मणिशंकर अय्यर ने कॉमनवेल्थ खेलों के पिट जाने की दुआ की है. मैं कहता हूँ आमीन... मणि इन खेलों के फ्लॉप होने की बात दिल से कह रहे हैं या इसके पीछे कोई राजनितिक स्टंट है, ये समझना तो मुश्किल है. क्योंकि वो खुद खेल मंत्री रह चुके हैं. हो सकता है उनको इस मौके पे खेल मंत्री की सीट पर न होने का मलाल सता रहा हो. लेकिन बात सोलह आने सच है. अगर ये खेल फ्लॉप नहीं हुए तो भारत ओलम्पिक खेलों के लिए भी दावा करेगा और उसमें भी पानी की तरह पैसा बहायेगा. आखिर ये हम कर क्या रहे हैं. ३५००० करोड़ रुपया सिर्फ विदेशियों के सामने अपनी अच्छी छवि पेश करने के चक्कर में फूंक दिया गया. ये शुद्ध तौर पर पैसे की बर्बादी का नमूना है. इससे भारत को, भारत के लोगों को या भारत के खिलाड़ियों को क्या फायदा होने वाला है?
भ्रष्टन की जय जयकिसी का भला हो या न हो. लेकिन ३५००० करोड़ के इस खेल में भ्रष्ट लोगों की मौजा है मौजा हो गयी. ९६० करोड़ का जो नया जवाहरलाल नेहरु स्टेडियम खड़ा किया गया है इसे बनाने में न जाने कितने ही इंजीनियरों की कोठियां खड़ी हो गयी होंगी कह नहीं सकते. अब कोई कम से कम ये कहने की कोशिश न करे की काम ईमानदारी से हुआ है, पुख्ता हुआ है और कोई गोलमाल नहीं हुआ है. भारत की रियाया अपने देश के सिस्टम को भली भांति जानती है. बिना खाए तो यहाँ मुर्दों के सर्टिफिकेट नहीं बनते तो स्टेडियम कैसे बन जायेगा भाई.
खिलाड़ियों को क्या मिला
मणि कह रहे हैं कि अगर ये पैसा शिक्षा पर खर्च किया जाता तो देश को बहुत फायदा होता. मैं कहता हूँ (लेकिन मैं होता कौन हूँ कहने वाला) अगर ये पैसा खेलों पर ही खर्च करना था तो खिलाड़ियों के वेलफेयर में क्यों नहीं खर्च किया गया. छोटे छोटे शहरों में सुदूर गाँव से आये खिलाड़ी कितनी दयनीय हालातों में खुद को तैयार करते हैं ये मुझे मेरठ में पत्रकारिता के दौरान पता चला. ये तो इन खिलाड़ियों का अपना दम-ख़म है कि ये फिर भी मेडल ले आते हैं. वर्ना सरकार ने इनका बैंड बजाने में कोई कसार नहीं छोड़ी है. मेरठ में अपने ही अखबार में छापी एक खबर में हमने ये पाया था कि जिस एथलीट को प्रैक्टिस के लिए अच्छी डाईट की जरुरत होती है उसके हिस्से में सरकार की तरफ से ३३.५ रूपए आते हैं. अब सोचो इतनी "भारी" रकम से खाना खाकर वो कैसे मेडल लेकर आये. खिलाड़ी और उनके कोच के मद में खर्च करने को कहो तो सरकार को दस्त छूट जाते हैं. लेकिन विदेशियों के सामने बनावटी चेहरा पेश करने में ३५००० करोड़ फूंक दिए. जय हो...
दिल्ली ही क्यों
दुनिया के सामने हम चिल्लाते-चिल्लाते नहीं थकते कि भारत एक कृषि प्रधान देश है. लेकिन किसानों के हित तो दूर रहे छोटे छोटे शहरों के बारे में भी नहीं सोचा जाता. भला ३५००० करोड़ रूपए दिल्ली में क्यों ठोके गए. दिल्ली पहले से क्या कम विकसित है. अगर इसकी जगह देश के किसी अन्य छोटे शहर को कॉमनवेल्थ खेलों के लिए चुना होता तो उस शहर का भी भला होता और खेल भी थोड़े ढंग से हो जाते. दिल्ली तो पहले से ही ओवर क्राऊडेड है. यहाँ तो खिलाड़ी बिना जाम में फंसे स्टेडियम तक पहुँच ही नहीं सकते. अब सरकार लगी बसों और ऑटो को बंद करने के जुगाड़ में. लोगों से अपील की जा रही है कि खेलों के दौरान सड़कों पर कम ही निकलें. अपने वहां की जगह मेट्रो का इस्तेमाल करें.
झूठा मुखौटा
इस पूरे आयोजन के दौरान भारत एक मुखौटा पहनने वाला है. झूठ का मुखोटा. जिसमें समृद्धता झलकेगी, जिसमें विकास झलकेगा, जिसमें आधुनिकता झलकेगी, जिसमें गरीबी नहीं होगी, जिसमें भुखमरी नहीं होगी. लेकिन झूठ के पांव लम्बे नहीं होते हैं. असलियत किसी न किसी रूप में सबके सामने जरूर आयेगी. वैसे भी दिल्ली में ये जो चमक-दमक दिख रही है केवल तीन महीने और दिखेगी. फिर हम अपने असली रूप में आ जायेंगे. दरअसल भारत कि स्थिति बिलकुल देश के मिडिल क्लास की तरह है. जैसे मिडिल क्लास हर समय हाई क्लास की होड़ में लगा रहता है वैसे ही भारत भी विकसित देशों की होड़ में लगा हुआ है. भारत के प्रधानमंत्री जब किसी गरीब देश की यात्रा पर जाते हैं तो वहां कर्ज देने की पेशकश करना नहीं भूलते. भला जब अपना देश खुद कर्ज में डूबा है तो दूसरों के सामने ये आडम्बर क्यों. इन सब चीज़ों का समय अभी नहीं आया है. अपनी चादर से ज्यादा लम्बे पांव फ़ैलाने के चक्कर में कहीं मुंह की न खानी पड़ जाए. अब चीन ने ओलम्पिक खेल क्या करा दिए भारत भी बार बार छाती ठोक रहा है कि हम भी जी हम भी. अरे कम से कम अपनी ज़मीनी हकीक़त तो देखो पहले.
मुनाफा भूल जाओ
जो लोग ये चकमा दे रहे हैं कि इन खेलों से कमाई होने वाली है तो वो भी लोगों को मुगालते में न रखें. जब सरकार के इतने बड़े बड़े और कमाऊ संसथान मुनाफा देने में विफल साबित हो रहे हैं तो ये खेल भला क्या मुनाफा देकर जायेंगे. हाँ, सुना है कि कंडोम की बिक्री बहुत बढ़ने वाली है. सरकार ने इसके लिए भी ख़ास इन्तेज़ामात किये हैं. सरकार के पास एक से बढ़कर एक कमाऊ संसथान हैं लेकिन मुनाफा देने वाले उँगलियों पर गिने जा सकते हैं. उदाहरण के तौर पर सरकारी भौंपू दूरदर्शन के पास जितना बड़ा सेट-अप है इतना देश के किसी भी चैनल के पास नहीं. फिर भी दूरदर्शन कमाऊ पूत बनकर नहीं दिखा पाया. देश के अन्य छोटे छोटे निजी न्यूज़ चैनल दूरदर्शन से कहीं आगे हैं. कमाने में भी और खबरों में भी.
तो भाई लोग आने वाले समय में ३५००० करोड़ की शुद्ध बर्बादी का खेल देखने के लिए तैयार हो जाओ.... जय हो भारत सरकार!