अयोध्या विवाद पर आने वाला फैसला एक बार फिर टाल दिया गया है. और ऐसा पहली बार नहीं हो रहा, पिछले ६० सालों से ऐसा ही होता आ रहा है. हमारा सिस्टम इस मुद्दे को च्युइंगगम की तरह चबा रहा है. इशारा साफ़ मिल रहा है कि इस बार कॉमनवेल्थ के मद्देनज़र फैसला टाला गया है. अब कम से कम कॉमनवेल्थ ख़त्म होने तक तो इस फैसले को भूल ही जाइए. जिस तरह सुप्रीम कोर्ट ने फैसले को टालने में तत्परता दिखाई उसको देख कर लगता है कि देश में बन रहे हालातों के मद्देनज़र कोर्ट से कहीं न कहीं भारत सरकार ने भी फैसला टालने की अलहदा से गुजारिश की है.
भारतीय सिस्टम की सबसे बड़ी विडम्बना यही है की वह चीज़ों को टालने में विश्वास रखता है. चाहे कश्मीर हो या नक्सलवाद, अयोध्या हो या पूर्वोत्तर राज्यों की समस्या. भारतीय सरकारें सदा से ही समस्याओं को टालने की प्रवृत्ति अपनाती आई हैं. नतीजा ये कि पीढ़ी दर पीढ़ी समस्याएं विकराल होती चली गयी. काश अगर हमने परेशानियों को टालने की जगह उनसे मुकाबला करने का जज्बा दिखाया होता तो न बाबरी मस्जिद गिराई जाती और न आज कश्मीर सुलगता. भारतीय लोकतंत्र में वोट खोने का इतना बड़ा खौफ है कि सत्ता-हित के सामने राष्ट्र-हित दरकिनार कर दिए जाते हैं. आज देश में तमाम सुलगती समस्याओं की जड़ में यही कारण है. हमारी हिम्मत को लकवा मार गया है, हम डरपोंक हो गए हैं, हमारी रीढ़ में पानी घुस गया है.
अयोध्या मसले पर ये मुकदमा पिछले ६० साल से चल रहा है. इतने लम्बे अन्तराल में न तो सरकार और न अदालत ये निर्णय देने की हिम्मत जुटा पा रही है कि ये ज़मीन किसकी है? हालाँकि पता दोनों को है कि ज़मीन पर असली हक किसका है. यही ढीला रवैया बाबरी गिराए जाने का सबसे बड़ा कारण बना. लेकिन ये २०१० है वो १९९२ था. तब से लेकर अब तक सरयू में बहुत पानी बह चुका है. आज लोगों को गुमराह करना मुश्किल है. लोग वोटों की माया को भी समझ गए हैं. दोनों धर्मों के संतों ने नेताओं से किनारा कर लिया है. दोनों पक्ष अब फैसला चाहते हैं. लेकिन नहीं! हमारा सिस्टम किसी मुद्दे को जड़ से ख़त्म करने की इज़ाज़त नहीं देता. हम उसको लटकाए रखना चाहते हैं. ताकि लोग इन सब चीज़ों से ऊपर उठ कर न सोच सकें. १९९२ वाला सीन भी भूल जाएँ क्योंकि तमाम धार्मिक संगठन तेजी से अपनी जमीन खो रहे हैं. नयी पीढ़ी नयी सोच के साथ आगे बढ़ रही है. कम से कम उसको तो कतई गुमराह नहीं किया जा सकता. गुमराह उन्हीं इलाकों को किया जा सकता है जहां शिक्षा का अभाव है, विकास का अभाव है और जहां बेकारी है.
खैर इसी बहाने मैं आपको अपने अयोध्या के संस्मरण भी सुना देता हूँ, जो मैंने अपनी पिछली यात्रा में अनुभव किये. बचपन में जब परिवार के साथ अयोध्या गया था उस वक़्त उम्र बहुत कम थी. बस कुछ भीनी भीनी यादें हैं. उम्र तीन साल से भी कम रही होगी. उस समय की सबसे स्पष्ट याद है भाई के साथ हनुमान गढ़ी की ऊंची सीढ़ियों पर एक एक पैड़ी को हाथ से छूकर माथे से लगाकर चढ़ना. तब के बाद फिर कई बार सोचा कि अयोध्या चला जाए, लेकिन कभी मौका नहीं लग पाया. दिल्ली आने के बाद आखिरकार मौका लग ही गया और लखनऊ में दिव्य जी से मुलाकात के बहाने अयोध्या जाना हो गया. बीती अप्रैल में मेरी ये यात्रा थोड़ी जल्दी-जल्दी में जरूर रही लेकिन मैंने उद्देश्य को पूरा कर लिया. सरयू स्नान के बाद जल्दी में ही सही मैंने सभी मुख्य मंदिरों के दर्शन कर लिए.
पूरे संसार में अयोध्या के नाम पर जितना बड़ा बवाल है मुझे अयोध्या उतनी ही छोटा और दीन लगी. ये तुलसी की अयोध्या सरीखी कतई नहीं थी. अयोध्या में जिस वैभव का वर्णन तुलसी ने अपनी मानस में किया है ये अयोध्या तो उसके पैरों की धूल भी नहीं. मेरी आँखें एक अदद वैभवशाली मंदिर देखने को तरसती रहीं. हर जगह मुझे केवल छोटे छोटे मंदिर और छोटी छोटी दुकानें ही नज़र आयीं. एक मात्र हनुमान गढ़ी का मंदिर ही थोड़ी विशालता का अहसास कराता दिखा. वर्तमान अयोध्या से कहीं ज्यादा बड़े और वैभवशाली राम मंदिर भारत के दूसरे छोटे शहरों में हैं. वर्तमान अयोध्या में गरीबी भी जमकर अपना प्रदर्शन कर रही थी. आखिर क्यों?
न तो भगवान राम की अयोध्या ऐसी थी और न राजा राम की. फिर आज की अयोध्या इतनी दीन क्यों है. कहने को पर्यटन स्थल और देखने में इतनी दयनीय. इसका जिम्मेदार कौन है? और फिर ऐसा क्या किया जाना चाहिए कि वर्तमान अयोध्या भी वैसी ही वैभवशाली बने जैसा तुलसी ने अपनी रामायण में वर्णन किया है.
अगर अयोध्या विवाद को इतना लम्बा न खींचा गया होता तो आज यहाँ भी आर्थिक विकास जोरों पर होता. अयोध्या में भी वही वैभव देखने को मिलता जो तिरुपति बालाजी, वैष्णो देवी और शिर्डी में देखने को मिलता है. लेकिन वर्तमान अयोध्या तो संगीनों के साए में जीती है. विश्व पटल पर नाम इतना बदनाम कर दिया गया है कि अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन यहाँ अपनी पैठ भी नहीं बना पाया है. अगर जल्द ही इस विवाद का फैसला कर दिया गया होता तो आज शायद ये दिन न देखना पड़ता.
अदालत में इस विवाद पर २८ बिन्दुओं को लेकर मुकदमा चल रहा है. इनमें से विवादित स्थल पर मस्जिद के पक्ष में बहुत कम साक्ष्य मिले हैं. कोर्ट ने फैसला लिख कर रख लिया है, बस सुनाना बाकी है. लेकिन अचानक ऊपर से लेकर नीचे तक सबकी रीढ़ की हड्डी दरकने लगी है. दर के मारे हवा ख़राब है. इसलिए कानूनी पेचों में मामले को फंसाने की कोशिश की जा रही है. किन्हीं राम भक्त त्रिपाठी जी को मोहरा बनाकर इस्तेमाल किया जा रहा है. उनका इस्तेमाल कौन कर रहा है. पता नहीं. हिन्दू कह रहे हैं कि वो कांग्रेस के आदमी हैं मुसलमान कह रहे हैं कि वो विहिप के आदमी हैं लेकिन वो कह रहे हैं कि मैं एक आम आदमी हूँ.
खैर, अगर हिन्दुओं की भावना का ख्याल रखते हुए वहां समय रहते मंदिर निर्माण का रास्ता साफ़ कर दिया जाता और मस्जिद के लिए दूसरा स्थान दे दिया जाता तो आज तस्वीर दूसरी होती. पूरे संसार में साम्प्रदायिकता के नाम पर न तो भारत की छवि धूमिल होती और न किसी को राजनीति का मौका मिलता.
इस्लाम के मुताबिक विवादित स्थान पर मस्जिद नहीं बन सकती. सो, होना ये चाहिए कि वहां मंदिर का रास्ता साफ़ कर दिया जाए और मस्जिद के लिए अन्यत्र जगह प्रदान की जाये. भारत सरकार और प्रदेश सरकार दोनों पक्षों को अपने अपने धार्मिक स्थल बनाने के लिए बराबर की रकम प्रदान करे और फिर दोनों की धार्मिक स्थल इतने भव्य और दिव्य बनाये जाएँ कि वो एक मिसाल बन जाएँ. पर्यटन का ऐसा केंद्र बन जाएँ कि दूर दूर से सैलानी इनको देखने आयें. वहां पर्यटन का विकास हो, वहां के लोगों का विकास हो और गरीबी का नाश हो.
agreed
जवाब देंहटाएंthank u little Madhav Ji... aap to itni chhoti si umr mein hi blogging karne lage... bade hokar avashya hi PATRAKAR banoge.... Vaise yaar tumhara Litti Chokha gajab ka dikh raha hai us article mein.... akele akele kha liya... hmmm
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