शनिवार, 9 जनवरी 2010

आदमी मशीन बना धीरे-धीरे



आपने आजकल टीवी पर प्रसारित एक विज्ञापन तो जरूर देखा होगा, जिसमें आदमी को मशीन बनते दिखाया है। वैसे है तो ये एक बाम का विज्ञापन, लेकिन इसमें आज के दौर की सच्चाई पेश की गयी है। मल्टी नेशनल कंपनियों से लेकर नुक्कड़ पर परचून की दुकान तक एक ट्रेंड समान दिखाई देता है और वह है काम का। आर्थिक विकास और महंगाई के इस दौर में हर किसी के दिमाग में केवल मुनाफे की बात घूम रही है। और इस मुनाफे के लिए आदमी ने आज दिन और रात एक कर दी है। भारत के विकास के बड़े-बड़े आंकड़े यूं ही नहीं पेश किये जा रहे। इन आंकड़ों को प्राप्त करने के लिए पूरे देश के युवा वर्ग ने अपना खून-पसीना एक कर रखा है। ऑफिस चाहे कोई भी हो हर जगह टार्गेट पूरा करने का दबाव है। कम समय में ज्यादा से ज्यादा मुनाफा और सफलता का लक्ष्य। अभी पिछले दिनों अपने दोस्त से बात हुई। ऑफिस के व्यस्त शिड्यूल से थोड़ा वक्त निकाल कर उसने मुझे फोन किया। एमबीए करने के बाद आजकल गुड़गांव की एक कंपनी में कार्यरत हैं। बातों-बातों में बताया कि सुबह 10 बजे ऑफिस में घुसने के बाद शाम को 9-10 तो आराम से बज जाते हैं। कभी-कभी लगातार 36-36 घंटे भी काम करना पड़ जाता है। न किसी से मिल पाते हैं और न परिवार के लिए समय निकल पाता है। छुट्टी के नाम पर बॉस ऐसे देखता है जैसे उसकी लड़की का हाथ मांग लिया हो। ले-देकर बस वीकएंड ही बचता है। ये सब सुनकर मुझे यही लगा की हर जगह एक सा ही हाल है और ये ट्रेंड यूनिवर्सल है। इतने तनावपूर्ण माहौल में अगर देश का यूथ वीकएंड्स पर क्लबों में जाकर नशा आदि कर रहा है तो इसमें उनका ज्यादा दोष नहीं है।


'थ्री इडिएट्स' में आमिर का एक डायलोग है कि 'इंजीनियरों ने हर चीज को नापने की मशीन बनाई लेकिन स्ट्रेस को नापने के लिए कोई यंत्र इजाद नहीं किया'। काश ऐसा कोई यंत्र इजाद कर लिया गया होता तो पता चल जाता कि आज का समाज जितना तनाव में है शायद ही पहले कभी रहा हो। कॉलेज में पढ़ाई के दौरान शायद ही किसी स्टूडेंट को ये अंदाजा रहा हो कि आगे चलकर पढ़ाई ऐसे रंग दिखाएगी।


मुझे लगता है कि देश की आर्थिक उन्नति में पिछली पीढ़ी ने जितनी ढिलाई से हाथ बंटाया, वर्तमान पीढ़ी को उसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है और अगली पीढ़ी इसका लाभ उठाएगी। ये स्ट्रेस किसी भी एंगल से मुझे हाल-फिलहाल में कम होता नहीं दिख रहा है। निजी कंपनियों की बात करें तो तकरीबन हर कंपनी के कर्मचारी आपको तनावग्रस्त या फिर अवसादग्रस्त मिलेंगे। माना कि एक सीमा तक तनाव होना भी जरूरी है, लेकिन अब पानी सिर से चढ़ चुका है। सरकार के तमाम लेबर कानून धरे के धरे रह गए हैं। कंपनियां अपने मन-माफिक ढंग से कर्मचारियों को हांक रही हैं। पहले इनको यूनियनों का डर होता था, लेकिन वह डर भी धीरे धीरे जाता रहा। आप अपनी समस्या किसी मंच पर रख भी नहीं सकते। मैं यहाँ सबको एक चश्में से देखने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ, इसमें एक आध अपवाद हो सकते हैं। लेकिन मोटे तौर पर यही स्थिति है। शायद यही कारण है कि आज तमाम लोगों का महानगरीय जीवन शैली से मोह भंग हो रहा है। कोई अपने गांव वापस लौट रहा है तो कोई तीर्थ स्थानों में मकान खरीद रहा है। क्योंकि इंसान आखिर इंसान है, वह मशीनी जिंदगी ज्यादा दिनों तक नहीं जी सकता। खासतौर से भारतीय समाज में।

1 टिप्पणी:

  1. बहुत सही लिखा है आपने .. आज के समाज में लोगों पर बहुत दबाब बना हुआ है !!

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