Thursday, July 29, 2010

क्योंकि कॉमनवेल्थ खेलों में भारत की नाक कटनी जरूरी है...

मणिशंकर अय्यर ने कॉमनवेल्थ खेलों के पिट जाने की दुआ की है. मैं कहता हूँ आमीन... मणि इन खेलों के फ्लॉप होने की बात दिल से कह रहे हैं या इसके पीछे कोई राजनितिक स्टंट है, ये समझना तो मुश्किल है. क्योंकि वो खुद खेल मंत्री रह चुके हैं. हो सकता है उनको इस मौके पे खेल मंत्री की सीट पर न होने का मलाल सता रहा हो. लेकिन बात सोलह आने सच है. अगर ये खेल फ्लॉप नहीं हुए तो भारत ओलम्पिक खेलों के लिए भी दावा करेगा और उसमें भी पानी की तरह पैसा बहायेगा. आखिर ये हम कर क्या रहे हैं. ३५००० करोड़ रुपया सिर्फ विदेशियों के सामने अपनी अच्छी छवि पेश करने के चक्कर में फूंक दिया गया. ये शुद्ध तौर पर पैसे की बर्बादी का नमूना है. इससे भारत को, भारत के लोगों को या भारत के खिलाड़ियों को क्या फायदा होने वाला है?
भ्रष्टन की जय जय
किसी का भला हो या न हो. लेकिन ३५००० करोड़ के इस खेल में भ्रष्ट लोगों की मौजा है मौजा हो गयी. ९६० करोड़ का जो नया जवाहरलाल नेहरु स्टेडियम खड़ा किया गया है इसे बनाने में न जाने कितने ही इंजीनियरों की कोठियां खड़ी हो गयी होंगी कह नहीं सकते. अब कोई कम से कम ये कहने की कोशिश न करे की काम ईमानदारी से हुआ है, पुख्ता हुआ है और कोई गोलमाल नहीं हुआ है. भारत की रियाया अपने देश के सिस्टम को भली भांति जानती है. बिना खाए तो यहाँ मुर्दों के सर्टिफिकेट नहीं बनते तो स्टेडियम कैसे बन जायेगा भाई.

खिलाड़ियों को क्या मिला
मणि कह रहे हैं कि अगर ये पैसा शिक्षा पर खर्च किया जाता तो देश को बहुत फायदा होता. मैं कहता हूँ (लेकिन मैं होता कौन हूँ कहने वाला) अगर ये पैसा खेलों पर ही खर्च करना था तो खिलाड़ियों के वेलफेयर में क्यों नहीं खर्च किया गया. छोटे छोटे शहरों में सुदूर गाँव से आये खिलाड़ी कितनी दयनीय हालातों में खुद को तैयार करते हैं ये मुझे मेरठ में पत्रकारिता के दौरान पता चला. ये तो इन खिलाड़ियों का अपना दम-ख़म है कि ये फिर भी मेडल ले आते हैं. वर्ना सरकार ने इनका बैंड बजाने में कोई कसार नहीं छोड़ी है. मेरठ में अपने ही अखबार में छापी एक खबर में हमने ये पाया था कि जिस एथलीट को प्रैक्टिस के लिए अच्छी डाईट की जरुरत होती है उसके हिस्से में सरकार की तरफ से ३३.५ रूपए आते हैं. अब सोचो इतनी "भारी" रकम से खाना खाकर वो कैसे मेडल लेकर आये. खिलाड़ी और उनके कोच के मद में खर्च करने को कहो तो सरकार को दस्त छूट जाते हैं. लेकिन विदेशियों के सामने बनावटी चेहरा पेश करने में ३५००० करोड़ फूंक दिए. जय हो...
दिल्ली ही क्यों
दुनिया के सामने हम चिल्लाते-चिल्लाते नहीं थकते कि भारत एक कृषि प्रधान देश है. लेकिन किसानों के हित तो दूर रहे छोटे छोटे शहरों के बारे में भी नहीं सोचा जाता. भला ३५००० करोड़ रूपए दिल्ली में क्यों ठोके गए. दिल्ली पहले से क्या कम विकसित है. अगर इसकी जगह देश के किसी अन्य छोटे शहर को कॉमनवेल्थ खेलों के लिए चुना होता तो उस शहर का भी भला होता और खेल भी थोड़े ढंग से हो जाते. दिल्ली तो पहले से ही ओवर क्राऊडेड है. यहाँ तो खिलाड़ी बिना जाम में फंसे स्टेडियम तक पहुँच ही नहीं सकते. अब सरकार लगी बसों और ऑटो को बंद करने के जुगाड़ में. लोगों से अपील की जा रही है कि खेलों के दौरान सड़कों पर कम ही निकलें. अपने वहां की जगह मेट्रो का इस्तेमाल करें.
झूठा मुखौटा

इस पूरे आयोजन के दौरान भारत एक मुखौटा पहनने वाला है. झूठ का मुखोटा. जिसमें समृद्धता झलकेगी, जिसमें विकास झलकेगा, जिसमें आधुनिकता झलकेगी, जिसमें गरीबी नहीं होगी, जिसमें भुखमरी नहीं होगी. लेकिन झूठ के पांव लम्बे नहीं होते हैं. असलियत किसी न किसी रूप में सबके सामने जरूर आयेगी. वैसे भी दिल्ली में ये जो चमक-दमक दिख रही है केवल तीन महीने और दिखेगी. फिर हम अपने असली रूप में आ जायेंगे. दरअसल भारत कि स्थिति बिलकुल देश के मिडिल क्लास की तरह है. जैसे मिडिल क्लास हर समय हाई क्लास की होड़ में लगा रहता है वैसे ही भारत भी विकसित देशों की होड़ में लगा हुआ है. भारत के प्रधानमंत्री जब किसी गरीब देश की यात्रा पर जाते हैं तो वहां कर्ज देने की पेशकश करना नहीं भूलते. भला जब अपना देश खुद कर्ज में डूबा है तो दूसरों के सामने ये आडम्बर क्यों. इन सब चीज़ों का समय अभी नहीं आया है. अपनी चादर से ज्यादा लम्बे पांव फ़ैलाने के चक्कर में कहीं मुंह की न खानी पड़ जाए. अब चीन ने ओलम्पिक खेल क्या करा दिए भारत भी बार बार छाती ठोक रहा है कि हम भी जी हम भी. अरे कम से कम अपनी ज़मीनी हकीक़त तो देखो पहले.
मुनाफा भूल जाओ

जो लोग ये चकमा दे रहे हैं कि इन खेलों से कमाई होने वाली है तो वो भी लोगों को मुगालते में न रखें. जब सरकार के इतने बड़े बड़े और कमाऊ संसथान मुनाफा देने में विफल साबित हो रहे हैं तो ये खेल भला क्या मुनाफा देकर जायेंगे. हाँ, सुना है कि कंडोम की बिक्री बहुत बढ़ने वाली है. सरकार ने इसके लिए भी ख़ास इन्तेज़ामात किये हैं. सरकार के पास एक से बढ़कर एक कमाऊ संसथान हैं लेकिन मुनाफा देने वाले उँगलियों पर गिने जा सकते हैं. उदाहरण के तौर पर सरकारी भौंपू दूरदर्शन के पास जितना बड़ा सेट-अप है इतना देश के किसी भी चैनल के पास नहीं. फिर भी दूरदर्शन कमाऊ पूत बनकर नहीं दिखा पाया. देश के अन्य छोटे छोटे निजी न्यूज़ चैनल दूरदर्शन से कहीं आगे हैं. कमाने में भी और खबरों में भी.
तो भाई लोग आने वाले समय में ३५००० करोड़ की शुद्ध बर्बादी का खेल देखने के लिए तैयार हो जाओ.... जय हो भारत सरकार!

Monday, July 26, 2010

आम के बदले हर्ले-डेविडसन

इंडो-यूएस न्यूक्लियर डील का एक अनोखा पक्ष और पता चला. इस डील के साथ-साथ "मैंगो डिप्लोमेसी" भी खेली गयी थी. भला वो क्या, वो ये कि चचा बुश ने दद्दू मनमोहन से बोला कि भई तुम्हारे देश के आम बहुत मीठे हैं, बड़े लज़ीज़ हैं. दद्दू बोले तो लेते जाओ कुछ पेटियां बंधवा देता हूँ आपके लिए. इस पर चचा बुश बोले कि हम तो इन आमों का लुत्फ़ आपकी कृपा से उठा ही लेंगे लेकिन मेरे अमेरिका के लोग  इस से वंचित ही रहेंगे. तो दद्दू बोले इसमें मैं क्या कर सकता हूँ हमारे आमों के लिए अपने देश का बाज़ार अपने ही बंद कर रखा है. आप उस बाज़ार को खोल दो आपके लोग भी हमारे आमों का मज़ा ले सकेंगे. चचा बुश बोले कि चलो मैं बाज़ार खोल देता हूँ लेकिन बदले में आप क्या करोगे. दद्दू की कुछ समझ नहीं आया, बोले भई आम आपको चाहिए तो बदले में मैं क्या करूँ. चचा बुश बड़े तिकड़मी ठहरे बोले लेन-देन तो बराबरी का अच्छा लगता है. आप ऐसा करो कि हम आपके आम ले लेते हैं आप हमारी मोटर-साइकिल ले लो. दद्दू फिर चक्कर खा गए, बोले ज़रा साफ साफ़ समझाओ बुश बाबू. इस पर चचा बुश ने साफ़ साफ़ करके समझाया कि भई हम देख रहे हैं कि भारत के लोग बड़ी घिसीपिटी मोटर-साइकिलों का इस्तेमाल कर रहे हैं. ज्यादातर जापान से प्रेरित हैं. हम चाहते हैं कि भारत की सड़कों पर हर्ले- डेविडसन दनदनाए. आप अपना बाज़ार हमारी इस आधुनिक बाइक के लिए खोल दीजिये.

इस पर दद्दू मनमोहन कुछ सोच में पड़ गए. उनको लगा कि बुश बाबू चालाकी कर रहे हैं. अपने बाज़ार में हमारे सस्ते  से आमों के लिए जगह देकर हमारे बाज़ार में लाखों कि बाइक के लिए जगह तलाश कर रहे हैं. दद्दू के दिमाग में सारी बातें एक साथ घूम गयीं. आखिर हमारे आम अमेरिका के पर्यारण को कोई नुकसान तो नहीं पहुचाएंगे, लेकिन इनकी बाइक हमारी सड़कों पर जहर उगलेगी. हमारे आमों के बदली अमरीकियों को महज चाँद सिक्के ही खर्च करने होंगे लेकिन इनकी बाइक के लिए हमारे देश के लोग अपनी गाढ़ी कमाई बहा देंगे. देश का यूथ तो वैसे ही इस बाइक का दीवाना है, इसके लिए बाज़ार खुलते ही देश के माँ-बाप आफत में आ जायेंगे. फिर इस देश की सडकें भी तो उस मोटर-साइकिल के लायक नहीं हैं. हमारे वातावरण में वो मोटर-साइकिल बिलकुल फिट नहीं बैठती. कहीं इसका हश्र भी बीएमडव्लू   की तरह तो न होगा. कहीं ये भी भारत की सड़कों पर खून तो न बहाएगी. दद्दू को साफ़ साफ़ समझ आ रहा था कि बुश चालाकी कर रहे हैं हमारे निरीह आमों को अमेरिका भेजकर हमारे किसान को उतना फायदा नहीं होगा जितना अमेरिका अपनी मोटर साइकिल से भारत में कमाएगा. दद्दू ने देखा कि मेज पर सामने परमाणु करार अभी बिना दस्तखत के ही पड़ा था.

इतने में चचा बुश ने मुस्कुराते हुए दद्दू के कंधे पर हाथ रखा अजी सोच क्या रहे हैं. अमेरिका में भारत के आम बिकें इस से बढ़िया आपके लिए क्या होगा. आखिर हमारी इतनी महँगी मोटर साइकिल आपके यहाँ के कितने लोग खरीद सकते हैं. जबकि अमेरिका के लोग आपका हजारों कुंतल आम हज़म कर सकते हैं. देखिये मैं तो आपके ही फेवर की बात कर रहा हूँ. हम तो ठहरे विकसित देश, हम पर इन सब छोटी मोटी चीज़ों का कुछ फर्क नहीं पड़ता. लेकिन आपके देश के लिए यही छोटी छोटी चीज़ें मायने रखती हैं. ज्यादा सोचिये मत ये परमाणु डील भी फ़ाइनल करनी है कि नहीं. बाहर मीडिया वाले इंतज़ार कर रहे हैं.

दद्दू मनमोहन सबकुछ समझ रहे थे. अमेरिका कि सफलता का राज़ यही है. जब वह दूसरों के हित की बात कर रहा होता है, तब भी वह वास्तव में अपने ही हित की बात कर रहा होता है. हमारे सीधे-साधे सस्ते आमों के बदले बुश बाबू अपनी खतरनाक महँगी बाइक भारत में उतार रहे हैं. लेकिन करते भी क्या दद्दू ने एक बार अपने चीफ सेक्रेटरी की तरफ देखा. उनकी आँखों ने भी मौन हामी भर दी. क्योंकि छोटी सी बात के पीछे परमाणु डील को कोई पलीता नहीं लगाना नहीं चाहता था. और दद्दू ने हाँ कर दी, भारत को आमों के बदले हर्ले-डेविडसन मिल गयी. 

Sunday, July 25, 2010

भारत एक खोज का वो गीत याद है न...

नासदासीन नो सदासीत तदानीं नासीद रजो नो वयोमापरो यत
किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद गहनं गभीरम

सृष्टि से पहले सत नहीं था
असत भी नहीं
अंतरिक्ष भी नहीं
आकाश भी नहीं था
छिपा था क्या, कहाँ
किसने ढका था
उस पल तो
अगम अतल जल भी कहां था
सृष्टि का कौन है कर्ता?
कर्ता है वह अकर्ता
ऊँचे आकाश में रहता
सदा अध्यक्ष बना रहता
वही सचमुच में जानता
या नहीं भी जानता
है किसी को नही पता
नही पता
नही है पता
नही है पता

वो था हिरण्य गर्भ सृष्टि से पहले विद्यमान
वही तो सारे भूत जाति का स्वामी महान
जो है अस्तित्वमान धरती आसमान धारण कर
ऐसे किस देवता की उपासना करें हम हवि देकर
जिस के बल पर तेजोमय है अंबर
पृथ्वी हरी भरी स्थापित स्थिर
स्वर्ग और सूरज भी स्थिर
ऐसे किस देवता की उपासना करें हम हवि देकर
गर्भ में अपने अग्नि धारण कर पैदा कर
व्यापा था जल इधर उधर नीचे ऊपर
जगा चुके व एकमेव प्राण बनकर
ऐसे किस देवता की उपासना करें हम हवि देकर
ऊँ! सृष्टि निर्माता, स्वर्ग रचयिता पूर्वज रक्षा कर
सत्य धर्म पालक अतुल जल नियामक रक्षा कर
फैली हैं दिशायें बाहु जैसी उसकी सब में सब पर
ऐसे ही देवता की उपासना करें हम हवि देकर
ऐसे ही देवता की उपासना करें हम हवि देकर

Monday, July 12, 2010

यमुना: कल काली थी, आज मटमैली है, कल फिर काली होगी

कल कश्मीरीगेट से मेट्रो जैसे ही आगे बढ़ी तो यमुना कुछ बदली सी नज़र आई. अभी कुछ दिन पहले तो बिलकुल काली थी आज मटमैली है. ओह! बरसात का कमाल है, जो इसका जल थोडा साफ़ नज़र आ रहा है. कोई नहीं थोड़े दिनों की बात है, फिर अपने पुराने रूप में आ जाएगी. वही पुराना काला प्रदूषित रूप.

दरअसल यमुना का काला प्रदूषित रूप उसका अपना रूप नहीं है. यमुना तो अपने उद्गम यमुनोत्री से निर्मल ही चली थी. लेकिन कंक्रीट के जंगल से गुजरी तो उसको ये रूप मिला.  यमुना का ये रूप देश के ठेकेदारों के दिलों के रंग की छाया है. जिनके तन उजले हैं और मन काले हैं. यमुना उनके मन का रंग दिखा रही है बस कोई पहचानने वाला चाहिए. ठेकेदारों से मेरा तात्पर्य केवल नेता लोगों से नहीं है. इन ठेकेदारों में उद्योगपति भी शामिल हैं. असलियत में राजनीति को पैसा ही चलाता है. नदियों की दुर्दशा के असली गुनाहगार उद्योग हैं. चाहे दिल्ली में यमुना किनारे के उद्योग हों या फिर कानपुर में गंगा किनारे वाले. सरकार उद्योगों पर ज्यादा नकेल इसलिए नहीं कस सकती क्योंकि चुनाव आने पर इन्हीं उद्योगपतियों के दरवाजे पर चंदे के लिए झोली फैलानी पड़ती है.

वैसे तो नदियों की निर्मलता या प्रदुषण को धर्म से नहीं जोड़ना चाहिए. लेकिन फिर भी नदियों को अगर हिन्दुओं की आस्था से जोड़ के देखा जाये तब भी नदियों में जहर घोलने वाले ज्यादातर उद्योगपति हिन्दू ही तो हैं. और ये वही उद्योगपति हैं जो जब धार्मिक मंचों पर चढ़ते हैं तो सबके सामने मोटी-मोटी रकम दान में देकर वाह-वाही लूटते हैं. 

कॉमनवेल्थ खेल के लिए जब खजाने के मुंह खुले तो यमुना को उम्मीद थी शायद उसका भू कुछ भला हो. लेकिन ये उसका भ्रम था. राष्ट्रीय नदी घोषित हो जाने के बावजूद जब उसकी बड़ी बहन गंगा का ही कुछ भला नहीं हो पा रहा है तो उसका भला कैसे हो सकता है. मंच से बोलने में कुछ घिसता नहीं है इसलिए बोल दिया जाता है कि यमुना को 'थेम्स ऑफ़ इंडिया' बना दिया जायेगा. यमुना इस बात को दिल पर ले लेती है. बेचारी कितनी भोली है.

मनोज कुमार ने विदेशी मिट्टी पर बड़ी शान से गाया था कि- "इतनी ममता नदियों को दी, उन्हें माता कह के बुलाते हैं..." लेकिन पूरे भारत की दिक्कत बस यही तो है कि हम जो कहते हैं वो करते नहीं. भारतीय दर्शन में प्रकृति हो या राष्ट्र हर जगह मनुष्य के साथ एक रिश्ता स्थापित किया गया है. रिश्ता इसीलिए स्थापित किया ताकि उस रिश्ते को निभाया जाये. लेकिन हम रिश्ते को कैसे निभा रहे हैं- "जय गंगा/यमुना मैया" बोलकर राख से भरी पौलीथीन नदी में अर्पित कर दी. लो जी निभा दिया रिश्ता. वाह री बुद्धि!