अंग्रेजी अखबारों में लिखा जा रहा है कि अरविंद केजरीवाल ‘‘श्रूड पाॅलिटिक्स’’ कर रहे हैं। शब्दकोष पर सर्च करें तो हिंदी में ‘श्रूड’ का अर्थ आता है-चतुर, चालाक, धूर्त या तीक्ष्ण। लेकिन अंग्रेजी के श्रूड शब्द के लिए हमारे इलाके में हिंदी का एक बेहद सटीक शब्द प्रचलित है और वो है- काइयां या काइयांपन। अरविंद केजरीवाल की राजनीति पर हिंदी में ‘काइयां राजनीति’ सबसे ज्यादा फिट बैठता है। अपने 49 दिनों के कार्यकाल में उन्होंने कुछ खास किया न धरा, पर सुर्खियां जमकर बटोरीं। लोगों को लगता था कि एक नए मिजाज का निजाम मिला है, कुछ बदलाव लाएगा। निजाम ने बदलाव की बातें तो खूब कीं, लेकिन बदलाव ला नहीं पाया। और ऐन मौके पर जनता को दुराहे पर छोड़कर मैदान छोड़ गया।
चलना मेरा काम नहीं अड़ना मेरी शान
यदि अरविंद केजरीवाल के हिसाब से चला जाता तो आज वह लोकपाल बिल भी नहीं पास हो पाता जो संसद में पास हुआ। अन्ना ने उस बिल पर खुशी जताई लेकिन केजरी को खुश करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन था। ये केजरीवाल का अडि़यल रुख ही था जिसकी वजह से बिल पास होने में देर लगी। कम से कम आज देश को लोकपाल मिलने का रास्ता तो साफ हुआ, उसमें परिवर्तन तो बाद में भी किए जा सकते हैं। केजरीवाल की बातों में केवल शिकायत ही शिकायत होती है, मानों उन्हें हर चीज से प्राॅब्लम है। गणतंत्र दिवस परेड से प्राॅब्लम, राष्ट्रपति से प्राॅब्लम, प्रधानमंत्री से प्राॅब्लम, अदालत से प्राॅब्लम, जज से प्राॅब्लम, पुलिस से प्राॅब्लम, मीडिया से प्राॅब्लम, बिजली से प्राॅब्लम, पानी से प्राॅब्लम, घर से प्राॅब्लम, लाल बत्ती से प्राॅब्लम। और जब इन समस्याओं को सुलझाने के लिए दिल्ली की जनता ने उन्हें सत्ता प्रदान की तो वो और ज्यादा प्राॅब्लम पैदा करने लगे।
कैमरे की भूख
49 दिनों तक उन्होंने हर रोज नई घोषणा की, लेकिन किसी भी एक घोषणा को अंजाम तक नहीं पहुंचा पाए। जितने भी दिन आपको काम करने के लिए मिले थे, उनमें भी आपने ज्यादातर समय धरना देने में गंवा दिया। ऐसा लगा मानो उनको हर वक्त मीडिया अटेंशन की जरूरत है और उन्होंने मीडिया का जमकर दोहन भी किया। उनके कंधों को हर वक्त मीडिया के सहारे की जरूरत दिखाई दी। इससे यही लगा कि वो काम करने के बजाय उसे दिखाना ज्यादा चाहते थे, यानि नापो ज्यादा फाड़ो कम। आप तो निकल लिए, पर अब उन लोगों का क्या होगा जिन्होंने आपके कहने पर बिजली के बिल जमा नहीं किए। आपने लोगों को ऐसे सब्जबाग आखिर क्यों दिखाए जो आप पूरे नहीं कर सकते थे?
आरोपों की राजनीति
पहले से खिंची किसी भी लकीर को छोटा करने के दो ही तरीके होते हैं। या तो उस लकीर को मिटाकर छोटा करो या फिर उसके बगल में एक बड़ी लकीर खींच दो। केजरीवाल ने एक बड़ी लकीर खींचने के बजाय पुरानी लकीर को मिटाकर छोटा करने के फाॅर्मूला अपनाया। जिस शक्ति से उन्हें दिल्ली की जनता के जीवन में परिवर्तन के लिए इस्तेमाल करना चाहिए था, उन्होंने वो सारी शक्ति दूसरों को फंसाने, उन पर आरोप लगाने और नए-नए खुलासे करने में झोंक दी। मोहल्ला सभा और जनलोकपाल दोनों का विचार बहुत अच्छा था, लेकिन केजरीवाल खुद को इतना बड़ा समझने लगे कि वो सारे नियमों को ताक पर रखकर इन दोनों विधेयकों को पास करने चल दिए। उनके हिसाब से पूरा विपक्ष भ्रष्ट और चोर है, लेकिन एक अल्पमत सरकार को विपक्ष की हर मोड़ पर जरूरत होती है। पर केजरीवाल को पूरा विपक्ष अपनी ईमानदारी के सामने सिर्फ एक कुकरमुत्ता नजर आया। और यही कुकरमुत्ते विधानसभा में उन पर भारी पड़े।
लोकसभा की तैयारी
इस्तीफे के कदम से यही बात साफ होता है कि केजरीवाल की पूरी नजर लोकसभा चुनाव पर है। वो दिल्ली में बिना कुछ किए सीधे संसद पहुंचना चाहते हैं। अगर वो इन स्वराज और जनलोकपाल बिलों के लिए गंभीर होते तो हर संभव प्रयास करके इन्हें पास करवाते। भले ही उन्हें विपक्ष के सामने झुकना पड़ता। पर उन्होंने तो राज्यपाल, संविधान, विपक्ष, सबको बौना जताकर अपनी अलग राह चुनी। बात-बात पर ईमानदारी की दुहाई देने वाले केजरीवाल की सच्ची ईमानदारी इसी में थी कि वो हर परिस्थिति में दिल्ली की जनता का साथ निभाते, बीच सफर में लोगों को यूं अकेला छोड़कर चले जाना बेइमानी ही है। संसद की चाह में उन्होंने जनता की सेवा करने का एक सशक्त माध्यम खो दिया। उनके 49 दिनों के कार्यकाल को देखकर ये अंदाजा लगाना मुश्किल था कि वो चाहते क्या हैं। पूरा कार्यकाल कंफ्यूजन से भरा दिखा। बहुत पहले मुंबइया फिल्मों में एक गाना आया था, उसको अगर केजरीवाल के लिए गाया जाए तो कुछ इस तरह गाना होगा-
तुम सा कोई सच्चा कोई मासूम नहीं है,
क्या चाहते हो तुम खुद तुम्हें मालूम नहीं है.…
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