भारतीय शहर और गांव में इतना बड़ा अंतर है कि उन्हें देखकर ये लगता ही नहीं कि वे एक ही देश के हिस्सा हैं। भारतीय गांव की असली तस्वीर किसी पेंटिग में बनी गांव की सुंदर सी तस्वीर से बिल्कुल विपरीत है। गांवों और शहर के विकास के लिए केंद्र सरकार ने अलग-अलग मंत्रालय खड़े किये- शहरी विकास और ग्रामीण विकास मंत्रालय। जहां तक शहरी विकास का मामला है तो वह तो खुली आंखों से स्पष्ट नजर आता है, लेकिन अगर गांव के विकास की बात करें तो वह केवल किसानों की जमीन अधिग्रहण तक ही नजर आता है। जब भी सरकार कोई भी नया काॅलेज या अस्पताल खोलने की घोषणा करती है तो वह शहर के लिए ही होती है, यानि हर काम के लिए गांव वाले ही शहर आएं। इसका विपरीत कभी होते नहीं देखा। यहां तक कि देश के नेताओं को भी अगर चुनावी रैली करनी है तो वह शहर में ही होगी, गांव में जाकर रैली करना केवल किसी विशेष अवसर पर ही होता है। 67 साल की आजादी में गांवों को मुख्य धारा से जोड़ने के दावे और वादे तो बहुत हुए पर गांव अभी भी बहुत उपेक्षित हैं। अब अच्छे दिन देने का वादा करके देश में नई सरकार आई है। लोगों में उत्साह है और उनकी नए प्रधानमंत्री से ‘महा‘ अपेक्षाएं हैं। ऐसे में गांव के कुछ मुद्दों को उठाने का प्रयास-
गांव की राजनीतिः राजनीति जब राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हो तो अच्छी होती है, लेकिन अगर वही राजनीति गांव और घर में होने लगे तो बेहद घातक सिद्ध होती है। इसके दुष्परिणाम सामने आने भी लगे हैं। पंचायती राज व्यवस्था बनाई तो गई थी गांवों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए, लेकिन इस व्यवस्था ने कितना वीभत्स रूप अख्तियार किया है, ये उत्तर प्रदेश के कुछ गांवों में जाकर देखें। आपसी प्रेम, सौहार्द और सहयोग पर टिका गांव का समाज गांव की राजनीति के कारण पूरी तरह बिखर चुका है। आपसी सहयोग की भावना पैसे की दौड़ में खत्म होती चली जा रही है। ऐसे में गांवों में होने वाले प्रधानी के चुनावों पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। महात्मा गांधी ने जिस ग्राम स्वराज की अवधारणा देश को दी थी वो वर्तमान पंचायती राज व्यवस्था कभी नहीं दे सकती। सही मायने में गांधी के ग्राम स्वराज को वास्तविकता में उतारने का प्रयोग अगर किसी ने किया है तो वह अन्ना हजारे ने रालेगण सिद्धि और उसके आसपास के गांव में कर के दिखाया है। नई सरकार को ग्रामीण भारत के उत्थान के लिए पंचायती राज व्यवस्था पर नये सिरे से सोचना चाहिए। गैर सरकारी संगठन और सीएसआर ग्रामीण उत्थान में बड़ा सहयोग कर सकते हैं। बस जरूरत यही है कि जो भी योजना या कदम उठाए जाएं उनमें गंभीरता हो, सिर्फ पैसे कमाने और नेतागीरी के उद्देश्य से काम न हो।
किसान और खेती को सम्मानः ग्लैमरस नौकरियों के इस दौर में ग्रामीण युवा के बीच खेती के प्रति तेजी से अरुचि पैदा हो रही है। गांव का युवा अब हल चलाना नहीं चाहता, उसको भी शहर में अच्छी नौकरी की दरकार है। बड़ी तादाद में ग्रामीण युवा इस दिशा में सफल भी हो रहे हैं, सरकारी और निजि क्षेत्र दोनों में अपना परचम लहराया है। इनमें अधिकांश मामले उन युवाओं के हैं, जिनके परिवारों की माली हालत पहले से ठीक-ठाक होती है। इधर जिन युवाओं का शहर में नौकरी का सपना पूरा नहीं हो पाता वो भी खेती-किसानी से कतराता है। भले ही पूरे देश को किसान की उपजाई फसल के कारण दो वक्त की रोटी नसीब होती हो, लेकिन खेती करना समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता है। इसलिए नई सरकार को खेती को प्रोमोट करने की दिशा में ध्यान देना चाहिए। गांव से तेजी से हो रहा पलायन रोकने के लिए उनके आसपास ही रोजगार हों। खेती के साथ-साथ उनके हाथ में जो हुनर है उसको नजदीक में ही बाजार मिले। ऐसे तमाम उदाहरण इसी देश में उपलब्ध हैं जहां बड़ी-बड़ी नौकरियां छोड़कर लोगों ने खेती करना बेहतर समझा। खबरें आ रही हैं कि सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड मुख्य न्यायाधीश पी. सताशिवम् रिटायरमेंट के बाद दिल्ली में रहने के बजाय तमिलनाडु स्थित अपने गांव जाकर खेती करेंगे।
उपजाऊ जमीन और विकासः ये भी अजीब विडंबना है कि भारत में सिमेंटीकरण की प्रक्रिया को ही विकास का मापदंड समझा जाता है। जिस इलाके में जितना ज्यादा सीमेंट ठुका है यानि वो उतना ही विकसित है। कच्चे छप्पर वाले घर पिछड़ेपन की निशानी बन गए हैं। सिमेंटीकरण को बढ़ाकर शुरू हुआ विकास का दौर इस कदर फैल रहा है कि गांव की खेतीहर भूमि को भी कब्जे में लेता जा रहा है। रीयल एस्टेट की छतरी के नीचे फैल रहा हाई राइज अपार्टमेंट कल्चर दिल्ली से निकल कर एनसीआर, फिर एनसीआर से निकल कर वृहद एनसीआर और वृहद एनसीआर से निकल कर छोटे-छोटे शहरों की उपजाऊ जमीन कब्जाता जा रहा है। आलम ये है कि मेरठ जैसे उपजाऊ जिले के किसानों ने भी थोड़े से लाभ के लिए बड़े पैमाने पर अपनी खेती की जमीन रीयल एस्टेट के हाथों बेच दी और बेच रहे हैं। इसी तरह 160 किलोमीटर लंबे नवनिर्मित यमुना एक्सप्रेस वे के दोनों तरफ हजारों एकड़ उपजाऊ जमीन को भी अर्बन जोन में तब्दील करने की भी महायोजना है। इतनी बड़े स्तर पर उपजाऊ जमीन का सीमेंटीकरण करना न केवल पर्यावरण की दृष्टि से बल्कि कृषि उत्पादन की दृष्टि से भी नुकसान दायक साबित होगा। जबकि जरूरत इस बात की है कि देश में ऐसी भूमि को चिन्हित किया जाए जो अनउपजाऊ और बेकार पड़ी हैं। नए टाउनशिप, इंडस्ट्रियल एरिया डेवलप करने से पहले इलाके का सर्वे कराकर बेकार और बंजर जमीन को प्राथमिकता दी जाए। हालांकि ये थोड़ा जटिल कार्य होगा, पर अगर ध्यान नहीं दिया गया तो परिणाम आगे लिखे हैं।
काॅस्मेटिक फूड-काॅस्मेटिक जेनरेशनः मेरठ में पत्रकारिता के दौरान एक बार सेंट्रल पटैटो रिसर्च इंस्टीट्यूट (सीपीआरआई) के एक वैज्ञानिक का इंटरव्यू लेने का मौका मिला। बातचीत करते-करते हाइब्रिड बीज और जीएम बीज तक पहुंची। मैंने उनसे पूछा कि आजकल के अनाज में वो पहले वाली खुशबू क्यों नहीं है। गेहूं की रोटी, अरहड़ की दाल और बासमती चावल में वो पहले जैसी बात कहां चली गई? क्या ये हाइब्रिड बीजों का नतीजा है। उन्होंने न लिखने की शर्त पर बताया कि ‘देश की जनसंख्या लगातार तेजी से बढ़ रही है और उपजाऊ जमीन उतनी ही तेजी से घट रही है। ऐसे में सरकार की पहली प्राथमिकता है इतनी बड़ी जनसंख्या का पेट भरना। इसलिए सरकार का मुख्य ध्यान पैदावार पर है, गुणवत्ता पर नहीं। यानि क्वांटिटी प्राथमिकता है क्वालिटी नहीं। हाइब्रिड और जीएम बीजों की मदद से पैदावार में जबरदस्त इजाफा देखने को मिला है‘। पर्यावरणविद् समय-समय पर जीएम फूड के नुकसानों की ओर ध्यान खींचते रहे हैं। एक और नुकसानदायक प्रत्यक्ष उदाहरण पंजाब में देखने को मिलता है जहां अच्छी पैदावार के चक्कर में केमिकल फर्टिलाइजर और पेस्टिसाइड्स के प्रयोग से वहां कैंसर के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। इस तरह का अन्न खाकर देश की आने वाली पीढ़ी कैसी होगी इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। नए पर्यावरण मंत्री ने बयान तो दे दिया कि विकास और पर्यावरण एक-दूसरे के विरोधी नहीं, लेकिन असलियत तो यही है कि विकास पर्यावरण की कीमत चुकाकर ही होता है। अब ये नई सरकार को तय करना है कि वो सिमेंटीकरण के विकास का अनुसरण करे या फिर विकास के नए अर्थ गढ़े।
गोधन और जैविक खादः खेती और गौपालन को समाज में सम्मान दिलाना बहुत जरूरी है। व्हाइट काॅलर जाॅब का आकर्षण गांव के युवाओं को खेती और गौपालन से खींच रहा है। अच्छी खेती के लिए गायों का बड़े स्तर पर पालन होना चाहिए उनका कटान नहीं। गायों का पालन हर दृष्टि से लाभदायक है, इसे बार-बार बताया गया है। बच्चों के लिए दूध से लेकर किसान को जैविक खाद प्रदान करने तक गायें हर तरह से अर्थव्यवस्था में लाभदायक है। जरूरत इस बात की है कि गौपालन का काम भी समाज में सम्मान से देखा जाए। अन्यथा सिंथेटिक दूध, दही और पनीर खाकर बढ़ रही पीढ़ी कितनी मजबूत होगी ये कहना मुश्किल है। सरकार चाहे तो शहरों में घरों से निकलने वाला कचरा और नदियों की सफाई में निकलने वाले कचरे को भी जैविक खाद् में तब्दील कर किसानों को मुहैया करा सकती है।
गांव की संस्कृतिः इसे बाॅलीवुड का असर ही कह सकते हैं कि गांव का नाम सुनकर जो पहली तस्वीर बनती है वो है एक हरा-भरा, साफ-सुथरा स्थान जहां सीधे-सरल लोग रहते हैं। जबकि सच्चाई इसके उलट है। न तो गांव उतने हरे-भरे रहे और न साफ-सुथरे। गांव की राजनीति ने वहां के लोगों को भी सीधा और सरल नहीं रहने दिया है। वो तो भला हो पाॅपुलर के पेड़ों से मिलने वाले आर्थिक लाभ का कि कई गांवों में इन पेड़ों की वजह से हरियाली फिर लौट आई है। फिर भी हर गांव की अपनी एक संस्कृति होती है, जो शहरीकरण की होड़ और दौड़ में खोती जा रही है। वहां की बोलचाल, भाषा, वेशभूषा तथाकथित माॅडर्न कल्चर की भेंट चढ़ती जा रही है। इसे घर-घर लगे टेलीविजन का ही असर कहें या आधुनिक दिखने की होड़ कि गांव की अपनी बोली का स्थान एक सभ्य खड़ी हिंदी लेती जा रही है, वहां का खानपान बदल रहा है, पहनावा बदल रहा है। हालांकि बदलाव अवश्यंभावी है और उसको स्वीकार किया जाना चाहिए, लेकिन किस हद तक ये सोचना होगा!