शुक्रवार, 7 मई 2010

ये कहाँ आ गए हम सरलता की तलाश में...

अभी कुछ दिन पहले रावण द्वारा लिखा गया "शिव तांडव स्त्रोत्र" सुनने और पढ़ने का अवसर मिला. सुनने में बेहद ही सुन्दर और कर्णप्रिय लगा.  रावण ने एक बार कैलाश पर्वत को उठा लिया था, तब शिव ने अपने पाँव से कैलाश का भार इतना बढा दिया कि रावण का हाथ उसके नीचे दब गया. तब रावण ने शिव को प्रसन्न करने के लिए तत्काल इस स्त्रोत्र की रचना की और शिव को सुनाकर मनाया.  अब बात ये उठती है कि मैं इस बारे में क्यूँ लिख रहा हूँ. दरअसल इस स्त्रोत्र की शब्दावली मुझे इतनी कठिन लगी इसको ठीक से पढ़ने में ही एक घंटा लग गया. ठीक से पढ़ने के लिए मुझे कई बार इसका ऑडियो सुनना पड़ा तब कहीं ठीक से उच्चारण कर पाया (याद अभी तक नहीं हुआ है). मेरा दावा है कि आधुनिक अंग्रेजी शिक्षा में पला बढा कोई भी व्यक्ति इस स्त्रोत्र का बिना एक बार सुने उचाचरण नहीं कर सकता. यहाँ तक कि लिखना भी मुश्किल है. स्त्रोत्र का पहला पैरा नीचे मैंने किसी जगह से कॉपी करके लिखा है. इसमें ऐसे ऐसे कुल १५ पैरे हैं.
.. शिवताण्डवस्तोत्रम्..
.. श्रीगणेशाय नमः ..
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम्
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं
चकार चण्ड्ताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम्.  

(एक बार अगर उच्चारण आ जाये तो ये गाने में बेहद सरल है. )

लेकिन मैं यहाँ जो असल बात कहना चाहता हूँ वो ये है कि भाषा को सरल बनाने के चक्कर में ये हम कहाँ आ गए हैं. हमने भाषा को क्या से क्या बना दिया है. भाषा की दृष्टि से हमारा भूत कितना उज्जवल था और वर्तमान कितना होंच-पॉच है. हम एक भाषा में लगातार ना तो बोल सकते हैं ना लिख सकते हैं. हमारे शब्दों का ज्ञान संकुचित होता जा रहा है लगता है. कुछ लोगों की भाषा पर पकड़ मैंने देखि है लेकिन उनके सर पर सफ़ेद बाल हैं. ये पकड़ इतनी देर से नहीं, बल्कि पढाई पूरी होते-होते ही हो जनि चाहिए थी. अंग्रेजी के पीछे ऐसे दौड़ रहे हैं कि ना तो हम हिंदी के रहे और ना अंग्रेजी के. और संस्कृत, उसका तो नाम भी मत लो साहब. हमारे देश का कितना ही बेशकीमती ज्ञान संस्कृत शास्त्रों में बिखरा पड़ा है. रावण का शिव तांडव स्त्रोत्र सुनने से पहले मैं तो ये कल्पना भी नहीं कर सकता था कि इतनी जटिल संस्कृत को भी इतनी सुन्दर तरीके से गया जा सकता है. आज के समय में शायद ही कोई इस तरह की रचना रचने की हिम्मत जुटा पाए. और अगर हिम्मत जुटा भी ली तो उसको उसका फल तो मिलने से रहा. क्योंकि समाज में समझने वाले ही नहीं हैं.

ये समाज की घटती समझ का ही नतीजा था कि तुलसी को आम लोगों की भाषा में रामचरितमानस की रचना करनी पड़ी. एक ऐसा ग्रन्थ जिसको आसानी से समझा और पढ़ा जा सके. हालाँकि तुलसी ने भी मानस में जहाँ जहाँ संस्कृत का प्रयोग किया है वो लाजवाब है और उच्च स्तर का है. लेकिन आज समाज में तुलसी के संस्कृत श्लोकों से ज्यादा तुलसी की चौपाइयां ज्यादा प्रचलित हैं. गूढ़ जीवन दर्शन देने वाली गीता को इसीलिए समझने वाले कम हैं, क्योंकि वो संस्कृत में हैं. जीवन क्या है, जीवन का उद्देश्य क्या है, जीवन को कैसे जिया जाये, ये वो सवाल हैं जो कभी ना कभी हर इन्सान के दिमाग में कौंधते हैं. लेकिन इन सवालों के जवाब आधुनिक शिक्षा व्यवस्था नहीं देती, आज कि पढाई तो कमाई के लिए है केवल. लेकिन जीवन से जुड़े इन सवालों के जवाब गीता में बड़ी सफाई से दिए गए हैं. लेकिन पढ़े कैसे, भाषा की लाचारी है. इसीलिए हम लोगों को जीवन संग्राम में जगह जगह हारते हुए देखते हैं.

तो इस भाषाई समझ को बढ़ने की जरुरत है. बाल पकने के बाद नहीं, कम उम्र से ही हमें बच्चों को ये संस्कार देने होंगे. स्कूल कॉलेज भले ही ये ज्ञान देने में विफल हों, लेकिन हमें घर पर ऐसा माहौल तैयार करना होगा जिससे बच्चों कि भाषा कि अच्छी पकड़ बने.  

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