Thursday, April 23, 2015

मत जइयो केदार!

2013 की विनाशकारी घटना के बाद से उत्तराखंड सरकार फिर से वहां पर्यटन बहाल करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रही है। केदार घाटी की घटना के बाद पर्यटकों में इतनी दहशत है कि बाकी के तीन धामों में भी पर्यटन को भारी धक्का लगा है। पर्यटकों का विश्वास जीतने के लिए सरकार बुजुर्गों को मुफ्त यात्रा कराने से लेकर सेलिब्रिटीज को बुलाने तक हर हथकंडा अपनाया जा रहा है। पर सवाल ये उठता है कि क्या ऐसे सेंसिटिव जोन में अत्यधिक पर्यटन को बढ़ावा देना उचित है।

केदार घाटी में बेतरतीब ढंग से धनोपार्जन की भावना से पर्यटन को बढ़ावा देने का बहुत बुरा खामियाजा हम 2013 में भुगत चुके हैं। उस दिल दहलाने वाले हादसे के बाद उत्तराखंड सरकार को यात्री खोजे नहीं मिल रहे हैं। 2014 में यात्रा शुरू तो कर दी गई लेकिन खराब मौसम ने फिर उसमें टांग अड़ाई। लेकिन इंसान प्रकृति से आखिरी दम तक लड़ने को आतुर है। हजारों की तादाद में जानें गंवाने के बावजूद हम फिर उसी राह पर चलने को आतुर हैं, जिस पर हमने अपनों को हमेशा के लिए खो दिया।

एक तरह तो हम तीर्थस्थलों का उनके आध्यात्मि महत्व के लिए महिमा मंडन करते हैं और दूसरी तरफ उन्हें पर्यटन की दृष्टि से दुकान में तब्दील करने की वकालत करते हैं। ये दोहरे मापदंड़ वाला दृष्टिकोण प्रकृति, पर्यावरण और पर्यटन के साथ-साथ तीर्थस्थल के लिए भी हानिकारक सिद्ध होगा। हिमालय के तीर्थस्थल श्रद्धालुओं और साधकों के लिए थे, हमने पर्यटन के नाम पर उन्हें अइयाशी के टूरिस्ट स्पाॅट में बदल दिया।

ये बात ठीक है कि तीर्थस्थलों पर जाने वाले श्रद्धालुओं के कारण स्थानीय लोगों को रोजगार मिलता है और राज्य की जीडीपी में बढ़त होती है। लेकिन अगर हमारी पूरी मानसिकता श्रद्धालुओं की जेबें झाड़ना ही बन जाए तो स्थिति वही होगी जो 2013 में बनी। नाजुक पहाड़ों पर अंधाधुंध डीजल गाडि़यों को प्रवेश, मानकों को ताक पर रखकर किया गया निर्माण कार्य आपको थोड़े समय के लिए धन जरूर दिला सकता है पर अंत में ये घातक ही सिद्ध होगा। इसलिए केदारनाथ धाम को साधकों हेतु एक साधनास्थली ही रहने दिया जाए। वहां जबरदस्ती कृत्रिम भीड़ खींचने का प्रयास न किया जाए। 

क्योंकि अब केदार आराम चाहता है। कृपा करके उसे कुछ समय के लिए अकेला छोड़ दो।

Wednesday, April 1, 2015

बिहार चुनावः भाजपा सरकार या जनता परिवार


2014 के लोकसभा चुनाव से लेकर अक्टूबर 2015 में जब बिहार का चुनाव होगा तब तक पाटलिपुत्र की राजनैतिक परिस्थितियों में बहुत परिवर्तन आ चुका होगा। लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न चुनाव के दौरान भी वही होगा और आज भी वही है कि सत्ता का स्वाद कौन चखेगा। क्या अपने करिश्माई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा बिहार में पूर्ण बहुमत हासिल करेगी, या फिर लालू-नीतीश की गलबहियां कोई रंग खिलाएंगी या कांग्रेस किंग मेकर बनकर उभरेगी, क्या आम आदमी पार्टी के मुखिया केजरीवाल (अपने स्टैंड, कि दिल्ली के बाहर अभी नहीं जाएंगे से यू टर्न लेकर) पार्टी के लिए बिहार के पानी में गहराई नापेंगे या फिर जीतन राम मांझी अपने राजनीतिक कौशल से नीतीश से अपने अपमान का बदला लेंगे? सवाल बहुत सारे हैं, मगर जवाब अभी किसी के पास नहीं। लेकिन अगर पिछले एक साल के दौरान हुए लोकसभा और विधानसभा चुनावों के आंकड़ों का जायजा लिया जाए तो अंदाजा जरूर लगाया जा सकता है कि बिहार का चुनाव किस करवट जा सकता है।

लोकसभा चुनाव 2014
2014 के लोकसभा चुनाव के परिणामों का विश्लेषण करें तो बिहार में भाजपा ने 40 में से कुल 30 सीटों पर चुनाव लड़ा और 30 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 22 सीटों पर विजय दर्ज कराई। जबकि उसके सहयोग से रामविलास पासवान की लोकजनशक्ति पार्टी ने सात सीटों पर चुनाव लड़कर 6.5 प्रतिशत वोट शेयर के साथ छह सीटों पर जीत दर्ज कराई। भाजपा की दूसरी सहयोगी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी ने तीन सीटों पर चुनाव लड़ा और 3.1 प्रतिशत वोट पाकर तीनों सीटें जीत लीं।

वहीं बिहार के दूसरे धड़े पर नजर डालें तो लालू यादव की राजद ने 20.5 प्रतिशत वोट शेयर के साथ चार सीटें जीतीं। जबकि नीतीश की जनता दल यूनाइटेड ने 16 प्रतिशत वोट शेयर के साथ दो सीटों पर जीत दर्ज की। उधर सोनिया गांधी की कांग्रेस ने 8.6 प्रतिशत वोट पाकर दो सीटें जीतीं।

विधानसभा पर लोकसभा का असर
अब लोकसभा के इन परिणामों को विधानसभा वार परिवर्तित किया जाए तो भाजपा कुल 121 विधानसभा सीटों पर आगे थी और 49 सीटों पर दूसरे स्थान पर रही, उसकी सहयोगी लोकजनशक्ति पार्टी 34 विधानसभा सीटों पर आगे थी और 7 सीटों पर दूसरे स्थान पर रही और उसकी दूसरी सहयोगी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी 17 विधानसभा सीटों पर आगे रही और 1 सीट पर दूसरे स्थान पर। इनको जोड़ा जाए तो एनडीए कुल 172 सीटों पर आगे रहा और 57 सीटों पर दूसरे स्थान पर। बिहार विधानसभा में 243 सीटें हैं और सरकार बनाने के लिए 122 सीटों की जरूरत है, अगर लोकसभा चुनाव परिणामों को हूबहू विधानसभा पर लागू कर दिया जाए तो एनडीए बहुत आराम से सरकार बनाता नजर आ रहा है। लेकिन फिर वही बात है कि 2014 से लेकर 2015 तक पटना की गंगा में बहुत पानी बह चुका होगा।

यही लोकसभा परिणाम अगर भाजपा की विरोधी पार्टियों पर लागू किए जाएं तो राष्ट्रीय जनता दल 32 सीटों पर आगे रही और 110 सीटों पर दूसरे स्थान पर, जबकि जनता दल यूनाइटेड 18 सीटों पर आगे रही और 27 सीटों पर दूसरे स्थान पर और कांग्रेस 14 सीटों पर आगे रही और 44 सीटों पर दूसरे स्थान पर। इन तीनों को अगर जोड़ा जाए तो ये तीनों विरोधी दल 66 सीटों पर आगे रही और 181 सीटों पर दूसरे स्थान पर। इन आंकड़ों के अनुसार तो विरोधी दलों की सरकार बनना मुश्किल लगती है, लेकिन इस बार परिवर्तन ये आ गया है कि लालू और नीतीश एक हो गए हैं, लिहाजा उनका गठबंधन भाजपा के सामने कितनी बड़ी चुनौती पेश कर पाता है ये कहना मुश्किल है।

भाजपा और जनता परिवार की मुश्किलें
बिहार की राजनीति को सतही तौर पर देखा जाए तो मोटे तौर पर माहौल भाजपा के पक्ष में नजर आता है। लेकिन भाजपा की अच्छे बहुमत वाली जीत इसी बात पर निर्भर करेगी कि दिल्ली के विध्वंस के बाद पार्टी कितनी एकजुटता के साथ चुनाव लड़ती है। जनता परिवार तो भाजपा को चुनौती देने की कोशिश कर ही रहा है, लेकिन उसके सामने पहली चुनौती होगी लोजप और रालोप के साथ सीटों का बंटवारा। महाराष्ट्र जैसे अनुभव से बचने के लिए पार्टी की पहली कोशिश यही होनी चाहिए कि वह अपने दम पर बहुमत प्राप्त करे और बाद में दोनों सहयोगियों को भी सरकार में स्थान दे। पार्टी के लिए दूसरी चुनौती होगी कि वह अपना सीएम उम्मीदवार चुनाव से पहले घोषित करे या बाद में। हालांकि सुशील मोदी उर्फ सुमो अपनी जबरदस्त दावेदारी पेश करते रहे हैं, फिर भी यह निर्णय बेहद अहम है। भाजपा के सामने तीसरी चुनौती होगी टिकट बंटवारे के बाद बागियों से निपटना। ये बात भी ध्यान देने की है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में मतदाताओं ने वोट डालते वक्त जाति की दीवारों को भी दरकिनार करके भाजपा के पक्ष में वोट दिया। लेकिन विधानसभा चुनावों में वैसा हो पाना बहुत मुश्किल है।

वहीं दूसरी ओर जनता परिवार के लिए उम्मीदें संजोए बैठे नीतीश कुमार की राह बिल्कुल आसान नहीं है। नीतीश द्वारा सालों पुराना गठबंधन तोड़ने के फैसले के बाद उन पर पीठ में छुरा भोंकने का बड़ा आरोप भाजपा लगाती रही है। चुनाव की घोषणा होते ही उनकी पार्टी पर टूटने का खतरा मंडरा रहा है। दूसरे, लालू का साथ कितना भरोसेमंद और कितना लंबा चलेगा यह कहना मुश्किल है। ऊपरी तौर पर जनता परिवार सत्ता के लिए इक्ट्ठे हुए मौका परस्त लोगों का समूह ही नजर आता है। उनमें लोगों के लिए गंभीरता कम और कुर्सी के लिए आतुरता ज्यादा नजर आती है, जहां साफ छवि वाले नीतीश कुमार फिर से बिहार की रण जीतने की खातिर भ्रष्टाचार में आरोपी लालू का भी साथ लेने को तैयार हैं और जेल काट रहे ओमप्रकाश चैटाला को भी। भाजपा अगर ये सब चीजें अगर बिहार के लोगों को समझाने में सफल रही तो जनता परिवार के सपने टूट सकते हैं।

‘आप’ और ‘हम’ का असर 
बिहार विधानसभा चुनाव में इस बार केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) और जीतन राम मांझी की हिंदुस्तान आवाम मोर्चा (हम) भी अपना दम आजमा सकते हैं। दिल्ली में बुरी तरह अंदरूनी कलह से जूझ रहे केजरीवाल ने यूं तो शपथ लेते वक्त दिल्ली के बाहर जाने की अनिच्छा प्रकट की थी, लेकिन बाद में खबरें आईं कि आप दिल्ली के बाहर भी चुनावी भाग्य आजमाएगी। दिल्ली में चमत्कार करने वाली आप बिहार में शायद ही कोई जादू कर पाए। पार्टी की वर्तमान अंदरूनी हालात देखकर तो लगता है कि पार्टी चुनाव लड़ने से भी इंकार कर सकती है। जबकि जीतन राम मांझी की ‘हम’ का एकमात्र उद्देश्य नीतीश कुमार से अपने अपमान का बदला लेना होगा। महादलितों के वोट विधानसभा सीटों में अहम किरदार अदा करते हैं, मांझी इस वोट को काट पाएंगे या नहीं चुनाव में ही पता चलेगा। भाजपा भी मांझी को अपने पक्ष में लेने का प्रयास कर सकती है।

अन्य राज्यों पर लोकसभा चुनाव का असर
लोकसभा चुनाव के बाद कुल पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो चुके हैं, जिनमें से भाजपा ने हरियाणा और झारखंड में पूर्ण बहुमत प्राप्त किया। जबकि महाराष्ट्र और जम्मू कश्मीर में मिली जुली सरकार बनाने में सफलता मिली। लेकिन दिल्ली के विस्मयकारी परिणाम ऐसे रहे कि पार्टी को अभूतपूर्व हार का सामना करना पड़ा। नीचे चित्रों में दिया गया विश्लेषण ये बताने का प्रयास करता है कि लोकसभा चुनाव के अनुसार इन राज्यों की विधानसभाओं में कितनी सीटें अनुमानित की गई थीं और वास्तविक परिणाम क्या रहे। वैसे तो हर राज्य की परिस्थितियां अलग-अलग होती हैं फिर भी बिहार के बारे में एक मोटा अंदाजा लगाया जा सकता है।

हरियाणा


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