रविवार, 8 दिसंबर 2013

आम आदमी की ताकत

चार राज्यों में झन्नाटेदार हार का सामना करने के बाद कांग्रेस के युवराज ने कहा- ’’शायद हम आम लोगों को अपने साथ नहीं जोड़ पाए। लेकिन अब हम कांग्रेस के साथ भी आम लोगों को जोड़ेंगे, और इस तरह जोड़ेंगे कि आपने सोचा भी नहीं होगा’’।

यहां सवाल यही उठता है कि इतनी करारी हार के बाद राहुल को आम आदमी की सुध क्यों आई। जब गली-गली, गांव-गांव घूमकर देश की नब्ज को समझ रहे थे, तब उनको समझ क्यों नहीं आया कि आम आदमी इस व्यवस्था से कितना आजिज आ चुका है। राहुल गरीब कलावती के घर पर रात बिताने के बाद भी उसके दर्द और जरूरतों को नहीं समझ पाए। कलावती के घर से लौटकर उन्होंने लंबा-चैड़ा भाषण तो दिया लेकिन सरकार में होते हुए भी कोई ऐसा ठोस कदम नहीं उठा पाए कि देश की सैकड़ों कलावतियों का भला हो। 

बस्तर की नक्सली हिंसा में तकरीबन 27 लोग मारे गए। कांग्रेस ने सहानुभूति भुनाने के लिए उस हमले में मारे गए नेताओं के परिजनों को तो चुनाव लड़ने के लिए टिकट दिए, लेकिन कांग्रेस को ये ख्याल नहीं आया कि उन शहीद जवानों के परिजनों को भी टिकट दिए जाने चाहिए, जिन्होंने उन नेताओं की सुरक्षा करते हुए जान गंवाई। बल्कि ये काम बीजेपी भी कर सकती थी। लेकिन दोनों में से किसी पार्टी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। यही अंतर है आम आदमी पार्टी और दूसरी पार्टियों की सोच में। आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में खालिस आम लोगों को टिकट दिए, उन युवाओं को मौका दिया जो अभी राजनीति का ककहरा भी नहीं जानते। आम आदमी पार्टी के नवनिर्वाचित विधायकों में से अधिकांश को भाषण देना भी नहीं आता। खुद केजरीवाल भी धाराप्रवाह नहीं बोल पाते। लेकिन फिर भी लोगों ने उन्हें जिताया। उसके पीछे बड़ा कारण यही है कि अब लोगों को भाषण देने वाला नहीं काम करने वाला नेता चाहिए। भाषण तो लोग पिछले 67 सालों से सुनते चले आ रहे हैं। उन भाषणों ने उनके जीवन को नहीं बदला। 

बस इतनी सी बात राहुल गांधी को समझनी होगी। अगर समझ गए तो आगे का रास्ता आसान हो जाएगा।

हार के बाद राहुल गांधी मीडिया के सामने दावा कर रहे थे कि वो किसी चमत्कारिक रूप से आम लोगों को कांग्रेस से जोड़कर दिखाने वाले हैं। उनका ये दावा बेहद संदेहास्पद है, क्योंकि ऐसा करने के लिए उन्हें कांग्रेस का पूरा कल्चर बदलना पड़ेगा। उन्हें उस बूढ़े फकीर के पास फिर से लौटना पड़ेगा जिसका ‘सरनेम’ वो आज तक इस्तेमाल कर रहे हैं। हो सकता है कि राहुल गांधी के मन की भावना अच्छी हो, लेकिन उस भावना को वो पिछले दस साल में कांग्रेस पर परिलक्षित नहीं कर पाए। दस साल की यूपीए सरकार ने देश को रिकाॅर्ड तोड़ भ्रष्टाचार, घोटाले और महंगाई की मार दी। खाद्य पदार्थों में जो महंगाई आई वो पूरी तरह आर्टिफिशियल थी और बाजारी ताकतों द्वारा पैदा की गई थी। उसका फायदा न तो किसान को मिल रहा था और न आम आदमी को। उसका लाभ केवल बिचैलिए और जमाखोर उठा रहे थे। कांग्रेस का नेतृत्व अपनी आंखों के सामने यह सब होता देखता रहा और देख रहा है। केवल मुफ्तखोरी की योजनाएं चलाने से देश और लोगों का भला कभी नहीं हो सकता। योजनाओं का असली लाभ तो किसी और की ही जेब में पहुंचता है। लोगों का भला तो उनको आत्मनिर्भर बनाने से ही होगा।

बहरहाल, इस कारारी हार के बाद राहुल गांधी को अगर आत्मविश्लेषण करना ही है तो एक महीने तक अपनी सलाहकार समिति से दूर रहकर केवल महात्मा गांधी का साहित्य पढ़ें। शायद उनको 2014 के लिए कोई दिशा मिले, अन्यथा लोगों ने अपने इरादे इन चुनावों में जता ही दिए हैं।

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