शनिवार, 11 अक्टूबर 2014

कैसे बनेंगे आदर्श ग्राम!

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा आदर्श ग्राम योजना की शुरुआत एक सराहनीय कदम है। ये कदम बहुत लंबे समय से अपेक्षित था, लेकिन पहले अंग्रेजों ने और फिर आजाद भारत की सरकारों ने गांव को हमेशा उपेक्षित ही रखा। परिणाम ये निकला कि आज गांव खाली हो रहे हैं। एक ओर गांव जबरदस्त पलायन के शिकार है तो दूसरी ओर शहरीकरण की चपेट में आते जा रहे हैं। जिन सात लाख गांवों की बात गांधी जी किया करते थे आज की जनगणना के अनुसार उनकी संख्या घटकर 6,38,596 रह गई है। ऐसे में प्रधानमंत्री द्वारा सांसदों को गांव के काम पर लगाना कितने परिणाम ला पाएगा ये तो पता नहीं, पर कम से कम इस बहाने गांव एक बार चर्चा में जरूर आ जाएंगे। वोटों की संख्या कम होने के कारण गांव कभी नेताओं की प्राथमिकता पर तो नहीं रहे, पर प्रधानमंत्री ने अगर खुद सांसदों का फौलोअप रखा तो जरूर कुछ हो सकता है।

शहर में खो रहा गांव
शहर का रहन-सहन और वहां की चमक-दमक ने ग्रामीण भारत को भी अपनी तरफ खींच लिया है। गांव का खानपान, बोलचाल और पहनावे पर अब शहर का असर स्पष्ट दिखता है। ये अजीब सी विडंबना ही है कि जिसे देश में तकरीबन साढ़े छह लाख गांवों का शक्तिशाली बसेरा हो उसी देश में गांव का मतलब गंवार और पिछड़ेपन से समझा जाता है। गांवों की यही उपेक्षा वहां के निवासियों को या तो शहरों में खींच लाई है या फिर गांव में ही शहरी जीवनशैली अपनाई जा रही है। जैविकता और प्राकृतिक देन से भरपूर गांवों में अब प्लास्टिक, पक्के मकान, फास्टफूड और जीन्स का चलन आम हो गया है। शहरों को तवज्जो देने वाली हमारी व्यवस्था कुछ ऐसी है कि ग्रामीण भारत को कहीं न कहीं ये आभास कराया जाता है कि जहां वे रहते हैं, जो वे खाते हैं, जो वे बोलते हैं, जो वे पहनते हैं वो सब पिछड़ा हुआ है। कुछ-कुछ वैसा ही अहसास जैसा अंग्रेजों ने भारत को कराया था। जबकि मुझे ऐसा लगता है कि गांव का घर, कुएं, भोजन, भाषा और परिधान एक बहुमूल्य धरोहर हैं, अगर हमने इन पर ध्यान नहीं दिया तो आने वाली पीढ़ी के लिए ये रिसर्च का विषय बन जाएंगे।

गांव को खा गई प्रधानी और शराब
गांव के सामाजिक ताने-बाने को तोड़ने में प्रधानी के चुनाव बहुत बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। प्रधानी के चक्कर में आज गांव के अंदर ऐसी वीभत्स राजनीति हो रही है कि शहर में बैठकर उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस राजनीति ने गांवों को कई टुकड़ों में बांट दिया है। रंजिशें और कत्ल बहुत आम हो गए हैं। पिद्दी से इलेक्शन के लिए लाखों रुपया बहाया जा रहा है। गांव वालों को लुभाने के लिए उपहार से लेकर शराब तक हर हथकंडा अपनाया जाता है। प्रधानी जीतने के बाद गांव के विकास के लिए जो रुपया आता है उसका कोई पारदर्शी हिसाब-किताब रखने वाला नहीं। इस तरह भ्रष्टाचार की राष्ट्रीय समस्या व्यवस्था की सबसे निचली इकाई में जड़ें फैला रही है। जो गांव कभी प्यार, सहयोग और सरलता के लिए जाने जाते थे उनमें अब घृणा, वैमनस्य और भ्रष्ट आचरण फैल गया है। रही सही कसर गांव में कुकरमुत्तों की तरह खुल रहे शराब के ठेकों ने पूरी कर दी। शराब की इतनी आसान उपलब्धता गांव तक पहुंचाने से पहले राज्य सरकार के मन में क्या सोच रही होगी कहा नहीं जा सकता।

निर्विरोध कराए जाएं चुनाव
केंद्र और राज्य सरकारों को पंचायती चुनावों की विश्लेषण के लिए देश भर में सर्वे कराना चाहिए जो ये बताए कि पंचायती राज व्यवस्था से गांवों को कितना फायदा और उनका कितना विकास हुआ है? मुझे नहीं लगता कि इक्का-दुक्का राज्यों को छोड़कर कहीं से भी अच्छी तस्वीर सामने आएगी। और अगर ऐसा सामने आता है तो पंचायती चुनाव की इस फिजूलखर्ची पर प्रतिबंध लगाया जाए। जिस तरह कुछ राज्यों ने शिक्षा की गुणवत्ता में हो रहे नुकसान को देखते हुए यूनिवर्सिटी के छात्रसंघ चुनावों पर प्रतिबंध लगा रखा है उसी तरह पंचायती चुनावों पर भी पुनर्विचार किया जाए। यदि चुनाव बहुत ही जरूरी हों तो इसके लिए निर्विरोध वाली व्यवस्था बनाई जाए। अन्ना हजारे ने अपने गांव रालेगण सिद्धि में आदर्श ग्राम के लिए बेहद प्रेरणादायी प्रयोग किये हैं।

सबसे जरूरी मानसिकता का बदलाव
गांवों को आदर्श ग्राम बनाने के लिए सबसे जरूरी है मानसिकता में बदलाव। पंचायती चुनाव ने सकारात्मक बदलाव के स्थान पर गांव की मानसिकता में नकारात्मक बदलाव को बल दिया है। उत्तर प्रदेश के गांवों का तो ये हाल है कि अब आपसी सहयोग भी धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। केवल केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री की पहल से आदर्श ग्राम नहीं बन सकते। इसके लिए राज्य सरकारों, सांसदों, विधायकों और सबसे पहले खुद गांव वालों को पहल करनी होगी। गांधी जी ने जिस ग्राम स्वराज का सपना देखा था वो तो बहुत दूर की कौड़ी दिखता है। बहुत कुछ नहीं तो स्वच्छ, निर्मल व हरे-भरे गांव बनाने की दिशा में भी अगर सफलता मिल जाए तो ये बड़ी उपलब्धि होगी।

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