शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

हम से नंगा कौन....



ले, तू बेशर्म मैं महा बेशर्म। आजा मैदान में। सारी शर्म का ठेका हमने ही थोड़े ले रखा है। अधिकारी हैं तो क्या हुआ, झुंझलाहट तो हमको भाई होती है.... कुछ यही अंदाज था मेरठ के नगरायुक्त संजय कृष्ण का, जब उन्होंने सबके सामने अपने कपड़े उतर फेंके और भरपूर शारीरिक प्रदर्शन किया। हुआ ये की एक महिला पार्षद के पतिदेव अपना काम कराने नगरायुक्त के पास पहुच गए। ये वाही महोदय थे जिन्होंने अपनी पत्नी और अन्य कुछ महिलाओं को ढाल बनाकर नगरायुक्त को चूडियाँ पहनाने की कोशिश की थी। तो नगरायुक्त का झल्लाना ज़ाहिर सी बात है। दोबारा जब ये जनाब नगरायुक्त के पास पहुचे तो उन्होंने काम तो दूर बात करने से भी इंकार कर दिया। उन्होंने साफ़ कहा की पार्षद तुम्हारी पत्नी है तुम नही, कोई काम हो तो उसी के हाथ भेजो। इस पर पार्षद पति का जवाब था की वो आयेगी तो तुमको नंगा कर देगी।


उसका यही कहना नगरायुक्त को नागवार गुज़रा। नगरायुक्त संजय कृष्ण बोले वो क्या नंगा करेगी ले मैं ख़ुद ही नंगा हो जाता हूँ। और नगरायुक्त ने सर्वसमाज के सम्मुख अपने अंगों का प्रदर्शन कर डाला। वहां मौजूद सब लोग हक्के-बक्के रह गए। शुक्र तो यह रहा की वहां कोई मीडिया फोटोग्राफर नहीं था। बहरहाल ख़बर तो फ़ैल ही गई। और ऐसी फैली की अगले दिन पूरे मेरठ में चर्चा का विषय रही। अब लोग लगे हैं निंदा करने में। निंदा करने वालों में सबसे आगे सफेदपोश नेता जन हैं । पार्टी लाइन से ऊपर उठ नगरायुक्त की निंदा कर थक नहीं रहे हैं।


तो भाई लोग नंगे के इस दौर में किसी से शर्म की इच्छा न करें। पहले कहते थे की 'हमाम में सब नंगे हैं', अब बोलो भइया की 'समाज में सब नंगे हैं....'

बुधवार, 18 फ़रवरी 2009

एक और प्रेम कहानी का अंत


लो शहर की एक और प्रेम कहानी का अंत हो गया, वो भी वैलेंटाइन डे के दिन। किशन (२८) का ममता के साथ पिछले चार साल से "चक्कर" था और ये चक्कर काफी आगे निकल चुका था। दोनों संपन्न परिवारों से और सजातीय थे। लेकिन वैलेंटाइन डे के दिन किशन की लाश ममता के घर में मिली। चीज़ें साफ़ थीं लेकिन उस दिन कुछ खुलकर सामने नहीं आया। अगले दिन जब पुलिस ने केस खोला तो तस्वीर भयानक निकली।


दरअसल ममता ने ही किशन को ज़हर दिया था। उसका आरोप था की किशन बेवफाई कर रहा था। किशन के घर वालों ने उसकी शादी दूसरी जगह तय कर दी थी। किशन ने ममता की भावनाओं का ख्याल किए बिना शादी के लिए हाँ भी कर दी। लेकिन इसके बावजूद किशन ने ममता के साथ सम्बन्ध बरक़रार रखे। जो बातें अन्दर से छन कर आयीं उनके मुताबिक वैलेंटाइन डे के दिन किशन ने ममता के साथ यौन सम्बन्ध बनाये, जो वह पहले भी करता रहा था। और उसके बाद ममता को दूसरी जगह शादी तय होने की बात कही। ममता का आरोप है की किशन उसको लगातार ब्लैक मेल कर शारीरिक सम्बन्ध बना रहा था। सो उसने अपनी प्रेम भरी मुस्कान के साथ किशन को सल्फोस पाउडर खिला दिया।


इस तरह एक और प्रेम गाथा ख़त्म हो गई। सवाल फिर से वही है की क्या यही प्यार है। प्यार के नाम में पूरे देश में क्या हो रहा है ये सबके सामने है। बड़े शहरों का हल किसी से नही छिपा है। असल में जिस तरह का प्यार आज नज़र आ रहा है वह बाज़ार की देन है। जिसमें ग्लेमर है, उत्तेजना है, आकर्षण है, मस्ती है, झूठ है नहीं है तो बस वफादारी और सच्चाई। लेकिन भाई चुप रहो , इस तरह की बातें करने वालों को तो दकियानूसी और रुढिवादी कहा जाता है। सो जैसा चल रहा है चलने दो, जब सब बाज़ार की गिरफ्त में हैं तो तुमको ही क्या पड़ी है।

रविवार, 1 फ़रवरी 2009

आलोचकों को आलोचना का बहाना चाहिए


टीवी पर एक विज्ञापन आता था, जिसकी पञ्च लाइन थी "खाने वालों को खाने का बहाना चाहिए...", यह लाइन आज के आलोचकों पर फिट बैठती है क्योंकि "आलोचकों को भी आलोचना का बहाना चाहिए.... "। अच्छे से अच्छे काम की आलोचना करना उनके बाएं हाथ का खेल है। अब अपने ऐआर रहमान को ही लो, भाई ने गोल्डन ग्लोब जीता। संसार के पटल पर भारत के संगीत को पहचान मिली। लेकिन आलोचकों को इसमें भी बुरे नज़र आ रही है। लगे हैं कागज़ काले करने में, की रहमान का सिंथेसाईंज़र करोड़ों का है, पहले संगीतकार रहमान से ज्यादा बढ़िया थे। अब अगर पहले संगीतकारों को सम्मान नहीं मिला तो इसमे रहमान की तो कोई गलती नहीं है न। सजनते हैं की पश्चिमी चस्मा हमें किस तरह से देखता है। हमारी फिल्में बढ़िया हैं, संगीतकार बढ़िया हैं, कलाकार भी बढ़िया हैं, पर उनकी नज़रों में नहीं चढ़ते , क्या कर सकते हैं। अब भइया लोग लगे हैं रहमान से हिसाब बराबर करने में। "स्लम डॉग..." ने नाम क्या कमाया की उसकी तो शामत आ गई। बुराई ही बुराई झेलनी पड़ रही है... कहीं बच्चन, कहीं बच्चे, कहीं पत्रकार तो कहीं तथाकथित सामाजिक संगठन, सब कूद पड़े हैं मैदान में। फ़िल्म की स्टोरी में भारत की तस्वीर लोगों को पसंद नहीं आ रही। सही भी है, भारत अब पुराना देश नहीं रहा। लेकिन क्या सारी गलती उस विदेशी निर्देशक की है, उस लेखक का क्या करें कहानी पर फ़िल्म आधारित है। बात लेखक "विकास स्वरुप" की हो रही है। वह तो भारतीय हैं, अपनी किताब "क्यू एंड ऐ" में यह भारत की ऐसी तस्वीर उन्होंने ही पेश की है, जिसे निर्देशक ने परदे पर उतारा है। अब भाई निंदा तो उनकी ही होनी चाहिए। यानी आलोचना में भी बेइमानी चल रही है। इत्ती मिलावट ठीक नहीं।

कर्म फल

बहुत खुश हो रहा वो, यूरिया वाला दूध तैयार कर कम लागत से बना माल बेचेगा ऊंचे दाम में जेब भर बहुत संतुष्ट है वो, कि उसके बच्चों को यह नहीं पीन...