बुधवार, 4 मार्च 2015

प्रधानमंत्री का यूं कैंटीन में जाकर खबर बन जाना

प्रधानमंत्री मोदी ने संसद की कैंटीन में खाना खाया और ये राष्ट्रीय खबर बन गई। इस खबर से दो बातें मुखर होकर सामने आईं, पहली ये कि सांसदों के लिए बनी इस कैंटीन में प्रधानमंत्री, जो खुद भी एक सांसद होते हैं, कभी भोजन नहीं करते थे। ये पहली बार था कि देश के प्रधानमंत्री ने कैंटीन में जाकर भोजन किया। ये अच्छी पहल है, स्वागतयोग्य है। दूसरी बात ये सामने आई कि संसद की कैंटीन कितनी सस्ती है कि यहां सिर्फ 29 रुपये में शाकाहारी थाली मिल जाती है। 

जनप्रतिनिधि खास क्यों?
जब ये खबर लोगों ने टीवी पर देखी तो एक तरफ उनको खुशी हुई कि प्रधानमंत्री ने एक सहज-सरल सा कदम उठाया, दूसरी तरफ ये कुंठा मन में आई कि आम लोगों को पूरी कोशिश करने के बावजूद अच्छा खाना 100 रुपये से कम में नसीब नहीं होता, वहीं उनके प्रतिनिधि सांसद आसानी से इतना सस्ता खाना खाते हैं। देश के वित्त मंत्री बार-बार सब्सिडी हटाकर आत्मनिर्भर बनने की सलाह देते आए हैं। पेट्रोल, डीजल, सिलेंडर, खाद, बीज, राशन तमाम चीजों पर सब्सिडी कम या खत्म करने की पैरोकारी हो रही है। इसमें कुछ गलत भी नहीं है। देश के जन अगर आत्मनिर्भर बनते हैं, तो ये एक सुखद सफलता होगी। पर आत्मनिर्भर बनने की अपेक्षा केवल जनता से ही क्यों की जाए। जनप्रतिनिधि इस दायरे में क्यों न आएं? क्या वे ताउम्र सब्सिडी का लाभ उठाकर सरकार पर बोझ बने रहेंगे?

शुरुआत अपने घर से
ये जगजाहिर है कि देश के बजट का बहुत बड़ा हिस्सा सरकारी खर्चों में चला जाता है। अगर सरकार अपनी नीतियों में सरकारी खर्च को कम करती नजर आए तो कहना ही क्या? हो सकता है कि कुछ कदम उठाए भी गए हों, पर वे न तो कहीं नजर आए न उनकी चर्चा हुई। सब्सिडी की बैसाखियों को हटाकर देश को आत्मनिर्भरता की ओर ले जाने का नारा बुलंद कर रही वर्तमान एनडीए सरकार अगर सब्सिडी हटाने की शुरुआत संसद से ही शुरू करती तो संदेश बहुत सकारात्मक जाता। अभी भी देर नहीं हुई, ये कदम उठाया जा सकता है। मीडिया के माध्यम से संसद के बारे में ये जानकारी तो आम लोगों तक पहुंच ही जाती है कि संसद की कार्यवाही का खर्च काफी ज्यादा होता है, जिसका भार आम जनता की जेब पर पड़ता है। और ये भी कि संसद का काफी वक्त हंगामे की भेंट चढ़ जाता है। ऐसे में आम लोगों के मन में ये प्रश्न उठना लाजमी है कि वे अपनी जेब से कुछ खास लोगों का खर्च क्यों उठाएं। क्या सांसद अपने भोजन का खर्च स्वयं नहीं उठा सकते। एक दौर था जब सांसद की पगार बहुत कम हुआ करती थी। लेकिन आज सांसद अपने अन्य भत्तों से अलग 50 हजार रुपये प्रति माह पगार के रूप में उठाते हैं। अगर भत्तों को मिला लिया जाए तो एक सांसद पर सरकार प्रति माह एक लाख 40 हजार रुपये खर्च उठाती है। ये रकम किसी भी दृष्टि से कम नहीं है। क्या इतनी रकम प्रति माह लेने वाले व्यक्ति को अपनी रोटी के लिए सरकार से सब्सिडी लेने की आवश्यकता है? फिर भी पता नहीं क्यों सरकार सांसदों के भोजन पर इतनी भारी सब्सिडी प्रदान करती है। इस अनावश्यक बोझ से सरकार को तुरंत फारिग होना चाहिए।

किसको दें सब्सिडी
सच्चे मायनों में संसद भवन के अंदर अगर सब्सिडी प्रदान करनी है तो उन स्टूडेंट्स को प्रदान की जाए जो यहां एजूकेशनल टूर पर आते हैं, संसद के फोर्थ ग्रेड कर्मचारियों को प्रदान की जाए। सांसद आर्थिक दृष्टि से पूरी तरह मजबूत हैं, उनको कम से कम रोटी पर सब्सिडी देने की कोई आवश्यकता नजर नहीं आती। उसी तरह देश में कदम-कदम पर ठोके गए टोल बूथों पर जहां आम आदमी जद्दोजहद में फंसा रहता है, ये गणमान्य लोग अपने पूरे काफिले के साथ सर्रर्र से सरक जाते हैं। आखिर सांसद, विधयक और ब्यूरोक्रेट टोल टैक्स की जद में क्यों न आएं? इनकी तनख्वाह भारत के किसी भी मिडिल क्लास परिवार से कहां कम है? इसी तरह का भेद जगह-जगह आम लोगों को असमानता का अहसास कराता है। इस बारे में अगर सरकार ध्यान दे तो सरकारी खर्च और असमानता दोनों घट सकते हैं।

कर्म फल

बहुत खुश हो रहा वो, यूरिया वाला दूध तैयार कर कम लागत से बना माल बेचेगा ऊंचे दाम में जेब भर बहुत संतुष्ट है वो, कि उसके बच्चों को यह नहीं पीन...