भारतीय राजनीति पर हमेशा से परिवारवाद और भाई-भतीजावाद के आरोप लगते रहे हैं। तर्क ये कि लोकतंत्र में परिवारवाद के लिए जगह नहीं होनी चाहिए। मिसाल दी जाती है पश्चिमी देशों की। हालांकि इंग्लैंण्ड जैसा लोकतंत्र सदियों से एक शाही परिवार के अंगूठे के नीचे काम करता चला आ रहा है। अब इसे सही मानें या गलत, लेकिन भारतीय राजनीति में परिवारवाद कहीं न कहीं भारतीय समाज की मजबूत परिवार संस्था को ही दर्शाता है। जिन देशों में परिवार संस्थाएं बेहद कमजोर हैं वहां की राजनीति में भी परिवारवाद कम देखने को मिलता है। भारत समेत अधिकांश एशियाई देश भले ही लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत काम कर रहे हों, लेकिन वहां की राजनीति में परिवारों का खासा दखल है। इसका सबसे बड़ा कारण यही है कि इन देशों के समाज में परिवार आज भी एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। जबकि पश्चिमी देशों में परिवार संस्थाएं तेजी से भरभरा रही हैं।
देश के उत्तरी छोर से शुरू करते हुए अगर भारत पर नजर डालें तो- जम्मू कश्मीर की नेशनल काॅन्फ्रेंस में अब्दुल्ला परिवार और पीडीपी में मुफ्ती परिवार, उत्तर प्रदेश की सपा में मुलायम सिंह का परिवार और रालोद में चै. अजीत सिंह का परिवार, पंजाब के अकाली दल में बादल परिवार, हरियाणा के इनेलो में चैटाला परिवार, बिहार के राजद में लालू यादव परिवार, उड़ीसा के बीजद में पटनायक परिवार, महाराष्ट्र की शिव सेना में ठाकरे परिवार, तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार, ग्वालियर का सिंधिया परिवार और सबके ऊपर एक राष्ट्रीय परिवार- गांधी परिवार। भारत की राजनीति पूरी तरह परिवारों के गिरफ्त में है। भारतीय राजनीति में परिवार इतने महत्वपूर्ण हो चले हैं कि उनको राजनीति से अलग किया ही नहीं जा सकता। और जिस तरह जनता इन पारिवारिक पार्टियों के सिर पर जीत का सेहरा बांधती आ रही है, उसे देखकर तो यही लगता है कि आम जनमानस को परिवारवाद से कोई खास दिक्कत नहीं है।
वाम दल और भाजपा ऐसी पार्टियां हैं जहां पारिवारिक उत्तराधिकारी देखने को नहीं मिलते। भाजपा के वरिष्ठ नेता अपने बच्चों को सांसद और विधायक के पदों तक तो पहुंचाने में सफल रहे हैं, लेकिन किसी मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री के बेटे के सीएम-पीएम बनने के उदाहरण नहीं दिखते। भाजपा में संघ का दखल व अनुशासन और वाम दलों में पार्टी की सख्त कार्यप्रणाली व नीतियां इसके पीछे मुख्य कारण हो सकती है। लेकिन कांग्रेस समेत देश की बाकी पार्टियों में परिवारों का खासा बोलबाला है। वैसे भी ये तो इस देश की संस्कृति रही है कि पिता अपने पुत्र को और भाई अपने भाई को सदा से मजबूत बनाता चला आया है। तो अगर राजनीतिक दलों में ऐसा हो रहा है तो उसमें हैरान होने की कोई बात नहीं। भारत के जिन घरों में पिता-पुत्र और भाई-भाई के रिश्तों में दरारें हैं उन घरों को अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता। हमारे यहां खून के रिश्तों को इतना महत्व दिया जाता है कि सर्वोच्च पदों पर पहुंचने के बाद भी रिश्तों को दरकिनार नहीं कर सकते। जिस दिन भारतीय समाज में व्याप्त मजबूत परिवार संस्था कमजोर होगी उस दिन भारतीय राजनीति से भी परिवारवाद खत्म होना शुरू हो जाएगा।
इसमें कोई दो राय नहीं कि लोकतंत्र के लिए परिवारवाद अच्छा नहीं, लेकिन आजादी के 65वें साल में भी लाख हो-हल्ले के बावजूद देश की राजनीति से परिवारवाद नहीं मिट पा रहा है। अगर केंद्रीय सरकार की बात करें तो 65 में से तकरीबन 50 सालों तक एक मात्र नेहरू-गांधी परिवार की बादशाहत रही है। उसी तरह जम्मू-कश्मीर में अब्दुल्ला परिवार भी एकछत्र शासन करता चला आ रहा है। वैसे भारत में लोकतंत्र की स्थापना से पहले जो राजतांत्रिक व्यवस्था थी उसमें भी एक ही वंश लगातार शासन करता था। तो उस हिसाब से वर्तमान लोकतंत्र को उसी राजतांत्रिक व्यवस्था का सुधरा हुआ रूप भी कहा जा सकता है।
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