कोस-कोस पर पानी बदले पांच कोस पर वाणी- ये कहावत है तो पुरानी पर भारत पर पूरी तरह लागू होती है। हिंदी कितने प्रकार की हो सकती है इसका अंदाजा आपको भारत के गांवों में जाकर लगेगा। हर गांव की अपनी अलग लोकल हिंदी है, जिसे शहरी लोग गंवारू भाषा कहकर पुकारते हैं। लेकिन इस गंवारू भाषा की अपनी अलग संुदरता है। गांव की इन भाषाओं की लगातार उपेक्षा ने इन्हें विलुप्त होने के कगार पर पहुंचा दिया है।
मेरा गांव नगला नीडर मुरादाबाद से तकरीबन 15 किलोमीटर दूर है (फिलहाल ये संभल और मुरादाबाद के बीच सीमा सीमा विवाद में फंसा है)। लेकिन मुरादाबाद की हिंदी से इसका दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं। यहां तक कि हमारे गांव से सिर्फ डेढ़ किलोमीटर दूर खेमपुर गांव की बोली नगला नीडर से बिल्कुल अलग है। लेकिन जब से गांव में टीवी पहुंचा और गांव के कुछ लोग शहर आकर रहने लगे तब से लोगों में शहरी खड़ी बोली बोलने का शौक चर्रा गया। अगर आपने पान सिंह तोमर फिल्म देखी हो तो हमारे गांव की बोली कुछ-कुछ उसकी बोली से मिलती-जुलती है। लेकिन अब गांव के अधिकाश लोग साहित्यिक बोली बोलने की कोशिश करने लगे हैं। खासतौर से नई पीढ़ी। यहां तक कि गांव के कुछ घरों में चाचा-बुआ को अंकल-आंटी कहने का भी चलन चल पड़ा है। इसका सबसे बड़ा कारण है कि गांव से शहर गए लोग जब कभी गांव आते हैं तो उनमें एक अजीब सी इतराहट होती है। ऐसा भी नहीं है कि वे शहर में बहुत बड़े तीर मार रहे हों। शहर के नाम पर वे बस गांव से 15 किलोमीटर दूर मुरादाबाद आकर बस गए हैं और बच्चों को इंग्लिश मीडियम स्कूलों में पढ़ा रहे हैं। उनके इतराने के लिए यही काफी है। गांव आकर अपनी स्वाभाविक हिंदी बोलने के बजाय वो नफासत दिखाते हुए साहित्यिक हिंदी बोलकर दिखाते हैं।
संयुक्त राष्ट्र के मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स में काॅफी अन्नान ने तो इस बात का जिक्र नहीं किया कि विकसित दिखने के लिए आपको अपनी भाषा छोड़नी होगी, लेकिन भारतीय समाज में ये धारणा अंदर तक पैठ बनाए हुए है कि सभ्य होने का मतलब है कि आप नफासत के साथ साहित्यिक भाषा में बात करें और बीच-बीच में इंग्लिश के शब्दों का प्रयोग करें तो और ज्यादा बेहतर होगा। गांव की भाषा पर दूसरा कुठाराघात टीवी और अखबारों ने किया है। गांव-गांव टीवी और अखबार पहुंच जाने से नई पीढ़ी का रहन-सहन और बातचीज का स्टाइल अब यही तय कर रहे हैं। पर है ये अजीब बात कि शहर के लोग दूर के रिश्तों में गर्माहट दिखाने के लिए बच्चों को चाचा, बुआ, मौसी जैसे शब्द कहना सिखा रहे हैं, जबकि गांव में अंकल-आंटी का चलन बढ़ रहा है। और सिर्फ भाषा के स्तर पर ही नहीं पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांवों में तो कई स्तरों पर बदलाव देखने को मिल रहे हैं। मैं समझता हूं कि हरियाणा और पंजाब के गांव तो पहले ही इन चीजों की चपेट में आ गए होंगे।
हालांकि इन दिनों टीवी पर प्रसारित कई सीरियल्स में लोकल भाषा को जमकर भुनाया जा रहा है। गुजराती, हरियाणवी, राजस्थानी और बिहारी हिंदी पर टीवी सीरियल्स में जमकर प्रयोग हुए हैं और लोगों ने उनको पसंद भी किया है। वैसे ध्यान से देखा जाए तो सीरियल्स को सर्वग्राही बनाने के लिए लोकल भाषा को काफी तोड़ा-मरोड़ा तो गया है, लेकिन लोग फिर भी उन्हें देखना पसंद कर रहे हैं। एक सर्वे रिपोर्ट में खुलासा हुआ था कि अगले 100 सालों में विश्व की कई भाषाएं गायब हो जाएंगी। लेकिन साहित्यिक हिंदी इस खतरे से बाहर है। पर भारत में सबसे बड़ा खतरा गांवों की लोकल हिंदी पर जरूर मंडरा रहा है। तेजी से हो रहे विकास और शहरीकरण की दौड़ में इन रस भरी बोलियां को खत्म होने में मुश्किल से 20 साल भी नहीं लगेंगे। क्योंकि नई पीढ़ी अब टीवी देखकर बड़ी हो रही है। त्योहार मनाना अब घर के बुजुर्ग नहीं बल्कि न्यूज चैनल सिखाते हैं। कपड़ों का लेटेस्ट ट्रेंड क्या है ये भी टीवी ही तय कर रहा है। शहर में रहने वाले लोग और शहरी भाषा ज्यादा सभ्य मानी जाती है। तो कोई भला क्यों अपने को गंवारू कहलवाना पसंद करेगा।