मंगलवार, 27 मार्च 2012

भारतीय गांव तो पान सिंह तोमर जैसे बागी पैदा करने की फैक्ट्री हैं

विकिपीडिया पर पान सिंह तोमर की तस्वीर
फिल्म पान सिंह तोमर भारतीय ग्रामीण परिवेश की सच्ची तस्वीर दिखाती है। उस तस्वीर से बिल्कुल अलग जो कवियों की कविताओं में होती है- संुदरता, प्यार और सौहार्द से भरे गांव! शायद पहले कभी ऐसे गांव रहे हों जो प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण हों, जहां के समाज में आपसी सौहार्द हो, आज हिंदी क्षेत्र के अधिकांश गांव पान सिंह तोमर के गांव से मेल खाते हैं, जहां की परिस्थितियों ने एक बेहतरीन प्रतिभा को बागी (डकैत नहीं; डकैत तो पान सिंह तोमर ने फिल्म में बता ही दिया था कि कहां मिलते हैं।) बनने पर मजबूर कर दिया। उत्तराखंड और हिमाचल में जरूर ऐसे गांव बचे हैं जहां प्राकृतिक सौंदर्य भी है और आपसी सौहार्द भी। लेकिन अब वहां भी धीरे-धीरे राजनीति और पैसे की होड़ पहुंचती जा रही है।

पढ़ाई के दौरान 2004 में काॅलेज टूर पर एक बार मनाली जाना हुआ। हिमाचल का खूबसूरत गांव जो अटल जी को खासा प्रिय है। वहां के लोकल टैक्सी ड्राइवर से हुई बातचीत मुझे आजतक याद है। पत्रकारिता के छात्र होने के नाते मैंने केलांग और सोलांग के रास्ते पर उससे कई सवाल किए थे। मनाली और हिमाचल के सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक पक्ष से जुड़े सवाल। बात मनाली के सेबों की और पहाड़ी आलुओं की हुई तो उसने बताया- ‘‘फसल को बेचने के लिए यहां के किसानों को दिल्ली और मुंबई के बाजारों में नहीं जाना पड़ता। हमारे गांव का ही एक एजेंट वहां होता है, जो सबकी फसल की चिंता करता है। हमारा आपसी विश्वास इतना गहरा है कि कोई भी उस एजेंट पर शक नहीं करता, वो जितनी रकम भेजता है वो हमें स्वीकार होती है। और हमें पता है कि वो हमारे साथ कुछ गलत कर ही नहीं सकता। वैसे भी गांव के लोग बेहद भोले हैं वे दिल्ली और मुंबई के बाजारों में फिट नहीं बैठते।’’ काॅलेज टूर पर एक और छोटी सी घटना घटी। हमारी गाड़ी के पीछे चल रही इन्नोवा में जो लड़के सवार थे, उनमें से किसी ने मनाली की एक लड़की को देखकर कोई फब्ती कसी, जिसे सुनकर गाड़ी के ड्राइवर ने गाड़ी को वहीं रोक लिया और गाड़ी चलाने से इंकार कर दिया। उसने लड़कों से कहा ‘‘मनाली की लड़कियां हमारी मां बहनें हैं। आप लोगों को ये सब करना है तो पैदल चले जाइए। यहां का कोई भी ड्राइवर ये सब बर्दाश्त नहीं करेगा।’’ काॅलेज स्टाफ के लड़कों को डांटने और ड्राइवर से माफी मांगने के बाद काॅनवाॅय आगे बढ़ा।

मनाली की ये तस्वीर मैदानी क्षेत्र के गांवों से कतई भिन्न है। मैदानी क्षेत्र के गांव आज ईष्र्या, द्वेष और डाह के शिकार बनकर रह गए हैं। गांवों में रंजिशें, जमीनों को लेकर हत्याएं, मुकदमेबाजी आम हो गई है। छोटी-छोटी बातों को लेकर एक-दूसरे की जान का दुशमन बन जाना, दूसरे की तरक्की देखकर जलना, ईष्र्या के कारण द्वेष रखना और फिर उस द्वेष का रंजिश में बदल जाना और फिर शहर की कचहरियों के चक्कर लगाना गांवों का शगल बनता जा रहा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांवों में ऐसी-ऐसी चीजों को लेकर मुकदमेबाजी के दिलचस्प केस मिल जाएंगे कि गधों को भी हंसी आ जाए। मसलन- खेत की मेंढ को लेकर, चैक के कुएं को लेकर, दल्लान में बैठने को लेकर, घर में गिर रहे पनारे या नालियों को लेकर, खेत में भैंस के घुस जाने पर और न जाने कैसी-कैसी हास्यासपद चीजों पर लोग आपस में भिड़ने को तैयार रहते हैं और उस भिडं़त को कोर्ट-कचहरी तक ले जाने में गुरेज नहीं करते। घर चाहे खाने के लाले पड़ रहे हों, लेकिन नाक की झूठी लड़ाई वो पेट पर पत्थर बांधकर लड़ने को भी तैयार हैं। लोगों की आपसी जलन और अहम की लड़ाई न तो उन्हें न तो खुद की तरक्की करने दे रही है और न ग्रामीण समाज की। इस तरह की ओछी लड़ाइयां ग्रामीण समाज को नई सोच देने में बड़ी बाधा बनी हुई है। अगर उस दौर में पान सिंह तोमर को एक श्रेष्ठ धावक से एक बागी बनकर बंदूक उठानी पड़ी तो आज का दौर भी कुछ भिन्न नहीं है। आज के गांवों में भी तमाम युवा ऐसे हैं जिनकी आंखों में आगे बढ़ने के सपने हैं, देश के प्रति सपने हैं, लेकिन गांव की आपसी रंजिशें और आए दिन की छोटी-छोटी परेशानियां उन्हें आगे नहीं बढ़ने देतीं।

राजनीति जब अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर हो तो ठीक लगती है लेकिन जब वो गिरते-गिरते ग्रामीण स्तर तक पहुंच जाए तो बेहद हानिकारक सिद्ध होती है और हो भी रही है। पंचायती राज व्यवस्था बनाई तो गई थी गांवों के विकास के लिए, लेकिन इस व्यवस्था ने ग्रामीण समाज का जितना नुकसान किया शायद उतना किसी चीज ने नहीं किया। ग्राम प्रधान या सरपंच पद को लेकर होने वाली ग्रामीण स्तर की राजनीति ने गांव के समाज को बुरी तरह बांटकर रख दिया। और इतना गहरा बांटा है कि खाइयों को पाटना नामुमकिन लगता है। पंचायती राज व्यवस्था के तहत होने वाले चुनावों से हो रहे नुकसान को शायद अन्ना हजारे को भी दिखा होगा, तभी तो रालेगणसिद्धि से जुड़े तमाम गांवों में ग्राम प्रधान के चुनाव नहीं होते, बल्कि सरपंच को सर्वसम्मति से चुना जाता है। गांवों के सामाजिक ताने-बाने को मजबूत रखने के लिए अन्ना द्वारा उठाया गया ये एक बेहद जरूरी कदम है। भारत के गांव अगर इसी तरह राजनीति के शिकार होते रहे तो फिर गांवों को बचाना मुश्किल होगा। सांप जब बाहर घूमता है टेढ़ा-मेढ़ा होकर चलता है, लेकिन जब भी अपने घर में घुसता है तो सीधा घुसता है। गांव भारत के सच्चे घर हैं, राष्ट्रीय स्तर पर भले ही राजनीति का टेढ़ापन झेला जा सकता है, लेकिन अगर राजनीति का ये टेढ़ापन गांवों में घुसता रहा तो नुकसान ही नुकसान है। गांवों को राजनीति से दूर सीधी-सादी जिंदगी से भरा ही रहने दिया जाए तो बेहतर होगा। खासतौर से हिंदी पट्टी के मैदानी क्षेत्र के गांवों को पहाड़ के ग्रामीण समाज से और अन्ना के रालेगणसिद्धि से काफी कुछ सीखने की जरूरत है।

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