मंगलवार, 10 फ़रवरी 2015

जनता का संदेश - जमीनी बन जाओ सब!



कई महान संतों की भविष्यवाणी है कि 21वीं सदी भारत की होगी। जिस तरह के बदलाव देश में दिख रहे हैं उसको देखते हुए ये लगने भी लगा है। दिल्ली में भाजपा की कड़ी शिकस्त और आप की शानदार जीत उसी श्रृंखला की एक कड़ी है जो नए भारत को गढ़ने जा रही है। दिल्ली की हार में भाजपा के लिए सबक ही सबक छिपे हैं। अपने नौ महीने के कार्यकाल में पहली बार भाजपा ने हार का मजा चखा है। भले ही पार्टी इस बात को न माने लेकिन लगातार मिल रही सफलताओं से भाजपा के अंदर अहंकार बढ़ रहा था। पार्टी के आला नेताओं का आम आदमी से जुड़ाव घट रहा था। ये परिणाम भाजपा के लिए खतरे की घंटी है कि अभी भी वक्त है जमीन पर उतरें वरना कुछ भी संभव है। जनता की अपेक्षाएं लगातार बढ़ रही हैं, वो अब सरकार को नौ महीने भी नहीं देना चाहती है। इसलिए शासन को काम में स्पीड दिखानी ही होगी।

भितराघात
माने या न माने पर भाजपा इस बार सबसे बड़े भितराघात से जूझ रही है। किरण बेदी के आ जाने से दिल्ली भाजपा के नेताओं ने जमीन पर काम करने से तकरीबन इंकार कर दिया था। अपने ही नेताओं ने पार्टी के खिलाफ प्रदर्शन किया। ऐसा लग रहा था मानो इस बार पार्टी कार्यकर्ताओं ने अपनी नेशनल लीडरशिप को सबक सिखाने का मन बना लिया था। अपने पिछले ब्लाॅग में मैंने खुद किरण बेदी को मुख्यमंत्री के तौर पर उतारने की वकालत की थी। लेकिन किरण बेदी को सीएम उम्मीदवार बनाना दिल्ली भाजपा को इतना बुरा लगेगा ये कभी नहीं सोचा था। मुझको लगा था कि थोड़े विरोध के बाद प्रदेश कार्यकारिणी किरण को अपना लेगी, पर ऐसा नहीं हुआ। पार्टी में एक धड़ा ऐसा था जिसने हर्षवर्धन के उठने के डर से किरण को लाने का समर्थन कर दिया, तो दूसरा धड़ा किरण के विरोध में काहिली पर उतर आया। हारकर मोदी कैबिनेट के मंत्रियों को जिम्मेदारी बांटी गई, पर उसका कोई परिणाम नहीं मिला। एक राष्ट्रीय पार्टी ने अपना पूरा धनबल, जनबल और अनुभवबल झोंक दिया, पर परिणाम ढाक के तीन पात की तरह विधानसभा की तीन सीट में मिला।

किरण का स्टाइल
उधर किरण बेदी का स्टाइल भी कुछ ठीक नहीं रहा। वो पहले दिन से खुद को सीएम उम्मीदवार के बजाय दिल्ली की सीएम की तरह कार्यकर्ताओं और लोगों से बात करती रहीं। टीवी डिबेट में भी वो अपना पक्ष ठीक से नहीं रखती पाई गईं। उनके इंटरव्यू सोशल मीडिया पर मजाक का पात्र बन गए। उनकी तुलना राहुल गांधी से की जाने लगी। ये बात तो समझ आती है कि राजनीतिज्ञ न होने के कारण उनके पास भाषण शैली नहीं है, पर तर्कों के स्तर पर भी खालीपन दिखा। अंततः पार्टी तो हारी ही खुद बेदी भी सबसे सुरक्षित सीट से हार गईं।

कमजोर पड़ी साइबर सेना
दिल्ली चुनाव में भाजपा की साइबर सेना भी कमजोर नजर आई। लोकसभा चुनाव में सोशल मीडिया पर मोदी और भाजपा के पक्ष में जबरदस्त जंग लड़ी जा रही थी। इस बार साइबर वीरों ने आप के आरोपों पर माकूल जवाब नहीं दिया। इसका मुख्य कारण है कि लोकसभा की जीत और फिर उसके बाद कुछ राज्यों में लगातार मिली सफलता के बाद भाजपा समर्थक कंफर्ट जोन में चले गए थे। दूसरे उन पर सोशल मीडिया पर ‘मोदी के अंध भक्त’ होने का आरोप भी बेड़ी तेजी से लगाया गया। तीसरे केंद्र सरकार बनने के बाद अधिकांश कार्यकर्ता खुद को कटा सा महसूस कर रहे हैं। यहां मैं उन लोगों की भी बात कर रहा हूं जो सक्रिय रूप से पार्टी में काम नहीं करते हैं। बल्कि भाजपा के सिम्पैथाइजर होने के नाते सोशल मीडिया पर पार्टी का पक्ष मजबूती के साथ रखते हैं, बहस करते हैं, विरोधियों को माकूल जवाब देते हैं। इसके लिए इन लोगों को पार्टी से कुछ मान्यता तो नहीं मिलती पर भक्त होने का आरोप जरूर झेलना पड़ता है।

नौ लखा सूट
जब हार के कारणों की बात चल ही रही है तो प्रधानमंत्री द्वारा ओबामा से मुलाकात के दौरान पहना गया नामांकित सूट की चर्चा नहीं छूट सकती। मीडिया ने इस सूट की कीमत नौ लाख रुपये आंकी है, जबकि कुछ लोगों का मानना है कि सूट की कीमत तकरीबन तीन लाख होगी। भले ही यह तर्क दिया जा रहा हो कि वह सूट जेड ब्लू कंपनी ने उपहार में दिया था। लेकिन ये प्रश्न तो उठता है कि जिस देश में हजारों गरीब नागरिक हर साल ठंड से मर जाते हों, क्या उस देश के प्रधानमंत्री इतने महंगे वस्त्र पहने चाहिए? प्रधानमंत्री मोदी के बारे में ये मशहूर होता जा रहा है कि वह एक जोड़ी कपड़ा एक ही बार पहनते हैं। हालांकि जिस विचारधारा से मोदी आते हैं वहां सादगी पर सबसे ज्यादा बल दिया जाता है। वह उस आरएसएस से जुड़े रहे हैं जहां एक धोती को दो दिन पहनने की तरकीब सिखाई जाती है। लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने खुद को चाय वाले से जोड़कर जो आम लोगों के दिलों में जगह बनाई थी, नौ लाख का सूट पहनने के बाद वह जगह जाती रही। ये बात समझनी जरूरी है कि भारत का संपन्न वर्ग बहुत छोटा है। अधिकांश संख्या मध्यम वर्ग और गरीबों की है और वह सादगी को ही पसंद करते हैं। भले ही प्रधानमंत्री मोदी अपने बहुत से निजी उपहारों को हर साल नीलाम कर धन को सामाजिक कार्यों के लिए दान दे देते हैं, फिर भी लोग फाइव स्टार कल्चर को नापसंद करते हैं। गांधी जी ने तो ये बात बहुत पहले ही समझ ली थी, इसीलिए उन्होंने सूट उतारकर धोती बांध ली थी और जन-जन के नेता बन गए। वही काम आज केजरीवाल कर रहे हैं, छोटी पैंट, सैंडल पर मोजे, छेद वाली जर्सी और मफलर पहनकर वो सीधे आम आदमी से जुड़ गए।

कड़वे बोल
भाजपा के लिए कुछ अनुषांगिक संगठनों के कड़वे बोल भी भारी पड़े। घर वापसी, चार-पांच बच्चे, योगी, साध्वी सबने मिलकर बयानों की झड़ी लगा दी। खुद प्रधानमंत्री को भी माफी मांगनी पड़ी। उनके कड़वे बोलों से हिंदू वोट बैंक पर तो कोई असर नहीं पड़ा पर मुस्लिम वोट बैंक लामबंद हो गया। इस बार दिल्ली में आप के पक्ष में मुस्लिम, निम्न वर्ग, मध्यम वर्ग, दलित, सरकारी कर्मचारी सबने मिलकर भाजपा को हराने का काम किया।

गणित नहीं अब भावना चलेगी
इस परिणाम में एक बात गौर करने वाली है कि भाजपा को 2013 में 26 लाख से ज्यादा वोट मिले और 2015 में 28 लाख से ज्यादा वोट मिले हैं। वोट शेयर 2013 में 33 फीसदी था और 2015 में ये 32 फीसदी है। इसका अर्थ ये हुआ कि पार्टी का वोट बैंक अपनी जगह इंटैक्ट है। पर कांग्रेस और बसपा को पूरा वोट बैंक आम आदमी पार्टी की तरफ शिफ्ट हो जाने से उनका वोट शेयर बढ़कर 54 फीसदी तक पहुंच गया और इतनी भारी जीत मिली। इन परिणामों में एक सीख ये भी है कि गणित लगाकर चुनाव लड़ने का जमाना गया, अब भावना का महत्व है। पार्टियां किस भावना और नीयत से चुनाव लड़ रही हैं इसका महत्व आने वाले समय में बढ़ेगा। मंच पर खड़े होकर बनावटी बातों से काम नहीं चलने वाला अब लोगों को विश्वास में लेना जरूरी होगा।

तुलना हो सकेगी
दिल्ली चुनाव से केंद्र में बैठी मोदी सरकार के लिए सबसे बड़ा फायदा ये होगा कि अब उनकी किसी से तुलना हो सकेगी। अब तक तो मोदी की पाॅलिसियों और उनके स्टाइल की किसी से तुलना नहीं हो पा रही थी। प्रधानमंत्री मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद कई नए प्रयोग किए, कई तरह की नई पहल कीं, एक नए किस्म की व्यवस्था की शुरुआत की। इधर केजरीवाल भी नए-नए प्रयोग करने के लिए जाने जाते हैं। अब मीडिया और जनता दोनों नेताओं का तुलनात्मक अध्ययन कर सकेंगे और देश में आगे की राजनीति की दिशा तय होगी।

परिपक्व होता लोकतंत्र 
जनता द्वारा 2014 में सातों सांसद भाजपा की गोद में डालना और फिर नौ महीने बाद सारे विधायक आप की गोद में डालना भारत के परिपक्व होते लोकतंत्र की निशानी है। ऐसा उदाहरण कम ही देश में देखने को मिलेगा। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत की जनता कितनी जागरुक और परिपक्व है कि अपने लिए सही प्रधानमंत्री और सही मुख्यमंत्री के बीच चुनाव करना उसे अच्छी तरह आता है।

जमीनी बन जाओ
इस पूरे चुनावी प्रकरण में जनता ने अपने राजनेताओं को जो संदेश दिया है वो साफ है कि ‘हे भारत वर्ष के राजनीतिज्ञों जमीनी बन जाओ’।  जनता से कट कर अब राजनीति नहीं चलने वाली। जो लोग जनता के वोट से चुनाव जीतकर कैपिटलिस्ट और काॅरपोरेट हाउस की गोद में बैठ जाते हैं वे लोग अब आम लोगों की अवहेलना नहीं कर सकते। काॅरपोरेट भक्त नेताओं को भारतीय रेल से सबक लेना चाहिए। भारती की अधिकांश ट्रेनों में फस्र्ट एसी की बोगी एक ही होती है, ज्यादा डिब्बे स्लीपर और जनरल के ही होते हैं। रेलगाड़ी पूरे भारतीय समाज की तस्वीर है। नेताओं को स्लीपर और जनरल बोगी में सफर करने वाली जनता का ध्यान रखना होगा। फस्र्ट एसी में सफर करने वालों की संख्या उंगलियों पर गिनने लायक है, वो आपको धन तो मुहैया करा सकती है पर चुनाव नहीं जुटा सकती।

आप के लिए कठिन डगर
जितनी बड़ी जीत आप ने हासिल की है, उसको अब उतना ही डरना जरूरी है। आने वाला समय आप और केजरीवाल के लिए बहुत कठिन साबित होने वाला है। पार्टी ने जिस तरह के वादे अपने मैनिफेस्टो में किए हैं उनको पूरा करना बहुत बड़ी चुनौती है। वादों को पूरा करने में अगर-मगर किया या फिर नियम व शर्तें लगाईं तो जनता आप नेताओं की सड़क पर खबर लेगी। केजरीवाल ने पिछली बार बहुमत न होने की मजबूरी जताई थी, इस बार आप की आप है, इसलिए अब अगर कोई ड्रामेबाजी, धरनेबाजी या बहानेबाजी की गई तो मीडिया और जनता दोनों उनको नहीं छोड़ने वाली। और अगर केजरीवाल एक जनोन्मुख, विकासोन्मुख आदर्श शासन देने में सफल होते हैं तो समाज की इससे बड़ी भलाई नहीं हो सकती।

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