महाभारत के यक्ष प्रश्नों से हम सभी परिचित हैं। वही प्रश्न जिनके उत्तर युधिष्ठिर ने अपने भाइयों की जान बचाने के लिए यक्ष को दिए थे। उनमें से एक प्रश्न और उसका उत्तर बड़ा कमाल का था।
यक्ष ने पूछा :
वह कौन है जो सच में सुखी है?
युधिष्ठिर ने इसका जवाब कुछ इस प्रकार दिया:
सच्चा सुखी वही है जो अपना खाना स्वयं पकाता है (यानि किसी दुसरे पर आश्रित नहीं है)। जो कर्जदार नहीं है (यानि जिसके खर्च उसकी कमाई से अधिक नहीं हैं )। और जिसे अपनी जीविका के लिए घर छोड़कर बहुत दूर जाने की जरुरत नहीं है (यानि भौतिक सुखों के लिए जो जरुरत से ज्यादा श्रम नहीं करता)।
अब मज़ेदार बात ये है कि इस आधार पर देखा जाए तो आज संसार का कोई भी प्राणी सुखी नहीं है। क्योंकि महानगरीय जीवन शैली में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जो अपना खाना स्वयं पकाता हो (होटल, रेस्तरां, टिफिन सिस्टम, पैकेट फ़ूड जिंदाबाद ), जिसके ऊपर कर्जा न हो (क्रेडिट कार्ड, ईजी लोन जिंदाबाद ) और जो धनवान बन ने के लिए अपना घर छोड़ने कि ख्वाइश न रखता हो। यानी न्यूनतम लोग अपना खाना खुद पकाते हैं, हर व्यक्ति कर्जदार है और अधिकांश लोगों की संतानें धन कमाने के लिए घर से बहार पड़ी हैं। चाहे अपने देश में हों या फिर विदेश में।
युधिष्ठिर की बात मानें तो फिर संसार में अधिकांश लोग दुखी हैं। जो सुख उनके चेहरे और रहन-सहन से झलकता है वह वास्तविक सुख न होकर एक छद्म सुख है, जो अंततः उनको दुःख की ओर ले जा रहा है। शास्त्रों में कई बातें सहज ढंग से समझा दी गयी हैं। लेकिन विकास के अमरीकी मॉडल के सामने इन महत्वपूर्ण बातों को नज़रंदाज़ किया जा रहा है।
युधिष्ठिर के जवाब में खुशियों के तीन सूत्र छिपे हैं:-
१: इन्सान को आत्मनिर्भर होना चाहिए। पराधीनता में दुःख है।
२: आय से ज्यादा खर्च करने वाला जीवन में सुख का अनुभव नहीं कर सकता।
३: भौतिक सुखों के पीछे इतना मत दौड़ो कि अपने पीछे छूट जाएँ।
महात्मा गाँधी ने जब स्वतंत्र भारत की कल्पना की थी तो इन बातों का ख्याल किया था। उन्होंने ने ग्राम स्वराज का नारा दिया था। वो चाहते थे कि देश का विकास गाँव से शुरू हो। देश का हर गाँव अगर सशक्त होगा तो देश कि जडें मजबूत होंगी। उन्होंने सादा जीवन शैली अपना ने पर बल दिया था। लेकिन आज़ादी के बाद गाँधी के सिद्धांतों को सब भूल गए और उलटे विकास की गंगा बहाई गयी। पूरा ध्यान शहरों के विकास पर दे दिया गया। गाँव पिछड़ते चले गए। जिसका नतीजा पलायन के रूप में आज हमारे सामने है। गाँव खाली हो रहे हैं और शहर भरते चले जा रहे हैं। दिल्ली की मुख्यमंत्री को ये तक कहना पड़ा कि दिल्ली अब और लोगों का भार नहीं झेल सकती। ये बिना सोचे समझे शुरू किये गए विकास का नतीजा है। हमने पश्चिम का अन्धानुकरण किया। बिना अपने देश की परिस्थितियों पर विचार किये। अपने देश में भरे ज्ञान को हमने जान-बूझकर नज़रंदाज़ किया। इसके परिणाम स्वरुप आज पूरा देश बाज़ार बन गया है। पैसे की अंधी दौड़ में हम केवल जीने का अभिनय कर रहे हैं। हम कितने खुश हैं ये तो हमारा दिल जानता है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें