Tuesday, December 28, 2010

वीआईपी क्रियाकर्म


वीआईपी  ट्रीटमेंट की बीमार लालसा इन्सान के अन्दर आखिर किस हद तक हो सकती है. जीते जी तो इन्सान चाहता ही है कि वो जहाँ भी जाए उसे वीआईपी ट्रीटमेंट मिले. जो जीवन में कभी वीआईपी ट्रीटमेंट का लुत्फ़ नहीं उठा पाते वो भी कम से कम एक बार जरूर उठाते हैं- अपनी शादी के दिन. और अगर ज्यादा ही भूख वाला इन्सान हुआ तो अपने नखरे और तेवर दिखाकर जिंदगी भर के लिए ससुराल में भी वीआईपी ट्रीटमेंट का जुगाड़ कर लेता है.

लेकिन दिल्ली में तो गज़ब ही स्थिति है. लोगों को मरने के बाद भी वीआईपी  ट्रीटमेंट चाहिए. खबर है कि दिल्ली के निगम बोध घाट पर क्रियाकर्म की तीन व्यवस्थाएं हैं- वीआईपी, सेमी वीआईपी और साधारण. मरते-मरते भी मृतक की आत्मा को ये अहसास दिलाना है कि तुम एक साधारण इन्सान थे और साधारण तरीके से मर गए. तुमने इस जीवन में कुछ भी ऐसा असाधारण नहीं किया जो तुम्हारा वीआईपी तरीके से अंतिम संस्कार किया जाए.

संविधान में 'समानता' की तथाकथित व्यवस्था वाले देश में इस तरह का भेद-भाव मनुष्य को पूरे जीवन भुगतना पड़ता है. लेकिन मरने के बाद भी भुगतना पड़े तो ये ज़रा हद की बात है. जन्म के समय अस्पताल में वार्डों का भेद-भाव, स्कूल में एडमिशन के समय भेद-भाव, सड़क पर चलते समय भेद-भाव, सरकारी दफ्तरों में तो चिर-स्थायी भेद-भाव, नौकरी में भेद-भाव और अब मरने के बाद फूंकने में भेद-भाव. धन्य है प्रभो... 

वैसे आरटीआई एक्टिविस्ट एससी अग्रवाल की अर्जी के बाद निगम बोध घाट की सेमी वीआईपी  वाली व्यवस्था अब तोड़ी जा रही है. खबर है कि घाट की व्यवस्था आर्य समाज देखता है और उसी की देखरेख में सेमी वीआईपी  चिता प्लेटफ़ॉर्म बनाये गए थे. जिनको हटाया जायेगा. लेकिन वीआईपी वाली व्यवस्था बनी रहेगी.

Monday, December 27, 2010

प्रतिभाएं ढूंढते रह जाओगे!


आज के हिंदुस्तान टाइम्स में खबर है कि दिल्ली टेक्निकल यूनिवर्सिटी में एक नया ट्रेंड दिख रहा है, स्टुडेंट्स बड़ी बड़ी कम्पनियों के मोटे-मोटे प्लेसमेंट ठुकराकर अपनी रूचि के मुताबिक अपने खुद के व्यवसाय शुरू करने को प्राथमिकता दे रहे हैं. स्टुडेंट्स को लुभाने के लिए कम्पनियों की ओर से मोटी रकम का चुग्गा डाला जा रहा है लेकिन तमाम स्टुडेंट्स ऐसे हैं जो इस चुग्गे को चुगने के लिए तैयार नहीं. वो अपने सपनों की दुनिया अपने हिसाब से बुनना चाहते हैं. वो किसी के सिस्टम में बंधकर खुद को बंधुआ नहीं बनाना चाहते हैं. ऐसा नहीं है कि वे नाकारा बनकर रहना चाहते हैं. लेकिन कॉर्पोरेट जगत में चल रही मोटे-मोटे पैकजों की दौड़ में वो शामिल नहीं होना चाहते. सपने उनकी आँखों में भी हैं लेकिन उन सपनों को पूरा करने के लिए उन्होंने ऐसे लोगों का साथ चुना है जो उनको सबसे अच्छी तरह से समझते हैं, यानी उनके अपने दोस्त. दिल्ली टेक्निकल यूनिवर्सिटी के ये नए और जवाँ इंजिनियर अपने दोस्तों संग खुद का बिजनेस शुरू करने की दिशा में कदम बढा रहे हैं. कुछ ऐसा नया काम जो परंपरागत काम से कहीं ज्यादा रोचक हो, क्रिएटिव हो और मन को सुकून देने वाला हो. जहाँ न टार्गेट का टंटा हो और न बॉस का डंडा. जिस काम को करने के बाद जीविकोपार्जन के साथ-साथ जीवन की सार्थकता भी नज़र आये.

व्यक्ति की जीविका का साधन भी कहीं न कहीं दो मौलिक सवालों से जुड़ा हुआ है कि- मैं कौन हूँ? और मैं इस धरा पर किसलिए आया हूँ? जब तक आपका काम आपके जीवन की सार्थकता सिद्ध नहीं करता तब तक वो काम आपको आनंद नहीं दे सकता. आप केवल मशीन की तरह उस काम को करते रहेंगे और नोटों की गड्डियां बनाते रहेंगे. जब किसी दिन थककर  एकांत में बैठोगे तब अचानक कहीं से ये सवाल मन में कौंधेगा कि ये मैं कहाँ चला जा रहा हूँ? और आप इस सवाल का जवाब नहीं दे पाओगे? इस सवाल का जवाब बस यही है कि एक भीड़ चली जा रही थी और मैं भी बिना सोचे-समझे उस भीड़ में शामिल हो गया.

मैंने भी जब पत्रकारिता से जुड़ने का फैसला किया था तब कहीं न कहीं मन में यही भाव था कि पत्रकारिता आम जनमानस की बात कहने का सशक्त माध्यम है. यहाँ मैं उनकी बात उठाऊंगा जो अपनी बात कहीं नहीं उठा पाते. लेकिन पत्रकारिता के अन्दर आकर तो केवल ख़बरों की होड़ और पैसों की दौड़ दिखी. इसका मुख्य उद्देश्य लोगों को फायदा पहुँचाना नहीं बल्कि अपने मालिक को फायदा पहुँचाना था. मालिक का फायदा करने में चाहे पब्लिक का फायदा हो या नुकसान उससे कोई फर्क नहीं पड़ता. काम के एवज में दाम मिलने के साथ-साथ संतुष्टि मिलनी भी जरूरी होती है. दोनों में से एक भी न मिले तो मिलती है केवल फ्रस्ट्रेशन. आज के कॉर्पोरेट जगत में जिस तरह से खुद के ही तय किये हुए असंभव टार्गेट अचीव करने की होड़ मची है वो वहां के कर्मचारियों के लिए घातक सिद्ध हो रही है. बाजारू कॉम्पटीशन में आज नंबर एक बनने की होड़ है. इसके लिए चाहे सिद्धांतों से समझौता करना पड़े या अपने कर्मचारियों के हितों के साथ. ऐसे में खासतौर से युवा कर्मियों को  घुटन महसूस होती है. जब तक वे ये सब समझ पाते हैं तब तक बहुत देर हो चुकी होती है.


किसी को भी सच्ची संतुष्टि तभी मिल सकती है जब उसके प्रयास सच्चाई के आस-पास हों, उसकी अंदरूनी प्रतिभा के आस-पास हो और परहित के आस-पास हो. जिस काम को करने से अपने लिए धन कमाने के साथ-साथ ये भाव भी हो कि मैं कुछ गलत नहीं कर रहा वो काम दीर्घकालिक संतुष्टि दे सकता है. "नौकरी = न-करी" : अगर कमाने के साथ-साथ समाज को भी कुछ देना चाहते हो तो कुछ अपना काम करो, अगर नितांत सच्चाई के मार्ग पर ही चलना चाहते हो तो अपना मार्ग अलग बनाओ. क्योंकि अभी सफलता के जितने भी मार्ग हैं वे सभी झूठ से होकर गुजरते हैं.


दिल्ली टेक्नीकल यूनिवर्सिटी में ये जो ट्रेंड दिख रहा है वो बेहद सराहनीय है. युवाओं को अब किसी की नौकरी की दरकार नहीं, वो अपना रास्ता खुद बनायेंगे, उनमें इतना दम है कि वे खुद नौकरियों का सृजन करेंगे. जिस तरह हर जगह प्रतिभा की अनदेखी करके चाटुकारों को प्राथमिकता दी जा रही है, उसका परिणाम यही होगा कि एक दिन प्रतिभाएं तलाशे नहीं मिलेंगी, वे सब अपने अलग रास्ते पर चल रही होंगी.

Thursday, December 23, 2010

मुझे ले चल मेरे गांव

मुझे ले चल मेरे गांव रे मन मुझे ले चल मेरे गांव,
जहां बाग में कूके कोयल और पीपल की छांव,
मुझे ले चल मेरे गांव रे मन मुझे ले चल मेरे गांव।

जहां मातु के अनुशासन में रहती थीं सब बेटी,
सबको नाच नचा देती थी बुढ़िया लेटी-लेटी,
एक आंगन में ही रहते थे मिलकर सारे भाई,
प्रेम की डोरी इतनी मोटी कभी न पनपे खाई,
घर का मुखिया शान से देता था मूंछों पर ताव,
मुझे ले चल मेरे गांव...

लाज का घूंघट करके बहुएं जब घर से चलती थीं,
देख उन्हें बूढों की नजरें खुद-ब-खुद झुकती थीं,
सभी बुजुर्गों का गांव में बहुत अदब था होता,
ऊंचे बोल नहीं दादा से कह सकता था पोता,
शहर से मुझको जल्दी ले चल मन नहीं पाता ठाव,
मुझे ले चल मेरे गांव रे मन...

खाली वक्त में बैठ के बाबा जब रस्सी बटते थे
सूरज की किरणों से पहले लोग सभी उठते थे,
पेड़ों से छनकर आती थी कूह-कूह की बोली,
टेसू के फूलों को मलकर खेली जाती होली,
फिर मुझको उस रंग में ले चल पडू मैं तेरे पांव,
मुझे ले चल मेरे गांव...

घर की छत पर रखते थे मिट्‌टी के खेल खिलौने,
गिल्ली डंडा संग कंचे सावन के झूल झुलौने,
चार आने में मिल जाती थी मीठी मीठी गोली
दस पैसे में भर जाती थी खीलों से ये झोली
गुड की भेली मोटी मिलती एक रुपए की पाव
मुझे ले चल मेरे गांव...

हरियाली के बीच बसा था सहज सरल सा जीवन,
जल्दी सोना जल्दी उठना स्वस्थ खुशी का उपवन,
धुआं तो मेरे आंगन में भी चूल्हे से उठता था,
शहर की सडकों के जैसा कभी न दम घुटता था,
दिल्ली का प्रदूषण तो दिल पर देता है घाव
मुझे ले चल मेरे गांव...

Monday, December 13, 2010

आतंक को आतंक ही रहने दो, कोई रंग न दो....

आतंकवाद: भारत के लिए एक बेहद कड़वी त्रासदी, एक कड़वा सच या यूँ कहिये कि भारतीय जीवनशैली में तेजी से उतरता एक महत्त्वपूर्ण अंग.

जिस तरह से आतंकवाद ने देश के अन्दर अपनी जडें फैलाई हैं उसको देख कर यही लगता है कि आतंक अब हमारी जीवनशैली में उतर चुका है. हमने आतंक को अब आत्मसात कर लिया है. शायद यही कारण है कि अब हम मरने से नहीं डरते, हम घर से यही सोच कर निकलते हैं कि- शाम हो न हो! शायद यही कारण है कि आज शहर में बम फटते हैं और अगले दिन हम फिर अपनी दिनचर्या पर लौट आते हैं, जैसे कुछ हुआ ही न हो. हिंसा का खौफ कुछ घंटों में ही हमारे दिमाग से काफूर हो जाता है. लेकिन खबरी चैनल चिल्ला-चिल्ला कर कहते हैं कि "देखिये ये आतंकियों की विफलता है. देश के लोगों ने आतंकियों के मंसूबों को विफल कर दिया. आतंक हमें डराने और हमें तोड़ने में असफल रहा". चैनलों को लोगों की मजबूरी में लोगों की बहादुरी नज़र आती है.

आतंकी हर बार नए-नए तरीके और ठिकाने तलाश कर हिंसा का तांडव रचते हैं. वे अपने काम को अंजाम देने के लिए पूरा दिमाग लगाते हैं, पूरी मेहनत करते हैं, लेकिन दिल्ली में बैठे लोग हर बार अपना रटा-रटाया बयान देते हैं. एक गणमान्य कहते हैं कि- "हम इस आतंकी हमले की निंदा करते हैं", दूसरे माननीय इस घटना को कायराना करार देते हैं, तीसरे महोदय को इसमें देश के सद्भाव को बिगाड़ने की बू आती है, चौथे महानुभाव इसे केंद्र की भूल बताते हैं, पांचवें ज्ञानेश्वर इसे इंटेलिजेंस की चूक बताते हैं. लेकिन देश के एक भी सत्ताधीश की इतनी हिम्मत नहीं होती कि वो आतंकवाद को खुलकर ललकार सकें. देशवासियों को ये विश्वास दिला सके कि आप सुरक्षित हैं. हर एक बयान में यही छिपा होता है कि हम सक्षम होते हुए भी लाचार हैं. हम आपको सुरक्षा मुहैया नहीं करा सकते.

पिछले कुछ समय से एक नया शिगूफा छेड़ा गया है. आतंक को रंग देने की कोशिश की जा रही है. एक पक्ष कहता है कि ये "हरा आतंकवाद" है, दूसरा पक्ष कहता है कि ये "भगवा आतंकवाद" है. मजेदार बात तो ये है कि संसद में आतंकवाद के रंग को लेकर तो हो-हल्ला होता है, लेकिन उससे निपटने के लिए कोई ठोस बहस नहीं होती. दोनों रंगों के पक्षधर अपने-अपने चश्मे से आतंक को देख कर सत्ता की डगर टटोल रहे हैं. जब सत्ताधीश मौतों में भी लड्डू खाने की चाह पाल कर बैठे हुए हैं, तो आतंक का मुकाबला होने से रहा. हद तो ये है कि एक महानुभाव महाज्ञानी नेता जी ने अब मुंबई हमले के शहीदों को लेकर भी रंगों का खेल खेलना शुरू कर दिया है. इस तरह की ओछी सोच रखने वाले लोग जब सत्ता के साथ संलग्न हैं तो आतंक कैसे मिटे.

बेहतर होता कि आतंक को आतंक ही रहने दिया जाता ओर इससे कड़ाई से निपटा जाता. रीढविहीन सत्ताधीश इसको रंगों के साथ जोड़कर बहुत बड़ी भूल कर रहे हैं. एक ऐसी भूल जिसका खामियाजा हमने कल भी भुगता, आज भी भुगत रहे हैं, और सालों-सालों तक भुगतते रहेंगे.

Saturday, December 11, 2010

मठाधीश होने के मायने!

"राम राज्य में प्रजा सर्वोपरि थी. प्रजा का कार्य राजा की सर्वोच्च प्राथमिकता थी. राजा राम राज भवन में आकर हर रोज लक्ष्मण को आज्ञा देते कि देखो लक्ष्मण द्वार पर कोई कार्यार्थी तो नहीं आया है. लेकिन राम राज्य में व्यवस्था कुछ ऐसी थी कि लोगों को काम लेकर राजा के पास आने की जरूरत नहीं पड़ती थी. हर रोज लक्ष्मण बाहर जाकर देखते और लौटकर यही जवाब देते कि द्वार पर कोई भी नहीं है. एक बार लक्ष्मण जब बाहर देखने गए तो उनको एक कुत्ता दिखा, जिसके माथे से रक्त बह रहा था और वो लक्ष्मण की ओर ही देख रहा था. लक्ष्मण ने उससे पूछा कि उसको क्या काम है, तो कुत्ते ने कहा कि वह अपनी बात राजा राम से ही कहना चाहता है. लक्ष्मण ने ये बात राज सभा में जाकर बताई तो राजा राम ने तुरंत उस कुत्ते को अन्दर बुलवाया.


राम ने उससे पूछा कि उसकी ये हालत किसने की है तो उसने बताया कि- नगर में सर्वार्थसिद्ध नमक एक विद्वान भिक्षु है तो ब्राह्मणों के घर में रहता है उसने अकारण ही मुझ पर प्रहार किया है. मैंने उसका कोई अपराध नहीं किया था. राजन आप मुझे न्याय दें.

कुत्ते की बात सुनकर राम ने एक द्वारपाल को भेजकर सर्वार्थसिद्ध नाम के उस भिक्षु को बुलवा लिया. राजा राम ने उस भिक्षु से पूछा कि- तुमने अकारण ही इस कुत्ते पर क्यों प्रहार किया. तब उस भिक्षु ने जवाब दिया कि महाराज मेरा मन क्रोध से भर गया था इसलिए मैंने इसे डंडे से मारा. भिक्षा का समय बीट चुका था तब भी भूखा होने के कारण मैं भिक्षा के लिए दर दर घूम रहा था. ये कुत्ता बीच रस्ते में खड़ा था. मैंने बार बार कहा कि मेरे रस्ते से हट जाओ, लेकिन ये अपनी ही चाल में मस्त चला जा रहा था. भूख के कारण क्रोध आ गया और मैंने इस पर प्रहार कर दिया. मैं अपराधी हूँ आप मुझे दंड दीजिये. राजा से दंड पाकर मेरा पाप नष्ट हो जायेगा.

तब राम ने अपने सभासदों से पूछा कि इस भिक्षु को क्या दंड दिया जाए क्योंकि दंड का सही प्रयोग करने पर ही प्रजा सुरक्षित है. राम की राजसभा में उस समय बहुत से विद्वान मौजूद थे उन सभी ने मंथन करने के बाद राजा से कहा कि- महाराज ब्राह्मण दंड द्वारा अवध्य है. उसको शारीरिक दंड नहीं मिलना चाहिए, यही शास्त्रों का मत है. लेकिन राजा सबका शासक होता है.

उन सबकी ऐसी मंत्रणा सुनकर उस कुत्ते ने कहा कि महाराज आपने प्रतिज्ञापूर्वक मुझे न्याय देने की बात कि है. अगर आप मुझ से संतुष्ट हैं और मेरी इच्छानुसार वर देना चाहते हैं तो मेरी बात सुनिए. आप इस ब्राह्मण को मठाधीश बना दीजिये. इसको कालंजर में एक मठ का आधिपत्य प्रदान कर दीजिये.

राम ने तुरंत उस ब्राह्मण को मठाधीश घोषित कर दिया. वह ब्राह्मण बहुत खुश हुआ और हाथी की पीठ पर बैठाकर उसको वहां से विदा किया गया.

तब राम के मंत्रियों ने मुस्कुराते हुए पूछा कि महाराज ये दंड था या पुरस्कार. इसपर राम ने कहा कि कर्मों की गति बड़ी गहरी और न्यारी है, किस कर्म का क्या नतीजा भोगना पड़ता है इसका तुमको नहीं पता ये इस कुत्ते को पता है. फिर श्री राम के पूछने पर उस कुत्ते ने पूरी सभा के समक्ष बताया- रघुनन्दन मैं पिछले जन्म में कालंजर के मठ में मठाधीश था और धर्मानुकूल आचरण करता था. मुझे ज्ञात नहीं मैंने पद पर रहते हुए कोई धर्म के प्रतिकूल कर्म किया हो. लेकिन फिर भी मुझे ये घोर अवस्था और अधम गति मिली. तो सोचिये ये ब्राह्मण जो इतना क्रोधी है, धर्म छोड़ चुका है, दूसरों का अहित करता है, क्रूर, कठोर, मूर्ख और अधर्मी है, ये तो अपने साथ ऊपर और नीचे की सात पीढ़ियों को भी नर्क में गिरा देगा."

ये प्रसंग अचानक मुझे वाल्मीकि रामायण में मिल गया. मुझे लगा कि इसको लिखना बहुत जरूरी है. आज जहाँ देखो मठाधीशों का बोलबाला है. तमाम संस्थाओं के मुखिया बने बैठे लोग एक तरह से मठाधीश ही तो हैं. पत्रकारिता में तो ये शब्द खासतौर से विद्यमान है. महर्षि वाल्मीकि ने इस प्रसंग के माध्यम से बहुत सरल तरीके से समझा दिया है कि मठाधीश होने के क्या मायने

Friday, December 10, 2010

हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे हैं!

टू जी स्पेक्ट्रम घोटाले में मीडिया, पोलिटिक्स, कॉर्पोरेट और दलालों का गठबंधन खुलकर सामने आ गया. किसी एक दल, किसी एक कॉर्पोरेट हाउस और किसी एक पत्रकार पर ऊँगली उठाने से काम नहीं चलेगा, यहाँ पूरे कुएं में भांग घुली है. कस्बाई पत्रकारिता से लेकर राष्ट्रीय पत्रकारिता तक दलाली का खेल जमकर खेला जाता है. मीडिया हाउस में भर्ती  के वक़्त भी मालिक इस बात का ख्याल रखता है कि अच्छे काम करने वालों के साथ साथ अच्छे सेटर्स भी भर्ती करने जरूरी हैं. आड़े समय में अच्छे काम करने वाले कम काम आते हैं, उस वक़्त तो केवल सेटर्स ही काम बनाते हैं. 

मैं भी पत्रकारिता के शुरू के दिनों में आदर्शों की बड़ी दुहाई देता था. एक बार श्याम भाई साहब के सामने भ्रष्टाचार को गरियाना लगा तो उन्होंने कहा कि तुम जो बार-बार भ्रष्ट लोगों को गरियाते हो तुमको नहीं लगता कि भ्रष्ट लोग तुम से ज्यादा समझदार हैं और तुमसे ज्यादा मेहनत करते हैं. मैंने कहा ऐसा क्यों? तो वो बोले कि सीधे-सीधे तो कोई भी चल लेता है, तारीफ तो तब है जब आप टेढ़े चलो और गिरो भी नहीं. भ्रष्ट लोग नियमों को इतनी खूबसूरती से तोड़ते हैं कि किसी को कानों कान हवा भी नहीं लगती. दस में से एक पकड़ा जाता है और जो पकड़ा जाए वही चोर बाकी सब शाह.

ऐसा नहीं था कि श्याम भाई साहब को भ्रष्ट लोगों से कोई विशेष प्रीती थी, लेकिन वो मुझे व्यावहारिक सच्चाई समझा रहे थे. श्याम भाई साहब अपनी जगह सही थे. भ्रष्ट लोग इमानदार लोगों से काफी स्मार्ट होते हैं और आत्मविश्वासी भी. न केवल सारे कायदे कानूनों को अपनी जेब में रखते हैं बल्कि नियमों का इतना गहरा अध्ययन करते हैं कि नियम भी टूट जाए और नाम भी न आयेआज जब फिर से तमाम घोटाले खुल रहे हैं तो मुझे फिर श्याम भाई साहब की बात याद आ रही है.

२ जी स्पेक्ट्रम घोटाले में तमाम लोग फंसते नज़र आ रहे हैं. राजनीति तो हमेशा से ही घोटालों और भ्रष्टाचार के केंद्र में रही है, लेकिन इस बार दूसरों को आइना दिखाने वाली मीडिया से लेकर नामी कॉर्पोरेट हाउस भी इसकी चपेट में हैं. मंत्रिमंडल में किस तरह जगह बनाई जाती है, ठेके कैसे मिलते हैं, दल्लों की कितनी अहम् भूमिका है, ये सब समझने का एक अच्छा मौका है. विपक्ष को बैठे बिठाये मसाला मिल गया है. भ्रष्टाचार से जो नुकसान हुआ सो हुआ अब संसद को ठप्प  कर के दूसरा नुकसान किया जा रहा है. इस देश में विपक्ष का एक रटा-रटाया ढर्रा है. सहो हो या गलत उसको हर कीमत पर सत्ता दल की निंदा करनी हैखुद को इस तरह पेश करना है कि हम से ज्यादा दूध से धुला पूरी धरती पर कोई नहीं. जबकि असलियत यही है कि पक्ष और विपक्ष दोनों ही एक थैली के चट्टे-बट्टे हैं.

सच्चाई ये है कि भ्रष्टाचार और सदाचार में बेहद बारीक़ रेखा है. सही चश्मा लगाकर देखा जाए तो हर इन्सान किसी न किसी रूप में भ्रष्ट है. कोई चरित्र से भ्रष्ट है तो कोई व्यक्तित्व से. कोई धन के सामने नतमस्तक तो कोई पद के तो कोई तन के. अगर बुराई ही देखने निकल पड़ें तो किसी का भी बच पाना मुश्किल है. लेकिन जब आपका आचरण ज्यादा बड़े स्तर पर नुकसान पहुँचाने लगे तो मसला गंभीर हो जाता है.

शायद इसीलिए कहा जाता है कि चम्बल के डकैत संसद के डकैतों से कहीं ज्यादा बेहतर हैं. चम्बल के डकैत खुलकर स्वीकार तो करते हैं कि हम डकैत हैं, लेकिन संसद के डकैत खुद को सफ़ेद रंग में ढक कर जनता का सेवक कहते हैं. कथनी- करनी का इतना बड़ा अंतर ही सारी समस्या की जड़ है. हम बात देश के आम आदमी की करते हैं, लेकिन लाभ देश के खास आदमी को पहुंचाते हैं. आम आदमी के बीच हम चुनाव के वक़्त पांच मिनट के लिए जाते हैं और बाकी के पांच साल ख़ास आदमी के साथ गल बहियाँ करते हैं. सच्चाई यही है. वरना देश का आम आदमी इतनी महंगाई न झेल रहा होता. आम आदमी पर बिना बोझ बढ़ाये जब रेलवे मुनाफा कम सकता है, तो दूसरे मंत्रालय क्यों नहीं.

जब तक राजनीति को कॉर्पोरेट घरानों से चंदे की दरकार रहेगी तब तक आम आदमी के बारे में सरकार सोच ही नहीं पाएगी. करोड़ों के चुनावी खर्च को घटाकर जब तक हजारों में नहीं किया जायेगा तब तक कॉर्पोरेट घराने राजनीति कि नीतियाँ तय करते रहेंगे. जब तक महामहिम नेताजी उद्योगपतियों के निजी हेलीकाप्टर का मोह त्याग कर धरातल पर उतर कर चुनाव प्रचार नहीं करेंगे तब तक मंत्रिमंडल के चेहरे प्रधानमंत्री की जगह उद्योगपति ही करते रहेंगे. मीडिया और राजनीति का सीधा सा सिद्धांत है- जिसका खाते हैं, उसका गाते हैं. इसलिए मुझे लगता है कि इतना हंगामा उतारने की जरुरत नहीं है. राजा साहब ने उच्चतम राजनितिक परम्पराओं का निर्वहन किया है. उनसे गलती बस इतनी हो गयी है कि उनकी बात खुल गयी, वरना ९० प्रतिशत राजनीतिज्ञ इन्हीं परम्पराओं का निर्वहन कर रहे हैं. और इन परम्पराओं पर विराम लगाना बेहद कठिन है.

Thursday, December 9, 2010

मौतों का हिसाब देना आसान है, पैसों का हिसाब देना बहुत मुश्किल...

फिर वही खून का मंजर, फिर वही अफरा-तफरी और फिर वही शब्दों के हेर-फेर.  आतंकी बनारस में एक बार फिर सफल रहे और हम एक बार फिर विफल हुए. एक बार फिर हमने खुद को झूठी तसल्ली दी. एक बार फिर हमने शब्दों के मल्हम लगाये.  

वो इतने सक्षम हैं हर बार सफल हो जाते हैं, हम इतने अक्षम हैं की हर बार विफल हो जाते हैं. वे इतने बेशर्म हैं कि बार बार अपनी हरकत दोहराते हैं और हम बेहया और बेशर्म दोनों हैं कि हर बार विफल होने के बावजूद बातें बनाते हैं. दिल्ली में बैठे लोगों को घटना का बड़ा दुःख है, लखनऊ में बैठे लोग इसे दिल्ली की विफलता बता रहे हैं, दिल्ली वाले कह रहे हैं कि हमने पहले ही आगाह कर दिया था. लेकिन फिर भी देश कि लोगों को ये समझ नहीं आता कि तुम साले न तो दिल्ली की जिम्मेदारी में आते हो और न लखनऊ की. तुम अपनी जिम्मेदारी खुद उठाओ, या फिर अपने माँ बाप से पूछो कि उन्होंने तुमको पैदा क्यों किया. क्या जरुरत थी तुमको इस दुनिया में लाने की. तुम्हारे माँ बाप ने तुमको अपने स्वार्थ के लिए पैदा किया तो फिर तुम सरकार की जिम्मेदारी कैसे हुए भला. अब मरो सालों कुत्ते-बिल्लियों की तरह.

तुम लोग आये दिन यूँ ही मरते रहते हो और दिल्ली वालों को दुखी होने के लिए वक़्त निकालना पड़ता है. बातों के परदे में चीज़ों को ढकने की कोशिश करने पड़ती है. बार बार आतंकियों को कायर कहकर पुकारना पड़ता है, इसके अलावा कोई शब्द मिल ही नहीं पा रहा है. कुछ नहीं तो ये कहकर अपनी खीज मिटाई जाती हैं कि देखो बनारस पर कोई असर नहीं पड़ा, बनारस अब भी वैसा ही है, वहां कि लोग कितने हिम्मती हैं, जिंदगी एक घंटे में ही पटरी पर लौट आई. खिसयानी बिल्ली खम्भा नोचे. तंत्र मंत्र के भरोसे २४ घंटे काट रही मीडिया को भी बढ़िया माल मिल जाता है. अब कुछ दिन बॉलीवुड कलाकारों की निजी जिंदगी में झाँकने की जरुरत नहीं पड़ेगी.  तो कुछ धर्मनिरपेक्ष लोगों को ये लगने लगता है कि देश का सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने की कोशिश की जा रही है. उन्हें मौतों का गम कम और सांप्रदायिक सौहार्द की चिंता ज्यादा सालती है. लेकिन बेचारे करें भी क्या बातें बनाने के अलावा कुछ किया भी नहीं जा सकता. आखिर बातें बनाने के अब मौके भी तो कम मिलते हैं. इसलिए कुछ कुछ समय के अन्तराल पर पब्लिक का मरना बड़ा जरुरी है. कितने सारे लोगों को बैठे बिठाये काम मिल जाता है.

इन खोखली बातों में कितना दम है, ये तो ज्यादातर लोगों को पता ही है. लेकिन ये झूठ का पुलिंदा हर बार काम आता है. हम इस पुलिंदे को हर वक़्त तैयार रखते हैं, क्योंकि हम जानते हैं कि मौतों का ये कारवां रुकने वाला नहीं है. क्योंकि हम खुद नहीं चाहते कि ये कारवां रुके.  ये खुनी कारवां अगर रुक गया तो जनता दूसरी चीज़ों की तरफ ध्यान देने लगेगी. उसकी मांगें बढ़ने लगेंगी. इसलिए भलाई इसी में है कि जनता इन्हीं सब चीज़ों में उलझी रहे. मौतों का  हिसाब देना आसान है, पैसे का हिसाब देना बहुत मुश्किल....