शनिवार, 16 जनवरी 2010

सूर्य ग्रहण के बहाने

भारत जैसी विविधता वाला देश वास्तव में पूरे संसार में मिलना मुश्किल है। एक ओर घनघोर विकास है तो दूसरी ओर विकास का केवल सपना, एक ओर उल्लास है उम्मीदों से भरा तो दूसरी ओर नाउम्मीदियों की उदासी है, एक ओर चमचमाती रंगीन शामें हैं तो दूसरी ओर मायूसी भरी रातें हैं। विविधता के एक से बढ़कर एक नमूने यहां देखने को मिल जाएंगे।

15 जनवरी को सूर्य ग्रहण के मौके पर विविधता का एक और रंग देखने को मिला। एक ओर वह भारत था जो सूर्य ग्रहण को वैज्ञानिक आधार पर तोल रहा था और सूरज से आंखें चार कर रहा था, तो दूसरी ओर वह भारत था जो इसे दैवीय योग मानकर तमाम तरह के कर्मकांड में लिप्त था और इन दोनों के बीच एक और भारत था जो न इसे वैज्ञानिक आधार पर तोल रहा था और न दैवीय योग मान रहा था, उसके लिए ये रोजमर्रा की तरह आम दिन ही था। वह अपनी जिंदगी में व्यस्त सर्रर्र से दौड़ा चला जा रहा था, हर चीज से बेखबर।

खबरनवीसों के लिए ये एक और सुनहरा मौका था दिन भर चैनल पर बक-बक करने का। किसी ने एक ज्योतिषी बुलाया था तो किसी ने दस-दस। सब के सब तुले थे बड़ी-बड़ी भविष्यवाणियां करने में। जिस ने दस ज्योतिषी बुलाए उसके चांस ज्यादा अच्छे हैं क्योंकि दस में से एक का तुक्का तो ठीक बैठेगा ही। ऐसे में चैनल ये दावा कर सकता है कि हमने तो पहले ही बता दिया था कि क्या होने वाला है।

दूसरी ओर सूर्य ग्रहण को दैवीय योग मानने वालों ने भी इस अवसर को अपने ढंग से मनाया। भारी तादाद में श्रद्धलुओं ने कुरुक्षेत्र जाकर ब्रह्मा सरोवर में स्नान किया और जहां-जहां गंगा के तट हैं वहां गंगा में खड़े होकर अपने, अपने परिवार और देश के लिए मंगल कामना की। देश में सूर्य ग्रहण को लेकर तमाम तरह के मत हैं। उन्हीं मतों के मुताबिक लोगों ने इस मौके पर परंपराओं को निर्वहन किया। ग्रहण के दौरान व्रत रखा, दान दिया, भजन किया, सत्संग किया, भंडारा कराया।

तीसरे लोग वे थे जिनके लिए इस दिन का कोई खास मतलब नहीं। वे हर रोज की तरह व्यस्त थे। समय से उठे, ऑफिस गए, काम निपटाया और शाम को फिर घर आ गए। टीवी पर लोगों की भीड़ को गंगा में स्नान करते देखा तो बोले- ' ओ माई गौड! इस देश में लोगों के पास कितना फालतू टाइम है। लोगों के पास कोई काम नहीं है क्या। अरे हम से कुछ काम ले लें।' इनमें एक वर्ग वह भी था जो ये कहता था कि 'परंपराएं तो हम भी जानते हैं और निभाना भी चाहते हैं, लेकिन इस भागदौड़ में कहां टाइम मिलता है। बाॅस से छुट्टी मांगेंगे तो डांट ही मिलेगी।'

वैसे दिल्ली में जब मैंने अपने तमाम दोस्तों से ग्रहण के बाबत पूछा तो अधिकांश जगहों से मुझे ये पता चला कि लोग बेशक आॅफिस आए हैं, लेकिन ग्रहण के दौरान कोई भोजन नहीं कर रहा है। सबने सवा तीन बजे के बाद ही भोजन किया। लोगों की ये एप्रोच मुझे ठीक लगी। भाई जितना बन पड़ रहा है कर रहे हैं। कम से कम बिना करे दूसरों को बुरा-भला तो नहीं कह रहे।

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