शनिवार, 2 अप्रैल 2011

खर्च करने का स्टाइल अपना-अपना !

भारतीय लोगों में आर्थिक व्यवहार दो दर्शन शास्त्रों पर आधारित है। पहला ये कि ‘‘जब तक जियो मौज से जियो, चाहे कर्जा लेकर घी पियो’’ और दूसरा ये कि ‘‘तेते पांव पसारिए जेती लंबी सैर’’

पहला दर्शन ईडीएम (ईट ड्रिंक एंड बी मेरी) सोसायटी पर फिट बैठता है। ईडीएम सोसायटी पांच दिन कमाती है और छठे-सातवें दिन पूरी कमाई को उड़ा देने में विश्वास रखती है। उनकी शान और रहन-सहन में कभी कोई बदलाव नहीं आता। वो कच्छा जाॅकी का ही पहनेंगे, चाहे लोन लेना पड़े। उनकी सलामी तोप से ही होनी चाहिए, छोटी-मोटी बंदूकें उनको रास नहीं आतीं। उनके मन में बड़ा बनने से ज्यादा बड़ा दिखने की चाह होती है। वे मानते हैं कि आप भले ही बड़े आदमी न हो, लेकिन हमेशा बड़े दिखो। वे मानते हैं कि ‘बंद मुट्ठी लाख की खुल गई तो खाक की’। और इस सबको मेनटेन करने के लिए उनके पास होता है केवल एक हथियार- ‘इसकी टोपी उसके सिर और उसकी टोपी इसके सिर’। आम आदमी भले ही इस हथियार का इस्तेमाल करना न जानता हो, लेकिन ईडीएम सोसायटी इस हथियार का सबसे खूबसूरती के साथ इस्तेमाल करती है। बड़े कर्ज के मामले में तो ये लोग तमाम बैंकों के कर्ज में डूबे ही होते हैं, लेकिन छोटे-मोटे कर्जे के लिए ये लोग अपने आसपास के लोगों पर निर्भर रहते हैं। अपने परिचितों से इस अंदाज में कर्जा मांगते हैं कि सामने वाले से न कहते बनता ही नहीं है। हाई प्रोफाइल लाइफ स्टाइल प्रदर्शित करने की इतनी मजबूरी होती है कि उसके लिए वे कर्ज की हर सीमा लांघ जाते हैं। आज के दौर में हाई प्रोफाइल दिखने के कुछ चिन्ह इस प्रकार हैं- एक गाड़ीः भले ही उसमें तेल डलवाने के पैसे जेब में न हों, एक महंगा मोबाइलः भले ही सेकेंड हैंड खरीदा हो, महंगी घड़ीः इम्पोर्टेड हो तो और बढि़या, एक लैपटाॅप (अब आईपैड)ः भले ही उसकी जरूरत न हो, बदन पर ब्रांडेड और डिजाइनर कपड़े, एक जोड़ी कपडे़ एक ही दिन पहने जाएं, सप्ताह के सात दिनों के लिए सात जोड़ी जूते आदि आदि हाई प्रोफाइल दिखने की बहुत ही बेसिक रिक्वायरमेंट हैं। कम से कम इतना तो होना जरूरी है। ईडीएम सोसायटी मानती है कि मौज-मस्ती में कोई कमी नहीं आनी चाहिए, चाहे कितना भी कर्ज क्यों न लेना पड़े। फिर जब आप के पास पैसा आ जाए तब भी सबसे पहले उसे मौज मस्ती पर खर्च करना है उसके बाद कर्जा उतारने की सोचनी है।

अर्थ व्यवहार का दूसरा दर्शन है ठेठ भारतीयों का, जो मौज-मस्ती के लिए कर्जा लेना बहुत बुरा समझते हैं। उनका मानना है कि उतने पांव फैलाए जाएं जितनी लंबी चादर है। जीवन का क्या है इसको कितना भी भोगों से भर लो, इसकी इच्छाएं पूरी नहीं हो सकतीं। फिर अगर कर्जा लेना भी हो तो बहुत ही आपातकाल में लिया जाए जैसे किसी हारी-बीमारी में, बेटी की शादी में या फिर मकान को पूरा करने में। फिर उस कर्जे को हल्के में न लिया जाए। जैसे ही पैसा आए तो सबसे पहले उससे कर्जा उतारा जाए, बाकी सब काम बाद में। घर की आवश्यक जरूरतों को भी रोककर पहले कर्जा उतारने पर ध्यान दिया। अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रखा जाए और बचत हर हाल में की जाए। कर्जा लेकर कोई शौक पूरा करने से बेहतर बचत करके पैसा इकट्ठा करके उस शौक को पूरा करें। ऐसी सोसायटी को ‘डाउन टू अर्थ सोसायटी’ (मिट्टी से जुड़े लोग) कहकर पुकारा जाता है। गांधी जी और डाॅ. कलाम को भी इसी श्रेणी में रखा जाता है। ये लोग वे होते हैं जो अपने बच्चों को भी कम खर्च करने की सलाह देते हैं। अपनी जरूरतें न्यूनतम रखते हैं। फिजूलखर्ची उनके पास से होकर नहीं फटकती। ये लोग मानते हैं कि रईस बनो तो ठोस रईस बनो, खोखले रईस बनने से कोई फायदा नहीं। ठोस रईसों को ही खानदानी रईस कहा जाता है। अधजल गगरी छलकत जाए वाला हिसाब नहीं होना चाहिए। ऐसे ही लोगों में एक सब कैटेगरी होती है दानियों, जो अपने बचे हुए धन को अपने ऊपर खर्च न करके दान करना बेहतर समझते हैं। अपनी इच्छाओं की पूर्ति के बाद वे अपने धन को परोपकार में लगाना बेहतर समझते हैं। इन्हीं लोगों में एक और सब कैटेगरी होती है कंजूसों की, जो पैसे को इस तरह जोड़ते हैं कि उनकी बीवी, बच्चे सभी दुःखी रहते हैं। बच्चे छोटी-छोटी जरूरतों के लिए भी तरसते रह जाते हैं। लेकिन इस कैटेगरी का जो मध्यम मार्ग है वह काफी हद तक श्रेष्ठ बताया जाता है यानि- ईमानदारी व मेहनत से कमाओ और उदारता के साथ खर्च करो।

मजेदार बात ये है कि दोनों ही कैटेगरी के लोग एक-दूसरे को गलत बताते हैं। मौज-मस्ती वाली सोसायटी मानती है कि वो भी कोई जिंदगी है जिसमें कोई रंग न हो, मस्ती न हो! हाऊ बोरिंग। दूसरी सोसायटी के लोग मानते हैं कि मौज-मस्ती के दिन ज्यादा दिन नहीं चलते, आखिरकार जिंदगी ऐसी जगह लाकर खड़ा कर देती है कि कोई पूछने वाला भी नहीं होता। इन दोनों ही क्लास के लोगों में इतना बैर है कि जब बेटे-बेटियों के रिश्ते की बात आती है तब भी अपने से मिलते हुए अर्थ व्यवहार वालों के यहां रिश्ता जोड़ते हैं। ईडीएम सोसायटी नहीं चाहती कि उसका दामाद या बहू बोरिंग और पुराने ख्यालों की हो। और दूसरे किस्म के लोग भी नहीं चाहते कि उनका दामाद या बहू को मौज-मस्ती पसंद हो।

भारत में पूरा का पूरा मिडिल और हायर क्लास इन्हीं दो खर्च व्यवहार के आधार पर बंटा हुआ है। वैसे तो भारतीय अर्थ व्यवहार में फिजूलखर्ची, बचत न करना और कर्जा लेना हमेशा ही गलत माना जाता रहा है। लेकिन नई अर्थव्यवस्था लोगों को अधिक से अधिक खर्च करने को प्रेरित करती है। लोगों की जेब में खर्च करने के दो हथियार ठूंस दिए गए हैं। पहला डेबिट कार्डः इससे अपना पैसा खर्च करो और दूसरा क्रेडिट कार्डः जब अपना खत्म हो जाए तो कर्ज लेकर खर्च करो। जैसे प्रभाष जोशी ने वनडे क्रिकेट को फआफट क्रिकेट कहा उसी तरह क्रेडिट कार्ड भी फटाफट लोन की व्यवस्था है। कुछ दिनों पहले एक कवि सम्मेलन में गया तो देश के वर्तमान महाकवि अशोक चक्रधर काव्यपाठ कर रहे थे। उन्होंने भी अपनी कविता में लोन का संधि विच्छेदन करके बताया कि लोन अपने आप में ही कह रहा है कि ‘लो-न’। 

1 टिप्पणी:

कर्म फल

बहुत खुश हो रहा वो, यूरिया वाला दूध तैयार कर कम लागत से बना माल बेचेगा ऊंचे दाम में जेब भर बहुत संतुष्ट है वो, कि उसके बच्चों को यह नहीं पीन...