नई सरकार ने संसद का मुख देखने से पहले ही अपने वरिष्ठ मंत्री गोपीनाथ मंुडे को सड़क हादसे में खो दिया। एक ऐसा नेता जो जमीन से उठकर राजनीति के शिखर तक पहुंचा, जो अपने पीछे कठोर संघर्ष का इतिहास और प्रेरणा छोड़ गया। इस दुर्घटना में यदि उनकी मृत्यु न होती तो वो अवश्य कल महाराष्ट्र की सबसे ताकतवर कुर्सी पर बैठते। व्यक्ति के चले जाने के बाद उसके पीछे रह गए लोग शोक और संवेदनाओं के अलावा कुछ विशेष नहीं कर पाते। अकाल मृत्यु को ईश्वर की इच्छा मानकर स्वीकार करने के अलावा कोई चारा उनके पास नहीं बचता। लेकिन सड़क दुर्घटनाएं भारत में इतना बड़ा अभिशाप बन गई हैं कि अगर इन पर गंभीरता से विचार करके ठोस कदम नहीं उठाए गए तो देश इसी तरह अपने नागरिकों से हाथ धोता रहेगा।
युद्ध से बड़ा खतरा
भारत में सड़क दुर्घटनाएं युद्ध से भी बड़ा खतरा हैं। भारत ने अब तक जितने युद्ध लड़े उनमें इतनी जानें नहीं गंवाईं जितनी हम हर साल सड़क दुर्घटनाओं में गंवा देते हैं। एनसीआरबी के आंकड़े इस बारे में भयावह आंकड़े पेश करते रहे हैं। इससे भी दुखद बात ये है कि इन सड़क हादसों में सबसे ज्यादा मौत युवाओं और बच्चों की दर्ज होती हैं। ये किसी भी देश के लिए सबसे शर्मसार करने वाला और चिंताजनक तथ्य है। भारत की सड़कों पर सुरक्षा मानकों के साथ किस हद तक लापरवाही बरती जाती है ये बताना तो बेमानी ही है। पर दुर्घटना में केवल एक व्यक्ति की मृत्यु नहीं होती, उसके साथ उसके परिवार, उसके सपनों और तमाम संभावनाओं की भी मौत हो जाती है।
एनसीआरबी के भयावह आंकड़े
वर्ष सड़क दुर्घटना में मौत
2008 118239
2009 126896
2010 133938
2011 136834
2012 139091
नई सरकार के लिए चुनौती
भाजपा सरकार को पहले ही दिन रेल हादसे से दो-चार होना पड़ा था। और अब अपने मंत्री की सड़क हादसे में मौत के बाद सरकार को दुर्घटनाओं पर नए सिरे से सोचने की जरूरत है। देश में नए-नए हाई स्पीड नेशनल हाईवे बनाए जा रहे हैं, एक्सप्रेस वे बनाए जा रहे हैं, विदेशों से हाईस्पीड गाडि़यां आयात करने का रास्ता आसान किया जा रहा है, मलाईदार सड़कों पर टोल-टैक्स लगाकर सरकार जमकर चांदी भी छाप रही है। वहीं जब आप सड़क दुर्घटनाओं पर नजर डालें तो ये सब मौत के सरकारी इंतजाम लगते हैं। इसका मतलब ये भी नहीं है कि देश को फिर से बैलगाड़ी युग में धकेल दिया जाए, लेकिन कम से कम इस दिशा में कुछ ऐसे ठोस कदम उठाए जाएं कि दुर्घटनाओं की संख्या घटे।
जनजागरण जरूरी
जिस देश के नागरिक हेलमेट पहनने में अपनी तौहीन समझते हों, बंद रेलवे फाटक पार करना वीरता समझा जाता हो, अत्यधिक तेज गति में गाड़ी चलाना फैशन हो, ट्रैफिक लाइट तोड़ना फख्र की बात हो और विदेशी गाडि़यों में बैठकर सड़कों पर रेस लगाना स्टेटस सिंबल समझा जाए, उस देश में एक्सीडेंट्स को रोक पाना नामुमकिन है। फिर भी यदि जनजागरण के साथ सड़कों पर सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए जाएं तो काफी जानें बच सकती हैं। हालांकि ये काम काफी मुश्किल है, पर अगर लगातार अभियान चलाने से देश का वोटिंग परसेंट बढ़ाया जा सकता है तो एक्सीडेंट परसेंट भी घटाया जा सकता है।
सरकार के स्तर पर जो पहल हो सकती है
- बच्चों को लाइसेंस देने में सख्ती
- मोटरसाइकिल निर्माता उनमें अधिकतम स्पीड 50 करें से ज्यादा न हो
- हाई स्पीड विदेशी गाड़ियों के आयात पर लगाम कसे
- हाईवे पेट्रोलिंग पुलिस का गठन किया जाए
- हाईवे पर ट्राॅमा सेंटरों की स्थापना
- हाईवे पर एयर एंबुलेंस से सर्विस सुविधा
- हाईवे पर सबको एक्सीडेंट बीमा
- मदद करने वालों को पुलिस प्रताड़ना से सुरक्षा
- प्राइवेट अस्पतलों को एक्सीडेंटल केस में बिना फीस जमा कराए तत्काल कदम उठाने के निर्देश
मेट्रो का विस्तार
यदि देश के पब्लिक ट्रांस्पोर्ट पर नजर डालें तो मेट्रो अब तक कि सबसे सुरक्षित यात्रा सेवा साबित हुई है। दिल्ली में मेट्रो चलते 10 साल से ज्यादा हो गए हैं, और कोलकाता मेट्रो उससे भी पुरानी है, लेकिन आज तक कोई बड़ा हादसा सामने नहीं आया है। दिल्ली मेट्रो में कुछ मामले आत्महत्या के जरूर हुए हैं, पर एक्सीडेंट मेट्रो के स्तर पर हुआ हो ऐसा सुनने को नहीं मिला। यदि देश में इस तरह का सुरक्षित पब्लिक ट्रांसपोर्ट को विस्तार दिया जाता है तो इन हादसों पर काफी हद तक लगाम कसी जा सकती है।
राम राज्य की बात
देश में समय-समय पर राम राज्य की बात अक्सर उठा करती है, तो राम राज्य के बारे में बता दें कि उस राज्य का एक पक्ष ये भी था कि उस समय अकाल मृत्यु नहीं हुआ करती थीं। 21वीं सदी में राम राज्य का ये पक्ष आधुनिक सरकारें कैसे दे पाएंगी ये उन्हीं को तय करना है। ये भी याद रहे कि दुर्घटनाएं बड़ा और छोटा नहीं देखतीं, ये किसी के भी साथ कहीं भी घट सकती हैं।
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