलाना ज्यादा दिनों तक मुमकिन नहीं. देश की क्रिकेट दीवानगी का लोकलाईजेशन करना कमाई का बढ़िया तरीका था, लेकिन आखिरकार नियत में खोट पकड़ी गयी.
कौन जीता
जीत तो बशर्ते खेल की ही हुई है. देश को नेशनल फीवर की जगह क्रिकेट का लोकल फीवर चढ़ा. लोगों ने जमकर एन्जॉय किया, टिकटें हाथ नहीं आई. हर तरफ से चाँदी ही चाँदी बरसी. आईपीएल में दूसरा जो सबसे बड़ा फायदा हुआ वह है क्षेत्रवाद पर प्रहार. अलग अलग जगहों के खिलाडी अलग अलग शहरों के लिए खेले और वहां के लोगों ने उनको स्वीकार भी किया. झारखण्ड के धोनी ने चेन्नई के लिए कप्तानी की और उसको जीता भी दिया. ऑस्ट्रेलिया में भले ही भारतियों पर हमले किये जा रहे हों. लेकिन आईपीएल में खेल रहे किसी भी ऑस्ट्रलियाई खिलाडी के खिलाफ देश में कोई आवाज़ नहीं सुनाई दी. सुनाई दी तो केवल और क्रिकेट की डिमांड. लोगों का फोकस इस कदर लोकल हो गया कि पिछली दफा राहुल द्रविड़ ने कहा कि- ऐसा पहली बार हुआ जब मैंने इंडिया में छक्का मारा और तालियाँ नहीं बजी. हमारे खिलाडी, हमारा खेल, हमारे दर्शक, हमारे शहर, हमारा देश ये सब इस आईपीएल में जीत गए हैं. हारे केवल वे लोग हैं जो एक खेल की आड़ में कई खेल खेलने की कोशिश कर रहे थे.
सोमवार, 26 अप्रैल 2010
रविवार, 25 अप्रैल 2010
देख तमाशा नकली का
गाँधी के भारत में देखो लोग तमाशा नकली का.
बच्चे को जो दूध पिलाया वो मिला यूरिया नकली था,
कंप्यूटर का पार्ट खरीदा वो भी साला नकली था,
होली पर जो मावा लाया वो सपरेटा नकली था,
खाकर जब खटिया पे लेटे हुआ पेट दर्द असली का.
चेहरा नकली, पहरा नकली, तू देख तमाशा नकली का.
जो नेता चुनके संसद भेजा उसका चेहरा नकली था,
उसके मुंह से जो भी निकला वो हर वादा नकली था.
नेता के चमचे ने चीखा वो हर नारा नकली था,
पब्लिक के पैसे से लेकिन मज़ा उड़ाया असली का,
बातें नकली, लातें नकली, हाय तमाशा नकली का.
गर्ल फ्रेंड के आंसूं में भी भाव मिला था नकली का,
मीठी मीठी बातों में सब सार छुपा था नकली का,
उसकी तिरछी नज़रों में एक बाण छिपा था नकली का,
इस चक्कर में लगा जेब को वो फटका तो असली था,
प्यार भी नकली, हार भी नकली, खेल तमाशा नकली का.
चीनी, पत्ती, दाल, मसाले, चना, चबैना, नकली का,
खा-खा के चर्बी है लटकी दिखता पौरुष नकली सा,
घर की रसोई से होटल तक हर माल मिला है नकली सा,
पैदा होते नज़र गिरी और लगा है चश्मा असली का,
बॉडी नकली, ताकत नकली, कुछ बचा न जग में असली का.
धरती में एक बूँद भी पानी नहीं बचा है असली का,
कोला पीकर काम चलाओ मज़ा उठाओ नकली का,
नकली आटा, नकली चावल, पेट फुलाओ नकली सा,
तन को अब जो रोग लगा वो रोग लगा है असली का,
बुद्धि नकली, वृद्धि नकली, लाभ हुआ सब नकली का.
पैसे के पीछे अंध दौड़ में हुआ ये जीवन नकली सा,
भूल गए सब तौर तरीका किया है मेक-अप नकली का,
चाल ढाल माहौल है नकली, रिश्ता जोड़ा नकली का,
हर रिश्ते की जड़ में पैसा, स्वार्थ जुडा है असली का,
बेटा नकली, बेटी नकली, घर बना तमाशा नकली का.
शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010
दिल्ली में रैली कराओ-सरकार झुकाओ
न काम से न आराम से और न किसी एटम बम के झाम से, दिल्ली को खतरा है तो केवल ट्रैफिक जाम से... वाह! वाह! वाह! मुझे शायरी आ गयी...
दिल्ली में फिर एक रैली हुई और फिर दिल्ली ठहर गयी. दिल्ली की सडकों पर धुएं, धुल, और धूप के कॉकटेल का शानदार आयोजन. और इस बार इस आयोजन की प्रायोजक थी भारतीय जनता पार्टी.
बीजेपी वाले लम्बे समय से शिथिल पड़े थे. नए अध्यक्ष को अभी तक अपना हुनर दिखाने का कोई बड़ा अवसर भी तो नहीं मिला है. सो उन्होंने चिलचिलाती गर्मी में महगाई को मुद्दा बनाकर दिल्ली में एक रैली का आयोजन रख लिया. सॉरी, रैली नहीं महा रैली. हालाँकि ये गर्मी खुद बीजेपी अध्यक्ष के लिए भरी पड़ी. अध्यक्ष महोदय समस्त कार्यकर्ताओं के सामने गर्मी के चलते गश खाकर गिर पड़े. और इन मुए अख़बार वालों को तो देखो, इत्ती बड़ी रैली करी उसकी तो कोई तस्वीर न छापी, बेहोश अध्यक्ष महोदय की तस्वीर हर अखबार ने छाप दी वो भी फ्रंट पेज पे. इतनी मेहनत से भाषण तैयार किया, हलक फाड़ फाड़ के चिल्लाये, लाखों का खर्चा हो गया, लेकिन इस सब पर अध्यक्ष का बेहोश हो जाना भारी पड़ा.
अजी ये सब छोडो, हमें तो दिल्ली की बात करनी है. तो जनाब पूरी दिल्ली बुधवार को दस घंटे तक जाम की चपेट में रही. पूरा का पूरा सरकारी अमला ध्वस्त. एक लाख लोगों (जैसा कि बीजेपी का दावा है) की रैली और पूरी दिल्ली अपने घुटनों पे. ये है अपनी राजधानी की सुव्यवस्था. पिछली दफा अपनी यूपी के किसान लोग गन्ने ले ले के आ गए थे. उस समय भी दिल्ली की लाचारी देखने लायक थी. किसानों के सामने किसी की एक न चली. सरकार ने आनन् फानन अपने घुटने टेक दिए और किसानों की सभी मांगों को मोटे तौर पर मान लिया. अपने एक भाई भी इस रैली में भाग लेने के लिए मेरठ से आये थे. उन्होंने ट्रैफिक में फंसी एक मैडम की टिप्पणी सुनाई- "ओ माई गौड! इतने सारे देहाती". वो तो अभी बहन जी ने अपनी कोई रैली दिल्ली में नहीं की है. अगर उन्होंने कोई रैली दिल्ली में रख ली तो पूरी दिल्ली को पानी पिलाने वाला कोई न होगा. (वैसे सीबीआई वाले मुद्दे पे उनको दिल्ली में एक रैली रख लेनी चाहिए)
अब इससे सस्ता और टिकाऊ उपाय क्या हो सकता है भला. सरकार से कोई मांग मनवानी है तो दिल्ली में एक विशाल रैली का आयोजन रख लें, वो भो वोर्किंग-डे में. जहाँ आपके एक लाख कार्यकर्ता वाहनों के साथ दिल्ली में घुसे वहां सरकार ने अपने घुटने टेके. क्योंकि इत्ते लोगों को पिलाने के लिए न न तो दिल्ली के पास मुफ्त का पानी है और न खाना. ऐसे में दिल्ली को सबसे बड़ा खतरा रैलियों से है. सरकार को ब्लैक मेल करने का नायाब तरीका. रैली कराओ - सरकार झुकाओ, जय दिल्ली , जय विकास, जय राजनीति.... (पता नहीं कॉमनवेल्थ खेलों में क्या मुंह दिखायेंगे. भगवान् ही मालिक है.)
सोमवार, 12 अप्रैल 2010
हमारी जेब में है पैसा, हमें किस बात की चिंता...
Heatwave sweeps North India, Bengal; Ganganagar hottest at 44.8 C (11.4.2010- TOI, indiatimes.com)
हाँ तो भाई लोग, कैसी कट रही है गर्मी में. क्या कहा, हाल बेहाल है. क्यूँ भई आपके घर में एसी है, कूलर है, पंखा है, फ्रिज है, एसी लगी गाड़ी है, पहाड़ों की सैर करने के लिए पैसा है, फिर क्यों तकलीफ है. इतना सामान आखिर किस लिए जोड़ा था, इसी दिन के लिए न. इस्तेमाल करो और मज़े लो. क्या कहा, कोई मज़ा नहीं आ रहा. क्यों भाई, आप लोग ही कहते हो कि इन्सान के पास पैसा होना चाहिए, दुनिया के सारे सुख उसके पीछे-पीछे चलते हैं, अब बुला लो न सुख. ये ग्लोबल वार्मिंग का हो हल्ला क्यों मचाया हुआ है. इस ग्लोबल वार्मिंग के लिए न ग्लोब जिम्मेदार है और न वार्मिंग.
अरे भाई, शरीर को आराम देने और थोड़ी शान झाड़ने के चक्कर में आप संसाधन पर संसाधन जुटाने की रेस में शामिल हुए. लेकिन ये रेस तो अंतहीन निकली. शरीर का आराम-वाराम तो गया भाड़ में. आपने तो कमाने के चक्कर में न दिन देखा और न रात. शरीर को मशीन बना डाला. खुद बैल बन गए और अपने अधीनस्थों को भी बैल बना डाला. अपने चैन के चक्कर में दूसरों का भी चैन छीन लिया. अब स्थिति ये है नींद की गोली लेकर सोते हैं. ताज़ा हवा के लिए किसी महंगे से पर्यावरण क्लब की सदस्यता लेनी पड़ती है या स्विटज़रलैंड जाना पड़ता है. क्योंकि विकास के विनाशी खेल में हमने अपनी नदियों और अपने वातावरण को तो किसी लायक छोड़ा नहीं.
हाँ वो बत्तियां बुझाने का भी तो एक खेल खेला था पीछे हम लोगों ने. ये खेल बढ़िया इजाद किया है भई. वो क्या कहते हैं कि "दिल बहलाने को ग़ालिब ख्याल अच्छा है". मतलब साल भर तो प्रकृति का बलात्कार करो और साल में एक दिन आधा घंटे के लिए बत्ती बुझा कर बोलो- "आई एम सॉरी!". चलो अगर सबको ऐसा ही लगता है कि इस तरह से सब ठीक हो जायेगा तो खुश हो लो. वैसे बाजारू ताकतों ने इस मुहिम को भी नहीं बख्शा था और इससे भी जमकर कमाया. सारे के सारे ऐसे दिखने की कोशिश कर रहे थे मानो उनसे ज्यादा प्रकृति की चिंता किसी को नहीं.
जब हमारी परम्पराएँ नदियों, पेड़ों, पहाड़ों आदि को पूजने का मार्ग दिखाती हैं तो सब हमपर हँसते हैं. कहते हैं कि हम गंवार हैं, हम अन्धविश्वासी हैं. भारत तो सपेरों का देश है और जाने क्या क्या. अगर वो गंवारपन अपनाया होता तो आज के शहरी बाबुओं को ग्लोबल वार्मिंग की समस्या पेश नहीं आती. किसी फार्म हाउस पर जाकर किराये की ओक्सिजन नहीं लेनी पड़ती. घर की खिड़की खोलते ही मुफ्त की शुद्ध वायु आपके और आपके परिवार के फेफड़ों को तर कर देती. लेकिन नहीं, हमें तो सब कुछ कृत्रिम चाहिए. अगर में एसी नहीं लगाया तो लोग क्या कहेंगे. स्टेटस सिम्बल तो मेंटेन करने ही पड़ेंगे.
शनिवार, 10 अप्रैल 2010
हर बार एक ही बात क्यों दोहराई जाती है?
खबर मिली है कि दंतेवाडा की घटना के बाद आप इस्तीफ़ा देना चाहते हैं. लेकिन प्रधानमंत्री ने आपका प्रस्ताव ठुकरा दिया है. अच्छी बात ये रही कि बीजेपी ने भी आपका समर्थन किया है और वो भी नहीं चाहती कि आप पद त्याग करें.
सच पूछिए तो देश के लोग भी नहीं चाहते की आप इस्तीफ़ा दें, क्योंकि लोग आप से पूर्ववर्ती गृह मंत्री की कार्यशैली देख चुके हैं. कम से कम आपके काम करने का तौर तरीका उनके जैसा नहीं है. आप की बात में काफी हद तक गंभीरता झलकती है. ये आपकी इमानदार स्वीकारोक्ति है कि इस जघन्य जनसंहार के लिए अंततः आप ही जिम्मेदार हैं. सो, इस समय आपका पद त्याग उचित नहीं.
लेकिन मिस्टर पीसी, आपको अब ये समझ लेना चाहिए कि लोग अब आजिज आ चुके हैं. आखिर कब तक हम भारतियों का खून पानी की तरह बहता रहेगा. जब जिसके मन में आता है हमारा खून बहा के चला जाता है. हद तो तब होती है जब लोगों के खून पर राजनीती होने लगती है.
अच्छा हाँ, आज आपके मंत्रालय ने देश के सभी प्रमुख अख़बारों में विज्ञापन दिया है. विज्ञापन कह रहा है "इनफ-इज-इनफ". आखिर ये विज्ञापन देकर आप साबित क्या करना चाहते हैं. ये बात जो इस विज्ञापन में कही गयी है वो हर बार कही जाती है. लेकिन कभी कोई ठोस कदम नहीं उठाया जाता. भावनात्मक भाषण देने से कोई काम बनने वाला नहीं है. सरकार को दृढ इच्छाशक्ति दिखानी होगी, ढुल-मुल रवैये से कुछ काम बन ने वाला नहीं है. इस देश के लोग सरकार इसीलिए चुनते हैं कि वह उनकी रक्षा करे. आप विज्ञापन देकर पता नहीं किस को क्या दिखाना चाहते हैं.
सरकार हर तरह से सक्षम है. इस हत्याकांड का बदला लेना बेहद जरूरी है. ये हमारी बदला न लेने की प्रवृत्ति ही है जिसका हम आज खामियाजा भुगत रहे हैं. अपनी अच्छी छवि बनाने के चक्कर में हम हर साल हजारों लोगों को खो रहे हैं. अगर गिन ने बैठ जाएँ तो गिनती ख़तम हो जाये, लेकिन जुल्म की दास्ताँ न ख़तम होगी. भारत इतना कमजोर तो कभी नहीं रहा.
आतंकियों ने हमारा हवाई जहाज हाई-जैक किया, हमने बदला नहीं लिया,
बांग्लादेशियों ने हमारे जवानों की ऑंखें निकल ली, हमने बदला नहीं लिया,
हमारी संसद की आबरू को तार तार कर दिया गया, हमने बदला नहीं लिया,
हमारे धार्मिक स्थलों को लहूलुहान कर दिया गया, हमने बदला नहीं लिया,
हमारी दिवाली काली कर दी गयी, हमने बदला नहीं लिया,
होटल ताज बर्बाद कर दिया गया, हमने बदला नहीं लिया,अब हमारे ७६ जवान हमसे छीन लिए गए और हम अब भी चुप हैं....
मिस्टर पीसी, माना कि आप भले आदमी हैं, लेकिन ये भलाई अपने नागरिकों के लिए रखिये, आतताइयों के लिए नहीं. जब तक खून का बदला खून नहीं होगा, इस तरह की घटनाएँ रुकने वाली नहीं हैं. हमारी शांति प्रियता को अब हमारी कमजोरी और कायरता समझा जाने लगा है. इस छवि को जल्द से जल्द बदला जाये.
गुरुवार, 8 अप्रैल 2010
अबकी बार मार के देख....
भारत के बड़े लोकप्रिय प्रधानमंत्री हुए अटल बिहारी वाजपेयी. सत्ता में आने से पहले देश को उनसे जरुरत से ज्यादा उम्मीदें थीं. अपने कार्यकाल में उन्होंने एक बड़ा बढ़िया बयान दिया था- "पाकिस्तान हमारे सब्र का इम्तिहान न ले, सब्र का प्याला भर गया तो अंजाम अच्छा न होगा....". इस बयान में अपने देश की लाचारी साफ़-साफ़ झलकती है. वो दिन था और आज का दिन है भारत का सब्र का प्याला आज तक नहीं भरा है. देश की आज़ादी से लेकर आज तक कितनी ही सरकारें आई और चली गयीं. लेकिन उनके सब्र का बांध भाकड़ा-नागल बाँध से भी मजबूत था. कभी नहीं टूटा. गाल पर तमाचे पर तमाचे खाए, आम जनता मरती रही, पिसती रही, लेकिन कभी कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया. कही वोट बैंक आड़े आया तो कभी ऊपरी दवाब.
छत्तीसगढ़ में नक्सलियों ने अब ऐसा थप्पड़ मारा है जो किसी भी गैरतमंद देश की सरकार की नींद तोड़ने के लिए काफी है. भारत सरकार के चेहरे पर इस थप्पड़ की पांचों उँगलियों के निशान साफ-साफ छप गए हैं. लेकिन हमको पूरा विश्वास है कि इससे सरकार रवैये पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा. देश के गृह मंत्री रटा-रटाया बयान देंगे, जिसमें रीढ़ विहीन सरकार की लाचारी नज़र आएगी. आखिर हो भी क्यों न, जो लोग मरे हैं उनमें सरकारी कर्मचारी भले ही हों लेकिन कोई सरकार में बैठे दिग्गजों का नाते रिश्ते वाला नहीं है न. आम लोग मरे हैं, वो तो मरते ही रहते हैं. उनके मरने से सरकार के काम काज पर कोई फर्क नहीं पड़ता. ७६ मरे हैं, हमारे पास तो सवा सौ करोड़ हैं.
इससे भी गैरत की बात ये है कि देश का एक तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग नक्सलियों, माओवादियों जैसे लोगों के साथ बातचीत का पक्षधर है, उनको सही ठहरा रहा है और उनको मुख्या धरा में शामिल करने की बात करता है. इन बुद्धिजीविओं में तमाम बड़े मीडिया संस्थान, बड़े बड़े विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरान, दिग्गज लीडरान शामिल हैं. हमें यकीन है कि छत्तीसगढ़ में इतने बड़े हत्याकांड के बाद भी इन लोगों का समर्थन जारी रहेगा.
आखिर कब तक हम नम्र रुख अख्तियार करे रहेंगे. ऐसे संगठनों और उनके समर्थकों दोनों के खिलाफ अगर कठोर कदम नहीं उठाया गया तो हम इसी तरह के नरसंहार के साक्षी बनते रहेंगे. कम से कम हमें दूसरे देशों से ही कुछ सबक लेना चाहिए. हाल ही में हुए मॉस्को हमले में रूस के प्रधानमंत्री व्लादिमीर पुतिन जो बयान दिया उसके बाद आतंकी अपने बिलों में घुस गए होंगे. पुतिन ने कड़ा बयान देते हुए कहा कि- एक-एक आतंकी को गटर में से खींच- खींच कर नष्ट किया जायेगा. अमेरिका ने ९/११ हमले के बाद दुश्मन को उसी के देश में जाकर नष्ट किया और आज भी वहां कब्ज़ा जमाये है. हम तो संसद पर हमला करवाकर भी चुप रहे, होटल ताज में नाक कटवाकर पाकिस्तान के साथ केवल कागज़ी खेल खेल रहे हैं.
हिंसा के खिलाफ इस तरह का नम्र रुख अपनाना न तो शांति प्रियता है, न अहिंसात्मक उपदेश, ये तो भारत सरकार की केवल कायरता है और डरपोकपन है...... A BLOODY SHAME
मंगलवार, 6 अप्रैल 2010
क्या आप बोर हो रहे हैं...
अख़बारों में एक विज्ञापन तो सभी ने देखा होगा, अजी वाही वाला जिसमें फ़ोन नंबर दिए हुए होते हैं, साथ में एक कन्या का फोटो ओर बातचीत का खुला निमंत्रण. रसिक मिजाज़ लोग खूब इन नंबरों के झांसे में आते हैं और मोटा बिल भरते हैं. लेकिन अब तक ये अख़बार तक ही सिमित था. जिसकी गर्ज़ थी वही अपनी जेब ठंडी करता था. लेकिन हाय ये पैसे की दौड़, इन्सान को कहाँ ले जाकर पटकेगी पता नहीं. अब मोबाइल कंपनियों ने इन्सान की इस कमजोरी से कमाने का रास्ता अख्तियार कर लिया है. बार-बार फ़ोन करके ग्राहकों को प्रलोभन दिया जा रहा है और नए ग्राहक खोजे जा रहे हैं. उधर से आने वाली एक मादक आवाज आपकी तरफ दोस्ती का हाथ बढा रही है. अगर आप बोर हो रहे हैं तो आपका पूरा मनोरंजन करने का वादा भी कर रही है. और कह रही है कि जब मेरी हंसी इतनी दिलकश है तो मेरी बातें कैसे होंगी. इसके बाद ग्राहक को इस बातचीत के लिए खर्च होने वाली रकम भी बताई जाती है.
दिल्ली आने के बाद मैंने अपना नंबर डीएनडी नहीं कराया था. मेरे आईडिया और वोडा दोनों नंबरों पर दिन में एक-दो बार इस तरह की कॉल आ ही जाती हैं. कॉल तो बहुत आती हैं लेकिन इस कॉल के बारे में लिखना पड़ रहा है. बाज़ार की गिरावट का कोई अंत होता नज़र नहीं आता. पैसे के लिए किसी भी हद तक गिरने की तैयार हैं. कुंठाग्रस्त लोगों के बारे में तो कुछ कहा नहीं जा सकता लेकिन यहाँ बस उन युवाओं के बारे में सोचिये जिनको बहकाना आसान होता है. इस तरह कि कॉल उन को आसानी से पथभ्रष्ट कर सकती है.
कमाई कि ऐसी अंधी दौड़ मची है कि कुछ कहना मुश्किल है. दिल्ली के मार्केट को ओपन माइन्डिड बनाने में अंग्रेजी मीडिया का बड़ा हाथ है. अपना मार्केट ज़माने के लिए हर चीज़ छापी जा रही है. जो कोई ऊँगली उठाये तो उसको रुढ़िवादी, दकियानूसी, आदि आदि शब्दों से अलंकृत कर दिया जाता है. जब कि इस खुलेपन कि जड़ में केवल पैसे कि भूख दबी है, ऊपर से जो भी चाहे प्रदर्शित किया जाये. जब कुछ नहीं मिलता तो सेक्स सर्वे ही छाप दिया जाता है. साथ में कुछ ऐसी तस्वीरें जो किसी का भी ध्यान खीचने का मद्दा रखती हैं. तुर्रा ये कि समाज को ब्रॉड-माइन्डिड बनाया जा रहा है.
इस ब्रॉड-माइन्डिडनेस को फ़ैलाने के पीछे केवल और केवल पैसे की लोलुपता है, जिसे प्रोग्रेसिव सोच का आवरण उढ़ा दिया गया है.
शनिवार, 3 अप्रैल 2010
संस्मरण तिलक ब्रिज के...
बात उन दिनों की है जब अपन पत्रकारिता की पढाई पूरी करके नौकरी ढूँढने के अभियान पर थे. हमारे कॉलेज ने एडमिशन के समय जो वादे किये थे वो कोर्स ख़तम होते-होते धराशायी होते नज़र आये. अंततः अपनी क्लास का हर शख्स सड़क पर था, या फिर कुछ ने हायर एजुकेशन के लिए जाना उचित समझा. मुझे कुछ लोगों की ये राय सही लगी कि पत्रकारिता में सीखने के लिए ज्यादा कुछ नहीं है, पीजी करके भी वही नौकरी मिलेगी जो अब ग्राजुएशन करने के बाद मिल सकती है. तो क्यों दो साल बर्बाद करने. सो अपन निकल पड़े नौकरी की तलाश में. इस अभियान में मेरे साथ अनुज का साथ सबसे ज्यादा रहा. मैं चाचा के यहाँ फरीदाबाद में था ओर अनुज गाज़ियाबाद में. क्योंकि अधिकांश अख़बारों के दफ्तर आईटीओ पर थे इसलिए हम दोनों की मुलाकात अक्सर तिलक ब्रिज स्टेशन पर होती थी. वहीँ से फिर आगे प्रस्थान करते. लोकल यात्रियों के लिए तिलक ब्रिज, शिवाजी ब्रिज और आनंद विहार जैसे स्टेशन खासे अहमियत रखते हैं. देखने में भले छोटे-छोटे हों लेकिन हजारों की संख्या में लोग यहाँ अपनी मंजिल के लिए गाड़ी पकड़ते हैं. हालाँकि अब आनंद विहार स्टेशन वो वाला आनंद विहार नहीं रहा, जहाँ से गुजरते वक़्त अनुज मुझे कोहनी मारा करता था.
स्टेशन की सीढियों का दृश्य देखने लायक होता था. कोई अपने क्लाइंट से फ़ोन पर उलझ रहा है, तो कोई बिजनेस डील में बिजी है, कोई कागजों में नुक्ताचीनी कर रहा है, तो कहीं एक कोने में बैठे प्रेमी युगल सपनों की दुनिया बुन रहे हैं. सभी को ट्रेन इंतज़ार है, लेकिन कोई चाहता है कि ट्रेन जल्द से जल्द आये और कोई चाहता है कि थोड़ी देर और लगाये. वैसे एनसीआर में चलने वाली ईएमयू में सफ़र का भी अनोखा और अलग ही अनुभव होता है. स्टेशन पर बने पुल के नीचे एक कचौड़ी वाले का ठेला होता था, शायद आज भी लगाता होगा. उसके यहाँ अक्सर अनुज और मैं दो दो कचौड़ी पेलते थे. उस समय हायजिन की चिंता कम और जेब की चिंता ज्यादा सताती थी. हाँ, बरसात के दिनों में वहां भुट्टों की बहार रहती थी.
सो प्लेटफ़ॉर्म पर एकांत की तरफ कदम बढा रहे उस लड़के का मैंने पीछा करना शुरू किया. सोचा कि अगर अभी इसने कोई हरकत की तो दो थप्पड़ में प्यार का भूत उतार दिया जायेगा. लेकिन उसकी चाल ढाल से लगा नहीं कि वो इतना बड़ा कदम उठाएगा. एक दो फास्ट ट्रेनें भी वहां से गुजरीं लेकिन लड़के ने कोई हरकत नहीं की. अपन को लगा कि मामला सेंसिबिल है. वैसे मैं तो थोड़ी देर बाद अपनी लोकल पकड़ कर फरीदाबाद की तरफ लपक लिया. आगे का पता नहीं उसने कुछ किया कि नहीं.
मेरा रेल से हमेशा लगाव रहा. यही कारण था कि मेरठ में पत्रकारिता के दौरान मैंने रेलवे बीट को सहर्ष स्वीकार किया जिसे कोई नहीं लेना चाहता था, क्योंकि स्टेशन शहर से बिलकुल बहार था. मुझे हमेशा लगता था कि रेल और रेल के आस-पास अनेक कहानियां बिखरी पड़ी हैं.
तिलक ब्रिज की ही बात है, एक दिन अपने नॉर्मल रुटीन में स्टेशन पर मैं ट्रेन का इंतज़ार कर रहा था. बैठने की जगह कोई बची नहीं थी सो हाथ में बैग लिए प्लेटफ़ॉर्म पर टहल रहा था. तभी फ़ोन पर बात कर रहे एक लड़के की आवाज सुनकर मैं वहीँ ठिठक गया. उसकी दो-चार बातें सुनकर पूरी स्थिति साफ़ हो गयी. जनाब इश्क में थे और अपनी प्रेमिका से बतिया रहे थे. बातों से साफ़ था कि उनका इश्क आखिरी सांसें ले रहा है. लड़का बार-बार उस तरफ से आ रही पतली सी आवाज को समझाने की कोशिश कर रहा था. लेकिन लड़की को कोई और मिल गया था और वो इन भाई साहब को अब घास नहीं डाल रही थी. लेकिन लड़का सीरियस था. जब लड़की ने एक न सुनी तो उसने झल्लाकर फ़ोन काटा और उसको फ़ोन लगाया जो इस लव ट्राईएंगल का तीसरा कोण था. उसने इस लड़के को सहानुभूति दी, लेकिन ये जनाब जानना चाहते थे कि आखिर इनमें क्या कमी थी.
खैर लम्बी बातचीत के बाद फ़ोन काट दिया गया. लड़का अपना सर पकड़कर बेंच पर ही बैठा रहा. बेंच की दूसरी तरफ एक अधेड़ व्यक्ति बैठा था, जो शर्तिया हरियाणा से ही था. वो भी मेरी तरह इस लड़के की बातें सुन रहा था. मैं तो बात सुन कर चुप ही रहा, लेकिन उससे न रुका गया, फट से बोला- 'देख भैया तेरी भलाई इसी में है कि उसको भूल जा और अपनी जिंदगी पर ध्यान दे. ये प्यार-व्यार का चक्कर बुरा है'. उसकी बात सुनकर लड़का झेंप गया और थोड़ी सी मुस्कराहट के साथ वहां से अपना बैग उठाकर आगे की तरफ चला गया. उसके जाने के बाद वह व्यक्ति अपने पास बैठे संगी से फिर बोला 'पता नहीं का हवा चल पड़ी है आज कल. इसका ज्यादा दिमाग ख़राब हुआ तो कहीं आत्महत्या न कर ले'. ये सुनकर मेरा दिमाग चल गया. मुझे उसकी बात में दम लगा. और ट्रेन से बढ़कर आत्महत्या का कोई साधन है भी नहीं. साधन और कारण दोनों मौजूद हैं, कहीं जोश जोश में प्लेटफ़ॉर्म से छलांग न लगा दे.
सो प्लेटफ़ॉर्म पर एकांत की तरफ कदम बढा रहे उस लड़के का मैंने पीछा करना शुरू किया. सोचा कि अगर अभी इसने कोई हरकत की तो दो थप्पड़ में प्यार का भूत उतार दिया जायेगा. लेकिन उसकी चाल ढाल से लगा नहीं कि वो इतना बड़ा कदम उठाएगा. एक दो फास्ट ट्रेनें भी वहां से गुजरीं लेकिन लड़के ने कोई हरकत नहीं की. अपन को लगा कि मामला सेंसिबिल है. वैसे मैं तो थोड़ी देर बाद अपनी लोकल पकड़ कर फरीदाबाद की तरफ लपक लिया. आगे का पता नहीं उसने कुछ किया कि नहीं.
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