जैसे सावन के अंधे को हरा ही हरा दिखता है वैसे ही भारतीय नेताओं को केवल और केवल कुर्सी दिखती है. और इस कुर्सी के लिए देश, धर्म, जाति, परिवार, भाषा सबको दाव पर लगा देते हैं. ऐसा ही ममता दीदी के साथ भी है. उनको केवल बंगाल के मुख्यमंत्री की कुर्सी दिख रही है. इस कुर्सी की चाह उनके दिल में इतनी घर कर गयी है कि वो अपने सिद्धांतों से भी समझौता कर बैठी है. एक वो कर्मठ ममता थी जिसने कभी वामपंथियों से हार नहीं मानी और जिंदगी भर उनके खिलाफ लड़ती रही और एक ये ममता है जो कुर्सी की खातिर वामपंथियों के ही दूसरे रूप से हाथ मिलाने को तैयार है. ममता ने नक्सलियों के माथे पे लगे सब के सब खून माफ़ कर दिए हैं.
आखिर देश के लोग सही और गलत की पहचान कैसे करें. एक ओर ममता उस नक्सली नेता का समर्थन कर रही हैं जो छत्तीसगढ़ में ७० से ज्यादा सीआरपीऍफ़ जवानों की मौत का जिम्मेदार है. दूसरी ओर उसी सरकार के गृहमंत्री और प्रधानमंत्री नक्सलियों को देश के लिए बड़ा खतरा बता रहे हैं. देश की अवाम उलझन में है कि आखिर सही कौन है और गलत कौन. वैसे राजनीति तो यही चाहती है कि जनता उलझन में रहे, अँधेरे में रहे, गलत फहमी में रहे ताकि नेताओं की रोजी-रोटी चलती रहे.
अब तक इन नक्सलियों को बंगाल की वामपंथी सरकार दूध पिलाती रही. और जब इस नाग ने ज्यादा भयंकर रूप अख्तियार करके सरकार के लिए ही चुनौती खड़ी कर दी तो दूध की सप्लाई बंद कर दी गयी. सो अब नक्सलियों को ममता की छाँव मिल गयी है. वैसे ये सबकी समझ में अच्छी तरह से है कि ममता की ये दरियादिली केवल बंगाल में आने वाली चुनावों के चलते है. ममता जानती हैं कि केंद्र सरकार कितना भी प्रतिबन्ध क्यों न लगा ले लेकिन नक्सलियों को बंगाल के दबे, कुचले, पिछड़े वर्ग का भरपूर समर्थन है. शायद इसीलिए ममता की रैली में मेधा पाटकर, अरुंधती राय और आर्य समाज के भगवा चोले में खांटी वामपंथी स्वामी अग्निवेश भी नज़र आये.
एक बात का इतिहास गवाह है, जिसने भी हिंसक संगठनो को पाला-पोसा है अंत में वो खुद उस संगठन का शिकार बना है. चाहे वो अमेरिका हो, पाकिस्तान हो या फिर भारत के वामपंथी दल. जिन नक्सलियों का दीदी आज समर्थन कर रही है वही नक्सली एक दिन ममता के लिए खतरा बनेंगे. क्योंकि आसार ऐसे बन रहे हैं कि शायद ममता का सपना इस बार बंगाल में होने वाले चुनाव में पूरा हो जाये. मुख्यमंत्री बनने के बाद ममता से ये नक्सली संभाले नहीं संभलेंगे.
कुल मिलाकर जनता को गुमराह किया जा रहा है. कुछ वैसे ही जैसे कश्मीर में किया गया. वहां के लोगों को आज़ादी का सपना दिखाकर. कश्मीर में आज जो भी हालात हैं उनके लिए अब्दुल्लाह परिवार पूरी तरह दोषी है. जिसने वहां की सत्ता की खातिर कश्मीरियों को जमकर गुमराह किया, अलगावादियों का समर्थन किया और आज परिणाम सामने हैं. मजेदार बात ये है कि वही अब्दुल्लाह परिवार कश्मीर में कुछ और बात करता है और दिल्ली में कुछ और. यही राजनीति का असली चेहरा है. इन सब चालों का शिकार भोली जनता बनती है. क्योंकि हिंसा में मरने वाले या तो सरकारी जवान होते हैं या फिर भोली अवाम. शर्म है ऐसी राजनीति पे.
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