2013 की विनाशकारी घटना के बाद से उत्तराखंड सरकार फिर से वहां पर्यटन बहाल करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रही है। केदार घाटी की घटना के बाद पर्यटकों में इतनी दहशत है कि बाकी के तीन धामों में भी पर्यटन को भारी धक्का लगा है। पर्यटकों का विश्वास जीतने के लिए सरकार बुजुर्गों को मुफ्त यात्रा कराने से लेकर सेलिब्रिटीज को बुलाने तक हर हथकंडा अपनाया जा रहा है। पर सवाल ये उठता है कि क्या ऐसे सेंसिटिव जोन में अत्यधिक पर्यटन को बढ़ावा देना उचित है।
केदार घाटी में बेतरतीब ढंग से धनोपार्जन की भावना से पर्यटन को बढ़ावा देने का बहुत बुरा खामियाजा हम 2013 में भुगत चुके हैं। उस दिल दहलाने वाले हादसे के बाद उत्तराखंड सरकार को यात्री खोजे नहीं मिल रहे हैं। 2014 में यात्रा शुरू तो कर दी गई लेकिन खराब मौसम ने फिर उसमें टांग अड़ाई। लेकिन इंसान प्रकृति से आखिरी दम तक लड़ने को आतुर है। हजारों की तादाद में जानें गंवाने के बावजूद हम फिर उसी राह पर चलने को आतुर हैं, जिस पर हमने अपनों को हमेशा के लिए खो दिया।
एक तरह तो हम तीर्थस्थलों का उनके आध्यात्मि महत्व के लिए महिमा मंडन करते हैं और दूसरी तरफ उन्हें पर्यटन की दृष्टि से दुकान में तब्दील करने की वकालत करते हैं। ये दोहरे मापदंड़ वाला दृष्टिकोण प्रकृति, पर्यावरण और पर्यटन के साथ-साथ तीर्थस्थल के लिए भी हानिकारक सिद्ध होगा। हिमालय के तीर्थस्थल श्रद्धालुओं और साधकों के लिए थे, हमने पर्यटन के नाम पर उन्हें अइयाशी के टूरिस्ट स्पाॅट में बदल दिया।
ये बात ठीक है कि तीर्थस्थलों पर जाने वाले श्रद्धालुओं के कारण स्थानीय लोगों को रोजगार मिलता है और राज्य की जीडीपी में बढ़त होती है। लेकिन अगर हमारी पूरी मानसिकता श्रद्धालुओं की जेबें झाड़ना ही बन जाए तो स्थिति वही होगी जो 2013 में बनी। नाजुक पहाड़ों पर अंधाधुंध डीजल गाडि़यों को प्रवेश, मानकों को ताक पर रखकर किया गया निर्माण कार्य आपको थोड़े समय के लिए धन जरूर दिला सकता है पर अंत में ये घातक ही सिद्ध होगा। इसलिए केदारनाथ धाम को साधकों हेतु एक साधनास्थली ही रहने दिया जाए। वहां जबरदस्ती कृत्रिम भीड़ खींचने का प्रयास न किया जाए।
क्योंकि अब केदार आराम चाहता है। कृपा करके उसे कुछ समय के लिए अकेला छोड़ दो।
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