शनिवार, 27 दिसंबर 2014

चुनावों का देश बनता जा रहा भारत

लोकतंत्र और चुनाव एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं या कहें कि इनका चोली-दामन का साथ है। लेकिन देश में बार-बार चुनावी बुखार चढ़ना भी उचित नहीं हैं। भारत में किसी न किसी बहाने से चुनाव इतनी बार आते हैं कि इसे चुनावों का देश कहना गलत नहीं होगा। लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव एक साथ न होने की वजह से हर साल भारत में चुनावी मेला लगता है। बार-बार टीवी पर लोग भाषण, रैलियां, घोषणाएं, वादे, आरोप, प्रत्यारोप और राजनीतिक छीछालेदर देखते हैं। 

2014 को ही लें, मार्च, अप्रैल, मई में आम चुनाव हुए। इसके साथ में आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, उड़ीशा, अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम में भी चुनाव हुए। पूरा देश तकरीबन चार महीनों तक चुनावी बुखार की गिरफ्त मेें रहा। कुछ महीने भी नहीं बीते थे कि हरियाणा और महाराष्ट्र में चुनाव आ गए, फिर एक बार सियासी पारा चढ़ गया। अंत में साल जाते-जाते जम्मू-कश्मीर और झारखंड के विधानसभा चुनाव देश को राजनीतिक सरगर्मियों में ले गया।

अब आने वाले 2015 में अगर किसी राज्य में सरकार नहीं गिराई गई (या नहीं गिरी) तो दो बड़े चुनाव सूची में हैं- दिल्ली और बिहार। दिल्ली में चुनाव फरवरी और मार्च में होने की उम्मीद है, तो बिहार विधानसभा का कार्यकाल नवंबर में पूरा हो रहा है। इसके बाद फिर देश को 2016 में आसाम, केरल, पुद्दुचेरी, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव का सामना करना होगा। शायद ही कोई साल ऐसा हो जब देश में चुनाव मुंह बाय न खड़े हों।

अब लोकतांत्रिक देश है तो चुनाव तो होंगे ही। चुनाव से इंकार करने के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता है, पर प्रश्न ये है कि क्या बार-बार होने वाले चुनावी खर्च से बचने के लिए कोई रास्ता नहीं खोजा जा सकता। पाकिस्तान में पूरे देश के अंदर केंद्र और राज्य के चुनाव एक साथ होते हैं। पहले भारत में भी यही व्यवस्था थी, लेकिन राज्यों में राजनीतिक अस्थिरता के कारण समयावधि बदलती चली गई। और आज ये स्थिति है कि देश हर साल ही नहीं, साल में कई-कई बार चुनाव कराने के लिए मजबूर है।

बार-बार होने वाले चुनावों के कारण केंद्र में बैठी सरकार को ठोस निर्णय लेने में बाधा आती है। देश में चुनावों के दौरान लोकलुभावन नीति अपनाने की परंपरा है, जिसके कारण राष्ट्रहित में कड़े फैसले लेने से केंद्र सरकार को डर लगता है। भारत में आम जनता की सोच अभी इतनी परिपक्व नहीं हुई है। यहां तो प्याज के बढ़े हुए दामों की वजह से भी पार्टियों को चुनाव हारने पड़ जाते हैं। 

इसलिए व्यापक राष्ट्रहित में ये जरूरी है कि देश केंद्र और राज्यों में चुनाव एक साथ हों। भाजपा ने इस मुद्दे को अपने एजेंडे में भी जगह प्रदान की थी, लेकिन फिलहाल इस दिशा में कोई पहल नहीं होती दिख रही है। केंद्र और राज्य में चुनाव एक-साथ कराने के लिए भले ही सहमति न बने या इसमें वक्त लगे, लेकिन कम से कम इतना तो किया जा सकता है कि किसी साल के भीतर होने वाले सभी चुनावों को एक-साथ क्लब करके एक साथ कराए जाएं। जैसे 2015 में दिल्ली और बिहार के चुनाव अलग-अलग महीनों में होंगे। इन दोनों चुनावों को साल के मध्य में एक साथ कराया जाए, इससे समय और धन दोनों की बचत होगी। ये व्यवस्था देने में कोई बहुत बड़ा पेच नहीं है, केवल राजनीतिक दलों के बीच आपसी सहमति बनाने की जरूरत है।

बार-बार चुनाव होने के कुछ फायदे भी हैं, खबरिया चैनलों को 24 घंटे चैनल चलाने के लिए भरपूर मसाला मिल जाता है, ओपीनियन पोल और एग्जिट पोल करने वाली सर्वे कंपनियों को चांदी कूटने का मौका मिल जाता है और चुनाव से जुड़े एक बड़े बाजार को बिजनेस मिल जाता है। पर बार-बार मचने वाले चुनावी शोर के बीच आम आदमी की समस्याएं और उसके मुद्दे कहीं दबते चले जाते हैं।

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