Monday, April 1, 2019

पता नहीं कितने दिन और मिलेगी कच्चे चूल्हे की रोटी?

यूं तो गार्गी हर साल ही गांव जाती रही है, लेकिन अब वह चार बरस की हो गई है और हर चीज पर सवाल करने लगी है। इस बार होली पर जब वह हमारे गांव गई तो चूल्हे पर रोटी बनते देख उसके जिज्ञासु मन से सवाल निकला कि ‘यहां लकड़ी से खाना क्यों बन रही है’? फिर उसकी नजर लकड़ी के बने पटले और पीढे़ पर पड़ी। फिर सवाल किया यहां सबकुछ लकड़ी का ही क्यों है? शहर में गैस स्टोव पर खाना बनते देखना और घर में अधिकांश वस्तुएं प्लास्टिक की होने के कारण गार्गी के मन में यह जिज्ञासाएं स्वभाविक ही थीं। लेकिन उसने सब लोगों को हंसने पर मजबूर कर दिया। हालांकि गांव में गैस सिलेंडर के दो-दो कनेक्शन हैं, लेकिन लकड़ी के ईंधन की उपलब्धता के कारण वह अभी भी सस्ता पड़ रहा है। गैस का इस्तेमाल अति आवश्यक होने पर ही किया जाता है। 

पर भाजपा नेता संबित पात्रा के वीडियो के कारण चूल्हे पर बनी रोटी को लेकर सोशल मीडिया पर जो हल्ला मच रहा है, उसे देखकर मन दूर तक निकल गया। यह बात सही है कि चुनावी मौसम में संबित पात्रा द्वारा वह वीडियो प्रचार के लिए ही डाला गया है और हंगामा भी इसीलिए मच रहा है, क्योंकि वे राजनीति से जुड़े हैं। लेकिन चूल्हे की रोटी को बहुत गलत ढंग से प्रदर्शित किया जा रहा है। इसमें हेय दृष्टि नजर आती है। गैस पर रोटी पकाना जरूर आधुनिकता की निशानी है और इंडक्शन चूल्हे पर पकाना अति-आधुनिकता की बात है, पर चूल्हे की रोटी की बात और स्वाद कुछ अलग ही होता है। यह स्वाद उन लोगों के लिए समझना कठिन है, जिन्होंने कभी कच्चे चूल्हे की बनी रोटी खाई ही नहीं। सरकार द्वारा गांव-गांव गैस कनेक्शन पहुंचाने की बात सही है। शत-प्रतिशत लोगों के घर में गैस कनेक्शन है, ऐसा दावा तो अभी नहीं किया गया है। और फिर गांवों में जिन घरों में गैस कनेक्शन पहुंच गया है, उन लोगों ने चूल्हे का प्रयोग बिल्कुल बंद कर दिया है, ऐसा भी नहीं है। गैस कनेक्शन ने उनकी सहूलियत जरूर बढ़ाई है। लेकिन कच्चा चूल्हा आज भी ग्रामीण घरों के आंगन की पहचान है।

हालांकि, आर्थिक उन्नति के साथ परिवार सिकुड़ रहे हैं, धीरे-धीरे नई पीढ़ी चूल्हे से तौबा कर रही है, और हो सकता है कि अगले 20 से 30 वर्षों बाद मिट्टी के चूल्हे भारत के किसी मानव संग्राहलय में ही नजर आएं। ज्यों-ज्यों देश आर्थिक रूप से तरक्की करेगा, विकास की परिभाषा गांव देहात तक पहुंचेगी, हम अपनी पुरानी जीवन शैली को खोते चले जाएंगे। ऐसा होता ही है, कोई नई बात नहीं। पक्के घरों को आधुनिकता और संपन्नता की पहचान बनाया गया, और पंजाब, हरियाणा व पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांवों से कच्चे घर धीरे-धीरे गायब होने लगे। आज स्थिति ये है कि न केवल ठंडी छांव वाली झोंपड़ियां खत्म हुईं बल्कि छप्पर बनाने वाले लोग भी अब नहीं रहे। मटका, घड़ा, सुराही की जगह गांवों में भी फ्रिज, कूलर और एसी पहुंचने लगे हैं। यह जीवनशैली गांव और शहर का अंतर कम होने की पहचान है और देश की अर्थव्यवस्था के लिए लाभदायक भी। पर अजीब तब लगता है जब विकास के नाम पर गांवों का शहरीकरण किया जाए और शहरों में ‘ईको-विलेज’ और ‘नेचुरल लिविंग’ जैसे रिहायशी अपार्टमेंट तैयार किये जाएं। गांवों की झोंपड़ियां पिछड़ेपन की निशानी लगने लगें, लेकिन शहर में विशेष कारीगर बुलवाकर रिजाॅर्ट में ‘हट’ का निर्माण कराते फिरें। दिल्ली के आसपास कई ऐसे रिजाॅर्ट खुल गये हैं, जहां काफी खर्चा करके माॅडर्न लोग ग्रामीण परिवेश देखने के लिए जाते हैं और चूल्हे की रोटी खाते हैं।

देश बहुत तेज रफ्तार से विकासशील मार्ग पर दौड़ते हुए विकसित मार्ग तक पहुंचने जा रहा है। आज हम विश्व की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हैं और जल्द शीर्ष तीन की श्रेणी में भी होंगे। देश की राजधानी दिल्ली व इसके जैसे अन्य मेट्रोपोलिटन शहर इतने ज्यादा विकसित हो गए हैं कि यहां के तमाम निवासी हर वीकएंड पर अपनी विकसित जिंदगी से दूर किसी गैर-विकसित स्थान की तरफ निकल लेते हैं। वर्ष 2020 को लेकर पूर्ण विकसित देश का सपना देखा गया था। 2020 न सही पर 2025 तक यह लक्ष्य हम अवश्य प्राप्त कर लेंगे, ऐसा अनुमान है। लेकिन तब तक शहर के साथ-साथ हमारे गांवों की तस्वीर पूरी तरह बदल चुकी होगी। घर के आंगन से गायब हो जाएगा कच्चा चूल्हा, साथ ही गायब हो जाएगा उस पर पकाने का कौशल। इसलिए कच्चे चूल्हे की रोटी जहां मिले खा लो, क्योंकि यह कितने दिन और मिलेगी, पता नहीं।