गुरुवार, 12 जून 2014

शांति से निबटा पहला सत्र पर हंगामा तो होकर रहेगा


संसद का पहला सत्र नई सरकार और नए प्रधानमंत्री के लिए काफी हद तक सफल रहा। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर लाए गए धन्यवाद प्रस्ताव पर दो दिन चली बहस में विपक्ष पूरी तरह बंटा हुआ दिखा। संसदीय परंपरा के मुताबिक राष्ट्रपति के प्रति आभार जताते वक्त प्रस्ताव का विरोध नहीं किया जाता और आम राय से इसे पारित कर दिया जाता है। लेकिन फिर भी विपक्ष सरकार द्वारा तैयार किए गए अभिभाषण में मीनमेख निकाल ही देता है। चर्चा के दौरान कांग्रेस ने अभिभाषण को भाजपा का मैनिफेस्टो और चुनावी नारे बताने की कोशिश की, और सरकार को ये भी बताया कि उसने कांग्रेस का माल उठाकर अपनी दुकान में रख लिया है। पर कांग्रेस के वक्ता ये समझाने में विफल रहे कि जब उनकी सोच देश के प्रति इतनी ही अच्छी थी तो उसका क्रियान्वयन क्यों नहीं किया? क्या केवल योजनाएं बना देने से ही देश का भला हो सकता है?

ममता और जयललिता के संसदीय सिपाहियों को सुनकर लगा कि वे संसद में नहीं बल्कि अपनी-अपनी विधानसभाओं में बोल रहे हों। दो दलों के नेता अपने भाषण में धन्यवाद प्रस्ताव पर बोलने से ज्यादा अपनी-अपनी नेताओं के गुणगान करने में ज्यादा व्यस्त दिखे। दोनों ही पार्टियों ने बातों-बातों में सरकार की तरफ दोस्ती के इशारे भी किये। चार सांसद लेकर संसद पहुंचे सपा के प्रमुख और एक मात्र वक्ता मुलायम सिंह यादव को जब कुछ नहीं सूझ तो उन्होंने बिना किसी ठोस सुबूत के 15 दिन पुरानी सरकार पर महंगाई बढाने का आरोप लगा दिया। आम आदमी पार्टी के वक्ता भी खास असर नहीं छोड़ पाए।

अमूमन बिना व्यवधान के चलने वाले धन्यवाद प्रस्ताव में भी बसपा राज्यसभा को दो बार दस-दस मिनट के लिए मुल्तवी करवाने में सफल रही। शुक्र है कि लोकसभा में हाथी के पास अंडा था इसलिए सदन निर्विघ्न चलता रहा। लोग इससे सीख ले सकते हैं कि संसद का पैसा और समय किस तरह बचाया जाए। वीके सिंह के ट्विीट पर सरकार की थोड़ी किरकिरी जरूर हुई पर अरुण जेटली ने मामले को संभाल लिया। लालकृष्ण अडवाणी और सोनिया गांधी ने चर्चा के दौरान चुप रहना ही बेहतर समझा।

विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने लोकसभा में और वित्तमंत्री अरुण जेटली ने अपनी कुशल वाक शैली का लोहा मनवाया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने पहले भाषण बेहद बड़प्पन दिखाते हुए सधी हुई भाषा में बड़े प्यार से पूरे विपक्ष को आइना दिखा दिया।

संसद में होने वाली बहस की सबसे खूबसूरत बात यही है कि हर कोई अपनी-अपनी सहूलियत के हिसाब से किसी भी मुद्दे पर पक्ष और विपक्ष में लामबंद हो जाते हैं। संसद की बहस से कम से कम ये तो सीखा जा सकता है कि कोई भी चीज पूरी तरह सही और गलत नहीं होती। कल तक धुर विरोधी रहे रामविलास पासवान पुरजोर तरीके से प्रधानमंत्री मोदी का पक्ष लेते नजर आए और राजग का अंग रहे जदयू के लिए आज मोदी से बड़ा गुनहगार कोई नहीं। राजनीति कुछ इसी तरह की चीज है कि राजनेता सबसे पहले अपना निजी हित साधते हैं, जब निजी हित सध जाए तो उसे राष्ट्रहित से जोड़ देते हैं। पल-पल अपना स्टैंड बदलने वाले क्षेत्रीय दलों पर ये बात खासतौर से लागू होती है।

हालांकि 2014 का जनादेश देखने के बाद तो लगता है कि लोग नेताओं के रंगों को समझने लगे हैं। कई दलों को शून्य पर लपेटकर जनता ने मौकापरस्ती और भ्रष्टाचार के खिलाफ जबरदस्त गुस्सा जाहिर किया है। लोग 1998 से 2014 तक वाजपेयी और मनमोहन सरकार में टिड्डी दलों की ब्लैकमेलिंग देखते आए थे। राष्ट्रहित के फैसले लेने में भी किस तरह केंद्र सरकार मजबूर दिखती थी, वो मजबूरी के पल अब नहीं दिखेंगे। उम्मीद है कि अच्छे दिन आएंगे!

हालांकि आगे के सत्रों में विपक्ष सरकार का इतना सहयोग नहीं करेगा और हंगामा करने का कोई न कोई रास्ता जरूरत निकालेगा। जब हर स्तर पर मोदी सरकार नए प्रयोग करने के लिए आतुर है तो फिर संसद में समय की बर्बादी रोकने के लिए भी कुछ करना चाहिए। कुछ सुझाव ये भी हो सकते हैं-
  • सरकार और स्पीकर को संसदीय हंगामे पर जीरो टाॅलरेंस की पाॅलिसी अपनाएं।
  • सरकार और विपक्ष के बीच बेहतर तालमेल के लिए किसी भी मुद्दे को सदन में लाने से पहले बाहर चर्चा की जाए।
  • कार्यवाही में व्यवधान पैदा करने वालों और वेल में आने वालों पर सख्त कार्रवाई की जाए।
  • एक दिन सदन स्थगित कराने पर सांसदों का चार दिन का वेतन काटा जाए, यात्रा भत्ता रद् किया जाए।
  • विवादास्पद मुद्दे सत्र के अंत में लाए जाएं।
  • सबसे ज्यादा हंगामा करने वाले सदस्यों को चिन्हित करके उनके चित्र संसद की वेबसाइट पर जारी किए जाएं।
  • सबसे अनुशासित सांसद के साथ-साथ सबसे गैर अनुशासित सांसद का खिताब दिया जाए।
पिछले दिनों अखबार में खबर पढ़ी कि संसद की कैंटीन में चाय के जबरदस्त सस्ते दाम देखकर नए - नए चुनकर आये एक सांसद ने चुटकी ली कि जब इतनी सस्ती चाय मिले तो सांसद बार-बार टी ब्रेक क्यों न लें। सांसद की इस बात में दम है। संसद की कैंटीन सबसे बेहतरीन भोजन तैयार करने वाली शायद भारत की सबसे सस्ती कैंटीन है। महंगाई को देखते हुए संसदीय कैंटीन की भोजन दरों में दस गुना इजाफा करने की आवश्यकता है। पहले सांसदों को मिलने वाला भत्ता और वेतन बहुत कम हुआ करते थे इसलिए ये सस्ती दरें रखी गई होंगी। लेकिन न तो अब सांसद गरीब हैं और न उनका वेतन कमजोर है। इसलिए संसद की कैंटीन को मुनाफे वाला आय का स्रोत बनाया जाए। सरकार चाहे तो संसद घूमने आने वाले स्टूडेंट्स के लिए सस्ता भोजन परोस सकती है।

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