मंगलवार, 23 नवंबर 2010

मेट्रो चिंतन: महिलाओं को सीट क्यों दें ?



शम्मी नारंग उवाचः: कृपया महिलाओं, विकलांगों और वरिष्ठ नागरिकों को सीट दें. अगला स्टेशन पुल बंगश है.

इतना सुनना था कि मेरे से एक सीट छोड़कर बैठे महोदय विफर पड़े. "हाँ सब कुछ महिलाओं को ही दे दो, पूरा का पूरा डिब्बा दे दिया अब सीट अलग से चाहिए. नाक में दम कर दिया है. पुरुषों के पास जो पुरुषत्व की निशानी है वो भी महिलाओं को ही क्यों नहीं दे देते."

दिल्ली मेट्रो में दिलशाद गार्डेन से रोहिणी तक की ४५ मिनट की यात्रा में आये दिन ऐसे विचारकों के दर्शन हो जाते हैं, जिनके सहारे ४५ मिनट कब कट जाते हैं पता ही नहीं चलता. लेकिन ये विचारक महोदय महिलाओं को पूरा का पूरा डिब्बा अलॉट कर देने से खासे नाराज़ थे. अपने बगल में बैठे मित्र को बार बार कोहनी मार मार कर सुना रहे थे. देखने में वे दोनों साथी किसी प्राइवेट कंपनी के एम्प्लोई लग रहे थे.

उन्होंने बात आगे बढाई- "अब बताओ यार पूरा एक डिब्बा महिलाओं के लिए अरक्षित कर दिया गया है. तो बाकी के डिब्बे पुरुषों के लिए होने चाहिए. चलो आपका बहुत मन है पुरुषों के बीच बैठने का तो बैठो, लेकिन इन डिब्बों में भी महिलाओं के लिए सीट अरक्षित करना कहाँ की तुक है. वैसे तो छाती ठोक-ठोक कर कहती हैं कि हम किसी से कम नहीं, हम पुरुषों के कंधे से कन्धा मिलाकर चल सकती हैं. दो मिनट खड़े रहने में तो तुम्हारी टांगे दुःख रही हैं, कंधे से कन्धा क्या ख़ाक मिलाओगी."

दूसरा साथी ज्यादा बोल नहीं रहा था बस हाँ में हाँ मिला रहा था- "सही बात है"

"अच्छा! चालाक भी बहुत होती हैं साहब ये लोग. जब डिब्बा खाली होगा तब अपनी रिज़र्व सीट पर नहीं बैठेंगी. लेकिन अगर डिब्बा भरा हो तो इन्हें अपनी सीट पर बैठे पुरुष को उठाने में इतनी संतुष्टि मिलती है कि पूछो मत. एकदम दादागिरी दिखाती हैं. अब जब पूरा डिब्बा अलॉट कर ही दिया है तो भला क्यों तुम मर्दों के बीच घुसती हो. कोई मर्द चला जाये तुम्हारे डिब्बे में तब देखो कैसे हेकड़ी दिखाती हैं."

दूसरा साथी- "सही बात है, हर जगह यही हाल है. "

"अरे हाल क्या दिमाग ख़राब कर दिया है इन लोगों का. अब संसद में और ३३ परसेंट आरक्षण दे दो. हद कर रखी है. या तो बात बराबरी की करो या फिर ये मानो कि तुम पुरुषों से कमजोर हो. तो बात बराबरी की भी करेंगी और खुद को स्पेशल जगह भी चाहिए. हवाई जहाज चलाती हैं, ट्रक चला के दिखाओ तो जानें. अब देखो अपनी इस मेट्रो ट्रेन को भी इस समय एक लड़की ही चला रही है. आपको साफ़ पता चल रहा होगो. ब्रेक तक लगाने नहीं आ रहे. कैसे झटके से रोकती है. ड्राइविंग में तो इन लोगों से भगवान ही बचाए."

दूसरा साथी- "हाँ ड्राइविंग तो बहुत ही ख़राब होती है औरतों की. कार लेकर निकल पड़ती हैं और सड़क पर जाम लगवा देती हैं. "

"और नहीं तो क्या? भाई ये बाकी के तीन डिब्बों में महिलाओं के लिए रिज़र्व सीट ख़त्म होने चाहिए. संविधान में लिख दिया गया है कि देश में लिंग भेद नहीं होना चाहिए, अब बताओ ये लिंग भेद नहीं है तो क्या है. पुरुषों के साथ साफ़ साफ़ लिंग भेद किया जा रहा है कि नहीं."

दूसरा साथी- "हा... हा... हा... सही बात."

"वैसे यार एक बात समझ नहीं आई? औरतों को सबसे आगे का डिब्बा क्यों दिया गया. हर चीज़ में तो ये पीछे हैं, तो पीछे का ही डिब्बा देना चाहिए था. दौड़ते-दौड़ते ट्रेन पकड़ती हैं तो आखिरी डिब्बा ही न हाथ आयेगा."

दूसरा साथी- "हा हा हा..."

इस गहन चिंतन के बीच शम्मी नारंग की आवाज़ फिर गूंजी - "अगला स्टेशन शाहदरा है, दरवाजे बायीं तरफ खुलेंगे. कृपया सावधानी से उतरें". दोनों साथी खड़े हुए और सावधानी के साथ उतर गए बिना किसी महिला से टकराए.

भाई महिलाओं से इतने भरे हुए थे कि अगर उस समय कोई महिला बोल पड़ती तो शायद हाथापाई हो जाती. उनका मेट्रो चिंतन काफी गहरा था. समाज में व्याप्त असमानता पर उनको गहरा दुःख था.

शनिवार, 20 नवंबर 2010

पामेला आंटी: पधारो म्हारे देस

पामेला एंडरसन सरीखे विश्व विख्यात दिग्गजों को उनकी मुंह मांगी कीमत पर भारत में नचाना कई चीज़ों की तरफ इशारा करता है.  

एक तो ये कि भारत की क्रय शक्ति काफी ऊंची हो गयी है. देश अब किसी को भी खरीदने का माद्दा रखता है, खासतौर से क्रिकेट और फ़िल्मी दुनिया में. देखिये न हम अपनी टीम के लिए हमेशा विदेशी कोच खरीदते हैं, आईपीएल में भी हमने दुनिया भर के खिलाडियों को खरीद डाला. मैच के दौरान कूल्हे मटकाने के लिए विदेशी चीयर लीडर खरीदने में भी पीछे नहीं रहे. वैसे राजकपूर ने भी अपनी फिल्म के लिए विदेशी कलाकार चुनी थी, लेकिन वो पामेला जितनी विख्यात नहीं थी. लेकिन इस बार कलर्स चैनल के "बिग बॉस" पर पामेला का आना चार दिन ठहरना ढाई करोड़ की रकम ऐंठना, सलमान के इशारों पर लहंगा पहन कर "मुन्नी बदनाम हुयी डार्लिंग तेरे लिए" गाने पर नाचना और हिंदी बोलने की कोशिश करना थोडा हटके है. निश्चित तौर पर विदेशियों की नज़र में भारत अब वो भारत नहीं रह गया है जिस से परहेज किया जाए. 

पामेला के आने पर मीडिया ने काफी हो-हल्ला तो किया लेकिन ये उस हो-हल्ले के सामने बिलकुल कम था जो उस साल माइकल जैक्सन के आने पर हुआ था. आम लोगों में पामेला के आने का कोई खास असर नहीं दिखा. लोगों ने इसको आराम से पचा भी लिया. ये भूमंडलीकरण का ताज़ा उदाहरण है. दुनिया सिमट चुकी है.

भारतीय लोग अब विदेशियों को देखकर हैरत में नहीं पड़ते. और रही बात देश की "मॉरल पुलिस" की तो वो भी अब चिल्ला चिल्ला कर थक चुकी है. देश की मॉरल पुलिस जितना चिल्लाती है उतना ही उसको मुंह की खानी पड़ती है. संस्कृति के तथाकथित रक्षक क्यों अपना आधार खो चुके हैं ये उनको खुद देखना होगा. खैर मॉरल पुलिस भी क्या करे जब इस बार बेचारा सूचना प्रसारण मंत्रालय भी "बिग बॉस" के सामने "स्मॉल" नज़र आया और उसका प्रसारण नियत समय पर नहीं रोक पाया.

लिहाज़ा इस नए ट्रेंड के बारे में काफी कुछ कहा भी जा सकता और नहीं भी. ये नयी दौर की हवा है जो घर घर में घुस चुकी है. अब इसी हवा में जीने की आदत डालनी होगी. रही बात आपके बच्चों की तो जितना आप उनको रोकोगे, उतनी ही उनके मन में उस चीज़ को जानने की उत्सुकता बढ़ेगी. सो उनको सलमान अंकल से संग पामेला आंटी के लटके झटके देखने दीजिये. एक नकली दुनिया और उसके अजीब से रिश्तों में जीने दीजिये, जहाँ बात बात पर आंसू टपकते हैं और खुलेपन के नाम पर सबकुछ कैमरे के सामने होता है.

हालाँकि आप सब समझते हैं कि हर चीज़ के पीछे बाज़ार है, लेकिन फिर भी आप उसको समझा नहीं सकते उसका कोई इलाज नहीं कर सकते. क्योंकि अगर आप कुछ करेंगे तो पिछड़ जायेंगे.

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

ओबामा का जय हिंद

ओबामा आये और चले गए. अपने पीछे छोड़ गए हैं वादे, इरादे और यादें. वैसे तो उनकी यात्रा से जुड़ा हर पक्ष हर कोई जान चुका है. मीडिया ने ओबामा की यात्रा का ऐसा चित्रण किया कि हर कोई यही महसूस कर रहा था मानो ओबामा उसके बगल में है खड़े हैं. वैसे तो ओबामा ने पूरी यात्रा के दौरान एक गुड बॉय की तरह सब गुडी-गुडी बातें कीं, लेकिन मैं एक बात पर अटका. संसद के संयुक्त सदन को संबोधित करने के बाद ओबामा ने जब 'जय हिंद' कहा तो संसद का पूरा सदन तालियों की गडगडाहट से गूँज उठा. वैसे ओबामा के पूरे भाषण के दौरान सांसदों ने ३२ बार तालियाँ बजायीं. जाहिर है तालियाँ उनकी ख़ुशी का इजहार करती हैं. कहा भी यही गया कि ओबामा ने भारतियों का दिल जीत लिया.


मैं पूरी चीज़ में केवल 'जय हिंद' पर फोकस करना चाहता हूँ. जय हिंद भारत के गौरव का प्रतीक है, इन दो शब्दों में हिंद की जय छिपी है. वही हिंद की जय जिसका सपना नेताजी सुभाष ने देखा और जो हर एक भारतीय चाहता है. भारत की आन, मान और शान से जुड़ा है 'जय हिंद'. ओबामा ने भी 'जय हिंद' बोलकर भारत का मान बढ़ा दिया. लेकिन अब ज़रा इसी चीज़ को घुमा कर देखिये. अगर कोई भारत का राष्ट्राध्यक्ष किसी दूसरे देश की यात्रा पर गया होता और उसने इस तरह की कोई बात कर दी होती तो इस भारत में बवाल मच गया होता. ज्यादा दूर जाने की जरुरत नहीं है अतीत में ऐसे कई उदाहरण मिल भी जायेंगे. बड़ी सहजता से ओबामा ने 'जय हिंद' बोला और उसके बाद भी सब कुछ सहज है, यहाँ भी और अमेरिका में भी. लेकिन भारतीय राजनीति अपने नेताओं को ये छूट नहीं देती. हमारा कोई नेता अगर इस तरह की सोच का प्रदर्शन करने की कोशिश करे तो उसका इस्तीफ़ा ही मांग लिया जाए. बीजेपी नेता एलके अडवाणी का पाकिस्तान में जिन्नाह पर दिया गया वक्तव्य और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का इंग्लैंड में अंग्रेजों द्वारा भारत में किये गए विकास की प्रशंसा वाले वक्तव्य पर कितना बवाल हुआ था ये सबको याद ही होगा. वो कुछ नहीं था केवल अपने मेजबानों का थोडा सम्मान मात्र था. लेकिन भारत में उस पर इतनी तीखी प्रतिक्रिया हुई कि पूछो मत. अंतर केवल हमारी सोच में है. अमरीकी राष्ट्रपति हमारे देश में हमारी तारीफ करे तो चलेगा लेकिन हमारे नेता किसी दूसरे देश में उसकी तारीफ करे तो नहीं चलेगा. आखिर ये हम किस तरह की सोच है का परिचय दे रहे हैं. जिस तरह ओबामा ने भारत में आकर भारतियों का दिल जीता है उसी तरह भारतीय नेताओं को भी खुलकर खेलने का मौका दिया जाना चाहिए. खुद को महान कह देने भर से काम नहीं चलने वाला है, कुछ कर के भी दिखाना होगा. अपनी सोच को थोड़े पंख देने होंगे, इतना संकुचित होकर चलेंगे तो दिक्कत होगी.

कर्म फल

बहुत खुश हो रहा वो, यूरिया वाला दूध तैयार कर कम लागत से बना माल बेचेगा ऊंचे दाम में जेब भर बहुत संतुष्ट है वो, कि उसके बच्चों को यह नहीं पीन...